Tuesday, June 30, 2009

तूने मोह लिया इलाहाबाद- 1

कुछ दिन पहले इलाहाबाद गया था। बचपन से काफी सुना था इस शहर के बारे में। हम हिंदुस्तानियों खासकर उत्तर भारतीयों के मन में जिन दो शहरों के बारे में एक खास किस्म की नॉस्टल्जिया है उसमें इलाहाबाद और कलकत्ता का नाम अहम है। पता नहीं क्यों- आप इन दोनों की शहरों में भले ही न गए हों लेकिन एक गजब का अपनापन लगता है। जिन लोगों ने थोड़ा सा साहित्य बगैरह पढ़ा है उनके मन में लाहौर के बारे में भी यहीं अपनापन है। एक जादू है, सम्मोहन है, एक नशा है। शायद इसकी वजह ये हो कि अंग्रेजी राज में यहीं तीनों शहर पहले पहल शिक्षा-दीक्षा और प्रशासन के केंद्र बने और बाद में आजादी के दीवाने क्रान्तिकारियों का बड़ा जत्था भी यहीं से निकला। दोनों शहर बौद्धिक गतिविधियों के बड़े केंद्र रहे हैं। इलाहाबाद हमारी जातीय स्मृति में बुरी तरह समाया हुआ है।

राजीव की ममेरी बहन की शादी थी। राजीव का ममेरा भाई भी आईआईएमसी में हमारा जूनियर था। सो जाना अनायास ही हो गया। ट्रेन में जाते समय इलाहाबाद के बारे में तमाम स्मृतियां जो किताबों और लोगों की बातचीत के मार्फत हमारे दिमाग तक आई थी, सामने आती गई। लगा जैसे किसी फिल्म का फ्लैशबैक चल रहा हो।

इलाहाबाद का मतलब मेरे लिए क्या था ? क्या ये वो शहर था जहां पंडित नेहरु और इंदिरा गांधी पैदा हुईं थी या महज संगम के घाट की वजह से इसे याद किया जाए। इलाहाबाद हिंदी साहित्य का गढ़ था, एक मायने में अभी भी है। जो लेखक या कवि इलाहाबाद में नहीं रहा, उसे एक तरह से मान्यता ही नहीं मिली। मन में हसरत थी कि देखें इसका सिविल लाईंस कैसा है जिसके बारे में शायद हमने कनाट प्लेस और मुम्बई के जुहू से भी ज्यादा सुन रखा था ! इलाहाबाद हाईकोर्ट की कल्पना इंदिरा गांधी वाले फैसले की याद दिलाती थी। कैसा है ये शहर...जिसके कण-कण में चिंगारी भरी हुई है। इसकी यूनिवर्सिटी बेमिशाल है, इसने सदी का सबसे लोकप्रिय अभिनेता पैदा किया है और इस जमीन ने एक नहीं दो नहीं तकरीबन आधा दर्जन प्रधानमंत्री साउथ ब्लॉक में भेजे हैं। कैसा होगा इलाहाबाद...जहां..फिराक गोरखपुरी पैदा होता है और कहता है कि मेरे अलावा अंग्रेजी सिर्फ राधाकृष्णन और मोतीलाल के बेटे को थोड़ी बहुत आती है !

ये मेरी रोमांचक यात्रा थी। मैंने सुना था कि यहीं वो इलाहाबाद है जहां कुंभ के मेले में 10 करोड़ से ज्यादा लोग जमा हो जाते हैं। इतने लोग जितनी फ्रांस की आबादी नहीं है। ये कैसा शहर है जहां हर आदमी साहित्यिक किस्म का है। सुना ये भी था इलाहाबाद की सियासी जमीन बहुत संवेदनशील है। रवीन्द्र कालिया ने लिखा कि इलाहाबाद ने जिसे अपना लिया, पूरे मुल्क ने उसे अपना लिया। इलाहाबाद ने जिसे ठुकरा दिया पूरे मुल्क ने उसे ठुकरा दिया। ये वहीं इलाहाबाद था जहां हेमवती नंदन बहुगुणा को गंगा किनारे का एक छोरा हरा देता है। ये वहीं इलाहाबाद था जहां इंदिरा गांधी की सर्वशक्तिशाली फौलादी सत्ता जस्टिस जगमोहन सिन्हा के कलम का शिकार हो जाती है। और मैं उसी शहर में जा रहा था...दिल की धड़कन तेज हो गई थी...बिल्कुल गाड़ी के रफ्तार की तरह....(जारी)

