Monday, January 18, 2010

ज्योतिदा… ‘जीडीपी’ तुम्हे जरुर माफ नहीं करेगी...!

देश के बड़े नेताओं में से एक ज्योति बसु चले गए...लेकिन वे हमारी पीढ़ी के ऊपर भी एक अमिट छाप छोड़कर गए। हम इतिहास के उस काल में जी रहे हैं जब नेहरु काल के साक्षी रहे एक-एक नेता धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं और देश की हुकूमत अब उन लोगों के हाथ आ रही है जो या तो आजादी के बाद पैदा हुए या जिन्होने उस के बाद होश संभाला था। राजनीति की हमेशा से अपनी नैतिकता रही है और असंभव को संभव बनाने की कला के रुप में ये हर घड़ी..हर मिनट अपना रुप बदलती रही है। ऐसे में ज्योति बसु का जाना निश्चय ही एक बड़ा खालीपन छोड़ जाता है।
आमतौर पर हमारी पीढ़ी ज्योतिदा को एक सौम्य, सुसंस्कृत और मितभाषी नेता के रुप में जानती रही है जिन्होने अपने होने का कभी ज्यादा विज्ञापन नहीं किया। उन्होने अपने लंबे शासनकाल का कोई गुरुर नहीं पाला जबकि अक्सर उनकी पार्टी इस दंभ से पीड़ित दिखी। ज्योतिदा भारतीय इतिहास के संभवत: ऐसे पहले नेता हुए जिन्होने इमानदारी से भूमिसुधार लागू किया और ग्रामीण बंगाल में सशक्तिकरण की एक ज्योति पैदा की। आज बंगाल में सबसे कम भूमिविवाद के मामले हैं और शायद इस वजह से भी वो अपराध सूंचकांक में निचले पायदान पर है। लेकिन वे भी समझ चुके थे कि जिस बंगाल को ‘80 के दशक में उनकी सख्त जरुरत थी वो 21 वीं सदी के शुरुआत में दूसरी चुनौतियों से रुबरु हो चुका था। वाम राजनीति और ट्रेड यूनियनों के सख्त साये में बंगाल..औद्योगिकरण की दौर में पिछड़ता गया और ‘सिटी ऑफ ज्वाय’ कहा जाने वाला कलकत्ता ‘दोयम दर्जे’ का होता गया। राजीव गांधी ने एक दफा कलकत्ता को मुर्दों का शहर तक कह डाला था-जिस पर बंगाली भद्रमानुषों ने आपत्ति जताई थी। अवसरों की तलाश में छटपटाता बंगाल का मध्यवर्ग...दिल्ली-बंबई के युवाओं की तुलना में असहाय महसूस करने लगा और यहीं से बंगाल की वाम राजनीति चरमराने लगी। जिस वाम ने कभी गांवो और किसानों की सशक्तिकरण के लिए सब कुछ किया था उसी के नौजवान होते बच्चे अब वाम सरकार से उदारीकरण के दौर में अपना सही मुकाम मांग रहे थे।

लेकिन क्या ज्योति बसु को हम या हमारा इतिहास सिर्फ इसी आधार पर आंकेगा कि उनके दौर में बंगाल की जीडीपी क्या थी? या फिर उस दौर की समग्र कसौटियों पर उनकी गणना की जाएगी?

हमें याद है कि बिहार के सुदूरवर्ती गांव में जब हम होश संभाल रहे थे...उसी वक्त लोगों का नौकरी की खोज में कलकत्ता जाना कम होने लगा था। ये ‘80 के दशक की बात होगी। ‘श्रम’ ने अपना रास्ता दिल्ली, पंजाब और बंबई की ओर मोड़ लिया था। ये तय होता जा रहा था कि बंगाल के पास अब देने को पैसे नहीं है। लेकिन हमारी पूरी पीढ़ी बंगालियों की बौद्धिकता, उनकी संस्कृति और साहित्य से गजब प्रभावित थी। हम अखबार देखते तो बंगाली के रुप में ज्योतिदा ही नजर आते-वे हमारे जन्म से लेकर पूरी जवानी तक हमें बंगाल के रुप में दिखे। हम उनके व्यक्तित्व के आईने में रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर..शरत और बंकिम तक को देखते। ये यकीन ही नहीं होता कि इस सौम्य और धवल व्यक्तित्व के साये में उनकी पार्टी ‘गुंडई’ भी करती होगी।

