Tuesday, February 14, 2012

कोसी (पुल) कथा-5

कोसी पर पुल बनने से मधुबनी-दरभंगा में काफी खुशी थी। हर चौक, हर चौराहे पर कोसी पुल की चर्चा जरूर होती थी। जो वहां से पहले हो आए थे वे इसकी चर्चा उचित ही किसी दर्शनीय स्थल के रूप में कर रहे थे। कोसी पुल को देख आना अपडेट होने और बुद्धिजीवी होने की निशानी जैसा लगता था। पता नहीं उस पार कैसा माहौल था। हलांकि इतना तो तय है कि सुपौल-सहरसा के लोग भी जरूर खुश होंगे क्योंकि सबसे ज्यादा कोसी का प्रकोप उन्होंने ही झेला था।
कहते हैं कोसी के इलाके की मछलियों का स्वाद दरभंगा की मछली से अच्छा होता है। कोसी के पानी में और उसकी धाराओं में मछलियों के लिए आदर्श खाद्य पदार्थ होता है। पता नहीं ये कितना सच है। अगर ऐसा है तो वाकई कोसी की मछली मेरे इलाके में 300 रुपये किलो बिकेगी!

मेरे एक परिचित मजाक में कहते हैं कि कोसी पुल बन जाने से दरभंगा-मधुबनी के दूल्हों का भाव गिर जाएगा! इस इलाके में दहेज का जो दानव पिछले दशकों में मजबूत हुआ है उतना दहेज कोसी के पूरब नहीं है। क्या वाकई ऐसा है..? हो सकता है ऐसा हो। सुना है पहले के जमाने में भी लोग इस इलाके में शादी ब्याह करने को प्राथमिकता देते थे। कहते हैं कि मेरी मौसी जब आज से पचास साल पहले पूर्णिया ब्याही गई थी तो उनके ससुर का सीना गज भर चौड़ा हो गया था! आखिर उनके बेटे की शादी मधुबनी में पंचकोसी के ब्राह्मणों के घर जो हुई थी!(पंचकोसी-सौराठ के इर्दगिर्द के तथाकथित कुलीन ब्राह्मणों का इलाका!) हलांकि कुलीनता की ये परिभाषा अब फिजुल लगती है और धूमिल पड़ चुकी है। शायद इसकी एक वजह बीती सदियों में कोसी की विभिषिका झेल रहे उन इलाकों की तत्कालीन स्थिति हो!

दरभंगा में किसी ने कहा कि अब पूर्णिया महज ढ़ाई-तीन घंटा का मामला है। मिथिला का सबसे नजदीकी हिल स्टेशन दार्जिलिंग हो जाएगा। यानी दरभंगा में अगर चले तो महज 6 घंटे में दार्जिलिंग ! यानी अब हनीमून मनाना आसान हो जाएगा ! तो क्या दार्जिलिंग जैसी जगहों का सितारा फिर से चमकेगा ?

दरभंगा और सुपौल जबसे 1 घंटा की दूरी पर आ गया है लगता है दरभंगा के डॉक्टरों की आमदनी अभी और बढ़ेगी। कोसी के उस पार अच्छे मेडिकल कॉलेज नहीं हैं। अब बिहार सरकार ने मधेपुरा में एक मेडिकल कॉलेज बनाने का फैसला किया है, लेकिन उसे जमने में अभी कुछ वक्त लगेगा। इधर दरभंगा में एक प्रसिद्ध मेडिकल कॉलेज है और इस इलाके में वो स्वास्थ्य का सबसे बड़ा केंद्र बनकर उभरा है।

