Sunday, November 22, 2009

मंहगाई पर बोलना गुनाह है।

सीएनबीसी के सैकड़ों पत्रकार सड़क पर आ गए, लेकिन कोई चूं तक नहीं बोला। बोलना भी नहीं चाहिए, क्योंकि लाखों लोग हर रोज जब नौकरी से निकाल दिए जाते हैं तब तो कोई नहीं बोलता-भला सीएनबीसी के लोगों में कौन से सुरखाब के पर लगे थे। यूं हमारी मीडिया कभी-कभी दूसरे समूहों में हो रही छंटनी पर खबरें दिखा या छाप देती हैं लेकिन वो खबर तभी बन पाती है जब उससे बड़े खातेपीते और बड़बोले तबको का हित प्रभावित होता हो। जेट एयरवेज की छंटनी को याद कीजिए वो इसलिए खबर बन पाई थी क्योंकि नेताओं, कारोबारियों और अपार्टमेंट-कोठियों में रहनेवालों की फ्लाईट छूट रही थी और मीटिंग्स कैंसिल होनेवाली थी जिससे इस ‘देश’ का बहुत बड़ा नु्कसान होता। अब मान लीजिए की डीटीसी बसों के कर्मचारियों की छंटनी हो जाए तो भला क्यों दिखाएगी मीडिया? हां, ये कर्मचारी हड़ताल कर दें तो बात अलग है।
तो फिर इस देश में बोलेगा कौन? जब सबने बोलना ही बंद कर दिया है तो फिर बोलेगा कौन? आपको नहीं लगता कि ये स्पेस कोई और हड़प सकता है जो बोलने से आगे जाकर बंदूक की भाषा भी बोल सकता है। चलिए इसे भी यूटोपिया मान लेते हैं, आखिर हमारी लाखों की सेना और पूरा तंत्र उन्हे कुचल करने के लिए काफी है।

इधर, देखने में आया है कि लोगों की नौकरी और महंगाई पर बोलने के लिए कोई नहीं बचा। नेताओं की जुबान को लकवा मार गया है। यह देश पक्ष-विपक्ष विहीन देश हो गया है जहां दलालों, माफियाओं, सेटरों और फिक्सरों का बोलवाला है। इधर चीनी की कीमत 40 पार गई तो मैंने आजतक किसी भी माननीय का बाईट नहीं सुना। दूसरी तरफ किसानों का दिल्ली में जिस दिन आन्दोलन हो रहा था उस दिन ऐसे-ऐसे लोगों का बाईट टीवी पर देख रहा था जो कारपोरेट सेक्टर के दलाल हैं। इन्हे कुछ दिनो तक लाईजनर कहते थे लेकिन आजकल कंसलटेंट कहा जाने लगा है। यहां मकसद किसानों के आन्दोलन की आलोचना नहीं है लेकिन उसमें घुसे नेताओं की नीयत जरुर संदेहों के घरे में है। ये लोग वहां इसलिए थे कि वहां हजारों की भीड़ थी। आजतक इनमें से किसी भी नेता को हमने अलग से चीनी के मुद्दे पर नहीं सुना, और न ही इन्होने कभी महंगाई पर बोला।

पिताजी से कल फोन पर बात हो रही थी। उन्होने कहा कि अभी अगर कोई मंहगाई के मुद्दे पर संसद में किसी मंत्री को कुर्सी फेंककर मार डाले तो वो बड़ा नेता बन सकता है। मंहगाई के मुद्दे पर किसी विमान का अपहरण कर भी सुर्खी बटोरी जा सकती है। इस 120 करोड़े के देश में लोग तो हाड़तोड़ मेहनत करते हैं लेकिन उससे उपजने वाला पैसा कहां जाता है कि ये नहीं मालूम। वो पैसा हमें न तो स्कूलों में दिखता है न ही सड़कों पर। बस लोग धकियाए जा रहे हैं, पीटे जा रहे हैं और उनकी कटोरियों से दाल और कपों से चाय कम होती जा रही हैं। फिर इस सिस्टम का मतलब क्या है ?

