Thursday, May 22, 2008

रो रही है वो अहिल्या, राम आएंगे कहां से...?

ये कविता मैने तकरीबन १२ बरस पहले लिखी थी। मैं उम्र के दूसरे दशक में पैर रख चुका था। ये कविता उस समय लिखी गई थी जब लालू यादव नामका एक आदमी बिहार का मुख्यमंत्री बन चुका था। यह कविता एक सामंती संस्कार से ओतप्रोत लड़के का अपने इलाके के पिछड़ेपन को लेकर किया गया आत्मोद्गार है जिसमें अतीत के स्वर्णयुग को ही बेहतरीन समझने की नासमझी भी है..और एक खास किस्म के नायक की परिकल्पना भी। व्याकरण संबंधी त्रुटियां तो हैं ही खैर...आज मैं पीछे मुड़कर जब इस कविता को देखता हूं तो मुझे खुद पर हंसी आती है। लेकिन फिर भी न जाने क्यों ये कविता मुझे अभी भी प्रिय है..शायद पहले प्यार की तरह..या पहली बार रेलगाड़ी के सफर के यादों की तरह...

भारतीयता की अमरगाथा सुनाता पूण्यभूमि,
मैथिली का जन्मस्थल है उपेक्षित आज भी।
हाय! किससे करुं विनती नहीं है कोई कन्हैया,
लुट रही बाजार में है द्रौपदी की लाज भी।
इस धरा ने ही जना है भारती सी विदुषियों को,
फिर भी क्यों वाचस्पति की माता आज तक असहाय है?
नहीं है कोई खेवैया इस अगम मंझधार में,
मैथिलों की मौन क्रंदन आज तक असहाय है।
आज भी अमराईयां मिथिलांचल की गूंजती हैं,
भक्त विद्यापति रचित उन अमर गीतों के स्वरों सेI
धूल में लेटे हुए हैं सैकड़ों मंडन अभी भी
हाय कोई है जो नहलाए उन्हे अपने करों से?
याद आती है वो नगरी जो विदेहों से अंटी थी,
स्वर्ण मणिमाणिक्य की क्या यहां कोई भी कमी थी?
शस्य श्यामला थी धरती और थी जनता प्रफुल्लित,
भय नहीं था दस्युओं का और न कोई रहजनी थी।
इस धरा ने खींच लाया था अवध से राम को भी,
दास बन कर खुद मृत्युंजय जा चुके है इस जहां से।
आज भी पाषाण बन कर रो रही है वो अहिल्या,
कर रही फिर भी प्रतीक्षा राम आएंगे कहां से?
आज सड़के भी नहीं है, नहरों में पानी भी नहीं है,
आज भी मिथिला की रातें बीतती हैं जागकर।
कौन अब ये दुख सुनेगा? ललित बाबू भी नहीं है,
धूर्त है नेतृत्व, हम भी चुप हैं नियति मानकर।
खेलने की उम्र में वे भागते पंजाब को हैं,
क्या करें ?ये पेट की ज्वाला भी कब तक मानेगी?
रहने को झोपड़ें मयस्सर और तन पर मात्र चिथड़े,
मैथिलों की इस दशा को कब ये दुनिया जानेगी?
मधुबनी की चित्रकारी, नानियों की वे कथाएं,
लुप्त होती जा रही है गांव की सब लोकगीते।
छा गया पाश्चात्य जीवन, हो गया अपनत्व अब कम,
हाय! मृग कैसे बचेगा आ गए खूंखार चीते।
मातृभाषा है उपेक्षित शत्रु सत्ता की कृपा से,
विश्व की प्राचीन भाषा मिट रही है इस जहां से।
कोई क्यूं चिंता करेगा ,वक्त क्यों जाया करेगा,
फंस गया है फंद में गज विष्णु आंएगें कहां से।
काल के पंजों से घायल, हेय दुनिया की नजर में,
दौड़ में पीछे हुए क्यों मैथिलों में क्या कमी थी?
विष बुझे से प्रश्न हैं ये, ये हमें जीने न देंगे,
आज भी हम हैं अहिंसक, सिर्फ क्या इतनी कमी थी?
 

Saturday, May 17, 2008

जीवन मृत्यु

शिखर हमारे साथ काम करती है...और एक बेहतरीन कवियत्री भी है..उसने एक कविता भेजी है...

आज मै चुपचाप बैठी सोच रही थी

अपने ही भावो मे कितनी उलझ रही थी

कि जिन्दगी और मौत कितनी करीब है

एक संसार मे लाती है तो दुसरी ले जाती है

लेकिन शमशान घाट पर ही

जाकर वैराग्य क्यो जागते .है

और मृत्यु पर ही सारे सगे सम्बन्धी ,

बिलख बिलख कर रोते क्यो है

शायद यहाँ हम एक पूरी जिन्दगी

का अन्त पाते है.

मरने वाले तो मर जाते है

पर कुछ लोग उनकी मृत्यु मे

अपना सारा जीवन तलाशते है(मेरी माँ)

Thursday, May 8, 2008

कया बलिराज गढ़ मिथिला की प्राचीन राजधानी है..?