मेरे मित्र आशीष झा कहते हैं कि कोसी पुल ने मिथिला को सिर्फ भौगोलिक स्तर पर ही नहीं जोड़ा है। इसने मिथिला के सांस्कृतिक और मानसिक एकीकरण को भी मजबूत किया है। दोनो भाग अलग-अलग होने से लोग दरभंगा-मधुबनी-समस्तीपुर को तो मिथिला कहने लगे थे लेकिन सहरसा-सुपौल-मधेपुरा को कोसी कहने लगे थे। अब ये धारणा धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। मिथिलांचल फिर से मिथिलांचल हो जाएगा। कोसी महासेतु से करीब 30 किलोमीटर दक्षिण भी कोसी पर बलुआ घाट के नजदीक एक पुल बन रहा है और उससे भी आगे एक और पुल। यानी कोसी पर कई पुल बन रहे हैं। कहते हैं कि बलुआ घाट पुल बन जाने से सहरसा और कुशेश्वरस्थान आस-पास हो जाएंगे। तो क्या इस तरह के पुल अपने भीतर एक बड़े राजनीतिक आन्दोलन की संभावना को हवा नहीं देंगे?

एक अलग मिथिला राज्य का ढ़ीला-ढ़ाला आन्दोलन बरसों से चल रहा है लेकिन उसमें फिलहाल उतनी धार नहीं है। आम जनता उसे अक्सर ब्राह्मणों का आन्दोलन मानती है, लेकिन धीरे-धीरे इसमें समाज के दूसरे वर्ग भी शामिल होते जा रहे हैं। जब से छोटे राज्यों के समर्थन में ज्यादा चर्चा होने लगी है, उसका अप्रत्यक्ष असर मिथिलांचल के लोगों पर भी पड़ता ही है। पता नहीं आगे यह आन्दोलन कितना मजबूत होगा। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि कोसी पुल उस आन्दोलन को जरूर मजबूती प्रदान करेगा। गौर करनेवाली बात ये भी है कि ये कोसी पुल का ही उद्घाटन था जब प्रधानमंत्री वाजपेयी ने मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसुची में शामिल करने का वादा किया था। उस हिसाब से इस पुल ने अपने उद्घाटन के साथ ही इस इलाके की भाषा को संवैधानिक दर्जा दिला दिया था!

वैसे भी किसी नए राज्य के बनने में दशकों लग जाते हैं। इतना तय है कि आनेवाले दशकों में अगर बिहार के इस हिस्से का उचित विकास नहीं हुआ या बिहार में क्षेत्रीय विषमता पैदा हुई तो एक नए सूबे की मांग को रोकना असंभव हो जाएगा।(जारी)

Sunday, February 5, 2012

कोसी (पुल) कथा-4

कोसी पुल तक जाने के लिए हम फुलपरास से होकर गए थे जो कोसी से करीब 20 किलोमीटर पश्चिम है। इसका जिक्र हमने पहले भी किया है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है फुलपरास का नाम पलाश से पड़ा है। कहते हैं कि यहां कभी पलाश के पेड़ों का घना जंगल था। पिताजी बताते हैं कि उनके बचपने तक पलाश के जंगल तो गायब हो चुके थे लेकिन करीब सौ साल पहले तक फुलपरास से लेकर उत्तर में हिमालय की तलहटी तक(नेपाल में) वनों की एक श्रृंखला फैली हुई थी जिसमें हिंसक जानवर बिचरते थे ! ऐसा ही मेरे गांव से एक किलोमीटर दक्षिण बलिराजगढ़ के किले में भी था। वहां भी घने जंगल थे। यानी बहुत दिन नहीं हुए जब हमारे इलाके में भी घने जंगल थे, जानवर थे। आज उनका नामोनिशान नहीं मिलता।

पिछले सौ सालों में सारे जंगल खेत में तब्दील हो चुके हैं और नदियां कुछ ज्यादा ही उफनने लगी हैं। ये वहीं इलाके हैं जहां हर दस-बीस किलोमीटर के बाद कोई न कोई नदी हिमालय से निकलकर गंगा की तरफ आती है और अब तो कुछ ज्यादा ही गुस्से में आने लगी है। जंगलों के गायब होने का ये स्वभाविक नतीजा है। पहले जंगलों की वजह से पहाड़ से पानी धीरे-धीरे मैदान में उतरता था। लेकिन अब वो सुरक्षा कवच गायब हो चुका है।

