Monday, February 23, 2009

कुत्ता, मंदी....एक्सेक्ट्रा...!

अचानक कुत्ते का जिक्र आया। यों दिल्ली में रहते-रहते ‘कुत्ते’ हमारी ज़िंदगी में कम ही दखल देते हैं, सिवाय इसके की कटवारिया सराय की छतों से रात को कभी-2 नवजात कुत्तों के कोंकियाने की आवाज़ आती है (गौरतलब है कि जमीन पर उनके लिए न्यूनतम जगह है, बाईक और कारों ने उन्हे रिप्लेस कर दिया है)। राजीव ने कहा कि उसके पिताजी ने दो ब्रांडेड कुत्ते पाल लिए हैं, तो मंदी के इस मौसम में मेरा चौंकना लाजिमी था। राजीव के पापा ने जो कुत्ते पाले हैं वो खालिस कुलीन हैं - पिता की तरफ से सात पीढ़ी से जर्मन और मां की तऱफ से फ्रेंच। राजीव ने संक्षेप में कुत्ता महात्म्य समझाया और कहा कि कुत्तों से लगाव एक ख़तरनाक बीमारी है। कुत्तों के सानिध्य में रहने से आपकी क्रिएटिव क्षमता बढ़ जाती है, और आप ज्यादा कल्पनाशील हो जाते हैं वगैरह वगैरह।

मेरा मानना है कि अब राजीव की शादी में दहेज ज्यादा मिलेगा, वजह- लड़के के घर दो-दो खानदानी कुत्ते हैं। अब राजीव अपनी शादी के विज्ञापन में लिख सकता है कि Bridegroom working with India’s No. 1 news channel and having two Labradors, father working with a top University of India’s one of the eastern states. आजकल के हिसाब से जहां वर-वधू की मानसिकताओं में कम से कम दूरी को आदर्श माना जाता है ,वहीं ये भी खयाल रखा जाता है कि दोनों एक दूसरे की संवेदनाओं का खयाल रखें। ऐसे में राजीव की होनेवाली दुल्हन ऐसी होनी चाहिए जिसके घर में कम से दो खानदानी कुतिया जरुर हो।

इधर एक भाई ने दावा किया कि पटना में दिल्ली से ज्यादा कुत्ते हैं। मैंने पूछा कैसे तो उसका कहना था गंगा के तट पर रोज कम से कम दस हजार से कम कुत्ते क्या बैठते होंगे। मैंने विरोध किया कि नहीं, दिल्ली के वसंत विहार में ही उतने के करीब कुत्तें होंगे। लेकिन मित्र ने उन कुत्तों को ‘कुत्ते’ मानने से इनकार कर दिया। एक आइडिया ये भी था कि अगर कुत्ते, मनुष्य मात्र के सबसे प्राचीन और भरोसेमंद साथी हैं तो अलग-अलग इलाकों के कुत्ते अलग जुबान बोलते होंगे। मसलन पटना के कुत्तें मगही और झांसी के कुत्ते बुंदेलखंडी। राजीव के छोटे भाई संजीव का दावा है कि जेएनयू के कुत्तों को मार्क्स की थ्योरी पूरी रटी रटाई होगी और झंडेवालान के कुत्ते जुबान से क्या रंगरुप से भी भगवे होंगे। कोई ताज्जुब नहीं कि ऐसा किसी शोध में सामने आ ही जाए।

बहरहाल एक बात जो तय है कि बड़े शहर ‘कुत्तों’ के लिहाज से ज्यादा मुफीद नहीं हैं। यहां उनके लिए लोकतंत्र नहीं है। यहां ‘कुत्तें’ नहीं रह सकते, अलबत्ता ‘भेड़ियों’ के लिए ये जगह काफी सही है। ऐसे में जब कभी संजीव पिल्लों की आवाज की नकल करता है, तो मुझे वो वैसे ही बैचेन कर देता है, जैसे कभी-कभी दिल्ली में रहकर भी चिड़ियों की चहचहाहट का अरसे तक न सुन पाना।

