Monday, August 30, 2010

यूपीएससी परीक्षा में धांधली का आरोप

हाल ही में जब एमसीआई का चेयरमैन 2 करोड़ रुपया घूस लेते हुए पकड़ा गया था तो लोगों ने उसे पहली ऐसी घटना माना था जिसमें कोई इतना बड़ा अधिकारी सरेआम घूस लेते पकड़ाया हो। यूं, कईयों ने उसे सुखराम कांड से तुलना करने की भी कोशिश की थी। लेकिन हाल ही में यूपीएससी पर जो घोटाले के आरोप लगे हैं वे इससे कहीं बड़े घोटाले को अंजाम दे सकते हैं। क्योंकि यूपीएससी ऐसा संस्थान है जो देश पर हुकूमत करने वाले नौकरशाहों को चुनता है। अगर यहां पर घोटाले की बात साबित हो जाती है तो वाकई एक एक सीट की बोली 5 या 10 करोड़ो में लगी होगी।

भारत के इतिहास में अभी तक यूपीएससी को गाय, गंगा और ब्राह्मण की तरह पवित्र माना जाता रहा है! यूं, राज्यों में लोकसेवा आयोगों को लोग दशकों से घोटाला करते देख रहे हैं और बिहार और पंजाब जैसे राज्यों में तो इसके चेयरमैन तक जेल रहे हैं। रेलवे बोर्ड की भी यहीं हालत है। कुल मिलाकर हिंदुस्तान में कोई ऐसा सरकारी विभाग नहीं बचा जहां पैसा लेकर नौकरी न बांटी जाती हो। हां, इसके प्रतिशत में फर्क हो सकता है कि कितने सीट जेनुइन चुने गए और कितने पैसे लेकर। लेकिन अभी तक यूपीएससी पर कोई खुलेआम आरोप नहीं लगा था। एक बार यूपीएससी के प्रश्नपत्रों को लेकर सवाल जरुर उठा था जिसमें रांची के एक प्रेस से संबंधित कई लोगों ने यूपीएससी इक्जाम में कामयाबी पा ली थी। लेकिन उसके बाद से प्रश्नपत्रों की छपाई का काम अमेरिका भेज दिया गया।

इस बार यूपीएससी के उम्मीदवारों ने आरोप लगाया है कि पीटी की परीक्षा में भारी पैमाने पर धांधली हुई है। यूपीएससी ने घोषणा की थी कि वो पीटी में करीब 18,000 रिजल्ट देगा जो इसबार रिक्तियों की भारी संख्या को देखते हुए लाजिमी भी था। लेकिन यूपीएससी ने रिजल्ट दिए सिर्फ 12,000. यूपीएससी ने इसकी कोई वजह नहीं बताई और न ही आरटीआई के तहत वो इसकी जानकारी देना चाहता है। लेकिन ऐसा करना यूपीएससी का कोई अपराध नहीं लगता। लेकिन आंखे तो तब खुली रह जाती है कि यूपीएससी मिनिमम कट ऑफ मार्क नहीं बताना चाहता। क्योंकि ऐसी खबरें है कि कुछ ऐसे लड़को को पीटी में पास घोषित कर दिया गया है जो इक्जाम में बैठे ही नहीं थे। दूसरी तरफ जिन लड़कों ने पिछले साल आईपीएस का इक्जाम पास कर लिया था वे इस बार पीटी में खेत रहे। हलांकि कई दफा ऐसा होता है, लेकिन अगर ऐसे तकरीबन 100 से ज्यादा उम्मीदवारों के साथ हो जरुर घोटाले की गंध आती है। दूसरी तऱफ कुछ ऐसे लड़के हैं जिन्होंने जीएस में महज 20 सवाल बनाए थे उनका हो गया लेकिन 50 सवाल हल करने वाले खेत रहे।

कई छात्र इस बार के इक्जाम में क्षेत्रीय भेदभाव का आरोप भी लगा रहे हैं। हलांकि इसकी संभावना कम है। हिंदीभाषी इलाके के कई छात्रों का कहना है कि क्षेत्रविशेष के ज्यादातर उम्मीदवारों को पास करवा दिया गया है और हिंदी इलाकों के छात्रों का नाम काट दिया गया है।