बहरहाल, फुलपरास में पलाश के जंगल थे, तो क्या पहले पलाश के पेड़ इस इलाके में बहुतायत से पाए जाते थे? पलाश से पलासी याद आती है जहां हुई एक लड़ाई ने भारतीय इतिहास की धारा बदलकर रख दी थी। लेकिन हमारा फुलपरास भी कुछ कम नहीं। इसने भी बिहार की राजनीतिक धारा को अपने तरीके से प्रभावित किया है। राजनीतिक रूप से अति-जागरुक यह क्षेत्र बिहार में समाजवादियों का गढ़ रहा है। कद्दावर समाजवादी नेता और एक तरह से लालू-नीतीश-पासवान के राजनीतिक गुरु कर्पूरी ठाकुर जब निर्णयात्मक रूप से दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तो फुलपरास ने ही उन्हें चुनकर विधानसभा पहुंचाया था। कर्पूरी उस समय सांसद थे और फुलपरास के तत्कालीन विधायक देवेंद्र प्रसाद यादव(जो बाद में कई बार सांसद और केंद्रीय मंत्री भी बने। वे उस बार पहली दफा विधायक बने थे।) ने उनके लिए फुलपरास सीट से इस्तीफा दे दिया था। कहना न होगा कि बिहार के पिछड़ों-दलितों में राजनीतिक चेतना जगाने का जो काम कर्पूरी ठाकुर ने किया, वह भी एक कारण था कि नब्बे के दशक तक आते-आते पिछड़े दलित बिहार की राजनीति के केंद्रविंदु बन गए।

जिक्र देवेंद्र प्रसाद यादव का आया तो यहां एक बात लिखनी जरूरी है। दरभंगा-मधुबनी-सुपौल से होकर ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर और इसी वजह से कोसी पर सड़क पुल बनवाने की योजना में देंवेंद्र प्रसाद यादव का अहम योगदान था। वे उस समय झंझारपुर के सांसद थे। कहते हैं कि वाजपेयी सरकार जब ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर का खाका खींच रही थी तो कुछ राजनेता और नौकरशाह इसे मुजफ्फरपुर-बरौनी-खगड़िया से होकर ले जाना चाहते थे। लेकिन देवेंद्र यादव ने कई सांसदों का समर्थन जुटाकर और मजबूत तर्कों के आधार पर वाजपेयी सरकार को इस बात के लिए मनाया कि इलाके के पिछड़ेपन को देखते हुए ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर दरभंगा-मधुबनी-सुपौल से ही जाना चाहिए। और ऐसा ही हुआ। लेकिन इस हाईवे के लिए जो श्रेय देवेंद्र प्रसाद यादव को मिलना चाहिए था, वो उन्हें नसीब नहीं हुआ। लोगबाग सिर्फ वाजपेयी या नीतीश की चर्चा करते हैं देवेंद्र यादव की लोग चर्चा भी नहीं करते !

नदियों से अंटे पड़े इस इलाके का जिक्र हमने पहले भी किया है। सुगरवे, तिलयुगा और भुतही बलान का जिक्र हम कर चुके हैं। हाईवे जिधर से गुजरती है कोसी से पहले एक चौक का नाम ही भुतहा चौक है। पल-पल रंग बदलनेवाली नदियों और विनाशकारी बाढ़लानेवाली धाराओं के इलाके में ऐसे नाम होने अस्वभाविक नहीं हैं। यहां हम कलात्मक, सजे-धजे, और गढ़े हुए नामों की उम्मीद भी नहीं कर सकते। न ही किसी रजवाड़े, कुंअंर या जमींदार के नाम पर किसी खूबसूरत नगर या पुर की कल्पना !

