Saturday, February 7, 2009

ताल तो भोपाल का और सब तलैया - पार्ट दो


भोपाल साहित्यिक गतिविधियों का भी शहर है। यहां हिंदी के कई साहित्यकार रहते हैं। भोपाल ही में भारत भवन भी है, जो अपनी बौद्धिक गतिविधियों के लिए अक्सर चर्चा में रहता है। दिसंबर के आख़िर में, जब मैं भोपाल में था तो हिंदी साहित्य सम्मेलन की तरफ से एक तीन दिनों के समारोह का आयोजन हुआ, जिसमें कई बड़े साहित्यकार भी आए। अविनाश जी के घर पर ही डॉ पंकज पराशर से मुलाकात हो गई थी, और घनिष्ठता भी। संयोग से वो मेरे ही इलाके के निकले और हमने कई यादें साझा की। खैर भोपाल के साहित्य सम्मेलन में मुझे कई चीजों को नजदीक से जानने का मौका मिला। साहित्य की गुटबंदी, पीआरशिप और यूनिवर्सिटियों में लेक्चररशिप के लिए जुगाड़। मैंने जिंदगी में पहली बार नामवर सिंह को सुना और उनका विराट आभामंडल भी देखा। वहीं पर किसी को ये भी कहते सुना कि नामवर सन् अस्सी के बाद से रेल में नहीं चढ़े।


साहित्यकारों की बातचीत, उनकी बेतकल्लुफी और पूरे देश में कहीं भी किसी भी कोने में जाकर सम्मेलन को एटेंड करने का उनका नशा वाकई में निराला था। वहां लोग भागलपुर या गया में हुए सम्मेलनों को ऐसे याद करते थे जैसे दिल्ली वाले नोएडा का जिक्र कर रहे हों। हिंदी साहित्य से थोड़ा बहुत मुझे भी प्रेम है, लेकिन मैं उपन्यास के आगे नहीं समझ पाता हूं। कविता देखकर ही मेरे हाथ-पैर फूल जाते हैं। लेकिन पंकज पराशर जी ने बड़े कायदे से कविता की मोटी-मोटी बाते बताई। मैं कभी-कभी हंस या कथादेश पढ़ लेता हूं, लेकिन साहित्य सम्मेलन के बाद मुझे 'वसुधा' और 'तद्भव' जैसी पत्रिकाओं के बारे में भी पता चला। रवीन्द्र कालिया का नया ज्ञानोदय सम्मेलन में आम चर्चा का विषय था। साहित्य सम्मेलन में हरेक दिन खाने पीने की बड़ी लजीज व्यवस्था थी। बल्कि यूं कहें कि कुछ लोग सिर्फ उत्तम भोजन के लिए ही एक बजे आते थे।


साहित्य सम्मेलन में भी देखा कि शाम को कैसे कॉकटेल पार्टी होती है। यहां आकर साहित्य और कॉरपोरेट का फ़र्क कुछ कम होता नजर आया। शहर के एक बेहतरीन रेस्टोरेंट के प्रांगन में करीब सौ से ऊपर लोगों के खाने पीने का उम्दा इंतजाम। बेहतरीन किस्म की शराब और उसके साथ उत्तम भोजन। साहित्य सम्मेलन में जिन कुछ लोगो से मुलाकात हुई उनमें से हिंदी के वरिष्ट कवि भगवत रावत, उनकी बेटी डॉ प्रज्ञा रावत , राजेश जोशी, कुमार अंबुज, बनारस से आए हुए बीएचयू के प्रो. आशीष त्रिपाठी और ‘पक्षधर’ के संपादक विनोद तिवारी प्रमुख हैं। राजेश जोशी वहीं कवि हैं, जिन्होने अपनी किसी कविता में मुल्क के प्रधानमंत्री के घटिया कविता लिखने को अफ़सोसनाक बताया था।


भोपाल हिंदी साहित्य सम्मेलन के मुख्य कर्ता-धर्ता कमला प्रसाद जी को भी मैंने नजदीक से देखा। संयोग से इसके कुछ ही दिन बाद कमला जी पर महाश्वेता देवी ने हिंदुस्तान में एक स्तंभ लिखा। कमला जी ‘वसुधा’ नामकी एक पत्रिका निकालते हैं। ये सारे लोग अविनाश और पंकज पराशर जी को भी पहले से ही जानते थे। एक दिन डॉ प्रज्ञा रावत ने हमें रात के खाने पर भी बुलाया। वहां उनके फूफा जी डॉ राजेंद्र दीक्षित जी से भी मुलाकात हुई जो पहले एनसीईआरटी में भारतीय भाषा विभाग के हेड थे। वहां साहित्य और एकेडमिक जगत की एक से एक कहानियां सुनने को मिली। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में डॉ दीक्षित की राही मासूम रज़ा से दोस्ती थी और फिर उन्होने रजा से जुड़ी कई कहांनियां सुनाई। मुझे ताज्जुब हुआ कि ये प्रोफेसर लोग पूरे देश में एक दूसरे को कैसे जानते हैं। डॉ दीक्षित ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के डॉ जयकान्त मिश्रा से लेकर कहां कहां की कहानियां नहीं सुनाई।(जारी)

2 comments:

sarita argarey said...

वाम्पंथियों ने हर जगह काकस बना रखा है और लगे हैं साहित्य को दीमक की तरह चाटने । अफ़सोसनाक बात ये है कि दीमकों को खाद पानी मुहैया कराने वालों की तादाद दिनों दिन बढती ही जा रही है । ये बात इस ब्लाग पर आकर पता चली । चार दिन भोपाल में रहने से इस शहर को पूरी तरह जानने का दम भरना ठीक नहीं । बेहतर होगा अपने शहर के हालात से रुबरु कराएं ।

sushant jha said...

सरिता जी...मैं भोपाल को जानने का दंभ नहीं भर रहा...बल्कि चार-छे दिन की यात्रा में जो देखा, वहीं लिख रहा हूं...अब जितना ही जान पाउंगा उतना ही तो लिख पाउंगा।