Saturday, February 21, 2009

चुनाव, मंदी और उफान मारता ज्योतिष

चुनाव आयोग ने मंदी में भले ही चुनावी सर्वे करने वालों की आशा पर तुषारापात किया हो लेकिन है कोई माई का लाल जो ज्योतिषियों की भविष्यवाणी को रोक सके। रोक भी नहीं सकता…भई आस्था का सवाल है। मुस्कुराईये नहीं..साब जिस देश में अधिकांश लोग अपनी शादी और बच्चों का नाम ज्योतिषियों से पूछकर रखते हों वहां वो अपनी तकदीर वैसे ही किसी के नाम थोड़े ही लिख देंगे ? ये भी कह सकते हैं कि चुनावी सर्वे पर रोक ने संबंधित लोगों का सारा फोकस ज्योतिषियों पर टिका दिया है। टीवी चैनलों ने जब से ज्योतिष उद्योग में नई जान फूंकी हैं तब से एक अनुमान के मुताबिक इस क्षेत्र में तकरीबन 10,000 से ज्यादा प्रत्यक्ष और 1 लाख से ज्यादा अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर पनपे हैं और यह क्षेत्र औसतन 20 फीसदी की दर से तरक्की करता जा रहा है। कोई ताज्जुब नहीं कल को कोई रेटिंग एजेंसी ये दावा कर दे कि देश की जीडीपी में इस क्षेत्र का योगदान 1 फीसदी से ऊपर का है और सरकार को एक ज्योतिष मंत्रालय ही बनाना पड़े।

आगामी लोकसभा चुनाव में अगर विज्ञापन एजेंसियों की झोली में हजार करोड़ से ऊपर की रकम जाएगी तो ज्योतिषियों को भी 500 करोड़ से ऊपर के राजस्व का अनुमान है। इसमें बड़ा हिस्सा उनकी कंसल्टेसी फी, अनुष्ठान, अंगूठी और पोलिटिकल लावीईंग से आएगा। कुछ ज्योतिषी तो ऐसे हैं जो सीधे टिकट दिलवाने में अहम भूमिका निभाएंगे। 543 सीट में से कम से कम 25 -30 सीट तो जरुर ज्योतिषियों के लावीईंग के बदौलत बांटी जाएगी। नेताओं में बेहतरीन और रिफ्ररेंस से भेजे गए ज्योतिषियों की पूछ अचानक बढ़ गई है। यकीन न हो तो नॉर्थ एवेन्यू या साउथ एवेन्यू का एक चक्कर लगा लीजिए- वहां सैकड़ो की तादाद में विध्याचल, ऋषिकेष और बनारस के बाबाओं ने नेताओं के आउट हाउस में डेरा जमा लिया है। कॉरपोरेट सेक्टर से बेरोजगार कुछ होनहार अध्यवसीयी युवा भी ज्योतिष की तरफ आकर्षित हुए हैं।

दूसरी बात ये कि इस आर्थिक मंदी ने भले ही सारे सेक्टर की मां-बहन एक कर दी हो सिर्फ एक ज्योतिष ही ऐसा है जो ताल ठोक के खड़ा है। वामपंथी नेता लाख कहें कि 20 लाख लोग बेरोजगार हो गए हैं लेकिन मान लीजिए इसमें से 5 लाख ने भी सितारों पर शक किया तो बाबाओं की पौ-बारह है। मुझे लगता है कि अगर तमाम मौजूदा ज्योतिषियों पर सर्वे किया जाए तो उनके कारोबार में भारी इजाफा पाया जाएगा।
जिस तरह पूरी दुनिया की अर्थव्यव्यस्थाएं अमेरिका से जुड़ी हुई है उसी तरह जिंदगी के तार भी एक दूसरे से किस तरह जुड़े हुए हैं इसकी एक बानगी देखिए। मेरे एक मित्र हाल ही में बेरोजगार हुए हैं। वो लव मैरिज करने वाले थे, लेकिन मंदी ने उनकी कमर तोड़ दी। अब मित्र अलग से ज्योतिष के चक्कर में हैं और मित्रानी चुपके से किसी दूसरे ज्योतिष के चक्कर में है। ऐसे एक नहीं, दो नहीं लाखों लोग हैं जो बाबाओं की झोली भर रहे हैं। इधर मैं जहां कटवारिया सराय में रहता हूं वहां भले ही कई दुकानें बंदी के कगार पर हों लेकिन अचानक 4-5 ज्योतिष की दुकानें खुल गई है।

शायद ज्योतिष का धंधा इतिहास में इतना मुफीद कभी नहीं था या यूं कहें कि ये ज्योतिष का सबसे स्वर्णिम काल है।

Monday, February 16, 2009

जाग रहा है सोया अजगर

लगता है एक अरसे के बाद बिहार का नेतृत्व परिपक्व होता जा रहा है। पिछले कुछ सालों के आंकड़ों पर गौर कीजिए-नीतीश और लालू में विकास पुरुष बनने की होड़ लग गई है। दोनों एक दूसरे को मात देना चाहते हैं-लालू के लिए ये काम थोड़ा मुश्किल इसलिए है कि उनके 15 साला हुकूमत को लोग जल्दी से भूल नहीं पा रहे हैं लेकिन फिर भी उन्होने काफी भरपाई कर ली है। नीतीश कुमार को इसका एक नेचुरल एडवांटेज इसलिए हासिल है कि उन्होने शुरु से ही अपनी इमेज एक गंभीर, कम बोलनेवाले और विकास के लिए समर्पित नेता की बना रखी है और उसकी अपनी ब्रांडिंग हो चुकी है-लालू अभी उस फेज में नहीं पहुंच पाए हैं। बात करें रामविलास पासवान की तो उनकी भी छवि एक जुझारु नेता की है-ये रामविलास पासवान ही थे जिन्होने एक अरसे के बाद सूबे में अपनी आक्रामक रेल योजनाओं से लोगों को ललित नारायण मिश्र की याद दिला दी थी। ये बात अलग है कि हाल के दिनों में उनके जिम्मे ऐसा कोई मंत्रालय नहीं है जो सीधे आम जनता से सरोकार रखता हो।