हमने इससे पहले नरहिया बाजार का भी जिक्र किया था जिसे पूरब से कोसी ने और पश्चिम से भुतही बलान ने काटकर तबाह कर दिया था। वह बाजार इतिहास के अनलिखे अध्यायों में विलीन हो गया। नरहिया नामके पीछे भी एक दंतकथा है। कहते हैं कि इस जगह का नाम इतिहास में हुए किसी भीषण नरसंहार के नाम पर पड़ा है। किसी इलाकाई सरदार ने तत्कालीन शासक के खिलाफ बगावत की थी। पता नहीं वो बगावत दरभंगा महाराज के खिलाफ थी या उससे भी पहले के किसी शासक के खिलाफ। नरहिया से होकर कोसी पुल की तरफ जाते हुए बरबस ही वो लोककथा याद आ गई। मैं पुल की तरफ जाते हुए एक-एक गांव के बारे में जानना चाहता था जो नदियों की अठखेलियों के शिकार हो गए थे।(जारी)

Friday, February 3, 2012

कोसी (पुल) कथा-3

कोसी नदी मधुबनी-सुपौल की सीमा नहीं है, बल्कि सुपौल से ही होकर बहती है। कोसी के पश्चिम तक सुपौल जिला है। निर्मली, सुपौल जिला में ही पड़ता है, यों नदीं होने के कारण वहां के लोगों के लिए जिला मुख्यालय जाना काफी मुश्किल भरा काम था। निर्मली, कोसी के पश्चिम में है जबकि सुपौल कोसी से पूरब। उस तुलना में दूरी होने के बावजूद निर्मली से मधुबनी-दरभंगा जाना ज्यादा आसान था। अब पुल बनने के कारण सुपौल का अपने जिला मुख्यालय से जुड़ाव सही हो गया है।
हाईवे नंबर 57( ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर) से निर्मली करीब 7 किलोमीटर दक्षिण में है और वहां तक जाने के लिए अच्छी सड़क बन गई है। समय की कमी की वजह से मैं निर्मली नहीं जा पाया। वो पुरानी रेल लाईन जो सन् 1934 के भूकंप में ध्वस्त हो गई थी, निर्मली तक ही थी। उस पार भपटियाही था। इसे दरभंगा-निर्मली रेलखंड बोलते हैं, जो छोटी लाईन की है। उस पर नियमित रेलगाडिया चलती हैं। अब कोसी पर नया रेल पुल भी बन रहा है जिसके बाद से ये लाईन बड़ी लाईन हो जाएगी।
मेरे कोसी पुल तक जाने की कई वजहें थी। नदी और पुल को देखने के अलावा हाल के सालों में उधर से एक संबंध भी बना था। मेरे बहनोई का पुश्तैनी गांव उधर ही था, जिसे सन् 70 के दशक में कोसी पूरी तरह लील गई थी। उस गांव का नाम बनैनियां था(है?)। कहते हैं बनैनियां उस इलाके का एक प्रसिद्ध गांव था जहां कई नामी-गिरामी लोग पैदा हुए थे। मेरी दीदी के श्वसुर गुणानंद ठाकुर सहरसा से सांसद भी रहे। इसके अलावा हिंदी-मैथिली के साहित्यकार मायानंद मिश्र, इनकम टैक्स कमिश्नर सीताराम झा उसी गांव के थे जिनका नाम पूरे इलाके भर में था। जब कोसी ने उस गांव को लीलना शुरु किया तो वहां के लोग जहां-तहां पलायन कर गए। जिसको जहां ठिकाना मिला वहीं बस गया। सरायगढ.सहरसा, सुपौल, पटना, दिल्ली, बंबई आदि शहरों में वहां के लोग पलायन कर गए।
जब भी मैं दिल्ली में अपने बहनोई के घर जाता तो उनकी मां भाव-विह्वल होकर बनैनिया का जिक्र करती ! वे अपनी घर, आम के बगीचे, तालाब, मंदिर का जिक्र करती। उनकी बड़ी बेटी की शादी गांव से ही हुई थी। उनकी मंझली बेटी बतातीं कि कैसे उनके घर के सामने आम के पेड़ से लगा एक झूला हुआ करता था जहां बचपन में वे लोग खेलते थे! उस गांव में उनके पचासो बीघे जमीन थे, वे सब नदी के पेट में समा गए। देखते ही देखते लोग राजा से रंक हो गए। सुना की हाल के दिनों में नदी के पेट से बनैनिया के कुछ जमीन बाहर आए हैं। उनका पुराना बटाईदार कभी-2 दिल्ली आता तो बताता कि कुछ जमीन बाहर निकला हैं। उनकी आंखों में एक चमक सी आ जाती! वे फिर से कल्पना करते कि शायद कभी वे अपने पुरखों की जमीन को देख पाएंगे! उन्होंने मुझसे कहा भी था कि अगर मैं उस तरफ जाऊं तो जरा बनैनिया का थाह लूं कि क्या वो पानी से वाकई बाहर निकल आया है ?

