Tuesday, February 24, 2015

अव्यवहारिक मांग और अन्ना की कमजोर 'जमीन'

 लैंड बिल पर सरकार डिफेंसिव दिख रही है लेकिन मेरे हिसाब से एकाध संसोधनों के साथ यहीं बिल व्यवहारिक है। दरअसल जब लोग किसान की बात करते हैं तो कई बार नॉस्टेल्जिक हो जाते हैं। देश में किसानों की बदहाली भूमि अधिग्रहण की वजह से नहीं है-बल्कि उपज का सही मूल्य न मिलने, जोत का आकार छोटा होने,उन्नत तकनीक न मिलने, सिंचाई और बिजली न मिलने की वजह से है। फैक्ट्री की वजह से कोई किसान गरीब नहीं होता, वो इस वजह से गरीब होता है कि पिछले 60 साल में उसकी तीन पीढियों को ठीक से पढाया नहीं गया और परिवार बढकर 44 लोगों का हो गया और जोत का आकार घट गया। वह इस वजह से गरीब होता है कि सरकार ने आसपास अस्पताल नहीं खोले और उसे दरभंगा या बनारस के डॉक्टरों ने घेरकर लूट लिया !


बात इस बिल की करें तो इस बिल में जिन पांच बिंदुओं में किसानों की सहमति न लेने की बात कही गई है उसमें सिर्फ एक पर या ज्यादा से ज्यादा डेढ पर मेरी आपत्ति है-वो भी स्पष्टता के संदर्भ में। इंडस्ट्रियल कॉरीडोर पर खासतौर पर। मान लिया जाए कि पटना से दरभंगा इंडस्ट्रियल कॉरीडोर विकसित करने को मंजूरी दी जाती है( माफ करें संदर्भ हमेशा मैं अपने ही इलाके का सोच पाता हूं, रुस या पोलैंड जेहन में नहीं आता!) तो उस कॉरीडोर में अधिग्रहित जमीन सिर्फ सरकार उपयोग करेगी या कोई और? बाद में वह औने-पौने दाम पर औद्योगिक घरानों को तो नहीं दे देगी? तो यह एक नया SEZ टाइप मामला भी हो सकता है। सरकार को इस पर स्पष्टीकरण देने की जरूरत है।

बाकी, सुरक्षा, ग्रामीण विकास, सस्ते आवास और पीपीपी प्रोजेक्ट में आप चाहें तो पीपीपी पर आपत्ति कर लें और स्पष्टीकरण मांग ले। लेकिन पीपीपी प्रोजेक्ट भी अंतत: सरकार और समाज के लिए ही होते हैं-चाहे वो दिल्ली मेट्रो हो या कोई मेगा सड़क परियोजना। अगर अन्ना हजारे की बात मान ली जाए तो देश में नई सड़क और विद्यालय तो दूर की बात है, सरकार एक कुंआ तक नहीं खोद पाएगी और 'स्टेटस को' बना रह जाएगा। 


अन्ना हजारे जो बात कर रहे हैं वो वैसी बात है कि जमीन पर किसानों का 'शाश्वत' या 'अध्यात्मिक' हक है। यह किसी पंचतंत्र की कहानी के वक्त सा लगता है, जबकि आधुनिक राष्ट्र-राज्य में जमीन पर वास्तवकि हक 'स्टेट' का है जिसका नेतृत्व, एक संप्रभु संसद का हिस्सा होता है। गांधी और बिनोवा ने भी कहा था कि 'सभै भूमि गोपाल की'..यहां गोपाल का मतलब गाय चरानेवाला नहीं, गांधी का ईश्वर(या सामूहिक विवेक?) था और लोकतंत्र में 'सार्वभौम सत्ता' है। लेकिन अन्ना कह रहे हैं कि जमीन पर असली हक किसान का है और वो हक वो किसी कीमत पर उससे छीना नहीं जा सकता। कई बार यह बात तो परले दर्जे की पूंजीवादी सोच लगती है जिसमें जो मेरा है वो मेरा है-कोई छीन नहीं सकता। हालांकि मैं किसानों की तुलना पूंजीवादियों से यहां नहीं कर रहा।

अन्ना की बात अगर मान ली जाए तो कल को किसी चीनी हमले की सूरत में दरभंगा एयरपोर्ट में एक ईंच की बढोत्तरी नहीं की जा सकती क्योंकि वहां 70 फीसदी किसानों की सहमति चाहिए होगी ! उनकी बात अगर मान ली जाए तो मेरे गांव में सरकारी अस्पताल नहीं बन पाएगा जिसको नीतीश सरकार मंजूर कर चुकी है लेकिन उतने किसान जमीन देने को राजी नहीं है। मेरे गांव में तीन पगडंडियों को खडंजा सड़क बनाने की योजना नीतीश सरकार पास कर चुकी है लेकिन उसके लिए 1-1 किलोमीटर तक पगडंडी के दोनो तरफ 4-4 फीट जमीन लेनी होगी। अन्ना हजारे की चली तो मेरे गांव में कभी वो पगडंडी सड़क नहीं बन पाएगी-जिस वजह से बरसात के दिनों कई किसानों की पत्नियां प्रसव काल में दम तोड़ देती हैं।