लेकिन मेहरबानों...कदरदानों ज्यादा मुद्दों और जनहितों की बात करोगे तो लेफ्टिस्ट करार कर दिए जाओगे, सरकार आतंकवादी करार दे सकती है और तुम्हारे दोस्त तुम्हे पागल। वे तुम्हे अपनी पार्टी में बुलाने से मना कर सकते हैं, तुम्हारा फोन अटेंड करना बंद कर सकते हैं सबसे बड़ी बात तो ये कि आप एक लोकतंत्र में जी रहे हैं जहां हाल ही में जनता ने एक स्थिर सरकार के लिए वोट किया है। फिर क्या फर्क पड़ता है कि चीनी 40 पार गई है !

Sunday, November 15, 2009

हिंदी को गाय और ब्राह्मण की तरह पवित्र मत बनाईये

मेरे एक वरिष्ट फिरोज नकबी का मानना है कि देश में हिदी की दुर्दशा तभी से शुरु हुई जब आजादी के बाद इसे पवित्रतावादियों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। महात्मा गांधी चाहते थे कि देश में हिंदुस्तानी का विकास हो जिसमें लिपि तो देवनागरी हो लेकिन उसमें उर्दू और दूसरी भाषाओं के शब्द भी लिए जाएं। कुछ लोगों ने ये भी कहा कि हिंदी को देवनागरी और फारसी दोनों ही लिपिय़ों में लिखने की आजादी दी जाए। लेकिन कुछ अति पवित्रतावादियों के चक्कर में हिंदी को वो स्वरुप नहीं मिल पाया। इसमें हिंदी भाषा के कट्टरपंथी भी थे और उर्दू के भी। हिंदी वाले अपनी संस्कृतनिष्ट पहचान के लिए मरे जा रहे थे जबकि उर्दू वालों को लग रहा था कि उनकी भाषा ही खत्म हो जाएगी। पवित्रतावादियों को ये ख्याल नहीं था कि जब भाषा ही नहीं बच पाएगी तो उसका विकास कहां से होगा।

इलाहाबाद में उस जमाने में इस उद्येश्य से एक हिंदुस्तानी अकादमी की भी स्थापना की गई जिसमें अपने जमाने के जानेमाने विद्वान प्रोफेसर जामिन अली और डा अमरनाथ झा का अहम योगदान था। इस संस्था को महात्मा गांधी का भी आशीर्वाद मिला हुआ था। लेकिन हिंदुस्तानी अकादमी अकेली क्या करती। वो भाषाई कट्टरपंथियों के सामने टिक नहीं पाई। आज हालत ये है कि हिंदुस्तानी अकादमी के साईट पर जाएं तो वहां भी संस्कृतनिष्ठ हिंदी का ही बोलवाला दिखता है।