एक तरफ जहां नीतीश कुमार ने अपने कामों से सूबे में और देश के स्तर पर अवार्ड पाने का रिकार्ड बना लिया है तो लालू भी नए-नए धमाके करते जा रहे हैं। हाल में नीतीश को एक प्रमुख चैनल द्वारा पॉलिटिशियन ऑफ द ईयर का अवार्ड मिला वहीं भारत सरकार ने प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में सूबे की काफी सराहना की। बिहार सरकार को ई-गवर्नेंस के लिए भी नवाजा गया। इससे पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और ग्रामीण विकास मंत्रालय ने भी नीतीश के कामों की सराहना की। दूसरी तरफ लालू ने अपने इमेज को लगभग यूटर्न ही दे दिया। लगातार बढ़ते रेलवे के मुनाफे ने इस ग्लोबलाइजेशन और मंदी के दौर में लालू की इमेज को काफी पुख्ता कर दिया। फिर लालू ने बिहार के लिए रेलवे की योजनाओं का पिटारा ही खोल दिया। केंद्र में बिहार के नेताओं की मजबूत उपस्थिति ने कई केंद्रीय योजनाओं के दरवाजे भी बिहार के लिए खोले।

कुल मिलाकर हालात इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि अब बिहार के नेता जनता की बढ़ती उम्मीदों को न सिर्फ भांफ गए हैं बल्कि उनके मन में अतीत में हुए अ-विकास को लेकर एक भय भी समा गया है। याद कीजिए, ये वहीं बिहार था जहां सिर्फ एक दशक पहले तक एक भी बड़ा केंद्रीय संगठन नहीं था। कुछ लोग कह सकते हैं कि झारखंड में (जो उस समय बिहार का ही हिस्सा था) में कई केंद्रीय कारखाने थे लेकिन वो उस इलाके की भौगोलिक और प्राकृतिक बढ़त थी, बिहार के बंटवारे के बाद तो हालत और भी नाजुक हो गई। यहां ये लिखने का मतलब बिहार बनाम केंद्र या बिहार के साथ हुआ भेदभाव नहीं है बल्कि बिहारी नेताओं के स्वभाव में हुआ बदलाव है जो अब धीरे धीरे आकार ले रहा है।

आजादी के बाद से लालू युग के आगमन तक-जब केंद्र और राज्य में लगभग कांग्रेस का एकछत्र राज्य था, बिहार के नेता अपने सूबे के हित की बात केंद्र के सामने उठाने से डरते रहे। सूबा जातिवाद में इस कदर उलझा हुआ था कि किसी को विकास की चिंता ही नहीं थी। लगभग पूरा का पूरा लालू युग तो जातीय अहं के टकराव और फिर उसके स्थिरीकरण में ही बीत गया-लेकिन इसका सकारात्मक असर ये हुआ कि समाज के सभी तबके थकहार कर कुछ आगे की सोंच के लिए मजबूर हो गए। ये वहीं दौर भी था जब बिहारियों का सबसे ज्यादा पलायन महानगरों की तरफ हुआ और देश के दूसरे हिस्सों में उनके प्रति हिकारत का भाव भी उसी अनुपात में बढ़ा। दिल्ली जैसे कई शहरों की तो डेमोग्राफी ही बदल गई। लेकिन साल 2000 के बाद से हालात में तब्दीली आनी शुरु हो गई। 15 साल के लालू राज में जनता अब समाजिक न्याय से ज्यादा कुछ चाहने लगी थी और लोग कुछ नया करने को बैचेन हो रहे थे। इसका उदाहरण साल 1999 का विधानसभा चुनाव था जिसमें पिछड़ें वर्ग के लगभग प्रतीक बन चुके लालू यादव की पार्टी अल्पमत में आ गई-कांग्रेस की मदद से उसे सरकार बनानी पड़ी।

बिहार की राजनीति में जातिवाद अभी भी एक अहम मुद्दा है( बल्कि देश का ज्यादातर हिस्सा इससे मुक्त नहीं) लेकिन उसमें अब विकास की चाशनी घोल दी गई है। और मजे की बात ये है कि जातीय राजनीति के सूरमा लालू प्रसाद भी अब विकास की बात करने को मजबूर हो गए हैं।