लेकिन ये एक ज्वलंत प्रश्न है कि क्या बंगाल में सिर्फ मार्क्सबादियों की वजह से ही आर्थिक विकास रुक गया या इसके कुछ और भी कारण थे ? अगर ऐसा था तो फिर पूरा का पूरा उत्तरभारत क्यों विकास के पैरामीटर पर फिसड्डी नजर आता है।

दरअसल, भारत के मौजूदा ढ़ांचे में आर्थिक विकास कई कारकों का नतीजा है। राज्यों की हालत केंद्र के सामने वैसे भी नगरपालिका से ज्यादा नहीं-इसले अलावा देश के अलग-अलग इलाकों की भौगोलिक बनाबट इसमें बड़ा रोल अदा करती है। एक लंबे वक्त तक केंद्र की कांग्रेस और भाजपा सरकारों के वक्त ज्योतिदा और उनकी पार्टी को ये मंजूर नहीं था कि विकास का वो ढ़ांचा स्वीकार किया जाए जो 11 फीसदी जीडीपी देती है। उन्होने साबुन और कॉस्मेटिक के क्षेत्र में निवेश को खारिज कर दिया लेकिन जब ‘सही निवेश’ की बारी आई तो हालात हाथ से निकल चुके थे। इतिहास कई बार बहुत देर से मौका देता है। बंगाल की बढ़ी हुई आबादी, ये विकल्प नहीं देती कि सिंगूर जैसी परियोजना लागू की जाए। ऐसे में ममता बनर्जी… ‘जनवाद’ और किसानों की स्वाभाविक नेता नजर आ रही है जो उस गठबंधन की सदस्य है जो वैश्विक पूंजीवाद का बेहतरीन दोस्त है।

हां, एक बात जो तय है कि ज्योतिदा...वामपंथ को पूरी तरीके से आधुनिक पपिप्रेक्ष्य में नहीं ढ़ाल पाए। वे ट्रेड यूनियनों को एक हद से ज्यादा लगाम नहीं लगा पाए और कलकत्ता की छवि बिगड़ृती चली गई। शायद इसकी एक वजह ये भी हो कि उनकी और उनके पार्टी की पूरी उर्जा गैरकांग्रेस और बाद में गैर-भाजपावाद के विकल्प को तलाशने में ही लगी रही....।

लेकिन ज्योतिदा ने जिस बंगाल को छोड़ा वो सबसे कम भेदभाव वाला राज्य था। वो समाजिक सौहाद्र और भाईचारे का अद्भुद प्रतीक बन गया। बंगाल की मौजूदा पीढ़ी अपने दिल्ली और बंगलोर के समकक्षों की तुलना में भले ही ज्योतिदा की नीतियों की आलोचना करे...लेकिन ये ज्योति बसु की नीतियों का ही नतीजा था कि उत्तरभारत में शायद पहली बार किसी राज्य में शताब्दियों से चले आ रहे समाजिक-आर्थिक भेदभाव का अंत हो सका। आज का बंगाल अगर एक साथ उड़ान भरने को व्याकुल दिख रहा है तो ये ज्योतिदा के ही नीतियों का परिणाम था-हां ज्योतिदा को जीडीपी का इतिहास जरुर माफ नहीं करेगा।

Wednesday, January 13, 2010

जब आंख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है...

