Tuesday, January 24, 2012

कोसी(पुल)कथा-2


एक जमाना था जब दोनों इलाके रेललाईन से जुड़े हुए थे। निर्मली से भपटियाही रेललाईन थी। लेकिन सन् 1934 के भूंकंप में वो पुल भी टूट गया। फिर तो सारा कुछ बर्बाद हो गया। तमाम पुराने संबंध खत्म होते गए। दरभंगा-मधुबनी वालों के लिए सहरसा-पूर्णिया की चर्चा दंतकथा जैसी हो गई। मेरी दादी बताती थी कि उस पार परसरमां की एक काकी थीं, उधर चैनपुर नामका कोई गांव था। हम गौर से उन गावों का नाम सुनते और कल्पना करते कि वे गांव कहां होंगे। हम बनगांव-महिषी का नाम सुनते और वहां की प्रसिद्ध उग्रतारा भगवती की कहांनियां सुनते। कोई दूर के संबंधी उधर से आते तो बनगांव के संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं की कहानी सुनाते। हवा का कोई ताजा सा झोंका आता।

लेकिन हम चाहकर भी उस पार आसानी से नहीं जा पाते। सहरसा या पूर्णिया जाने का मतलब था पांच जिला पार कर के जाना। ट्रेन या बस से जाने का मतलब था लगभग 18-20 घंटे का सफर। ऐसा ही उस पार के लोगों के लिए भी था। दिल्ली जाना आसान लगता था, लेकिन पुर्णिया जाना दुरुह। हम रेणु का मैला आंचल पढ़कर अंदाज लगाते कि फारबिसगंज कैसा होगा। पुरनिया कैसा होगा। श्रीनगर, चंपानगर स्टेट, गढ़बनैली स्टेट, कुमार गंगानंद सिंह...सिंहेश्वर स्थान.. मैथिली-हिंदी के ढ़ेरों प्रसिद्ध साहित्यकार उधर से हुए। हिंदी-मैथिली के प्रसिद्ध साहित्यकार राजकमल चौधरी महिषी के ही थे।

पिताजी की एक बुआ उधर ही ब्याही थी, परिहारी गांव में। शायद अब अररिया में है। दादाजी अक्सर उस पार जाते, बताते कि उधर पटुआ(पटसन) की खेती बहुत होती है। किसानों के पास बहुत जमीन हैं। बड़े जमींदार हैं, लेकिन साथ ही ये भी बताते कि इलाका
थोड़ा पिछड़ा हुआ है। सड़के खराब हैं...और लोग मोटा खाते-पहनते हैं ! ये बातें उस वक्त समझ में नहीं आती थी। हम
मधुबनी-दरभंगा के लोग अपने आपको थोड़ा ऊंचा समझते! अकड़ में रहते! कोसी के इलाके को हमारे इलाके के लोगों ने कोसिकंधा बना दिया!