कुल मिलाकर बिहार में सबेरा बहुत देर से आया है। जो चीज 60 के दशक में हो जानी थी वो 2000 में हुई है और इस हिसाब से बिहार अभी भी लगभग 2-3 दशक पीछे है। इस बीच दुनिया बहुत बदल गई है, देश के कई सूबे प्रति व्यक्ति आय और आधारभूत संरचना में बिहार से लगभग 4-5 गुना आगे चले गए हैं। कोई शक नहीं इसमें गलती बिहार के नेताओं की ही है, लेकिन अगर समाजिक न्याय के सिद्धांत की बात करें तो बिहार वाकई एक मजबूत केंद्रीय पैकेज का अभी भी हकदार है।

Sunday, February 15, 2009

...तो लालू कामयाब न्यूज डाइरेक्टर होते

लालू यादव अगर सियासत में नहीं होते तो क्या होते ? मेरे एक दोस्त की राय है कि वो तब कामयाब टीवी पत्रकार होते और संभवत किसी बड़े हिंदी चैनल के न्यूज डाइरेक्टर होते। लालू में वो तमाम खूबियां हैं जो दर्शकों को बांधे रह सकती है, आखिरकार पिछले दो दशकों से यहीं कलावाजी तो वो दिखाते आ रहे हैं। पब्लिक के एटेंसन को कैसे बांध के रखा जा सकता है बात चैनलों को लालू सीखनी चाहिए। जब जैसा माहौल तब वैसा कंटेट। टीवी चैनल तो अभी भी नाग-नागिन और भूत-प्रेत के बाद रियलीटी शो पर ही ठहरे हुए हैं लेकिन लालू जातीय रैली से सीधे विकास पुरुष बनने को आमादा हैं।

आखिर यहीं लालू यादव थे जिन्होने 90 के दशक में बिहार में जातीय रैलियों की झड़ी लगा दी थी और सोते-जागते उनकी जुबां पर सिर्फ समाजिक न्याय का जुमला और गैर-कांग्रेसवाद का नारा होता था। टीवी की भाषा में आप इसे किसी खास प्रोग्राम का नाम दे सकते हैं। लेकिन बिहार में नीतिश क्या आए, सियासत में एजेंडा तय करने का लालू का विशेषाधिकार खत्म होता चला गया। नीतीश ने सुशासन और विकास का वो राग अलापा कि देखते ही देखते लालू उस पर रियलीटी शो के कटेंस्टेंट की तरह थिरकने लगे।
रेलमंत्री से कामयाब रेल सीईओ और बिहार के मुहल्लों तक में गरीब रथ पहुंचाने के साथ अपनी बेहतरीन पब्लिशिटी करके लालू ने बड़े बड़े प्रबंधन गुरुओं को चकरा दिया।

कह सकते हैं कि लालू ने बड़ी चतुराई से अपने आप को नए रोल में ढ़ालने की कोशिश की, कुछ-कुछ ठीक उसी तरह जैसा बिग बी ने टेलिविजन क्रान्ति होने के बाद की। आप ये भी कह सकते हैं कि ये लालू की सनातन राजनीति की हार है जिसमें सिर्फ समाजिक समीकरण के बदौलत चुनाव जीतने का दंभ था या फिर ये जनता की मानसिकता का क्रमिक विकास है जिसने लालू को ये सब करने को मजबूर कर दिया है...?

ताजा रेल बजट में लालू ने जिस तरह से बिहार को कुछ ज्यादा ही देकर चुनाव से एन पहले समां बांधने की कोशिश की है वो अपने आप में एक मास्टरस्ट्रोक है। उनके इस काम की चर्चा बिहार के हर नुक्कड़-चौराहों पर हो रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि ये काम लालू यादव जैसा कद्दावर, दवंग और अक्खड़ नेता ही कर सकता था जिसके सामने पूरा का पूरा यूपीए गठबंधन बोलने की हिम्मत नहीं करता है। रेल बजट के दौरान लालू ने कहा कि बिहार पहले से ही पिछड़ा हुआ है इसलिए उसे ज्यादा दिया गया है। बात कुछ हद तक सही भी है, बिहार में अभी तक केंद्र सरकार का कोई बड़ा प्रोजे्क्ट नहीं था-न ही कोई सेंट्रल यूनिवर्सिटी और न कोई आईआईटी न ही कोई बड़ा कारखाना। ऐसे में केंद्रीय प्रोजेक्ट की छीनाझपटी में जो राज्य अरसे से मलाई खा रहे थे उन्हे ये बात नागवार लगनी स्वभाविक है।
लेकिन सवाल ये है कि सियासत में दो दशक की लगभग नाबाद पारी खेलने के बाद लालू का ये विकास प्रेम स्वभाविक है या मजबूरी का दूसरा नाम। जैसा विद्यापति के बारे में किसी साहित्यिक आलोचक ने लिखा है कि ‘ विद्यापति मूलत श्रृंगारिक कवि थे और भक्ति उनके बुढ़ापे की उपज थी‘, उसी प्रकार ये कहा जा सकता है कि लालू मूलत: छलिया नेता है, विकास तो हालात की मजबूरी है। लालू जैसे दबंग और कद्दावर नेता के लिए उनका 15 साला कार्यकाल सबसे मुफीद वक्त था जब वो एक पिछड़े सूबे और इसकी 9 करोड़ आबादी के लिए वाकई कुछ कर सकते थे। लेकिन वो वक्त बिहार की एक पीढ़ी के लिए त्रासदी से कम नहीं था। यहीं वो वक्त था जब देश के दूसरे राज्य देखते ही देखते बिहार से बहुत आगे निकल गए। लेकिन फिर भी अगर लालू देर से ही सही, जागे हैं तो ये बिहार जैसे सूबे के लिए बड़ी खुशी की बात होनी चाहिए।