प्रतिभा कटियार
अभी-अभी कैलेंडर बदला है. अभी-अभी हमने पिछले बरस के अचीवमेंट्स का बहीखाता बंद किया है. अभी तक हमारे चेहरों पर सक्सेस की मुस्कुराहटें कायम हैं. जश्न दर जश्न...टीआरपी दर टीआरपी...सर्कुलेशन दर सर्कुलेशन... बेहद झूठी, खोखली सफलताओं के शोर में हमारी रूहें तबाह हो चुकी हैं. खाल को खुरचो तो फिर खाल ही निकलती है...खून नहीं...दर्द नहीं...कहकहे...कयामत बरपाने वाली हंसी. तमिलनाडु वाली वो खबर जैसे जेहन में कैद है अब तक. वो सड़क पर पड़ा कराह रहा था...तड़प रहा था...खून ही खून...दर्द ही दर्द. चिल्लाता, कराहता वह सब इंस्पेक्टर हमारे कहकहों के शोर में दम तोड़ गया. सत्तानशीनों के काफिले गुजरते गये...लेकिन किसी के कानों में उसकी आवाज नहीं गयी. कोई नहीं रुका...कोई नहीं. मरना उसकी नियति थी. वो मर गया. हमारे पास चैनल बदलने के ऑप्शन थे. लाफ्टर शो थे, सीरियल, एमटीवी...रजाइयां नींदें...सवेरा और जिन्दगी...उसके पास नहीं था कुछ भी. उसके परिवार के पास भी कुछ नहीं था. सोचती हूं तो क्या वो इंस्पेक्टर ही मरा था सड़क पर जिंदगी मांगते हुए. वो जिंदगी जो उसकी थी. जिसे किसी की भी एक छोटी सी पहल से सहेजा जा सकता था. नहीं, वो इंस्पेक्टर नहीं मरा था, वो हमारी मौत थी. हमारी आत्माओं की मौत. ढूंढिये तो हमारे शरीरों में बहता हुआ खून सफेद हो चुका है. कहकहों के शोर में तकलीफें गुम हो चुकी हैं. हममें से कितने लोग हैं जो सिर्फ सांस भर नहीं ले रहे बल्कि जी रहे हैं. मंजूनाथ जी रहा था...चंद्रशेखर भी जीना चाहता था...और भी बहुत सारे नाम हैं. जो सचमुच जीना चाहते हैं लेकिन हम उन्हें जीने नहीं देते. वे दम तोड़ देते हैं इसी तरह सड़कों पर, गलियारों में, घरों में, कैम्पस में. ऐसे किसी भी व्यक्ति की मौत हर उस व्यक्ति की मौत भी होती है जो कहीं जिंदा है अब तक अपनी आत्मा के साथ. सवाल किससे करें. जवाब कौन देगा. हम आतंकवादियों से लडऩे की बात कर रहे हैं (सिर्फ बात). वो तो खुले दुश्मन हैं. उनके इरादे पता हैं हमें. तरीके भी. लेकिन क्या होगा उन दुश्मनों का जो हमारे ही भीतर छुपा बैठा है. जो हमारी आत्माओं में दीमक की तरह लग गया है. किस उल्लास में डूबे हैं हम. क्या सचमुच उल्लास का, सुख का कोई कारण है? जीडीपी ग्रोथ बढ़ रही है और हम अंदर ही अंदर खोखले हो रहे हैं. हमारे बच्चे खुदकुशी कर रहे हैं. हमारे रिश्ते हमसे मुंह चुरा रहे हैं. हमारे अपने हमारी ओर हसरत से देखते हुए दम तोड़ रहे हैं और हम खुश हैं. क्या हर पल अपनी आत्मा के मरने की आवाज सचमुच किसी को सुनाई नहीं देती. क्या यह एक बड़े जनआंदोलन का वक्त नहीं है. जिस समाज में निदोर्षों को किसी भी पल मौत का खौफ सता रहा हो, उस समाज में कहकहों के सहारे जीने की कोशिश को क्या कहा जाये. यह तो कुछ ऐसा ही है कि घर चाहे जैसा हो दरवाजे पर मखमल के पर्दे $जरूर लटकाना. हमारी लहूलुहान आत्माओं पर, किसी के दुख से विचलित होने की, आंखों की कोरें नम होने की इंसानी जरूरतों पर पर्दा डाल रहे हैं ये सक्सेस आंकड़े, ये ग्लैमर, ये शोर, कहकहे. गालिब याद आते हैं कि रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल...जब आंख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है...

Sunday, January 10, 2010

हम कहां जा रहे हैं....?