दरभंगा वालों ने उन्हें हमेशा कम करके आंका। एक श्रेष्टतावोध उन पर हमेशा हावी रहा!शायद ऐसा मैथिली साहित्य में भी हुआ। दरभंगा और सहरसा वालों में अक्सर शीतयुद्ध चलता रहता। दरभंगा वाले अक्सर अपनी मैथिली को मानक मैथिली साबित करने की कोशिश करते। वे उधर की मैथिली पर नाक-भौं सिकोरते। दुर्भाग्यवश कमोवेश अभी भी वैसी ही मानसिकता है।
ये बातें बचपमें भेजे में अंटती नहीं थी। हमें क्या पता था कि कोसी ने बीती सदियों में उस इलाके का ये हाकर दिया है कि हमारे इलाके के लोग उसे कोसिकंधा कहने लगे।पिछली ढ़ाई शताब्दियों में कोसी करीब 120 किलोमीटर खिसक कर पश्चिम आ गई।पिछली बार यह चालीस के दशक में पश्चिम की तरफ खिसकी थी। यानी इसने करीब 8 बार अपनी धारा बदली। सैकड़ों गांव, हजारों-लाखों लोग बेघर हो गए।जमीन रेत से पट गई। तो फिर उस इलाके का क्या हाल हुआ होगा...?
आजादी के बाद कुछ कोशिशें हुई, लेकिन कामयाब नहीं हो पाई। पचास के दशक में नेपाल के साथ एक समझौता करके कोसी पर तटबंध बनाने की शुरुआत हुई। कोसी की भुजाओं में मानो हथकड़ी डाल दिया गया। साठ के दशक में प्रसिद्ध नदी घाटी परियोजना कोसी प्रोजेक्ट शुरु हुई। मेरे गांव से होकर पश्चिमी कोसी नहर की मुख्य शाखा जाती है। इसे सन् 1983 में पूरा हो जाना था। तीस साल होने को आए, लेकिन वो आज तक नहीं बन पाई। सुना कि पूर्वी कोसी नहर लगभग
कामयाब हो गई। अगर ठीक से शोध किया जाए तो पश्चिमी कोसी नहर की विफलता बिहार के भ्रष्टाचार की कहानियों में शीर्ष स्थान हासिल करेगी।
लेकिन लाख प्रयासों के बावजूद कोसी पर फिर से पुल नहीं बनाया जा सका। न तो रेल पुल, न ही सड़क पुल। इस तथ्य के बावजूद कि सूबे पर लंबे समय तक राज करनेवाला और राजनीति को प्रभावित करनेवाला एक प्रमुख परिवार उसी इलाके से आता था। पूर्व रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र को इलाके में काफी प्रतिष्ठा मिली-खासकर मधुबनी-दरभंगा में। कहते है कि उन्होंने कोसी पर फिर से रेल पुल बनवाने की कोशिश भी की थी। लेकिन इसमें वे कामयाब हो पाते, इससे पहले ही वे दुनिया से कूच कर गए। उनके मुख्यमंत्री भाई ने फिर उस इलाके की तरफ बहुत ध्यान नहीं दिया।
करीब एक दशक पहले जब अटल बिहारी वाजपेयी ने कोसी पुल का शिलान्यास किया तो अचानक एक उम्मीद सी जगी। सदियों की प्यास मानों जिंदा हो उठी। सन् 2012 में अब वो जुड़ाव पूरा हो गया है। कोसी पुल के साथ बिल्कुल उससे सटे हुए रेल पुल का भी निर्माण हो रहा है। राजनीतिक कारणों से उसमें विलंब हो रहा है। मैं पुल पर ख़ड़ा होकर सोच रहा हूं कि अगली बार चाय पीने पुरनियां जरुर जाऊंगा। या फिर अपने जैसे यार मिल गए तो सिलीगुड़ी तक जाऊंगा। उस पार से छोटी बसों और टैक्सियों में सबार होकर कुछ झुंड के झुंड स्कूली बच्चे कोसी पुल देखने आ रहे हैं। कभी पंडित नेहरु ने कल-कारखानों और पुलों को आधुनिक भारत का तीर्थ कहा था। ये बच्चे उसी तीर्थ को देखने आए हैं। उनकी आंखों की चमक में मैं इस इलाके का सपना ढ़ूंढ रहा हूं। वो सपना मुझे साफ दिखाई दे रहा है। (जारी)

कोसी(पुल) कथा-1

पिछले महीना गांव गया तो कोसी पुल देखने चला गया। बहुत दिनों से मन में इच्छा थी कि कोसी पुल को देखा जाए, कोसी नदी को देखा जाए। सो इस बार गांव जाते ही एक दोस्त के साथ बाईक पर सबार हुआ और चला निर्मली की तरफ... जहां कोसी पर महासेतु का निर्माण किया गया है।