एक बात और तय हो गया है कि मीडिया वार में लालू आगे हैं तो इमेज वार में नीतीश। दूसरे शब्दों में लालू की टीआरपी आजतक की तरह है तो नीतीश की इमेज एनडीटीवी जैसी । अब देखना ये है कि वोटों का विज्ञापन टीआरपी को मिलता है या इमेज को-वैसे एड जगत में काम करनेवालों की मानें तो गंभीर इमेज वालों को महंगे विज्ञापन ज्यादा मिलते हैं।

Tuesday, February 10, 2009

2040 में हमारे बच्चे जिन चीजों पर हसेंगे...

अमर सिंह ने राज्यपाल को दलाल कहा था ।

भारत सरकार ने कहा कि आरटीआई के तहत मंत्रियों की संपत्ति सार्वजनिक नहीं होगी।

बीजेपी ने कहा मंदिर बनाके रहेंगे-अगर पॉवर मिले।

श्रीराम सेना हमारे देश में पैदा हुई थी। एक रणवीर सेना भी थी।

मुल्लाओं ने जय भीम कहने के खिलाफ फतवा दिया।

सत्यम घोटाला से पहले राजू जेंटलमेन था।

राहुल गांधी ने राजनीति से परिवारवाद और चमचावाद हटाने की बात की थी।

टीवी मीडिया नागनागिन से ऊबकर हंसी के गुलगुल्ले दिखा रहा था।

टीवी वाले दूरदर्शन युग की खिल्ली उड़ाते थे।

इसके अलावा वो और भी बातों पर हसेंगें-आप अपनी तरफ से जोड़ सकते हैं।

Monday, February 9, 2009

ताल तो भोपाल का और सब तलैया-पार्ट चार

भोपाल के बारे में कई लोगों ने टिप्पणी की कि महज चार-छह दिन शहर में रहकर उसे जानने का दम नहीं भरा जा सकता। बेशक ये बात सही है, लेकिन मैंने अपनी जानकारी और अनुभव से बाहर जाकर लफ्फाजी नहीं की। अब इतना तो कसूर है ही कि ज्यादा समेटने की कुव्वत नहीं थी। बहरहाल, कुछ लोगों को जरुर लग सकता है कि बड़ा तालाब अब वो नहीं रहा जो पहले था या कि पटिए की परंपरा सूख रही है-लेकिन एक बाहरवाले के नजरिए से वो अभी भी खूबसूरत है-और हां, शहर के लोगों का इसके गिरते हालात पर चिंता जताना स्वभाविक भी।

दूसरी बात ये कि अगर मुझे शहर में पुलिसवालों की मौजूदगी कम दिखी तो इसे मैं तारीफ के काबिल कैसे नहीं मानूं ? क्या दिल्ली में ऐसा है। हां, कुछ बातें जो अखरने वाली थी वो ये कि ऑटो का किराया बहुत था। उतने पैसे में तो दिल्ली में भी ज्यादा दूर जाया जा सकता है। मुझे शहर में कई दफा पब्लिक ट्रांसपोर्ट की भी दिक्तत महसूस हुई। नए शहर में शेयर्ड ऑटो नहीं थे और रिजर्व करके चलना कम खर्चीला नहीं था।

हां, कई बार मुझे ये भी लगा कि शहर में लड़कियों की तादाद कुछ कम है। मैने इस बात का कई लोगों से जिक्र भी किया, लेकिन लोगों ने मुझे फिर से विचार करने को कहा। मुक्ता भाभी से भी मैंने इस बात का जिक्र किया कि क्या मध्यप्रदेश भी पंजाब सिंड्रोम का शिकार हो रहा है?