यूपीएसी उम्मीदवारों ने इसके लिए यूपीएससी कार्यालय के सामने धरना दिया और जंतर-मंतर पर भी वे धरना दे चुके हैं। लेकिन उनकी आवाज को सुनने को कोई तैयार नहीं है। आश्चर्यजनक बात ये है कि मीडिया का एक बड़ा तबका उनकी बातों को सुनने को तैयार नहीं है। हिंदी मीडिया में तो फिर भी उनके बारे में कुछ न कुछ छपा है लेकिन अंग्रेजी मीडिया ने इस तरफ से बिल्कुल अपनी आंख मूंद ली है। यूपीएससी को ये गुरुर है कि सांविधानिक संस्था होने के नाते कोई उस पर सवाल उठा ही नहीं सकता। उम्मीदवारों को अब आशा की एक ही किरण दिखाई देती है और वो है सुप्रीम कोर्ट। अपनी तरफ से उन्होंने सोशल मीडिया पर भी इसके लिए कई तरह के लेख लिखे हैं। लेकिन कई उम्मीदवार खुलकर आना नहीं चाहते, उन्हें भय है कि आनेवाले सालों में भी यूपीएससी के आका उन्हे ब्लैकलिस्ट न कर दे।

Friday, August 27, 2010

रिलांयस-वेदांता कॉरपोरेट जंग और कांग्रेस का समीकरण

आपको मालूम है कि ये अनिल अग्रवाल कौन है ? मुकेश अंबानी और पी चिदंबरम वैसे भी किसी परिचय के मुंहताज नहीं हैं । इधर कुछ दिनों से जयराम रमेश भी याद करने लायक बन गए हैं। एक ग्लैमरस स्टोरी है जिसके ये अहम किरदार हैं। मधुर भंडारकर में अगर हिम्मत होती तो इसे जरुर पर्दे पर उतार देते और ‘कॉरपोरेट पार्ट टू’ बना देते। अब इस स्क्रिप्ट में राहुल गांधी की भी एंट्री हो चुकी है। राहुल गांधी ने नियामगिरी के उस पहाड़ी इलाके का दौरा किया है जहां बाक्साईट खनन का ठेका लेने में वेदांता को तगड़ा झटका लगा। राहुल गांधी ने खुलेआम कहा कि उन्ही की वजह से वेदांता को ये ठेका नहीं मिला और कि वे दिल्ली में आदिवासी हितों के एकमात्र पहरुआ हैं। आमीन।
चलिए अनिल अग्रवाल से शुरुआत करते हैं। उदार भारत के डालर अरबपतियों में दूसरे पोदान पर हैं ‘वेदांता रिसोर्स’ के मालिक अनिल अग्रवाल। साल 2009 में इनकी रैंकिंग पांचवी थी। यूं, मुकेश अंबानी से बहुत पीछे हैं लेकिन इनकी चमत्कारिक ग्रोथ रेट अंबानी के लिए यकीनन चिंता की बात होगी। अनिल अग्रवाल की जन्मस्थली पटना है । इस हिसाब से आप उन्हें पहला बिहारी डॉलर अरबपति भी कह सकते हैं! घनघोर किस्म के बिहारी चाहें तो अपना छाती चौड़ी कर सकते हैं! अग्रवाल ने पटना के मिलर स्कूल में पढ़ाई की जहां लालू प्रसाद यादव उनके सहपाठी हुआ करते थे। हाल ही में वो तब चर्चा में आए जब उन्होंने तेल और ऊर्जा के क्षेत्र की बड़ी कंपनी केर्न इंडिया पर 9।6 अरब डॉलर की बोली लगा दी।
अनिल अग्रवाल के पिता शहर पटना में एक छोटे से धातु कारोबारी हुआ करते थे जो बिजली विभाग के लिए एल्यूमिनियम का कंडक्टर बनाते थे। सन् ‘76 में अनिल अग्रवाल ने स्टरलाइसट इंडस्ट्रीज नाम की कंपनी बनाई जिसे धातु कारोबार के फील्ड में आसमान चूमना था। जी हां, ये वहीं स्टरलाइट थी जिसने बीजेपी के राज में बाल्को को भारत सरकार से खरीद लिया था। बाद में साल 1986 में अग्रवाल ने ‘वेंदांता रिसोर्स’ नाम की कंपनी की नींव डाली। साल 2002 में अग्रवाल ने हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड को भी खरीद लिया। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
अनिल अग्रवाल और उनकी वेदांता पर भ्रष्टाचार और धांधली के कई आरोप लगे। बाल्को अधिग्रहण के वक्त भी और हाल ही में नियामगिरी हिल्स में बाक्साइट के खदान हथियाने की कोशिशों को लेकर भी। एन सी सक्सेना कमेटी ने वहां चल रही माईनिंग को अवैध करार दे दिया। वेदांत पर जमीन हड़पने, फर्जी दस्तावेजों के आधार पर लंजीगढ़ (उड़ीसा) में एल्यूमिनियम रिफाइनरी खोलने के आरोप लगाए गए। उन्होंने तमाम नियम कानून ताक पर रख दिया और ऐसा मीडिया मैनेज किया कि मुख्यधारा की मीडिया इस खबर को सिर्फ सूंघकर रह गई।

