Monday, February 23, 2009

कुत्ता, मंदी....एक्सेक्ट्रा...!

अचानक कुत्ते का जिक्र आया। यों दिल्ली में रहते-रहते ‘कुत्ते’ हमारी ज़िंदगी में कम ही दखल देते हैं, सिवाय इसके की कटवारिया सराय की छतों से रात को कभी-2 नवजात कुत्तों के कोंकियाने की आवाज़ आती है (गौरतलब है कि जमीन पर उनके लिए न्यूनतम जगह है, बाईक और कारों ने उन्हे रिप्लेस कर दिया है)। राजीव ने कहा कि उसके पिताजी ने दो ब्रांडेड कुत्ते पाल लिए हैं, तो मंदी के इस मौसम में मेरा चौंकना लाजिमी था। राजीव के पापा ने जो कुत्ते पाले हैं वो खालिस कुलीन हैं - पिता की तरफ से सात पीढ़ी से जर्मन और मां की तऱफ से फ्रेंच। राजीव ने संक्षेप में कुत्ता महात्म्य समझाया और कहा कि कुत्तों से लगाव एक ख़तरनाक बीमारी है। कुत्तों के सानिध्य में रहने से आपकी क्रिएटिव क्षमता बढ़ जाती है, और आप ज्यादा कल्पनाशील हो जाते हैं वगैरह वगैरह।

मेरा मानना है कि अब राजीव की शादी में दहेज ज्यादा मिलेगा, वजह- लड़के के घर दो-दो खानदानी कुत्ते हैं। अब राजीव अपनी शादी के विज्ञापन में लिख सकता है कि Bridegroom working with India’s No. 1 news channel and having two Labradors, father working with a top University of India’s one of the eastern states. आजकल के हिसाब से जहां वर-वधू की मानसिकताओं में कम से कम दूरी को आदर्श माना जाता है ,वहीं ये भी खयाल रखा जाता है कि दोनों एक दूसरे की संवेदनाओं का खयाल रखें। ऐसे में राजीव की होनेवाली दुल्हन ऐसी होनी चाहिए जिसके घर में कम से दो खानदानी कुतिया जरुर हो।

इधर एक भाई ने दावा किया कि पटना में दिल्ली से ज्यादा कुत्ते हैं। मैंने पूछा कैसे तो उसका कहना था गंगा के तट पर रोज कम से कम दस हजार से कम कुत्ते क्या बैठते होंगे। मैंने विरोध किया कि नहीं, दिल्ली के वसंत विहार में ही उतने के करीब कुत्तें होंगे। लेकिन मित्र ने उन कुत्तों को ‘कुत्ते’ मानने से इनकार कर दिया। एक आइडिया ये भी था कि अगर कुत्ते, मनुष्य मात्र के सबसे प्राचीन और भरोसेमंद साथी हैं तो अलग-अलग इलाकों के कुत्ते अलग जुबान बोलते होंगे। मसलन पटना के कुत्तें मगही और झांसी के कुत्ते बुंदेलखंडी। राजीव के छोटे भाई संजीव का दावा है कि जेएनयू के कुत्तों को मार्क्स की थ्योरी पूरी रटी रटाई होगी और झंडेवालान के कुत्ते जुबान से क्या रंगरुप से भी भगवे होंगे। कोई ताज्जुब नहीं कि ऐसा किसी शोध में सामने आ ही जाए।

बहरहाल एक बात जो तय है कि बड़े शहर ‘कुत्तों’ के लिहाज से ज्यादा मुफीद नहीं हैं। यहां उनके लिए लोकतंत्र नहीं है। यहां ‘कुत्तें’ नहीं रह सकते, अलबत्ता ‘भेड़ियों’ के लिए ये जगह काफी सही है। ऐसे में जब कभी संजीव पिल्लों की आवाज की नकल करता है, तो मुझे वो वैसे ही बैचेन कर देता है, जैसे कभी-कभी दिल्ली में रहकर भी चिड़ियों की चहचहाहट का अरसे तक न सुन पाना।

10 comments:

Rajiv K Mishra said...

सॉरी दादा....मेरा रूम, मेरा कंप्यूटर, कुर्सी भी मेरी, जिस निकर पहन कर इस ब्लॉग को आपने लिखा है..वो भी मेरी। और मेरी ही पैंट उतार रहे हैं। कहां की शादी और कैसा दहेज़....एक बात और अब आप के लिए जल्दी से नई नौकरी ख़ोजता हूं...।

Unknown said...

बड़े शहर ‘कुत्तों’ के लिहाज से ज्यादा मुफीद नहीं हैं। यहां उनके लिए लोकतंत्र नहीं है। यहां ‘कुत्तें’ नहीं रह सकते, अलबत्ता ‘भेड़ियों’ के लिए ये जगह काफी सही है।
भाई सुजीत जी आपने तो कुत्तो के बहाने एक विद्रूप सच को सामने ला दिया. वैसे कटवारिया में कुत्ते तो सीढियों पर भी दिख जाते है.

अनिल कान्त said...

वाह भाई वाह बहुत खूब लिखा यार ...मजा आ गया ...वैसे मैं भी कुछ समय पहले कटवारिया सराय में रह चुका हूँ ...

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

कुत्ता महामात्य पढ़कर आनंद की प्राप्ति हुई और गुरुदेव यह भी बताने का कष्ट करें कि कुत्तों की भोंकने की दशा और दिशा भी क्या ब्रांड से बदल जाती है...।

शुक्रिया।

Manjit Thakur said...

शानदार कुत्ता पुराण..। हे सू(शां)त जी. अब संभवतः आपने ये भी ध्यान दिया होगा कि कुलीन नस्लों की जितनी पहचान कुत्तों के मामले में रह गई है उतनी तुच्छ मानवों में रही नहीं। मानव अब संकर नस्लों को ज्यादा महत्वपूर्ण मानकर विजातीय विवाह को अच्छा मानने लगे है। वैसे भी अपने यहां पाश्चात्य परंपराओं, और किस्सों, और लोगों और साहित्य और फिल्मों और विचारधारा के साथ कुत्तों को ज्यादा अहमियत मिलती है। पता नहीं देसी कुत्तों को विदेशों में कितनी अहमियत मिलता है। इस पर भी कुछ उचारें.. वैसे कुछ मामलों में इंसान कुत्तों को फॉलो करने लगे हैं कुछ मामलों में कुत्तागीरी को खराब मानने लगे हैं। मसलन, वफा को खराब मानकर टांग उठा कर मूतना उत्तम माना जाने लगा है।

Unknown said...

bahoot badhiya

कडुवासच said...

bahut khoob!!!

KK Yadav said...

Kya khub likha hai..badhai !!
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गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ की पुण्य तिथि पर मेरा आलेख ''शब्द सृजन की ओर'' पर पढें - गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ , और अपनी राय से अवगत कराएँ !!

Anonymous said...

blog padh kar mazaa aagaya ....aur yeh sochne par majbur kar gaya ki Varansi k kutto ki kya khasiyat hogi ....aakhir jab JNU Walo ko Marks ki theory yaAd hai ..toh yaha waaley toh jack of all trades hongey naa...:-))

मृत्युंजय said...

आपके इस कुत्ता कथा से मुझे एक कविता की पंक्ति याद आ गयी जो मैंने वाह वाह में सुनी थी ..
ये पूछा दिल्ली के कुत्ते से गाँव का कुत्ता सीखी से कहाँ अदा तुने दुम दबाने की
ये सुन बोला दिल्ली का कुत्ता, दुम दबाने को बुजदिली मत समझ जगह कहाँ है यहाँ दुम तलक हिलाने की ...