Sunday, February 8, 2009

ताल तो भोपाल का और सब तलैया-पार्ट तीन

भोपाल में कई चीजें जानने को मिली। वहीं मुझे पता चला कि विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में कैसे जुगाड़ चलता है। अगर आप किसी लॉवी के मेंम्बर हैं, तो ये काम कितना आसान हो जाता है। वहीं पता चला कि जिनका जुगाड़ नहीं था वो लाख प्रतिभाशाली और डिग्रियों के अंबार होने के बावजूद कैसे जिंदगी भर परिसरों के चक्कर काटते रहे। कैसे एक यूनिवर्सिटी के विभागाध्यक्ष ने तीन साल तक सारे उम्मीदवारों को नाकाबिल घोषित कर दिया, क्योंकि चौंथे साल उसके बेटे की पीएचडी पूरी होने वाली थी। ये भी एहसास हो गया कि क्यों राजेंद्र यादव और उदय प्रकाश जैसे लोग लाख काबिलियत के बावजूद यूनिवर्सिटियों में जगह नहीं बना पाए और ये भी कि उनके लेखन में एकेडमिक साहित्यकारों के लिए क्यों आलोचना का भाव है। ऐसे एक नहीं दो नहीं बल्कि सैकड़ों उदाहरण सुनने को मिले जिसमें यूनिवर्सिटियों को खानदानी चारागाह बना कर रख दिया गया। बड़े यूनिवर्सिटी में ऐसे-ऐसे लोग नियुक्त कर दिए गए जिन्हे विषय की बेसिक जानकारी तक नहीं थी। भोपाल के साहित्य सम्मेलन में रवीन्द्र कालिया के नया ज्ञानोदय विवाद और ममता कालिया का अंग्रेजी के प्रोफेसर के तौर पर नियुक्ति काफी चर्चा में थी। दूसरी बात साहित्य के क्षेत्र में दिए जानेवाले पुरस्कारों और आलोचनाओं की भी थी। कई दफा काफी औसत दर्जे के साहित्यकारों को कैसे पुरस्कृत कर दिया गया और जिस कवि पर किसी बड़े आलोचक की वक्र दृष्टि पड़ गई कैसे उसे धरासायी कर दिया गया।


शुरु में मुझे लगता था कि हिंदी साहित्य का स्तर बंग्ला या देश के अन्य भाषाओं की तुलना में पिछड़ा हुआ ही होगा। भोपाल साहित्य सम्मेलन में जाकर मुझे पता चला कि नहीं ऐसा खास कुछ नहीं है। साहित्य के बारे में जानकारी देने के लिए पंकज पराशर जी को मैं खासतौर पर धन्यवाद देना चाहूंगा कि उन्होने कई बारीक बातें बताई। मसलन, बंग्ला में कथा और उपन्यास की परंपरा काफी प्राचीन और समृद्ध है और वहां हिंदी कुछ कमजोर लग सकती है। लेकिन कविता और दूसरी विधाओं में हिंदी में काफी काम हुआ है, बल्कि इसने नई ऊचाईंया पाईं है। दूसरे भाषाओं के साहित्यकार हिंदी में अब छपने के लिए कितने लालायित हो रहे हैं-इसका भी पता चला (जारी)

Saturday, February 7, 2009

ताल तो भोपाल का और सब तलैया - पार्ट दो


भोपाल साहित्यिक गतिविधियों का भी शहर है। यहां हिंदी के कई साहित्यकार रहते हैं। भोपाल ही में भारत भवन भी है, जो अपनी बौद्धिक गतिविधियों के लिए अक्सर चर्चा में रहता है। दिसंबर के आख़िर में, जब मैं भोपाल में था तो हिंदी साहित्य सम्मेलन की तरफ से एक तीन दिनों के समारोह का आयोजन हुआ, जिसमें कई बड़े साहित्यकार भी आए। अविनाश जी के घर पर ही डॉ पंकज पराशर से मुलाकात हो गई थी, और घनिष्ठता भी। संयोग से वो मेरे ही इलाके के निकले और हमने कई यादें साझा की। खैर भोपाल के साहित्य सम्मेलन में मुझे कई चीजों को नजदीक से जानने का मौका मिला। साहित्य की गुटबंदी, पीआरशिप और यूनिवर्सिटियों में लेक्चररशिप के लिए जुगाड़। मैंने जिंदगी में पहली बार नामवर सिंह को सुना और उनका विराट आभामंडल भी देखा। वहीं पर किसी को ये भी कहते सुना कि नामवर सन् अस्सी के बाद से रेल में नहीं चढ़े।


