Friday, April 18, 2008

छोटा शहर..बड़ा शहर..

मुहल्ले पर नीलेश जी ने छोटे शहर से खत लिखकर सिर्फ हमारे भावनात्मक तंतु को ही नहीं छेड़ा है...बल्कि यह तो एक पूरा विमर्श है जो अभी तक सही ढंग से मीडीया में पल्लवित नहीं हो पाया है। हिंदी मीडीया में तो खैर इस विषय पर बहुत ही कम लिखा गया है, अंग्रेजी में भी जब कुछ आता है तो वह बस तुलनात्मक अध्ययन होता है .या फिर छोटे शहरों के बच्चों की उपलव्धियों पर आश्चर्य जताया जाता है मानो वे उस एलीट कल्व में कैसे आ गए..जो बरसों से महानगरीय नौनिहालों की बपौती था। अक्सर छोटे शहरों से आनेबालों को जाहिल या संकीर्ण मानसिकता का समझ लिया जाता है..जिन्हे बोलने, चलने, पहनने और खाने के मैनर्स भी सीखने होते हैं..। बड़े शहरों में आनेबाले पहली पीढ़ी के लोगों के लिए ये इंटर्नशिप जिंदगी भर चलती रहती है। और ऐसे में रह-रह कर अपने शहर की याद आ ही जाती है..। लेकिन सवाल कहीं ज्यादा बड़ा है-आधुनिक सभ्यता और तेज रफ्तार विकास के नाम पर महानगरों का होना और उसमें रहना गौरव की बात मानी जाने लगी है...और एक ही तरह के सोंच, व्यवहार, और जीवनशैली यहां की अनिवार्यता है...और सतरंगी संस्कृति,वहुभाषी-वहुनस्लीय समाज की बात पीछे छूट जाती है..जो कुछ भी है वह 'मुख्यधारा' के लिए है..और उसे मुख्यधारा में विलुप्त हो जाना है। यह मुख्यधारा पूरी दुनियां के संदर्भ में अमरीकन सभ्यता हो सकती है..और भारत के संदर्भ में इसकी मुकम्मल तस्वीर अभी तक सामने नहीं आई है. हलांकि कुछ जानकार लोग इसे हिंदीभाषियों के लिए पंजाबी कल्चर का सांस्कृतिक फैलाव कहने लगे हैं-जो धारावाहिकों, मुम्वैया सिनेमा और अनेकानेक सांस्कृतिक दूतों के बदौलत सुदूर गांवों तक में अपना प्रभाव दिखा रहा है..जहां करबा चौथ तो दरभंगा तक पहुंच गया है--लेकिन कई पुराने रश्मो-रिवाज ऑउटडेटेड होते जा रहे हैं। ऐसे में बड़े शहर की अवधारणा निश्चय ही, उसकी विशालता और आर्थिक विकास से आगे तक का है-यह तो एक विचार है जो दुनियां में जो कुछ भी छोटा है उसे निगल कर एकरुप बना डालना चाहता है। एक तरफ तो इस 'मेल्टिंग पॉट' में सब कुछ अच्छा लगता है जहां सामाजिक समानता है, आपके विचारों का(माफ कीजिए-सिर्फ नए विचारों का,जिसका व्यवसायिक उपयोग हो सके) स्वागत है और तरक्की करने की आजादी है..लेकिन साथ ही आपके निजी मूल्यों और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों पर निरंतर मुख्यधारा में शामिल होने का दवाव होता है और हमले होते हैं। तो फिर चारा क्या है...महानगरों के उलट विकास की धारा बहाई जा सकती है..?.छोटे शहरों को सुबिधासंपन्न नहीं बनाया जा सकता? दो-दो करोड़ के दस महानगर के उलट 1-1 लाख के एक हजार शहर क्यों नहीं हैं.. जहां एक साथ कई आकांक्षाएं जी सके?लेकिन क्या मुख्यधारा ऐसा होने देगी जिसका सत्ता से लेकर आवारा पूंजी और संचार के साधनों से लेकर कला और वैचारिक संस्थानों तक पर कब्जा है? ऐसा लगता है कि सदियों के अपने अनुभव से सोशल और पोलिटिकल एलीट ने यह सीख लिया है कि बिखरे हुए आवादी पर शासन करना और उन्हें अपना बाजार बनाना बहुत मुश्किल भरा काम है-इसलिए पूरी दुनियां में ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं कि आवादी को एक ही जगह बसा दिया जाए। (इसका एक छोटा सा उदाहरण है छत्तीसगढ़ का सलबा जुडूम जहां आदिवासियों को एक जगह बसाने की कवाय़द जारी है)..ऐसे में लगता है कि छोटा शहर ही लोकतंत्र है..और बनारस के घाट व पटना का रेलवे स्टेशन..अंसल प्लाजा से ज्यादा चमकदार है। लेकिन मैं ऐसा क्यों सोंचता हूं..? सिर्फ इसलिए की मैं छोटे शहर से आया हूं?

1 comment:

PD said...

meri soch bhi aapse alag nahi hai..