निर्मली में जहां कोसी महासेतु है, वो जगह मेरे गांव खोजपुर(मधुबनी) से करीब 45 किलोमीटर पूरब है। सड़कें अच्छी हो गई है। मेरे गांव से खुटौना 7 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में है और वहां से फुलपरास करीब 18 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व । फुलपरास में हमें एनएच 57 मिल जाती है जो ईस्ट-वेस्ट कॉरिडोर का हिस्सा है। ये सड़क चार लेन की है जो गुजरात से मिजोरम तक जाती है। पोरबंदर से शुरु होकर यह सड़क, राजकोट, कांडला, उदयपुर, कोटा, झांसी, कानपुर, लखनऊ, गोरखपुर होते हुए गोपालगंज में बिहार में प्रवेश करती है। फिर मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी होते हुए सुपौल, अरड़िया, पुर्णिया चली जाती है। फिर वहां से बंगाल, असम और मिजोरम। ऐसी सड़क इससे पहले बिहार में सिर्फ जीटी रोड थी जो स्वर्णिम चतुर्भुज का हिस्सा है और गया के पास से गुजरती है। अब तो बिहार में कई जगह चार लेन की सड़के बन रही है।

तो हम बात कर रहे थे
कोसी महासेतु की। हम सुबह करीब 10 बजे चले थे। पुराना वक्त होता तो हम जाने की हिम्मत नहीं कर पाते। एक तो पहले सड़कें खराब थी और फिर उस इलाके को कोसिकंधा बोलते थे। पता नहीं कब क्या हो जाए। कोसिकंधा अपने आप में नकारात्मक भाव छुपाए रखता था, कोसी ने इलाके को तबाह कर दिया था। फिर भी लोग कोसी को महारानी या मैइया बोलते! शायद इसका कारण भय रहा हो, या नदियों के प्रति हमारी श्रद्धा! लेकिन अब माहौल दूसरा था। हम फुलपरास में रुके, वहां पान खाया, बाईक में तेल डलवाया और फिर रवाना हुए निर्मली की तरफ।
चार लेन की सड़क पर थे। निर्मली महज 20 किलोमीटर दूर थी, यानी बीस मिनट का सफर था। ये बाढ़ का इलाका है, कोसी की कई सहायक नदियां इधर से बहती हैं। भुतही बलान, तिलयुगा, सुगरवे और न जाने क्या-क्या। इन नदियों का नाम मैं बचपन से सुनता आ रहा था, लेकिन इस इलाके
में जाना पहली बार हो रहा था। सड़क जमीन से काफी ऊपर बनी है। शायद ऐसा इसलिए कि बाढ़ का पानी उस पर चढ़ न जाए। हरेक किलोमीटर-दो किलोमीटर पर पानी के बहाव के लिए साईफन बनाया गया है। हरेक नदी-नाले के ऊपर भीमकाय पुल बनाया गया है। हम हरेक पुल पर उतर कर वहां से नीचे पानी के बहाव को देखते। ये बरसाती नदियां हिमालय से नेपाल की तरफ से आती हैं। ये नदियां कभी बाढ़ के लिए कुख्यात रही हैं, इतनी कुख्यात की लोगों ने इनका नाम भुतही, सुगरवे न जाने क्या-क्या रख दिया!

फुलपरास से आगे(पूरब) भुतही बलान है, फिर नरहिया गांव और उसके पूरब कोसी। यानी नरहिया, भुतही और कोसी के बीच में है। बुजुर्गों का कहना है कि नरहिया पहले बाजार हुआ करता था। लेकिन पश्चिम से भुतही ने और पूरब से कोसी ने उसे काटना शुरु कर दिया। नरहिया बाजार उजड़ गया। ये सन् 50 के दशक की बात होगी। नरहिया के व्यापारी आस-पड़ोस के गांवों-कस्बों में पलायन कर गए। नरहिया से पूरब और भी ऐसे कई गांव थे जो अब कोसी के पेट में समा चुके हैं। उनका नामो-निशान इस दुनिया से मिट चुका है। वहां के लोग प्रवासियों की तरह दिल्ली-मुम्बई और पटना-सहरसा में रह रहे हैं। बहरहाल ये कहानी आगे।