जब मैं को
सी पुल पर था तो मैंने कुछ लोगों से पूछा कि बनैनियां कहां हैं? नए लोगों को इसके बारे में ज्यादा पता नहीं था। एक पुराने बुजुर्ग मिले जिन्होंने इशारे से बताया कि वो पुल से उत्तर बीच पानी में कहीं होगा। वे मेरी दीदी के ससुर को जानते थे। उन्होंने कहा कि नेताजी का घर उसी जगह था। वहां कोसी का पानी हिलोड़ मार रहा था। हम पुल के पूर्वी छोड़ तक गए जहां नया तटबंध बना दिया गया है। उस पार की जमीन वर्तमान में पानी से बाहर सुरक्षित हो गई है। हाईवे के नीचे तटबंध के पूरब उस खाली जमीन पर बस्तियां पनप आई थीं। वहां सौ-दो सौ के करीब झोपड़ियां उग आई थीं। बिल्कुल नए-नए साल दो साल के बने घर। कुछ पान के खोखे..कुछ चाय की दुकानें...। उस गांव का नाम इटरही था। वह गांव पुराने बनैनियां से करीब 2-3 किलोमीटर उत्तर था। उस गांव की ये खुशनसीबी थी कि वो नए तटबंध से बाहर आ गया, लेकिन बनैनियां इतना खुशनसीब नहीं था। वो पानी के पेट में ही पड़ा रहा गया, और शायद स्थायी रुप से इतिहास और विस्मृति के गर्भ में भी।
कुल मिलाकर उस समय मुझे वो गांव कहीं नजर नहीं आया। हां, दूर पानी में कुछ जमीन उग आए थे। उस पर कुछ घर बन गए थे। जीवन का संचार दिख रहा था। लेकिन वो जमीन बिल्कुल कोसी के पेट में थी। दोनो तरफ कोसी की धाराएं और बीच में वो जमीन और उस पर कुछ घर...। तो क्या यहीं बनैनियां थी? मैं निश्चित नहीं हो पाया। दिल्ली आकर गूगल मैप पर देखा तो किसी जानकार व्यक्ति ने विकिमैपिया पर उसी उग आई आबाद जमीन को बनैनिया के नाम से चिह्नित किया था। लेकिन अथाह जलराशि के बीच में उस सौ-दो सौ एक एकड़ उथली जमीन का क्या मतलब था...? क्या कभी वो जिंदा हो पाएगा..? क्या कोसी फिर से उसे नहीं लील जाएगी..? लोगों की जीवटता देखकर आश्चर्य हुआ कि फिर भी कुछ लोगों ने उस पर अपने घर बना लिए थे। वे धारा पारकर सरायगढ या भपटियाही जाते हैं लेकिन बाढ़ के दिनों में वे क्या करते होंगे...?
दीदी की सास ने बताया कि जो लोग संपन्न थे वे लोग तो सहरसा, सुपौल या दिल्ली स्थायी रुप से पलायन कर गए, लेकिन गरीब लोगों ने कोसी के पुराने तटबंध पर ही अपना डेरा डाल लिया। उनके पास कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। वे दशकों से उम्मीद में थे कि शायद कभी कोसी मैया उनके जमीन को आजाद करेगी। ज्योंही वो जमीन निकली, लोग फिर से वहां पहुंच गए। लोगों की जीवटता देखकर मैं दंग रहा गया। नदी किनारे रहनेवाले लोग कितने जीवट होते हैं, पहली बार मुझे इसका एहसास हो रहा था! हाहाकारी बाढ़ लानेवाली नदी के पेट में कोई गांव पनप सकता है, और वहां लोग दशकों-सदियों तक रह भी सकते हैं इसकी कोई कल्पना नहीं थी!
कोसी से लौटकर जब गांव आया था तो छोटी दादी ने वहां का हाल पूछा था। मैंने बनैनिया का जिक्र किया तो उन्होंने पूछा कि नकटा हुलास नामका गांव उधर ही कहीं था। वो बनैनियां से पंद्रह-बीस किलोमीटर दक्षिण था। उसे भी कोसी ने साठ के दशक में लील लिया था। दादी के रिश्ते में कोई भाई वहां से उनके गांव आकर बस गए थे। दादी के पिता ने उन्हें गांव में कुछ जमीन दे दी थी। दादी इसी तरह के कई गांवों का जिक्र कर रही थीं जो कोसी के पेट में समा गए थे। उनकी आखों में उनके रिश्तेदारों का दर्द मैं महसूस कर पा रहा था। शायद इसी तरह मुल्क के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से पंजाबी शरर्णार्थी आए थे। गुजराबालां की याद शायद ऐसी ही होगी। बंटवारे के बाद आए शरणार्थियों के लिए तो सरकार ने व्यापक पुनर्वास की योजना भी बनाई, लेकिन क्या कोसी जैसी नदियों द्वारा शरणार्थी बना दिए गए लोगों का कोई पुनर्वास हो पाया ? पता नहीं सरकार ने उनकी कितनी मदद की और उन तक कितनी मदद पहुंच पाई। यह अभी भी एक शोध का विषय है।

