अचानक कुत्ते का जिक्र आया। यों दिल्ली में रहते-रहते ‘कुत्ते’ हमारी ज़िंदगी में कम ही दखल देते हैं, सिवाय इसके की कटवारिया सराय की छतों से रात को कभी-2 नवजात कुत्तों के कोंकियाने की आवाज़ आती है (गौरतलब है कि जमीन पर उनके लिए न्यूनतम जगह है, बाईक और कारों ने उन्हे रिप्लेस कर दिया है)। राजीव ने कहा कि उसके पिताजी ने दो ब्रांडेड कुत्ते पाल लिए हैं, तो मंदी के इस मौसम में मेरा चौंकना लाजिमी था। राजीव के पापा ने जो कुत्ते पाले हैं वो खालिस कुलीन हैं - पिता की तरफ से सात पीढ़ी से जर्मन और मां की तऱफ से फ्रेंच। राजीव ने संक्षेप में कुत्ता महात्म्य समझाया और कहा कि कुत्तों से लगाव एक ख़तरनाक बीमारी है। कुत्तों के सानिध्य में रहने से आपकी क्रिएटिव क्षमता बढ़ जाती है, और आप ज्यादा कल्पनाशील हो जाते हैं वगैरह वगैरह।
मेरा मानना है कि अब राजीव की शादी में दहेज ज्यादा मिलेगा, वजह- लड़के के घर दो-दो खानदानी कुत्ते हैं। अब राजीव अपनी शादी के विज्ञापन में लिख सकता है कि Bridegroom working with India’s No. 1 news channel and having two Labradors, father working with a top University of India’s one of the eastern states. आजकल के हिसाब से जहां वर-वधू की मानसिकताओं में कम से कम दूरी को आदर्श माना जाता है ,वहीं ये भी खयाल रखा जाता है कि दोनों एक दूसरे की संवेदनाओं का खयाल रखें। ऐसे में राजीव की होनेवाली दुल्हन ऐसी होनी चाहिए जिसके घर में कम से दो खानदानी कुतिया जरुर हो।
इधर एक भाई ने दावा किया कि पटना में दिल्ली से ज्यादा कुत्ते हैं। मैंने पूछा कैसे तो उसका कहना था गंगा के तट पर रोज कम से कम दस हजार से कम कुत्ते क्या बैठते होंगे। मैंने विरोध किया कि नहीं, दिल्ली के वसंत विहार में ही उतने के करीब कुत्तें होंगे। लेकिन मित्र ने उन कुत्तों को ‘कुत्ते’ मानने से इनकार कर दिया। एक आइडिया ये भी था कि अगर कुत्ते, मनुष्य मात्र के सबसे प्राचीन और भरोसेमंद साथी हैं तो अलग-अलग इलाकों के कुत्ते अलग जुबान बोलते होंगे। मसलन पटना के कुत्तें मगही और झांसी के कुत्ते बुंदेलखंडी। राजीव के छोटे भाई संजीव का दावा है कि जेएनयू के कुत्तों को मार्क्स की थ्योरी पूरी रटी रटाई होगी और झंडेवालान के कुत्ते जुबान से क्या रंगरुप से भी भगवे होंगे। कोई ताज्जुब नहीं कि ऐसा किसी शोध में सामने आ ही जाए।
बहरहाल एक बात जो तय है कि बड़े शहर ‘कुत्तों’ के लिहाज से ज्यादा मुफीद नहीं हैं। यहां उनके लिए लोकतंत्र नहीं है। यहां ‘कुत्तें’ नहीं रह सकते, अलबत्ता ‘भेड़ियों’ के लिए ये जगह काफी सही है। ऐसे में जब कभी संजीव पिल्लों की आवाज की नकल करता है, तो मुझे वो वैसे ही बैचेन कर देता है, जैसे कभी-कभी दिल्ली में रहकर भी चिड़ियों की चहचहाहट का अरसे तक न सुन पाना।