बहुत दिन नहीं हुए जब हमारे गृहमंत्री पी चिदंबरम वेदांता के एक डायरेक्टर हुआ करते थे। बाद में जब उन्हें गृहमंत्री बनाया गया तो अरुंधती राय ने कहा कि वे तो वेदांता के खनन हितों की सुरक्षा के लिए चौकीदार बने है। कई लोगों को अरुंधती सही भी लगी। बहरहाल, वेदांता उस वक्त विवादों में फंस गई जब उड़ीसा के नियामगिरी की पहाड़ियों में बाक्साइट के खदानों के लिए उड़ीसा सरकार हजारों आदिवासियों को उजाड़ने पर आमादा हो गई। पुनर्वास के बदले में आदिवासियों को 30 किलोमीटर दूर बने अपार्टमेंटनुमा मकानों में बसा दिया जाना था! लेकिन जिस दिन वेदांता ने केर्न इंडिया पर दावा ठोका, उसी दिन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने वेदांता के नियामगिरी प्रोजेक्ट पर पानी फेर दिया। बहरहाल, तेज रफ्तार से दौड़ रहे अनिल अग्रवाल, जयराम रमेश के दिए घावों को सहला रहे हैं और अगले वार की तैयारी में है।
यहां पर कुछ पेंच है जिसे समझना जरूरी है। अनिल अग्रवाल जैसे लोगों ने दिल्ली समेत छोटी राजधानियों में डीलमेकरों का जो जाल बिछाया है उसमें कई बार आपस में ही टकराव हो जाता है। बीजेपी के राज में उनका काम मजे से चला और कांग्रेस में चिदंबरम उनके पुराने यार हैं। केर्न इंडिया को अगर वो खरीद लेते हैं तो वो उस स्थिति में आ जाएंगे, जहां से उनका टकराव मुकेश अंबानी की रिलांयस से होगा। इसलिए अब वो मुकेश की आंखों में चुभ रहे हैं। तेल रिफाइरनी के मामले में वो मुकेश अंबानी से पंगा ले रहे हैं तो बिजली के सुपर प्रोजेक्ट की घोषणा करके उन्होंने अनिल अंबानी को भी चुनौती दे दी है। अग्रवाल एक बार रिफाइनरी के धंधे में हाथ जला चुके हैं लेकिन पुराने इरादे खतम नहीं हुए हैं। अगले साल के शुरुआत में वे बिजली के 11 सुपर प्रजेक्ट के लिए कमर कस रहे हैं जिसमें हरेक कम से कम 4,000 मेगावाट का है। यहीं जाकर रिलांयस के दो दिग्गजों से उनका टकराव शुरू होता है।

सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के अंदर के सत्ता समीकरण में चिदंबरम, मनमोहन सिंह और मोंटेक एक ‘कोटरी’ के हैं जो धुर उदारवादी माना जाता है। आप इसे कांग्रेस आलाकमान का कॉरपोरेट या उदार चेहरा(?) कह सकते हैं। दूसरी तरफ एक खेमा वो है जो पार्टी आलाकमान के हिसाब से पार्टी का समाजिक चेहरा बनना चाहता है। इसके नए अगुआ बने हैं दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश और सीपी जोशी। ये कांग्रेस आलाकमान का समाजिक चेहरा है, बिल्कुल सौम्य, सरल और निश्चल! इस खेमे को ‘आम आदमी’ के ‘सरोकारों’ की सोते जागते चिंता रहती है। वो सरकार की कॉरपोरेट लॉबी के बरक्श हमेशा बयानवाजी करता है और जनता को आश्वस्त करता जाता है। सूत्रों की माने तो रिलांयस ने इसी खेमे को साधा है। इनके अलावा मुरली देवड़ा और रिलायंस के रिश्ते पर तो चर्चा होती ही रहती है। केर्न इंडिया को निगलने की फिराक में लगी वेदांता की बाक्साइट खदानों पर ताला जड़े जाने की घटना को इन संदर्भों में देखा जाना चाहिए। मजे की बात ये कि इधर जयराम ने वादांता के मनसूबों पर पानी फेरा और उधर राहुल गांधी, इस काम का श्रेय लेने नियामगिरी पहुंच गए। वैसे हमें याद है कि एक बार साल 1994 में तब के पर्यावरण मंत्री राजेश पायलट का रातोंरात तबादला कर दिया गया था जब उन्होंने चंद्रास्वामी से पंगा लिया था। लेकिन इस बार जयराम रमेश के पीछे मुकेश अंबानी खड़े हैं जिनकी कांग्रेस के बड़े नेताओं में आकंठ घुसपैठ है। इसलिए फिलहाल उनकी नौकरी सुरक्षित लगती है।