आज अगर हिंदुस्तानी भाषा का वो प्रयोग कामयाब हो गया होता तो देश में हिंदी एक बड़े क्षेत्र की भाषा बन चुकी होती। 2001 की जनगणना के मुताबिक जो हिंदी महज 45 लोगो की जुबान है वो अपने साथ मराठी, गुजराती, बंगाली, उडिया और असमी को भी जोड़ सकती थी और वो तकरीबन 70 फीसदी लोगों की भाषा होती। इसका इतना बड़ा साईकोलिजकल इम्पैक्ट होता कि हिंदी-विरोधी आंदोलन की इस देश में कल्पना नहीं की जा सकती थी। गौरतलब है कि मराठी की अपनी लिपि नहीं है और वो देवनागरी में ही लिखी जाती है। इसके अलावा गुजराती भी देवनागरी से मिलती जुलती है। पंजाबी, बंगला, उडिया और असमी के इतने शब्द हिंदी से मिलते जुलते हैं कि उन्हे आसानी से हिंदी का दर्जा दिया जा सकता था-बशर्ते हम लचीला रुख अपनाते। (ये ऐसे ही होता जैसे अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा आदि हिंदी की क्षेत्रीय भाषा या बोलियां बनकर रह रही हैं-ये अलग विमर्श है कि खड़ी हिंदी के विकास ने उन भाषाओं पर क्या असर डाला है!) लेकिन अफसोस, पवित्रतावादियों ने सब गुर-गोबर कर दिया। जो हिंदी वास्तविक संपर्क की भाषा बन सकती थी वो सिर्फ आमलोगों के संपर्क की भाषा बनी-बड़े लोग, सत्ताधीश और कारोबारियों ने अंग्रेजी अपना लिया। हिंदी और गौर-हिंदी के चक्कर में अंग्रेजी दबे पांव आ गई और इसने सबको खत्म कर दिया।

यूं, ऐसा जनता के स्तर पर नहीं हुआ। आम जनता हिंदुस्तानी ही बोलती रही लेकिन ये सिस्टम उसे संस्कृतनिष्ठ हिंदी सिखाने पर अमादा थी और अभी भी है। आप सरकारी विज्ञप्तियों को ध्यान से पढ़ें तो आप माथा पीट लेंगे-शायद हजारी प्रसाद द्विवेदी भी जिंदा होते तो न पढ़ पाते।

भला हो टीवी, सिनेमा और मीडिया का जिसने आम आदमी के बीच हिंदुस्तानी का प्रचार किया। औसत हिंदुस्तानी को इस भाषा से कोई परहेज नहीं लेकिन हमारे सरकारी कूढ़मगजों के दिमाग में कौन ये बात घुसाए।

दूसरी बात ये कि आज भले ही हिंदी अपने तरीके से अपना बिस्तार और विकास कर रही है लेकिन तथाकथित हिंदीवादियों और राज ठाकरे में उस स्तर पर अभी भी कोई फर्क नहीं है। हिंदीवादियों ने कभी भी हिंदी में कायदे के अनुवाद की कोशिश नहीं की। जो लोग हिंदी की मर्सिया गाते फिरते हैं उनसे कोई पूछे कि उन्होने विज्ञान, प्रबंधन और मेडीसीन के कितने पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया है। आज हालत ये है कि हिंदी में ढ़ंग की किताबे उपलब्ध नहीं है जो रोजगार में सहायक हो। इसके लिए कौन जिम्मेवार है? हमारी सरकार, भाषावादी या फिर ये बाजार?

बाजार को दोष देना बेवकूफी है। बाजार ने कभी भाषा का विरोध नहीं किया। बल्कि उसने माल बेचने के लिए हमेशा उसका उपयोग ही किया है। आज हिंदी सीखने के लिए अगर दूसरे प्रदेशों के लोगों में भी इच्छा जगी है तो इसके पीछे भी बाजार ही है। आज कारपोरेट बोर्ड रुम में भी हिंदी घुस गई है तो जाहिर है इसके पीछे बाजार है। मूल गलती हिंदी-वादियों की जो हिंदी को गाय, गंगा और ब्राह्मण की तरह पवित्र बनाए रखना चाहते हैं।