दरअसल, किसानों को असली समस्या भूमि अधिग्रहण से नहीं-मुआवजा और पुनर्वास में भ्रष्टाचार में है। एक आकलन के अनुसार सन् 1947 से लेकर 1990 तक देश में करीब 3.5 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे जिनके पुनर्वास और मुआवजे में भारी गड़बड़ी हुई। बाद में भी गड़बड़ी हुई होगी, ये संदर्भ मुझे राम गुहा की किताब इंडिया आफ्टर गांधी में कहीं मिले जिसका मैंने अनुवाद किया था। कुल मिलाकर कहें कि जनता का भरोसा सरकार पर कई कारणों से नहीं है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम 21वीं सदी में वक्त का पहिया रोक दें और वैदिक युग में प्रस्थान कर जाएं।

हालांकि इस बहस के अपने फायदे भी हैं। बहस इस पर होगी कि फिर उद्योगों के लिए जमीन कहां से आएगी? बहस का एक सिरा जनसंख्या विस्फोट की तरफ भी मुड़े कि शिक्षा बजट को बढाया जाए, लड़कियों के लिए ज्यादा मौके मुहैया करवाएं जाएं और जनसंख्या पर काबू पाया जाए।

एक प्रश्न है कि किसान एकमुश्त इतना पैसा लेकर करेंगे क्या? उन्हें शेयर बाजार में लगाना या फ्लैट खरीदना आता नहीं-उनका हाल वहीं होगा जो नोएडा वालों का हुआ। 10-12 साल में दारू पीकर फूंक देंगे। इसका उपाय ये है कि सरकार सिर्फ पैसा न दे, बल्कि परिवार में लोगों को सरकारी नौकरी भी दे। वह ज्यादा ठोस उपाय है।

सुना है कि सरकार के पास कोई बंजर जमीन को ठीक करने वाली योजना थी-पुराने जमाने से। लेकिन उसका मकसद सिर्फ खेती के लिए था। अब वक्त आ गया है कि देश के बंजर इलाकों में उद्योग के लिए माहौल बनाया जाए-हालांकि ये इतना आसान नहीं है। उसके लिए वहां बिजली और सबसे जरूरी पानी का इंतजाम करना होगा-जो कठिन तो है लेकिन असंभव नहीं।
10. दरअसल हर बनिया, फरीदाबाद या नासिक के पास ही जमीन चाहता है। कोई भी भिंड मुरैना या जैसलमेर नहीं जाना चाहेगा। 21वीं सदी के हिंदुस्तान को इस पर भी सोचना होगा कि गंगा के मैदान में जहां आबादी ठुसी पड़ी है और बंगाल में कम्यूनिस्टों की खूंखार सरकार जमीन के प्रश्न पर धराशायी हो गई-वहां आखिर रास्ते क्या हैं?

लेकिन शिकारी उद्योगपतियों से इतर भी जमीन तो सरकार को चाहिए ही जन-कल्याण के लिए। ऐसे में सरकार का हाथ बिल्कुल रोक देना उचित नहीं है। बेहतर है कि सरकार इंडस्ट्रियल कॉरीडोर पर बात साफ कर दे, तो फिर भी यह बिल व्यावहारिकता के निकट है।

Monday, February 9, 2015

ठिठकी हुई दलित राजनीति के लिए ऐेसा झटका जरूरी है !

मांझी नेता नहीं हैं, प्रतीक भर हैं। लेकिन राजनीति में प्रतीक बड़े काम का होता है। कई बार प्रतीक ऐसा काम कर देता है जैसा बड़े-बड़े हाकिम नहीं कर पाते हैं। जैसे यूपी में जब पहली दफा मायावती आईँ थीं तो ET ने लिखा कि दलितों में बीए-एमए करने की होड़ लग गई। एक दशक में दलितों की साक्षरता दर पूरे देश के मुकाबले दोगुनी हो गई। मुझे याद है जब लालू यादव बिहार के CM बने तो मेरे कई यादव दोस्तों ने कहा कि वह सिर्फ इसलिए पढता है कि शायद उसकी शादी मीसा भारती से हो सकती है। शादी तो नहीं हुई, लेकिन ढेर सारे यादव ग्रेजुएट जरूर हो गए!
मांझी ने विद्रोह कर अच्छा किया। हार-जीत अलग बात है लेकिन उनका यह विद्रोह उनके समुदाय को अतिरिक्त ऊर्जा देगा। मैं सलमान खान होता तो कहता कि इस विद्रोह में एक 'किक' है! यह विद्रोह दलितों को भविष्य में बेहतर लडाई के लिए प्रेरित करेगा। 