साहित्यकारों की बातचीत, उनकी बेतकल्लुफी और पूरे देश में कहीं भी किसी भी कोने में जाकर सम्मेलन को एटेंड करने का उनका नशा वाकई में निराला था। वहां लोग भागलपुर या गया में हुए सम्मेलनों को ऐसे याद करते थे जैसे दिल्ली वाले नोएडा का जिक्र कर रहे हों। हिंदी साहित्य से थोड़ा बहुत मुझे भी प्रेम है, लेकिन मैं उपन्यास के आगे नहीं समझ पाता हूं। कविता देखकर ही मेरे हाथ-पैर फूल जाते हैं। लेकिन पंकज पराशर जी ने बड़े कायदे से कविता की मोटी-मोटी बाते बताई। मैं कभी-कभी हंस या कथादेश पढ़ लेता हूं, लेकिन साहित्य सम्मेलन के बाद मुझे 'वसुधा' और 'तद्भव' जैसी पत्रिकाओं के बारे में भी पता चला। रवीन्द्र कालिया का नया ज्ञानोदय सम्मेलन में आम चर्चा का विषय था। साहित्य सम्मेलन में हरेक दिन खाने पीने की बड़ी लजीज व्यवस्था थी। बल्कि यूं कहें कि कुछ लोग सिर्फ उत्तम भोजन के लिए ही एक बजे आते थे।


साहित्य सम्मेलन में भी देखा कि शाम को कैसे कॉकटेल पार्टी होती है। यहां आकर साहित्य और कॉरपोरेट का फ़र्क कुछ कम होता नजर आया। शहर के एक बेहतरीन रेस्टोरेंट के प्रांगन में करीब सौ से ऊपर लोगों के खाने पीने का उम्दा इंतजाम। बेहतरीन किस्म की शराब और उसके साथ उत्तम भोजन। साहित्य सम्मेलन में जिन कुछ लोगो से मुलाकात हुई उनमें से हिंदी के वरिष्ट कवि भगवत रावत, उनकी बेटी डॉ प्रज्ञा रावत , राजेश जोशी, कुमार अंबुज, बनारस से आए हुए बीएचयू के प्रो. आशीष त्रिपाठी और ‘पक्षधर’ के संपादक विनोद तिवारी प्रमुख हैं। राजेश जोशी वहीं कवि हैं, जिन्होने अपनी किसी कविता में मुल्क के प्रधानमंत्री के घटिया कविता लिखने को अफ़सोसनाक बताया था।


भोपाल हिंदी साहित्य सम्मेलन के मुख्य कर्ता-धर्ता कमला प्रसाद जी को भी मैंने नजदीक से देखा। संयोग से इसके कुछ ही दिन बाद कमला जी पर महाश्वेता देवी ने हिंदुस्तान में एक स्तंभ लिखा। कमला जी ‘वसुधा’ नामकी एक पत्रिका निकालते हैं। ये सारे लोग अविनाश और पंकज पराशर जी को भी पहले से ही जानते थे। एक दिन डॉ प्रज्ञा रावत ने हमें रात के खाने पर भी बुलाया। वहां उनके फूफा जी डॉ राजेंद्र दीक्षित जी से भी मुलाकात हुई जो पहले एनसीईआरटी में भारतीय भाषा विभाग के हेड थे। वहां साहित्य और एकेडमिक जगत की एक से एक कहानियां सुनने को मिली। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में डॉ दीक्षित की राही मासूम रज़ा से दोस्ती थी और फिर उन्होने रजा से जुड़ी कई कहांनियां सुनाई। मुझे ताज्जुब हुआ कि ये प्रोफेसर लोग पूरे देश में एक दूसरे को कैसे जानते हैं। डॉ दीक्षित ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के डॉ जयकान्त मिश्रा से लेकर कहां कहां की कहानियां नहीं सुनाई।(जारी)

Wednesday, February 4, 2009

ताल तो भोपाल का और सब तलैया - पार्ट एक

हाल ही में मैं कुछ दिनों की भोपाल यात्रा पर था। इससे पहले भोपाल की सिर्फ क़िताबी जानकारी थी या कुछ दूसरों के मुंह से सुनी हुई। भोपाल का जिक्र आते ही यूनियन कार्बाइड और सूरमा भोपाली की याद आती थी। लेकिन भोपाल इससे भी कुछ अलग दिखा-कुछ प्यारा सा, कुछ ज्यादा ही तरक्की करता हुआ। मैं भोपाल में अविनाश जी के यहां रुका था, जो आजकल दैनिक भास्कर में हैं। अविनाश जी का फ्लैट अंसल लेक व्यू अपार्टमेट में है जो बड़ा तालाब के किनारे है। यहीं मुख्यमंत्री का आवास और राजभवन भी है।