Wednesday, November 11, 2009

मायावती को खुश नहीं होना चाहिए

उपचुनाव के नतीजों की व्याख्या खंगालने बैठा तो नेट पर खास हाथ नहीं लगा। इधर टीवी वाले तो ऐसे ही हैं। हर जगह सिर्फ हेडलाईन बनाने की होड़ थी कि बब्बर को शेर कैसे लिखा जाए और कांग्रेस का ‘राज’ अच्छा लगेगा या हाथी की चिंघाड़। बहरहाल इन सबसे उलट ये कहीं नहीं मिल पा रहा था किस पार्टी को कितने फीसदी वोट मिले या किसने किसका वोट खाया और पहले किसको कितना मिला था। मेहनत का काम है, तुरत-फुरत तो हो भी नहीं सकता। दिमाग खपाना पड़ता है और वो भी अगर कनिष्ठ किस्म के गैरराजनीतिक मिजाज वाले स्टाफ को कहा जाए तो स्टोरी की मां-बहन एक हो जाए। लखटकिया सैलरी लेनेवाले हुक्मरान कहते हैं कि राजनीति बिकती नहीं-कौन माथापच्ची करे।(ये अलग विमर्श हो सकता है कि माथा बचा भी है या नहीं) दूसरी तरफ राजनीतिक खबरों का मतलब हमारे यहां राज ठाकरे, अमर सिंह टाईप के नेताओं की बाईट या फिर कैची हेडलाईन लगाना हो गया है। खासकर टेलिविजन चैनलों में।

इधर हमारे एक मित्र ने कहा कि अमां यार सारी खबर ये टीवी वाले दे देंगे तो पत्रिकाएं कैसे चलेंगी। ये तो उनका काम है कि आराम से विश्लेषण करती रहें। फ्रंटलाईन या इस तरह की पत्रिकाओं का काम है यह।

बहरहाल, यूपी उपचुनाव के नतीजे बताते हैं कि विधानसभा में माया सबपर भारी पड़ी। उधर उसने फिरोजाबाद में अपने उम्मीदवार को ढ़ीला कर दिया और राज बब्बर जीत गए। कांग्रेस खुश है। शायद माया ने सोचा होगा कि पहले सपा को निपटाना जरुरी है। जनता में मैसेज यहीं गया है कि सपा साफ हो रही है। कांग्रेस का साईकोलिजकल ग्राफ बढ़ा है। लेकिन ये भी महज खुशखबरी ही है। कांग्रेस अपने कद्दावर नेताओं का सीट हार गई। पंडरौना में विधायक से सांसद बने आरपीएन सिंह की मां तीसरे नंबर पर रही, तो उधर झांसी में राहुल के प्रदीप जैन अपना उम्मीदवार नहीं जितवा पाए। इसका क्या मतलब लगाया जाए? हां, कांग्रेस को थोड़ी तसल्ली इस बात से मिली की उसने लखनऊ पश्चिमी सीट बीजेपी से छीन ली जो वो पिछले तकरीबन 20 साल से दबाए बैठी थी। भला हो टंडन के कोप का कि बीजेपी उम्मीदवार खेत रहे-टंडन अपने दुलारे के लिए टिकट जो चाहते थे।

कुछ जानकार कहते हैं कि भले ही माया ने सपा को निपटा दिया हो लेकिन इसका खामियाजा उसे अगले विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है। अब लोगों के दिमाग में साईकोलोजिकली कांग्रेस नंबर-2 हो गई है। अगर कांग्रेस इस रफ्तार को बरकरार रखती है तो अब माया विरोधी मतों का ध्रुबीकरण कांग्रेस के इर्द-गिर्द होगा। मुसलमान वैसे ही मूड बना चुका है, अब पंडितों में भगदड़ मचेगी। फिर तो कांग्रेस मजबूत होगी ही, बीएसपी का ग्राफ नीचे आएगा-क्योंकि ये संवर्णों का वोट ही था जिसने बीएसपी को 24 फीसदी से उछाल कर 33-34 फीसदी कर दिया था। गौर करने लायक बात ये है कि मुलायम का आधार व्यापक है। मुलायम और कल्याण मिलकर पिछड़ों की एकमात्र पार्टी है। ऐसे में ये हो सकता है कि लड़ाई सिमटकर कांग्रेस-सपा में हो जाए और बहनजी तीसरे नंबर पर पहुंच जाएं। ये बिल्कुल हो सकता है कि बसपा कांशीराम के जमाने में चली जाए। आमीन।