इधर जिस हिसाब से माओवाद के बहाने दिग्विजय सिंह, चिदंबरम पर निशाना साध रहे हैं उससे कई बार चिदंबरम की नौकरी खतरे में लगती दिखती है। जाहिर है, दिग्गी राजा का ये माओवाद प्रेम महज दिखावा है, खेल तो कहीं और से खेला जा रहा है। आधिकारिक तौर पर दिग्विजय सिंह की हैसियत बातौर कांग्रेस महासचिव यूपी के प्रभारी की है और वे राहुल गांधी के हाथ-पैर-नाक और मुंह भी हैं !
देखा जाए तो वेदांता जिस राह पर आगे बढ़ती हुई इस मुकाम पर पहुंची है, लगभग रिलांयस ने भी वहीं तरीका अपनाया था। धीरुभाई अंबानी हों या उनके सुपुत्र अंबानी बंधु-उन्होंने कारोबार में आगे बढ़ने के लिए हर उपलब्ध तरीका अख्तियार किया। ऐसे में ये कॉरपोरेट वार किस मंत्री को हलाल करेगा ये आगे देखने वाली बात होगी।

दुर्भाग्य से हम एक ऐसे युग के गवाह हैं जहां ठेकेदारों, दलालों और खनन माफियाओं ने सरकार पर कब्जा कर लिया है। हिंदुस्तान में आर्थिक सुधार(?),खान माफियाओं का उदय, आदिवासियों का बड़े पैमाने पर विस्थापन और माओवाद के उदय का कालक्रम लगभग एक ही है। इस हिसाब से आप कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं को अनिल अग्रवाल और अंबानी बंधुओं का लघु रूप मान सकते हैं। दुनिया के विशालतम लोकतंत्र में आपका फिर भी स्वागत है! चलिए कॉमनवेल्थ गेम्स में अतिथियों का स्वागत करें !

Wednesday, August 18, 2010

चट्टान दरकी भर है...टूटी नहीं है...!

लालू-पासवान के बीच डील पक्की होने के बाद बिहार में समीकरण के हिसाब से अब लड़ाई कांटे की हो गई है। लालू प्रसाद ने माय प्लस दलित प्लस राजपूतों का एक जुझारु, मजबूत और आक्रामक गठबंधन बनाया है और माय समीकरण की आक्रामक वोटिंग के लिए खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया है। कुल मिलाकर लालू यादव के पाले में लगभग 45 फीसदी जातियों का मजबूत समीकरण है जो नीतीश के लिए बड़ी चुनौती बनकर ताल ठोक रहा है।

इधर मौसमी पंछियों ने उड़ान भड़नी शुरु कर दी है। अभी नीतीश के पाले से कुछ उड़े हैं, बाकी लालू के पिंजड़े से उड़ने को बेताब हैं। पिछले साढ़े चार सालों की तेजड़िया उछाल के बाद अचानक सुशासन बाबू की लोकप्रियता जरुर दरकी है । मुख्यमंत्री पर तानाशाही के आरोप तो पहले से ही लगते थे लेकिन इस बीच भ्रष्टाचार के भी कई आरोप लग गए। इधर नीतीश के अपने ही नेता शरद यादव की वक्रदृष्टि उनपर पड़ गई। वैसे मामला अभी रफा दफा कर दिया गया है। ऊपर से सब शांत है, मुद्दा अगले चुनाव जीतने का है।

लालू ये जानते हैं कि कांग्रेस इस बार उनके मुस्लिम वोट बैंक में बड़े पैमाने पर सेंध लगाने की जुगत में है। ऐसा कांग्रेस ने बिहार में एक मुसलमान नेता को सरदारी सौंप कर अपनी मंशा जता भी दी है। दूसरी बात लालू ये भी जानते है कि कांग्रेस चुनाव में बड़े पैमाने पर धनवल का प्रयोग करेगी ताकि लालू के पाले से कम से कम आधे मुसलमानों को खींच कर लाया जा सके और आरजेडी की नैया को कोसी में डुबा दिया जाए।