इधर सरकार ने कोसी को नए तटबंधों में जकड़कर समेटने की कोशिश की है। इससे पुल के नजदीक कोसी का पाट थोड़ा छोटा हो गया है। पुल की लंबाई लगभग ढ़ाई किलोमीटर ही है, जबकि कोसी का पुराना पाट करीब 6-7 किलोमीटर से कम का क्या रहा होगा। पता नहीं भविष्य में इसका क्या नतीजा होगा। क्या वो पुल और उसके नए तटबंध भविष्य में पानी के दवाब को झेल पाएंगे? कोसी का चरित्र पश्चिम की तरफ खिसकने का रहा है और इसकी वजह ये है कि उसमें सिल्टिंग काफी होती है। अगर वो नदी जिसे पुल के नजदीक समेटकर महज ढ़ाई किलोमीटर का कर दिया ग्या है, पश्चिम की तरफ दवाब बनाती है और खिसक जाती है तो पुल का क्या मतलब रह जाएगा...? यह कल्पना ही अपने आप में दिल-दहला देने वाली है। हाल ही में कोसी ने अपना रूप दिखाया था जब कुसहा के नजदीक उसके तटबंध टूटे थे।
बहरहाल, जश्न के इन पलों में इस भयानक कल्पना का जिक्र असहज बना देता है...लेकिन पुल पर खड़ा होकर मैं इस कल्पना को अपने जेहन में आने देने से रोक नहीं पा रहा हूं...। (जारी)