नरहिया से आगे गए तो तिलयुगा घार( ये बरसाती नदी भी नेपाल की तरफ से आती है, जो फिर कोसी में ही मिल जाती है) मिला, फिर कोसी का पुराना पश्चिमी तटबंध। वो तटबंध कोसी के पश्चिमी किनारे पर बनाई गई थी और नेपाल की तरफ से आती है। उस पर पक्की सड़क बन रही थी। बिहार सरकार तन्मयता से सड़क निर्माण कार्य में जुटी हुई थी। उसके बाद कोसी का मूल इलाका शुरु होता है। यानी वो इलाका जो नदी का पाट नहीं था लेकिन जब नदी में पानी आती थी तो वहां तक का कम से कम पूरा हिस्सा जलाप्लावित हो जाता था। ऐसा ही तटबंध कोसी के पूर्वी तट पर भी बनाया गया था। यानी कोसी का पाट मान लीजिए 4-5 किलोमीटर चौड़ा होगा तो दोनो तटबंधों के बीच का इलाका कम से कम 15 किलोमीटर चौड़ा होगा। यानी ये इलाका कोसी के रहमोकरम पर था। इसमें कई गांव थे, हैं, जो बाढ़ के वक्त प्रकृति के रहमोकरम पर जिंदा रहते हैं। यों, इस वजह से यहां की आबादी बिरल है।

बहरहाल, हम पश्चिमी तटबंध के नजदीक एक पान की दुकान पर रुके। महासेतु की दूरी पूछी तो पता चला कि महज 5 किलोमीटर है। हाईवे पर खूबसूरत साईनबोर्ड चमक रहे थे...पूर्णिया 140 किलोमीटर, फारबिसगंज 80 किलोमीटर, गोहाटी 700 किलोमीटर...! यकीन नहीं हो रहा था कि यहां से पूर्णिया मात्र तीन घंटे की दूरी पर है...और फारबिसगंज मात्र सवा घंटे में...! रेणु के उपन्यास का पुरनियां...फारबिसगंज....मैलां आंचल का इलाका...!


रास्ते में हाईवे पर कई मरे हुए जानवर मिले। खासकर गीदड़ और कुत्ते। एक जगह कुछ भेड़ भी मरे हुए मिले। लोगों ने बताया कि हाईवे पर इतनी तेज रफ्तार से गाड़िया चलने लगी है कि बहुत जानवर मरते हैं। भेड़हरों(गड़ड़िये) के एक समूह से बात हुई, उसने कहा कि वो सुपौल की तरफ से आया है। उसने पूछा कि बाबू आपकी तरफ भी हमारी जाति के लोग हैं क्या..?
ज्यों-ज्यों कोसी के नजदीक जाता गया, आबादी बिरल होने लगी। मीलों तक निर्जन जमीन...उजाड़ सी धरती। नीची जमीन...लो लैंड..नदी के किनारें कई किलोमीटर तक बालू ही बालू...। अतीत में आई बाढ़ की विभिषिका ने मानों जीवन को लील लिया था।

आखिरकार हम कोसी महासेतु के नजदीक पहुंच गए। पुल से पहले हाईवे टॉल प्लाजा बनाया जा रहा था। उसका रंग-रोगन किया जा रहा था। पूछने पर पता चला कि 6 फरवरी को पुल का उद्घाटन होनेवाला है। प्रधानमंत्री आएंगे।

हमने बीच पुल पर अपनी बाईक खड़ी की। हमारा दिल धड़क रहा था। हम उस नदी को गौर से देखना चाहते थे जो उत्तर-बिहार का शोक कही जाती थी। जिसने मिथिला को भौगोलिक रूप से दो भागों में बांट दिया था। ऐसा लग रहा था मानो भारत-पाकिस्तान बन गया हो। मधुबनी-दरभंगा एक तरफ और सहरसा-पूर्णिया एक तरफ। हम पुल के उस पार यानी नदी से पूरब की तरफ कुछ दूर गए। हमने पूरब के आसमान को ताका। दूर क्षितिज पर कुछ पंछी उड़ रहे थे। शायद वे पुर्णिया की तरफ से आ रहे थे...! (जारी)