लालू यादव अगर सियासत में नहीं होते तो क्या होते ? मेरे एक दोस्त की राय है कि वो तब कामयाब टीवी पत्रकार होते और संभवत किसी बड़े हिंदी चैनल के न्यूज डाइरेक्टर होते। लालू में वो तमाम खूबियां हैं जो दर्शकों को बांधे रह सकती है, आखिरकार पिछले दो दशकों से यहीं कलावाजी तो वो दिखाते आ रहे हैं। पब्लिक के एटेंसन को कैसे बांध के रखा जा सकता है बात चैनलों को लालू सीखनी चाहिए। जब जैसा माहौल तब वैसा कंटेट। टीवी चैनल तो अभी भी नाग-नागिन और भूत-प्रेत के बाद रियलीटी शो पर ही ठहरे हुए हैं लेकिन लालू जातीय रैली से सीधे विकास पुरुष बनने को आमादा हैं।
आखिर यहीं लालू यादव थे जिन्होने 90 के दशक में बिहार में जातीय रैलियों की झड़ी लगा दी थी और सोते-जागते उनकी जुबां पर सिर्फ समाजिक न्याय का जुमला और गैर-कांग्रेसवाद का नारा होता था। टीवी की भाषा में आप इसे किसी खास प्रोग्राम का नाम दे सकते हैं। लेकिन बिहार में नीतिश क्या आए, सियासत में एजेंडा तय करने का लालू का विशेषाधिकार खत्म होता चला गया। नीतीश ने सुशासन और विकास का वो राग अलापा कि देखते ही देखते लालू उस पर रियलीटी शो के कटेंस्टेंट की तरह थिरकने लगे।
रेलमंत्री से कामयाब रेल सीईओ और बिहार के मुहल्लों तक में गरीब रथ पहुंचाने के साथ अपनी बेहतरीन पब्लिशिटी करके लालू ने बड़े बड़े प्रबंधन गुरुओं को चकरा दिया।
कह सकते हैं कि लालू ने बड़ी चतुराई से अपने आप को नए रोल में ढ़ालने की कोशिश की, कुछ-कुछ ठीक उसी तरह जैसा बिग बी ने टेलिविजन क्रान्ति होने के बाद की। आप ये भी कह सकते हैं कि ये लालू की सनातन राजनीति की हार है जिसमें सिर्फ समाजिक समीकरण के बदौलत चुनाव जीतने का दंभ था या फिर ये जनता की मानसिकता का क्रमिक विकास है जिसने लालू को ये सब करने को मजबूर कर दिया है...?
ताजा रेल बजट में लालू ने जिस तरह से बिहार को कुछ ज्यादा ही देकर चुनाव से एन पहले समां बांधने की कोशिश की है वो अपने आप में एक मास्टरस्ट्रोक है। उनके इस काम की चर्चा बिहार के हर नुक्कड़-चौराहों पर हो रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि ये काम लालू यादव जैसा कद्दावर, दवंग और अक्खड़ नेता ही कर सकता था जिसके सामने पूरा का पूरा यूपीए गठबंधन बोलने की हिम्मत नहीं करता है। रेल बजट के दौरान लालू ने कहा कि बिहार पहले से ही पिछड़ा हुआ है इसलिए उसे ज्यादा दिया गया है। बात कुछ हद तक सही भी है, बिहार में अभी तक केंद्र सरकार का कोई बड़ा प्रोजे्क्ट नहीं था-न ही कोई सेंट्रल यूनिवर्सिटी और न कोई आईआईटी न ही कोई बड़ा कारखाना। ऐसे में केंद्रीय प्रोजेक्ट की छीनाझपटी में जो राज्य अरसे से मलाई खा रहे थे उन्हे ये बात नागवार लगनी स्वभाविक है।
लेकिन सवाल ये है कि सियासत में दो दशक की लगभग नाबाद पारी खेलने के बाद लालू का ये विकास प्रेम स्वभाविक है या मजबूरी का दूसरा नाम। जैसा विद्यापति के बारे में किसी साहित्यिक आलोचक ने लिखा है कि ‘ विद्यापति मूलत श्रृंगारिक कवि थे और भक्ति उनके बुढ़ापे की उपज थी‘, उसी प्रकार ये कहा जा सकता है कि लालू मूलत: छलिया नेता है, विकास तो हालात की मजबूरी है। लालू जैसे दबंग और कद्दावर नेता के लिए उनका 15 साला कार्यकाल सबसे मुफीद वक्त था जब वो एक पिछड़े सूबे और इसकी 9 करोड़ आबादी के लिए वाकई कुछ कर सकते थे। लेकिन वो वक्त बिहार की एक पीढ़ी के लिए त्रासदी से कम नहीं था। यहीं वो वक्त था जब देश के दूसरे राज्य देखते ही देखते बिहार से बहुत आगे निकल गए। लेकिन फिर भी अगर लालू देर से ही सही, जागे हैं तो ये बिहार जैसे सूबे के लिए बड़ी खुशी की बात होनी चाहिए।
एक बात और तय हो गया है कि मीडिया वार में लालू आगे हैं तो इमेज वार में नीतीश। दूसरे शब्दों में लालू की टीआरपी आजतक की तरह है तो नीतीश की इमेज एनडीटीवी जैसी । अब देखना ये है कि वोटों का विज्ञापन टीआरपी को मिलता है या इमेज को-वैसे एड जगत में काम करनेवालों की मानें तो गंभीर इमेज वालों को महंगे विज्ञापन ज्यादा मिलते हैं।
2 comments:
वाक़ई लालू का जवाब नहीं
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गुलाबी कोंपलें
इसमें तो कोई दो राय नहीं है.
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