Thursday, April 16, 2015

भयांक्रांत नेताओं का जमावड़ा यानी जनता परिवार

जनता परिवार के विलय में वहीं भावना छुपी है, जो आखिरी घड़ी में दिल्ली बीजेपी में किरण बेदी की ताजपोशी में छुपी थी। यानी त्राहिमाम...त्राहिमाम। यह संदेश जनता तक कायदे से पहुंचा है। लैंड बिल, बेमौसम बारिश और उग्र-बयानवाजी से तनिक कमजोर सी दिख रही बीजेपी को लगता है जनता परिवार ने अपनी तरफ से अजेय घोषित कर दिया है !कभी शरद यादव के फाईल संभालनेवाले एक निजी सहायक यादवजी की कहानी सुनाता हूं। यादव जी एक बार ताजा-ताजा चुनाव हारकर बिहार से दिल्ली आए तो नॉर्थ एवेंन्यू के पांडे पान भंडार पर उन्होंने कहा, “पहले एक ही यादव बिहार में लोगों को आतंकित करने के लिए काफी था, अब तो पोस्टर पर तीन-तीन यादव इकट्ठे दिखाई देंगे। अंदाज लगाइये पब्लिक का क्या हाल होगा’! हलके-फुलके ढंग से कही गई इस बात को वो लोग समझेंगे जो कायदे से बिहार पर नजर रखते हैं। 


पिछले पच्चीस सालों से बिहार की राजनीति लालू यादव के इर्द-गिर्द घूमती रही है-या तो समर्थन में या विरोध में। ऐसा सम्पूर्ण रूप से पहली बार होने जा रहा है कि बिहार की राजनीति बीजेपी के इर्द-गिर्द घूमने जा रही है। ट्विटर पर अशोक उपाध्याय ने लिखा है- ‘नकारात्मक वजहों से पहले भी तीन बार ऐसे प्रयोग हो चुके हैं। सन् 77 में इंदिरा गांधी को रोकने के लिए, सन् 89 में राजीव गांधी को रोकने के लिए और सन् 1996 में वाजपेयी को रोकने के लिए। तीनों का नतीजा एक जैसा रहा। ऐसी कोई वजह नहीं कि अब चौथी बार नतीजा समान न हो। लोगों को ये नहीं पता कि यह पार्टी नया क्या देने जा रही है जो उसने पिछले 25 साल में नहीं दी है?


बिहार की बात करें तो नीतीश का लालू से मिलना वैसा ही है जैसे पाकिस्तान का सेक्यूलर हो जाना या भारत में विलय कर घर-वापसी कर लेना! मेरे पापा का जीवन राजनीति में गुजरा है। उन्होंने एक कहानी सुनाई थी। सन् 77 के आसपास मुंगेर के किसी गांव में भूमि विवाद में यादवों और कोइरियों में झगड़ा हुआ, पंचायत हुई, दोनों जातियों के दो बुजुर्ग विधायक पंच बने। लेकिन मामला नहीं सुलझा। पापा ने पूछा कि क्या हुआ? तो एक विधायक बोला, ‘दरअसल पंचों का चुनाव ही गलत हो गया। एक बोने वाली जाति है और एक चरानेवाली। ऐसे में पंच किसी तीसरे को होना चाहिए था!’ बोने-चरानेवाली बात हास्य में कही गई थी, लेकिन बिहार की जातीय हकीकतों को बेपर्दा करती है। 
पहली नजर में यह गठबंधन मजबूत पिछड़ी जातियों का आर्थिक-पारिवारिक फोरम लगता है। वंशवाद विरोधी लोहिया के ये अधिकांश चेले दिलोजान से वंशवादी हैं। शरद ने देर से शादी की थी, उनके वंशवाद की परीक्षा होनी बाकी है। इन दलों का सबसे बेस्ट प्रोडक्ट बाजार में पच्चीस साल पहले आ चुका है, उसके बाद की योजना जो होनी चाहिए थी उसे सिर्फ थोड़ा-थोड़ा नीतीश कुमार समझ पाए थे। 
इन दलों के नेता अपने अंतर्मन से उतने ही दलित-विरोधी हैं जितना कोई सवर्ण हो सकता है। मामला सिर्फ अवसर का है। आप मुलायम प्रायोजित गेस्ट हाउस कांड याद करें या नौकरियों में दलित प्रोन्नति का विरोध, आप मांझी प्रकरण याद करें या उससे भी महीन तरीके से लालू द्वारा हर तिकड़म करके सन् 90 में रामसुंदर दास को रोकना...या आप जाट सम्राट चौटाला के दौर में दलितों पर हुए हमलों को देखें आपको पता चल जाएगा कि दबंग पिछड़े नेताओं के लिए भी दलित सिर्फ साथ में फोटो खिंचवाने का औजार है। यह वैसा ही मामला है जैसा सवर्ण नेताओं के दौर में था। ऐसे दलित नेताओं को व्यंग्य से कांशीराम ‘सरकारी दलित’ कहते थे ! जबकि दलित राजनीति उससे एक कदम आगे बढ चुकी है। उसे अब ‘पेटी कांट्रेक्ट’ नहीं चाहिए, उसे ‘सॉलिड टेंडर’ चाहिए।
सबसे बड़ी बात ये कि क्या उत्तर भारत के इन पिछड़े सरदारों ने दक्षिण के अपने समकक्षों से कोई सबक सीखा है? कामराज, अन्नादुरई, चंद्रबाबू या यहां तक कि बंशीलाल ने जो काम हरियाणा में किया था, क्या उसका कोई भी संकेत लालू-मुलायम के पास है? इनकी समाजिक न्याय सन् 90 में बिल्कुल सटीक थी, लेकिन उसके बाद जो पीढी पैदा हुई है उसने हिंदी फिल्मों में भी राइफल वाले घुड़सवार ठाकुर नहीं देखे हैं। दिक्कत यहां है। पिछड़े नौजवानों को भी अपने सूबे में नौकरी चाहिए, उसे तोंदवाले समधी यादव नहीं चाहिए। उसे खैनी खानेवाला भदेस भी नहीं चाहिए। बल्कि उसे तो सूट-बूट और अंग्रेजी वाले बाबा साहब ज्यादा डैशिंग लगते हैं। जनता परिवार इस हकीकत से जबर्दस्ती मुंह चुरा रहा है।
जहां तक मुसलमानों की बात है तो वो मजबूरी में इनके साथ है। जिस दिन यूपी-बिहार में इनका विकल्प मुसलमानों को मिल गया, जनता परिवार का हाल वहीं होगा जो दिल्ली में कांग्रेस का हुआ। दरअसल उत्तर भारत राजनीतिक परिवर्तन के लिए छटपटा रहा है जिसकी चाबी न तो जनता परिवार के पास है और न ही कांग्रेस के पास। बीजेपी की शक्ल में दक्षिणपंथ का एक खूंटा मजबूत है, लेकिन तंबू का दूसरा खूंटा दिख नहीं रहा। फिर भी राजनीति कभी शून्य नहीं रहने देती। हां, ऐसे प्रयोगों से नई संभावनाएं जरूर बनती हैं। ये प्रयोग नए खिलाड़ियों को उभरने का मौका भी देते हैं। चलिए कुछ पॉजिटिव सोचा जाए।