लेकिन लालू की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होती। अब कांग्रेस उनके यादव वोट बैंक में भी सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में यूं यादव बहादुरों-पप्पू और साधुओं ने कोई विशेष कमाल नहीं दिखाया था लेकिन कांग्रेस को फिर भी कई अपेक्षाकृत साफ सुथरे यादवों पर भरोसा है। इधर कांग्रेस ने बिहार यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर भी एक यादव कुंअर की बहाली कर दी है। दूसरी तरफ झंझारपुर से कई दफा सांसद रह चुके देवगौड़ा सरकार में पूर्व मंत्री देवेंद्र यादव पर भी वो डोरे डाल रही है। देवेंद्र से कांग्रेस की कई दफा वार्ता हो चुकी है लेकिन देवेंद्र यादव भी कम चतुर नहीं है। वे एक ही साथ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस- दोनों से तार जोड़े हुए हैं। वे चाहते हैं कि अगर लालू का अवसान होता है तो पूरे बिहार के यादव उन्हे अपनी सरदारी सौंप दें ! दांव जरा ऊंचा ही लगा दिया, 2014 तक की बेरोजगारी बैचेन जो किए हुए है !

खैर मामला जो भी हो , इससे संभावित नुकसान लालू का ही है। हां, उनको एक जगह जहां फायदा होता नजर आ रहा है वो ये है कि बिहार में राजपूतों का ज्यादातर वोट आरजेडी के पाले में आएगा, लेकिन देखना ये है कि कांग्रेस कितना उसका डैमेज करती है। लालू यादव के साथ बड़ी दिक्कत ये है कि उनका भूत अभी भी जिंदा है। लालू यादव अपनी पुरानी छवि से मुक्त नहीं हो पा रहे, और यहीं नीतीश की सबसे बड़ी ताकत है।

इधर मौसमी पंछियों ने पाला बदलना शुरु कर दिया है। प्रभुनाथ सिंह के आरजेडी ज्वाईन करने के बाद अब लल्लन सिंह कांग्रेस का दामन थामने वाले हैं। इधर देवेंद्र यादव, कांग्रेस और सपा दोनों कंपनियों में इंटरव्यू दे आए हैं। लोगबाग कहते हैं राजपूतों की कमी के इस युग में सुशासन बाबू भी कुछ राजपूत नेता आयात करेंगे। अफवाह है कि आरजेडी सांसद जगदानंद सिंह से उनकी एक राउंड बात भी हो गई है। इधर अपने बच्चों को देहरादून में पढ़ा रहे आनंदमोहन को भी सितारों पर यकीन हो चला है। पंडितों की इकलौती दुकान महामहोपाध्याय प्रात:स्मरणीय जगन्नाथ मिश्रा ने फिर से खोल ली है और नीतीश बाबू ने उन्हें एक एमबीए स्कूल की चेयरमैनी सौंप दी है! लेकिन इसका खतरा ये है कि पिछले चालीस साल से मिसिरजी के तमाम राजनीतिक विरोधी(इसमें पंडितों की तादाद खासी है!) चौंकन्ने हो गए हैं और ब्राह्मणों के इस स्वयंभू लास्ट मुगल को जिंदा नहीं होने देने की कसम खा रहे हैं।

बिहार में चुनाव को सिर्फ विकास केंद्रित मान लेने की बात फालतू लगती है। लोग विकास की चर्चा तो करते तो हैं लेकिन वोट देते वक्त जातीय समीकरण ज्यादा अहम हैं। नीतीश बाबू ने करीने से एक समीकरण बनाया है। मामला 50-50 का न सही, 55-45 का जरुर है। आनेवाले कुछ सप्ताहों में गोलबंदी और साफ हो जाएगी। वैसे नीतीश चाहते हैं कि चुनाव खंडित ही हों। उनका फायदा इसी में है।

पिछले 63 सालों में बिहार में किसी ने मीडिया को मैनेज किया है तो उसका नाम है नीतीश कुमार। यूं, ऐसा करके उन्होंने अपने आंखों पर खुद ही पट्टी बांध ली है। उन्हें अपने विरोध के स्वर कम ही सुनाई पड़ते हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं जो ‘अंडरकरेंट’ की बात कर रहे हैं। कईयों का मानना है कि नीतीश का हाल कहीं 2004 के एनडीए जैसा न हो जाए। हलांकि लालू यादव की पुरानी छवि यहां भी नीतीश का तारणहार बनती हुई नजर आती है !