मेरे गांव खोजपुर से 1 किलोमीटर दिक्षिण बलिराजपुर नामका गांव है। इसकी दूरी मधुबनी जिला मुख्यालय से करीब 34 किलोमीटर है। यहां एक प्राचीन किला है जो तकरीबन 365 बीघे में फैला हुआ है। यह किला पुरातत्व विभाग के अधीन है । किले के बाहर लगी साइनबोर्ड के मुताबिक यह किला मौर्य कालीन है और यहां उस समय के मिट्टी के बर्तन और सोने के सिक्के मिले हैं। आसपास के गांवो में यह किंवदन्ती फैली हुई है कि ये किला राक्षस राज बलि की राजधानी थी और आज भी कभी-कभी वो किले में देखे जाते है। लोगबाग शाम के बाद किले की तरफ जाने से डरते हैं। शायद ये अफवाहें सरकारी कर्मचारियों की फैलाई हुई है ताकि लोग किले का अतिक्रमण न करे और उन्हे ढ़ंग से ड्यूटी न करनी पड़े।

किला वाकई अद्भुत है। किले की दीवार अपने भग्नावस्था में भी अपने यौवन की याद दिलाती है।किले की दीवार इतनी चौड़ी है कि इसपर आसानी से एक रथ तो गुजर ही जाता होगा। दीवार की ईंटे दो फीट लंबी, और तकरीबन एक फीट चौड़ी है। किले की के बीच में एक तालाब है..कहा जाता है कि इसके बीच में एक कूंआ है जिसमें एक सुरंग है। और इस सुरंग का रास्ता कहीं और निकलता है। पुराने जमाने में राज परिवार के लोगों के लिए आपातकाल के लिए इस तरह का सुरंग बनाया जाता था।

इस किले के अगल-बगल के गांवो का नाम भी काफी रोचक है और थोड़ा-थोड़ा एतिहासिक भी..। किले के पूरब में है -फुलबरिया गांव और उससे सटा हुआ है गढ़ी जो अब अपभ्रंश होकर गरही बन गया है। किले के पश्चिम में है रमणीपट्टी और उससे सटा हुआ है भूप्पटी। किले के दक्षिण के गांव है बिक्रमशेर जहां प्राचीन सूर्य मंदिर के अवशेष मिले हैं। गौरतलब है कि सूर्य का मंदिर पूरे देश में बहुत कम जगह है।

बलिराज गढ़ की खुदाई पहली बार 1976 के आसपास हुई थी जब केंद्र में कर्ण सिंह इस बिभाग के मंत्री थे। इसके उद्धार के लिए मधुबनी के सांसद भोगेन्द्र झा और कुदाल सेना के सीताराम झा ने काफी काम किया है। ।

कुछ इतिहासकार कहते हैं कि बलिराज गढ़ बंगाल के पाल राजाओं का किला हो सकता है । जबकि कुछ का कहना है कि यह मौर्यों का उत्तरी सुरक्षा किला भी हो सकता है। हालांकि कुछ इतिहासकार इसे मिथिला की प्राचीन राजधानी मानने से भी इंकार नहीं करते। इसकी वजह वो ये बताते हैं कि आज का जनकपुर(जो
नेपाल में स्थित है) काफी नयी जगह है और वहां के मंदिर बहुत हाल में, तकरीबन 18वीं सदीं में इंदौर की रानी दुर्गावती के समय बनाए गए थे और उसकी एतिहासिकता भी संदिग्ध है। बहरहाल, मुझे दस साल पहले की कहानी याद है जब वैशाली के एक सज्जन ने इस बावत मुझ से कहा था कि वाकई बलिराजगढ़, मिथिला की प्राचीन राजधानी है।

उन्होने ह्वेनसांग के पुस्तक का जिक्र करते हुए कहा जिसके मुताबिक पाटलिपुत्र से एक खास दूरी पर वैशाली है..और उससे एक खास दूरी पर काठमांडू है उसके बिल्कुल दक्षिण-पूर्वी दिशा में मिथिला की प्राचीन राजधानी है। आज का जनकपुर उस खास दूरी व दिशा में सही नहीं बैठता। पता नही ये बात कितनी सच है। इसके आलावा, रामायण में भी मिथिला की प्राचीन राजधानी के संदर्भ कुछ संकेत हैं। और वो भी इसी जगह को संकेत कर मिथिला की राजधानी बताते हैं।

सांसद भोगेन्द्र झा के मुताबिक, राजा बलि की राजधानी महाबलीपुरम हो सकती है जो  दक्षिण भारत में स्थित है। सबसे बड़ी बात है कि पूरे मिथिलांचल में इतना पुराना कोई किला नहीं है जो यहां कि प्राचीन राजधानी होने का दावेदार हो सके। किले के भीतर उबड़-खाबड़ जमीन है जो प्राचीन राजमहलों के जमीन के अंदर धंस जाने का प्रमाण है। यहां एक-आध जगह ही खुदाई की गई है और यहां कीमती धातु और सोनेचांदी की वस्तुएं मिली हैं।अगर कुछ और खुदाई की जाए तो कई रहस्यों से आवरण उठ जाएगा। सरकार की तरफ से कोई ठोस प्रयास ऐसा नहीं हो पाया है कि बलिराज गढ़ की प्राचीनता को दुनिया के सामने रखने की कोशिश की जाए।

एक सामान्य सी सड़क से इसे नजदीक के गांव खोजपुर से जोड़ दिया गया है और इतिश्री कर दी गई है। अगर, बलिराज गढ़ की खुदाई कायदे से की जाए और एक संग्रहालय बना दिया जाए तो काफी कुछ हो सकता है। मिथिलांचल के हृदय मे स्थित होने की वजह से यहां मिथिला पेंटिंग का भी कोई संस्थान और आर्ट गैलरी वगैरह बनाया जा सकता है। एक अच्छी सड़क के साथ आधुनिक विज्ञापन, बलिराज गढ़ को पर्यटकों की निगाह में ला सकता है और इस इलाके के पिछड़ेपन को दूर कर सकता है।