तमिलनाडु में हाल ही में एक सब-इस्पेंक्टर की मंत्रियों के सामने बेरहमी से हत्या और उसे बचाने में अधिकारियों के द्वारा दिखाई गई अनिच्छा ऐसी पहली घटना नहीं हैं जो हमारी बढ़ रही संवेदनहीनता की तरफ इशारा करती है। ऐसी घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं जिसमें कहीं किसी मीडियाकर्मी ने किसी को महज इसलिए नहीं बचाया कि उसे बेहतरीन स्टोरी मिल रही थी। रोडरेज की घटनाएं हों या फिर नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा बलात्कार की खबर-अब ये खबरें हमारी संवेदना को नहीं झकझोड़ती। ऐसा लगता है कि हम इन घटनाओं के प्रति इम्यून होते जा रहे हैं। 6 महीने की अवोध वालिका से लेकर 80 साल की बुजु्र्ग महिला तक सुरक्षित नहीं। ऐसे में सवाल ये है कि एक मुल्क के तौर पर हम विकास के जिस स्टेज से गुजर रहे हैं, क्या वाकई वो डेवलपमेंट कहे जाने लायक है?

दरअसल, हम ऐसे नकली विकास और जीडीपी ग्रोथ के आंकड़ों में उलझे हुए हैं कि हमें पता ही नहीं है कि देश की जनता किन हालातों में जी रही है। हम खुश है, हमारी सरकारें खुश हैं कि 10 फीसदी ग्रोथ हो रहा है लेकिन आए दिन बेगुनाह मारे जा रहे हैं-लेकिन उस सबसे से इस ग्रोथ पर थोड़े ही कोई असर होता है। सवाल ये भी है कि क्या सिर्फ अंधे विकास से हमें कुछ मिलने वाला है? हमने मानवीय मूल्यों का विकास नहीं किया है। हमने पश्चिम के उस विकास मॉडेल को अपना लिया है जिसमें पैसा कमाना ही सबसे बड़ी काबिलियत है। हमने नैतिकता की छद्म परिभाषा गढ़ ली है जिसमें किसी लड़की अपनी मर्जी से शादी करना तो खाप पंचायतों के दायरे में आता है लेकिन किसी बेगुनाह इंस्पेक्टर का मारा जाना नहीं।

आप गौर कीजिए, उन मामलों पर जिनमें मानसिक दवाब के तहत बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं-इसलिए की उनके मां-बाप उन्हे आईआईटी में जाने का दवाब डाल रहे है। हमारे देश में इतनी कम सुविधाएं पैदा की गई है कि कुछ मलाईदार जगहों के लिए लोग आपस में मर रहे हैं या मार रहे हैं। ये केंद्रीकृत विकास हमें कहीं का नहीं छोड़ रही। हम ऐसे हिंदुस्तान में जी रहे हैं जहां छोटे शहर से आनेवालों से उनकी आईडेटिटी पूछी जा रही है और गांव वाले सिर्फ भेड़बकरियों की तरह हैं!

दूसरी बात, हमारे नैतिक मूल्यों से जुड़े हैं। हम लालची और व्यक्ति केंद्रित होते जा रहे हैं और इसे पेशेवराना अंदाज कहा जा रहा है। इसकी तारीफ की जा रही है-बच्चों को यहीं सिखाया जा रहा है।
तो फिर रास्ता क्या है? हमें सोचना होगा कि हम किधर जा रहे हैं। सरकार और वुद्धजीवियों का रोल यहां अहम हो जाता है।

Friday, January 1, 2010

क्यों न दर्ज हो तिवारी के खिलाफ मुकदमा?

किसी बड़े बुद्धिजीवी की उक्ति है- हम कई औरतों से इसलिए प्रेम करते हैं क्योंकि दुनिया में बुद्धिमान लोगों की भारी कमी है...और इश्वर ने हमें इस विशेष काम के लिए भेजा है कि बुद्धिमान लोगों की आपूर्ति बनी रहे। एन डी तिवारी को बुद्धिजीवी के खांचे में रखने से बहुतों को एतराज होगा लेकिन एन डी ने इस उम्र में युवाओं को जरुर चुनौती दे दी है वे उनकी उर्जा और प्रतिभा का मुकाबला करें। यूं हमारी जनता शासक वर्ग के ऐसे मामलों को 'देवलोक' का मामला मानती रही है और उनके किसी कृत्य के लिए किसी 'खाप' पंचायत का इंतजाम अभी तक नहीं किया गया है। लेकिन सवाल ये है कि क्या एन डी तिवारी को महज उम्र और 'सार्वजनिक जीवन' में उनके 'योगदान'(!) की वजह से छोड़ देना चाहिए?