व्यक्तिगत छवि के मोर्चे पर अभी भी नीतीश मजबूत दिखते है। घोटालों के ताजा आरोपों ने लोगों लोगों के कान तो जरुर खड़े किए हैं लेकिन उसका घनघोर विरोध में कितना परिवर्तन हुआ है इसका सही आकलन किसी के पास नहीं। सुशासन बाबू सिर्फ एक ही बात से चिंतित लग रहे हैं कि कहीं कांग्रेस ज्यादा सवर्णों को टिकट न बांट दे। कुल मिलाकर नीतीश कुमार का नंबर पांच साल पहले के मुकाबले कमजोर जरुर हुआ है लेकिन अभी भी उन्हे खारिज मान लेना जल्दवाजी होगी।

लेकिन उससे भी अहम बात ये कि लालू ने अपनी दावेदारी पेशकर नीतीश को वाक ओवर दे दिया है...लालू का वोटर फिक्स था, नीतीश का बिखरा हुआ था..अब लालू के इस कदम से नीतीश का वोटर भी फिक्स हो गया है...लालू का ये कदम इस इनसेक्यूरिटी कम्प्लेक्श में उठाया गया लगता है कि कहीं यादव भी न बिखर जाए...इसके आलावा लालू की दावेदारी का कोई मतलब नहीं है...लालू, लड़ाई से पहले नतीजे का ऐलान कर चुके लगते हैं.....!

Friday, August 13, 2010

आनेवाले वक्त के लोग हैं ये...

धीरेंद्र सिंह रायबरेली में रहते हैं और एक व्यावसायिक कोर्स में डिप्लोमा कर रहे हैं। वे जब भी कोई पत्र-पत्रिका खरीदते हैं या दोस्तों के घर उन्हें कोई पुरानी पत्रिका मिलती है तो उसे वे जमा कर लेते हैं और गांव जाकर बच्चों में बांट देते हैं। उनका मानना है कि पत्रिकाएं या पुरानी किताबों को कबाड़ी के हाथों बेचने से अच्छा है कि कोई उसे पढ़ ले। आगे चलकर वे इसे संस्थागत रुप देना चाहते हैं और एक एनजीओ भी बनाना चाहते हैं। लखीमपुर खीरी के कृष्णकुमार मिश्र पेशे से प्राथमिक स्कूल में अध्यापक हैं और वाईल्ड लाईफ कंजर्वेशन उनकी दीवानगी है। उनके जिले में ही दुधवा नेशनल पार्क है जहां वे बिली अर्जन सिंह के संपर्क में आए। एक मित्र की सलाह पर उन्होंने इसे और भी संगठित रुप दिया और उन्होंने दुधवालाईव डॉट कॉम नामके एक वेबसाईट की शुरुआत की जो हिंदी में इस तरह की हिंदी में अपने आप में पहली पहल थी। आज मिश्र इस अभियान को और भी आगे बढ़ाने की बात सोच रहे हैं और एक त्रैमासिक लघु पत्रिका की शुरुआत का इरादा बना रहे हैं। ऐसी ढ़ेरों कहानियां है जो हमारे आसपास बिखरी पड़ी हैं जिन्हें लोगों ने महज अपनी पहल पर शुरु किया है और वे जागरुकता के एक प्रतीक बन गए हैं। दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान(आईआईएमसी) के छात्र रहे अंशु गुप्ता ने जब दिल्ली की सड़कों पर गरीब लोगों को भीषण ठंढ से कराहते देखा तो उनकी अंतरात्मा को ये गवारा नहीं हुआ। बस फिर किया था, गुप्ता ने अपनी क्लासमेट मीनाक्षी के साथ- जो बाद में उनकी जीवनसंगिनी भी बनी- मिलकर गूंज नामका एक एनजीओ बनाया जो लोगों से उनके पुराने गरम कपड़े डोनेशन के रुप में लेता है और गरीब लोगों में मुफ्ता बांटते हैं। अंशु ने तमिलनाडू में आए सूनामी के वक्त भी अच्छा काम किया।