बाबा साहेब ने जाति-विहीन राजनीति की बात की थी, दलित राजनेता दूसरों की तरह ही जाति से चिपकने लगे। हालांकि दलित राजनीति, मंडल राजनीति की तुलना में ज्यादा गतिशील है और प्रगतिशील भी। वह शून्य से शुरू होकर डिक्की तक पहुंची है। पहले उसमें सरकारी मध्यमवर्ग का जन्म हुआ, फिर उसने राजनीति पर दावा ठोका। इसके उलट पिछड़ों ने पहले राजनीति पर दावा ठोका,उसके बाद वहां मध्यमवर्ग पैदा होना शुरू हुआ। उस हिसाब से पिछड़ा राजनीति कूपमंडूक है और सिर्फ संख्याबल पर ही इतराती है। वह हमेशा क्षत्रिय बनने का ख्वाब देखती रहती है जैसे कोई हिंदी का लेखक अंग्रेजी में छपने का ख्वाब देखता रहता है। इस मामले में वह प्रयोगधर्मी नहीं है। दलित ज्यादा साहसी हैं, कम संख्या-बल पर भी उन्होंने अपने हिसाब से मोल-भाव किया है और जगह बनाई है।

भारत का दलित, पिछड़ों की आक्रामकता और सवर्णों की राजनीतिक कुशलता की वजह से बीजेपी की गोद में जा बैठा है। देखा जाए तो उस हिसाब से पिछड़ा वर्ग ज्यादा सनातन-वादी है। बाबा साहब ने कहीं लिखा है कि ये मंझोली जातियां ब्राह्मणों की समाजिक पुलिस है, जब सवर्ण गांव छोड़कर शहर में बस जाएंगे तो ये जातियां सवर्णों से भी ज्यादा आक्रामकता से दलितों पर हमला करेंगी। लगता है कि लिटरली तो नहीं लेकिन क्लासिकल रूप से ऐसा ही हो रहा है।

बाबा साहब ग्राम्य-व्यवस्था के भी एक हद तक आलोचक थे। उनके हिसाब से गांव दलितों का कब्रगाह है। आज की तारीख में वहां पर सवर्णों की जायदाद भी सुरक्षित नहीं है। यानी शहर दलितों के लिए गतिशीलता देता है और सवर्णों को तो मानो पंख ही दे देता है। तो गांव किसके लिए सुरक्षित है? पिछड़ो के लिए? शायद ये भी पूरा सच नहीं है। वे गांव में सुरक्षित रहकर भी क्या कर पाएंगे जहां विकास की धारा ही सूख गई है। गांधी ने अलग अर्थों में ग्राम-स्वराज्य की बात की थी। वह विकेंद्रीकरण का मॉडेल था। हूबहू गांव न सही तो छोटे-छोटे 100-500 कस्बे-शहर जिसकी बात मोदी भी कर रहे हैं। तो ऐसे में बापू का विकेंद्रीकरण और अम्बेदकर के नगरीय व्यवस्था की तरफ झुकाव को मिला दिया जाए तो दलितों का कुछ हो सकता है। 

लेकिन सावधान। कहीं ऐसा न हो कि गांव से उठकर शहरी दलित, मजदूर का मजदूर बना रह जाए। इसके लिए कौन उपाय करेगा? सरकार? वह सिर्फ हिंदी पढाएगी, कुछेक नौकरियां दे देगी। समाज? समाज तो दलितों के लिए उपेक्षा का भाव रखता है और नीतीश कुमार की तरह इस्तेमाल भी करता है। दलितों का समाज सक्षम नहीं है-जो सक्षम हैं वे नव-ब्राह्मण बन गए हैं ! ये ऐसे कुछ सवाल हैं जिनसे दलितों को और पूरे समाज को टकराना होगा और मांझी जैसे प्रकरण उन्हें बार-बार अपनी हकीकत की याद दिलाते रहेंगे।

Saturday, February 7, 2015

दिल्ली चुनाव: जीत सकती है बीजेपी!