Saturday, June 6, 2009

दलित, समाज, सरकार और हकीकत-7

दलितों के विकास में एक अहम बात सरकार के बड़े स्तर पर नीति निर्धारण से भी जुड़ी हुई है। ये बात ऐसी है जो तत्काल अपना असर नहीं दिखाती लेकिन ये देश के दलितों और गरीबों के विकास और देश की उत्पादकता बढ़ाने के लिए बहुत जरुरी है। और वो मुद्दा है केंद्र राज्य संबंध का, राज्यों का केंद्रीय करों में हिस्सेदारी बढ़ाने का और राज्यों को और भी ज्यादा स्वायत्तता देने का। हमारे सामने ये तथ्य है कि देश की राज्य सरकारें अपने बूते कोई भी आर्थिक संसाधन नहीं जुटा पाती, वे केंद्र के सामने व्यावहारिक रुप से एक नगरपालिका से ज्यादा कुछ भी नहीं है। तमाम बड़े टैक्स केंद्र सरकार उगाहती है और राज्यों के हिस्से सेल्स, मनोरंजन और जमीन के टैक्स ही बच पाते हैं, जो नाकाफी होते हैं। पिछले दशक तक केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी 26 फीसदी तक ही थी जिसे अब बढ़ाकर शायद 29.5 फीसदी कर दिया गया है। हम यहां देश में संसाधनों के विकेंद्रीकरण की तरफ इशारा करना चाहते हैं जो आम जनता और खासकर गरीबों-दलितों के लिए सबसे जरुरी चीज है।

यह एक तथ्य है कि आर्थिक केंद्रीकरण होने से देश में कुछ ही जगह पर कारोबार और विकास के टापू पनपते है जिसका सबसे ज्यादा फायदा खाते पीते वर्गों को होता है। हालात यह है कि आजादी के लगभग 60 साल बाद भी हमारे देश में शहरों की आबादी कुल आबादी की महज 30-32 फीसदी ही है और उसमें भी एक बड़ा हिस्सा स्लम में रहने को मजबूर है। हलांकि इसका सीधा कारण तीब्र औद्योगीकरण न होना प्रतीत होता है लेकिन ऐसा इसलिए हुआ है कि देश में सारे फैसले-खासकर-उद्योग धंधों से संबंधित-दिल्ली से ही लिए जाते हैं। देश का राजनीतिक-आर्थिक एलीट- जिसमें बड़े कारोबारी, दलाल(या सलाहकार ?), राजनीतिज्ञ से लेकर बड़े नौकरशाह तक शामिल हैं- नहीं चाहता कि संसाधनों वितरण नीचे तक हो। उसे केंद्रीकृत व्यवस्था आसान लगती है। अगर कोई इस एलीट वर्ग की तस्वीर उकेरना चाहे तो बहुत मुश्किल है, क्योंकि यह निरंतर गतिशील है, बहुरुपिया है और वायरस की तरह रंग बदल लेता है।

पिछले कुछ दशकों में अब जाकर सरकार ने औद्यौगिक नीति में थोड़ी सी ढ़ील दी है। दूसरी बात ये कि राज्यों के पास संसाधन इतने कम हैं कि वो कोई बड़े संरचनात्मक प्रोजेक्ट शुरु नहीं कर पाते। इससे देश में कुछ ही जगह शहरीकरण हो पाया है। हम देश के हर हिस्से को उत्पादक नहीं बना पाए हैं।

लेकिन इसका दलित हितों से क्या ताल्लुक है ? इस बात का दलित हितों से ये ताल्लुक है कि अगर देश में समान और विकेंद्रीकृत विकास होता है तो एक गरीब आदमी भी कम आमदनी में अपने घर के नजदीक रह सकता है और बचत कर सकता है। एक गरीब आदमी के बच्चे को भी घर के नजदीक युनिवर्सिटी और इंजिनीयरिंग कॉलेज मिले ये विकेंद्रीकरण का मतलब है। ऐसा क्यों है कि इस देश में सारे अच्छे कॉलेज दिल्ली-मुम्बई-पूना और बंगलूरु में ही है ? क्या महज सीटों में आरक्षण देकर एक गरीब के बच्चे को बंगलूरु के कॉलेज में पढ़ने भेजा जा सकता है जहां की फीस 5-8 लाख रुपये है ?

जाहिर है, बड़े शहरों का विकास देश के हित में कतई नहीं है-वे कूड़े के ढ़ेर और स्लम बस्तियों में तब्दील होते जा रहे हैं। वहां रहने का खर्च ज्यादा है, ऑफिस महंगे हैं, जमीन महंगी है और देश की उत्पादकता प्रभावित हो रही है। दूसरी तरफ समान और विकेंद्रितकृत विकास सभी को विकास का समान मौका देती है और अच्छी जीवनशैली प्रदान करती है। व्यापक अर्थों में ये गरीबों और दलितों के लिए फायदेमंद है।

लेकिन ऐसा तभी हो पाएगा जब राज्यों को ज्यादा वित्तीय अधिकार दिए जाएं। राज्यों को कम से कम केंद्रीय करों में 40 फीसदी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए और कुछ करों की उगाही का भी अधिकार उन्हे मिलना चाहिए।

कुछ ऐतिहासिक वजहों से अपने यहां केंद्र को इतना मजबूत बना दिया गया है कि ये बात अब बड़ी वाधा बन गई है। पंडित नेहरु ने जब संविधान सभा में अपने भाषण में ये बात कही थी तो हालात कुछ और थे-लेकिन अब हम एक परिपक्व और अपेक्षाकृत मजबूत देश बन गए हैं-हमें इस पर विचार करना चाहिए।(जारी)