येकहानियाँ हमें क्या बताती हैं ? ये ऐसे लोग हैं जो कल के लीडर हैं और इन्होंने अपने अंदर के लीडरशिप की उर्जा को बखूबी पहचाना है और उसे साकार रुप देने की कोशिश की है। ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने व्यक्तिगत काम के अलावा भी कुछ करने का जज्वा जिंदा रखा है अपनी अलग राह बनाई है। ये कहांनिया हमें बताती हैं कि लीडर के पास हमेंशा एक एडवांस एजेंडा होता है और वे कभी खाली नहीं होता। वे हमेशा इनिशिएट करते हैं। गांधीजी की जब हत्या हुई तो उससे पहले वो बांग्ला सीख रहे थे और सीखने के काफी करीब पहुंच गए थे। गीता में कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, ' हे अर्जुन कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर, क्योंकि फल तो तुम्हारे हाथ में ही नहीं है। इसी तरह लीडर जो होते हैं वे तो बस कर्म किए जाते हैं भले ही लोग उस पर कुछ भी प्रतिक्रिया क्यों दें। वे जो चीज एक बार ठान लेते हैं फिर वे उससे पीछे नहीं हटते। वे क्विक डिसीजन लेते हैं और एक बार जब ले लेते हैं तो उस पर चट्टान की तरह खड़े रहते हैं। कार्ल मार्क्स ने कहीं लिखा है कि मध्यम और निम्नवर्ग के लोग कई बार इसलिए माता खा जाते हैं कि वे तेजी से फैसला नहीं ले पाते, जबकि इसके उलट उच्चवर्ग के लोगों में ये गुण तकरीबन अनुवांशिक रुप ले चुका होता है और वो कम काबिलियत के बावजूद कई बार कामयाब होते हैं। कहने का मतलब ये है कि एक लीडर को हमेशा क्विक डिसीजन लेना चाहिए और उसे किसी डाइलेमा का शिकार नहीं होना चाहिए। ऐसा देखा गया है कि लीडर अतीतजीवी नहीं होते। वे अतीत से सिर्फ सीखते भर हैं, उसकी ओर कभी लौटते नहीं। वे बड़ी बेदर्दी से अतीत को अपनी जिंदगी से काट फेंक देते हैं। महाभारत में अगर कृष्ण के जीवन को गौर से देखें तो कृष्ण का चरित्र पूरी तरह से एक लीडर का चरित्र है। कृष्ण, गोकुल से जब मथुरा आए तो फिर वे कभी लौटकर गोकुल नहीं गए। वे उस यशोदा को भी बड़ी बेदर्दी से भूल गए जिन्होंने उन्हें पाला था। मथुरा को एक बार छोड़ा तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। हस्तिनापुर की राजनीति में जब वे सक्रिय हुए तो बहुत दिनों तक द्वारका को भूल गए। कुल मिलाकर उनका तयशुदा काम ही उनकी पूजा थी। वे उसे डूबकर करते थे। एक लीडर के लिए कमिटमेंट और फोकस बड़ी चीज है। कहते हैं कि चर्चिल जब रिटायर हो गए तो वे गुलाब की बागवानी में डूब गए। एक पत्रकार ने जब उनसे राजनीति पर बात करनी चाही तो उन्होंने कहा कि बेहतर है कि गुलाब पर बात की जाए। कहने का मतलब ये कि लीडर अपने काम में फोकस्ड होता है।

दूसरी अहम बात ये कि लीडर जो भी करता है वे उसका अपना नहीं होता, वो एक बड़े काउज के लिए करता है। अक्सर इसिलिए एक लीडर की जाती जिंदगी बहुत अच्छी नहीं होती। ये बात गांधी से लेकर लेनिन तक पर लागू होती है। अहम बात ये भी है कि एक लीडर प्रतिभाओं को बखूबी पहचानता है। वो हर घड़ी सही टैलंट को ग्रूम करने की कोशिश करता है और सेंकेंड जेनेरेशन लीडरशिप तैयार करता है।
कहते हैं कि लीडर हमेशा जन्मजात होता है। लेकिन ऐसा नहीं है। लीडरशिप की क्वालिटी कमोवेश हरेक इंसान में होती है, बस उसे ग्रूम करने की जरुरत होती है। कुछ परिवेश का असर तो कुछ शैक्षणिक माहौल भी इसमें अहम रोल निभाते हैं लेकिन अगर सही गाईडेंस मिल जाए तो सोने में सुहागा हो जाता है। तो चलिए, हम आज ही अपने अंदर के लीडर को पहचानते हैं और बन जाते हैं कल के हिंदुस्तान की आवाज। आखिर कहाबत है न...कि गरते हैं शहसबार ही मैदाने जंग में।

Wednesday, August 4, 2010

‘कॉमनवेल्थ’ के बाद अब ‘बुलेट ट्रेन’…तमाशा जारी है...!


क्या आपको बुलेट ट्रेन पर चढ़कर तीन घंटे में पटना पहुंचने की इच्छा नहीं होती ? कितना अच्छा लगेगा अगर आप 5,000 रुपया किराय अदा करें और एक उपन्यास पढ़ते हुए या सल्लू मियां की कोई फिल्म देखते हुए पटना पहुंच जाएं। वहां आपके इंतजार में कोई शॉफर ड्रिवने गाड़ी हो, जो आपको अपनी कोठी तक छोड़ आए ! और हां, ख्याल रहे कि आप अगर फिल्म देखने के बदले कोई उपन्यास या मैगजीन पढ़ते हुए जाएं तो वो खालिस अंग्रेजी की हो। तभी तो आप एक डिजाइनर हिंदुस्तानी (बिहारी नहीं) लगेंगे। आपकी चिंता बहुत जल्दी ही दूर होने वाली है। आपकी ये चिंता दिल्ली में बैठे हुए कुछ लोगों का गिरोह, जिसे सरकार कहते हैं बहुत जल्द दूर करने वाली है। अब ये मत पूछिए कि इसमें खर्च कितना आएगा। वो सब समझना आपके औकात की बात नहीं है। वैसे इस तरह के ट्रेन में चढ़ना भी आपके औकात के बाहर ही है, लेकिन मुगालता पालने में क्या हर्ज है ?