पिछले साल विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 33 फीसदी वोट मिले थे और आप को 29.5 फीसदी। लोकसभा चुनाव में बीजेपी का वोट 13 फीसदी बढ गया, उसे 46 फीसदी मिला और आपको 33 फीसदी। यानी थोड़ा आप का भी बढा। कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुक्सान हुआ। उसे विधानसभा में 24.5 फीसदी वोट मिला था जो लोकसभा के वक्त गिरकर करीब 15 फीसदी रह गया। 
लोकसभा चुनाव में मोदी को जिताने और मनमोहन को हराने के लिए वोट हुआ था। यानी 46 फीसदी वोट बीजेपी को इन्ही दो महान कार्यों के लिए मिले थे। लेकिन इस चुनाव में न तो मनमोहन जैसा अलोकप्रिय विरोधी सामने था और न ही मोदी जैसा करिश्माई सामने था। यानी बीजेपी को उन बहुत सारे लोगों का वोट नहीं मिला होगा जिन्होंने "मोदी बनाओ-कांग्रेस हटाओ" प्रोजेक्ट के तहत उसे वोट दिया होगा। मान लिया जाए कि उस बढे हुए 13 फीसदी में से आधे ने यानी करीब 6.5 फीसदी ने भी उदासीनता दिखाई हो तो बीजेपी घटकर 39.5 फीसदी पर आ जाएगी। लेकिन वो 6.5 फीसदी जाएगा कहां? कांग्रेस में कदापि नहीं। यानी वो "आप" को मिलेगा। यानी "आप" का वोट बढकर 33+6.5= 39.5 फीसदी हो जाएगा।

लेकिन अभी ठहरिये। आप को और फायदा होना है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 15 फीसदी वोट मिले थे जिसमें बहुत सारे अल्पसंख्यकों के थे और मध्यमवर्ग व कुछ दलितों के भी रहे होंगे। इस बार कांग्रेस की जो हालत है उसका वोट सत्यनारायण पूजा के प्रसाद की तरह बंट गया होगा। मान लें कि उस 15 फीसदी में करीब 7 फीसदी वोट खांटी अल्पसंख्यकों के थे, तो तय मानिए कि उसमें से 5 फीसदी तो इस बार आप में चले गए होंगे। यानी "आप" हो जाती है बढकर 39.5+5=44.5 फीसदी। 

लेकिन ठहरिए, यहां आप में से अब कुछ वोट माइनस कीजिए। आप ने जिस तरह से गरीबों और अल्पसंख्यकों का जमावड़ा किया है-वो कुछ मध्यमवर्गीय वोटरों को बैचेन कर रहा है जिसने पिछली बार उसे विधानसभा व लोकसभा में वोट कर दिया था। यहां पर ऐसे वोटर करीब 3-4 फीसदी होंगे। ज्यादा हुए तो आप को भारी झटका लगेगा। शाही इमाम ने भी कम से कम 1 फीसदी वोटरों को हिलाया-डुलाया होगा। यानी आप के इस 44 फीसदी में से 4 फीसदी घटा दीजिए। कुल मिलाकर आप की फाइनल टैली 40 फीसदी वोट के आसपास है।
लेकिन दूसरी तरफ कांग्रेस से कुछ मध्यमवर्गीय हिंदू और दिल्ली का दलित वोट बीजेपी में भी गया होगा(दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम दंगा दरअसल दलित-मुस्मिल दंगा था)। कांग्रेस के पतन की मलाई सिर्फ आप नहीं खाएगी। यानी अगर हम मान लें कि इस बार कांग्रेस को 15 की जगह महज 8-10 फीसदी वोट मिले तो 2-3 फीसदी मध्यमवर्गीय हिंदू वोट बीजेपी में जाएगा। यानी बीजेपी हो जाएगी 43 फीसदी। यहां पर थोड़ा सा और दलित वोट बैंक बीजेपी को भारी कर देता है जैसा कि अनुमान है। 
5.इस अनुमान से बीजेपी करीब 44-45 वोट पर बैठी है और आप 40 फीसदी पर। दोनों के बीच 5 फीसदी की भारी खाई है। ऐसे में बीजेपी चुनाव जीत जाएगी।
लेकिन प्वाइंट नंबर-2 में वर्णित भाजपा के 13 फीसदी वोट में से अगर "आप" 10 फीसदी खींच लेती है तो "आप" 43 फीसदी और बीजेपी 40 फीसदी पर चली आएगी।
लेकिन देखा गया है कि 10 फीसदी की निगेटिव वोटिंग अमूमन नहीं होती है-अगर होती है तो किसी पार्टी के खिलाफ जबर्दस्त गुस्से में होती है। यहां बीजेपी से ऐसा गुस्सा था नहीं। ऐसे में 8 फीसदी की निगेटिव वोटिंग दोनो के वोट को "टाई" कर देंगे।
8. यानी स्थिति जो दिख रही है उसमें या तो बीजेपी जीत जाएगी या दोनों दल की स्थिति बराबर हो जाएगी। "आप" के जीतने की स्थिति मुश्किल लग रही है।