भोपाल झीलों का शहर है, हरियाली से आच्छादित। मन करता था सारी हरियाली आंखों में समेट लूं। साफ सुथरी घुमावदार सड़के, शान्त और कम भीड़-भाड़वाली। भोपाल के लोगों का कहना है कि ट्रेफिक बढ़ गया है, लेकिन महानगरों की तुलना में अभी भी काफी सुकून है। बड़ा तालाब-जिसे झील भी कहा जाता है- शहर की खूबसूरती में चार चांद लगाती है। इसके चारों ओर बनी सड़के आपको मुंबई के मैरीन ड्राइव से कम आनंद नहीं देती। यह तालाब कम से कम 10 किलोमीटर के दायरे से ज्यादा में ही है। शहर को पीने के पानी की सप्लाई इसी तालाब से होती है। इसके आलावा भी शहर में कई तालाब हैं। पिछले साल बारिश ने दगा दे दिया, इससे शहर में पीने के पानी की कमी हो गई है और लोग चिंतित हैं।

भोपाल की आबादी तकरीबन 20 लाख हो गई है, कहते हैं 80 के दशक तक महज 4 लाख थी। पुराने लोग भीड़भाड़ की शिकायत करते हैं। शहर में बीसियों इंजिनीयरिंग के कॉलेज खुल गए हैं, लेकिन मैदानी इलाकों से इतर शहर का क्षेत्रफल इतना बड़ा है, कि अभी भी खुला-खुला सा लगता है। इंडिया टुडे के सर्वे में पढ़ता था कि भोपाल सुविधाओं के लिहाज से बेहतर शहर है इसकी तसल्ली इस बार हो गई। मकानों के रेंट अभी भी कम हैं। पांच हजार में बड़ा सा मकान आपको अच्छे इलाके मे मिल जाएगा। और अगर इरादा ख़रीदने का है तो 7 लाख से लेकर 20 लाख तक में आराम से फ्लैट मिल जाएगा।

पुराने भोपाल में मुसलमानों की ख़ासी आबादी है, हिंदू-मुसलमानों के छत आपस में मिलते हैं। शहर में भाईचारा मौजूद है, आखिरी बार बाबरी मस्जिद विवाद के वक्त शहर में तनाव देखा गया था। भोपाल में पटिये की प्रथा है-इसे मैं वहां जाकर ही समझ पाया। पटिय़े का मतलब ये है कि राज को लोग घरों से निकलकर चौपाल की तरह काफी देर तक बातें करते रहते हैं। (जारी)...

Sunday, February 1, 2009

नीतीश बने पॉलिटिक्स के स्लमडॉग


नीतीश कुमार को सीएनएन-आईबीएन ने पालिटिशियन आफ द ईयर का अवार्ड दिया है। कुछ ही दिन पहले बिहार सरकार को बेहतरीन ई-गवर्नेंस के लिए चुना गया। भारत सरकार ने भी प्राथमिक शिक्षा में उल्लेखनीय सुधार के लिए बिहार सरकार की तारीफ की थी। उससे पहले केंद्रीय स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास मंत्री भी बिहार सरकार की ताऱीफ कर चुके हैं। जाहिर है नीतीश कुमार के कामकाज की तारीफ करनेवालों में उनके राजनीतिक विरोधी भी कोताही नहीं बरत रहे हैं। ये बात अलग है कि प्रचार के विभिन्न मंचों पर ये खबरें बहुत जगह नहीं बना पाईं है।

नीतीश कुमार को पालिटिशियन आफ द ईयर अवार्ड में शीला दीक्षित से काफी कड़ी टक्कड़ झेलनी पड़ी। लेकिन नीतीश के इन उपलव्धियों को कुछ लोग कई नजरिये से देखते हैं। बिहार जैसे सूबे में जहां विकास के काम कभी ढ़ंग से हुए ही नहीं, ऐसे जगह पर कुछ भी थोड़ा काम किसी नेता को काफी आगे बढ़ा सकता है-इसमें कोई शक नहीं। लेकिन दूसरी तरफ इसका एक सकारात्मक पक्ष ये भी है कि बिहार जैसे कार्य संस्कृति विहीन सूबे को पटरी पर लाना भी कोई आसान काम नहीं है, और इसमें नीतीश को सफलता मिलती नजर आ रही है।

एक बात तो तय है कि बिहार में अब विकास राजनीति के एजेंडे में शामिल हो गया है। लालू यादव हों या रामविलास पासवान सभी विकास को अपना एजेंडा बना रहे हैं। हलांकि ये कहना अभी भी जल्दबाजी है कि ये विकास, वोट में कितना तब्दील हो पाएगा। फिलहाल बिहार में किसी भी दल के खिलाफ एंटी इन्कमबेंसी का फैक्टर नहीं है। नीतीश के लिए ये बात तो सूकून की है ही, लालू यादव के प्रति भी लोगों का पुराना आक्रोश कम हुआ है। ऐसे में सियासी पार्टियां अगले चुनावों में कोई बड़ा फैक्टर नहीं रहेंगी-हां, उम्मीदवारों का बेहतर चयन जरुर चुनाव परिणामों को प्रभावित करेगा। फिलहाल तो नीतीश कुमार के लिए अवार्डों की बरसात जरुर सुकून देनेवाली है।