पक्ष-विपक्ष के नेताओं को मिलाकर तिवारी जैसे बिगड़ैल सांढ़ों का तंत्र इतना ताकतवर है कि वो किसी भी संपादक को वो चीज दे सकता है जो उसे अपने पूरे करियर में लालाओं ने नहीं दी होगी। इसलिेए उनसे किसी भी तरह की उम्मीदे पालना बेकार है। हां, गैरपरंपरागत मीडिया ने जरुर तिवारी के खिलाफ बोलना जारी रखा है। वो तो भला हो यू-ट्यूब का कि 'नारायण' के 'रासलीला' का आनंद जनता लाईव ले सकी।

लेकिन क्या तिवारी को महज राज्यपाल पद से हटा दिया जाना उनकी(या उसकी?) सजा है? तिवारी ने क्या गुनाह किया कि उसके पीछे लोग बल्लम-बर्छे लेकर पिल पड़े? दो वयस्क व्यक्तियों का आपसी सहमति से संबंध कैसे आपराधिक हो सकता है?

लेकिन तिवारी ने आपराधिक गलती की है--

1. राजभवन सेक्स कांड के बारे में कहा गया है कि तिवारी को ये महिलाएं इसलिए मुहैया कराई गई कि उन्होने खदानों के ठेके दिलवाने का भरोसा दिलाया था। अगर वाकई ऐसा था तो तिवारी पर भ्रष्टाचार का मुकदमा दर्ज होना चाहिए और इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए।
2. तिवारी जिस पद पर बैठे थे वहां वे प्रत्य़क्ष या अप्रत्यक्ष रुप से कई लोगों को उपकृत या उपेक्षित कर सकते थे। ऐसे में अगर ये महिलाएं तिवारी के पास किसी दवाब बस भेजी गई या हमबिस्तर हुई तो तिवारी पर बलात्कार के एंगिल से जांच होनी चाहिए।
3. तिवारी ने ऐसा कर के राजभवन की गरिमा को ठेस पहुंचाया है जिसको बरकरार रखने की बात उन्होने अपने पद की शपथ लेते समय कही थी। ऐसा करके उन्होने संविधान का उल्लंघन किया है और इसके लिए सिर्फ उन्हे पद से हटाया जाना काफी नहीं। एक उच्च कार्यालय में बैठने लायक विश्वसनीयता की उन्होने हत्या की है।
4 इस एंगिल से भी जांच होनी चाहिए कि क्या एक साथ कई महिलाओं के साथ संबंध बनाना अप्राकृति यौनाचार की श्रेणी में आता है या नहीं? क्या भारतीय दंड विधान में ऐसा प्रावधान है जो इसे कानूनन सही मानता है?

तिवारी को जो सजा मिली है वो सिर्फ पॉपुलर सेंटीमेंट्स को तुष्ट करने के लिए मिली है न कि उनके वास्तविक अपराधों के लिए। यहां सवाल नैतिकता का बिल्कुल नहीं है-सवाल इसका है कि उन्होने संविधान का शपथ लेकर उसकी धज्जियां उड़ाई है और सत्ता के शीर्षस्थलों में से एक राजभवन में भ्रष्टाचार के साथ रंगरेलियां की है। एन डी तिवारी एक बड़े अपराधी हैं और उनके कारनामों की जांच होनी चाहिए और जबजक वे पाकसाफ नहीं करार कर दिए जाते उनसे तमाम सरकारी सुविधाएं और उनका पेंशन छीन लिया जाना चाहिए।

(ये लेख 'जनतंत्र' पर आ चुका है- http://janatantra.com/2010/01/01/sushant-jha-on-n-d-tiwari-sex-scandal/