अब देखिए, ये जो हमारी सरकार बहादुर है न, वो आपको किस तरीके से बुलेट ट्रेन देगी। वो आपको नरेगा में काम देती है, बीपीएल को अनाज देती है-देती है कि नहीं ? तो उस सरकार बहादुर को अब इस बात की शर्म आने लगी है कि चीन जैसे देश में जब बुलेट ट्रेन दौड़ सकती है, तो हमारे यहां क्यों नहीं। माना कि हम उनके जैसे ओलंपिक नहीं करवा सके हैं, लेकिन कॉमनवेल्थ करवाने जा रहे हैं कि नहीं ? आप सच-सच बताईये, आपको कॉमनवेल्थ से खुशी हो रही है कि नहीं ? आपका दिल बल्लियों उछल रहा है कि नहीं..! जरुर उछल रहा होगा, आप शरमा रहे हैं, इसीलिए नहीं बोल रहे हैं।

अब देखिए, दिल्ली से पटना है मात्र 1000 किलोमीटर। अब 500-600 करोड़ रुपये किलोमीटर के हिसाब से पटरी बिछा भी दी जाए(जो शर्तिया प्रोजेक्ट के बनने तक 1500 करोड़ रुपये प्रति किमी हो जाएगी) तो कितना बजट आएगा ? सही जोड़ा आपने(हिंदुस्तानी इसलिए अच्छा इंजिनियर बनते हैं), ये खर्च आएगा मात्र 5 लाख करोड़ रुपये। अरे जनाव, ये भी कोई खर्च है ? 12 लाख करोड़ का तो अपने सरकार बहादुर का खर्च है, डेढ़ लाख करोड़ सेना खा जाती है, 1 लाख करोड़ हम ‘खेल’ में खर्च कर सकते हैं तो इतनी रकम बुलेट ट्रेन में क्यों नहीं। अरे, कुछ पैसा विदेशों से ले लेंगे, कुछ जनता पर सरचार्ज लगा देंगे, बस खेल खतम।

क्या कहा, इतने पैसे में सबको शिक्षा और स्वास्थ्य मिल जाएगी ? अरे महाराज, लोगों को एक ही दिन में थोड़े पढ़ाना है और तंदुरुस्त बनाना है ? और फिर आबादी भी देखिए, 120 करोड़ होने वाले हैं। अभी बुलेट पर चढ़िए। बाद की बाद में देखी जाएगी।

क्या कहा, ये ठेकेदारों, दलालों और नेताओं का प्रोजेक्ट है ? आप पागल तो नहीं हो गए ? क्या आपको बैलगाड़ी के युग में ही रहना है ? 21वीं सदीं में नहीं जाना आपको ? जरुर इसमें विदेशी ताकतों का हाथ हो सकता है जो जनता में गलत-फलत संदेश फैलाते हैं कि उच्च तकनीक से देश का बुरा होगा। अरे आप सोचिए, कि हमारा देश विश्वस्तरीय बन रहा है, हमारे पास एटम है, मिसाईल है, साफ्टवेयर है, क़ॉमनवेल्थ है, मेट्रो है, फिर बुलेट से आपको क्यों खुजली हो रही है ?

अरे, आप क्या बकवास कर रहे हैं ? 15 अगस्त को परेड देखकर आपको खुशी नहीं होती ? मंत्रियों के बड़े बंगले और लंबी गाडियां देखकर आपको खुशी नहीं होती? अंग्रेजों के जमाने में थी अपने लोगों के पास ऐसी कोठियां ? तो पैसा तो इसमें भी खर्च होता है न...फिर बुलेट ट्रेन से तो देश का गौरव बढ़ेगा, आप मान भी जाईये। अब ठीक है ये ठेकेदार या नेता भी तो अपने ही भाई बंधु है, घी कहां जा रहा है तो दाल ही में न...! क्या कहा, स्विस बैंक…हम आपको आश्वासन देते हैं कि कमीशन या घूस की कोई रकम हम स्विस बैंक नहीं जाने देंगे। हम सीधे आपके लिए सरकार से बात करेंगे। अब तो खुश !