Saturday, July 19, 2008

हाथ होगा साफ- एक खेमा कमल का, दूसरा हाथी का

सियासी हालात जिस तरफ बढ़ रहे हैं, आनेवाले वक्त में सबसे ज्यादा चिंता कांग्रेस को करनी होगी। जिस तरह मायावती विपक्षी एकता का एक केंद्रबिन्दु बन के उभर रही है, ऐसा लगता है कि आने वाले वक्त में हिंदुस्तान दो-ध्रुवीय गठबंधन की तरफ तो बढ़ रहा है लेकिन कहीं ऐसा न हो कि इसमें कांग्रेस ही गायब हो जाए। ये बात बहुतों को बेतुकी और ताज्जुब भरी लग सकती है, लेकिन अगर मायावती ने थोड़ा संयम दिखाया और बसपा संगठन को फैलाने में ध्यान दिया तो वह इतिहास में एक बड़ा नाम दर्ज करवाएंगी।

गौरतलब है कि हिंदुस्तान जैसे देश में कोई भी पार्टी तभी राष्ट्रीय बन पाई है जब उसे कुछ खास समूहों का समर्थन प्राप्त हो। कांग्रेस या बीजेपी के राष्ट्रीय बनने के पीछे ये बहुत बड़ा कारण था कि दोनों को ब्राह्मणों का समर्थन मिला जो कि अखिल भारतीय जाति है। साथ ही कांग्रेस को दलितों और मुसलमानों का भी समर्थन प्राप्त था और कांग्रेस का पतन तभी शुरु हुआ जब इन समूहों ने उसका साथ देना छोड़ दिया।

कायदे से देश में पिछड़ी जातियों की तादाद सबसे ज्यादा है, लेकिन इनमें इतना बिखराव है और एकरुपता का इतना अभाव है कि ये एक-साथ किसी मंच पर अा नहीं पाते हैं और मुकम्मल तौर पर अभी तक पिछड़ों की कोई एक पार्टी सफल नहीं हो पाई है। जनता दल का प्रयोग और उसका बिखराव इसका उदाहरण है।

मौजूदा हालात की बात करें तो कांग्रेस के पास विचारधारा के नाम पर सिवाय भाजपा-विरोध के कुछ सकारात्मक है नहीं, जिसे ये ठोस तौर पर अपनी विचारधारा कह सके। उसे अखिल भारतीय दल होने के चलते और बीजेपी विरोध के चलते मुसलमानों का वोट मिल जाता है साथ ही एक पुरानी पार्टी होने के नाते इसके पतन में पर्याप्त समय लगा है। लेकिन शायद अब इतिहास का वो फेज आ चुका है कि कांग्रेस को ज्यादा मौका न मिले। और इसकी वजहें है।

बात करें मुसलमानों के वोट की, तो इसके कई दावेदार हैं। आज के वक्त में मुसलमानों का वोट उस गठबंधन को जा रहा है जो बीजेपी को हराने की सबसे ठोस गारंटी दे। कांग्रेस कई सूबों में ये दर्जा खो चुकी है। दूसरी बात अगड़ों का पारंपरिक वोट कमोवेश बीजेपी के साथ है। पिछड़ों की हरेक सूबे में अपनी पार्टियां है। ले दे कर दलित वोट बचता है जो अभी तक कांग्रेस को मिलता रहा है लेकिन जहां-जहां दलित पार्टियां हैं वहां वो कांग्रेस को नहीं मिल रही। इतना तय है कि आनेवाले वक्त में बीएसपी का फैलाव देश के दूसरे हिस्सों में होगा और इसकी वजह ये है कि दलित वोट का भी अपना एक नेशनल कैरेक्टर है।

दूसरी बात ये कि इस के साथ वामपंथी पार्टियां भी असहज महसूस नहीं करेंगी और यह गठबंधन मुसलमानों को बड़े पैमाने पर अपने साथ खींच सकता है।अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस का क्या होगा...? क्या हिंदुस्तान की आनेवाली पीढ़ी, कंम्प्यूटर और पिज्जा पीढ़ी के लोग खानदानों की हुकूमत को झेलने के लिए ज्यादा दिन तक तैयार हैं ? अभी भले ही सियासत में नेताओं के बच्चे ही दिखाई दे रहे हों लेकिन क्या वे ज्यादा दिन तक ऐसा कर पाएंगे..? रही बात बीजेपी की तो एक विचारधारा पर आधारित पार्टी होने की वजह से इसका खात्मा मुश्किल है...लेकिन एकवार मायावती...ने त्याग और संयम से काम लिया तो फिर कांग्रेस को इतिहास बनते देर नहीं लगेगी...हां हो सकता है इस प्रक्रिया में 15-20 साल लग जाए...लेकिन मायावती भी तो अभी सियासत के हिसाब से कम उम्र की ही हैं।

7 comments:

मिथिलेश श्रीवास्तव said...

बढ़िया लेख

Udan Tashtari said...

अच्छा विश्लेषण.

dibyanshu said...

आशुतोष भाई ब्राहमणों का अखिल भारतीय चेहरा तो आपको नजर आता है...लेकिन आपको क्या लगता है दक्षिण भारत और उत्तर भारत के ब्राहम्ण एक साथ आ पाएंगे...18 से अधिक उपजातियां तो अकेले आपके बिहार में हैं ब्राहम्णों की...जिनके बीच ना तो बेटी का संबध है और ना ही रोटी का...कभी किसी अखबार का मेट्रोमोनियल उठाकर देख लीजए...सेंसेशन साफ नजर आ जाएगा...दरअसल शीर्ष सत्ता से बेदखल होने के बाद से ही लगभग सभी सवर्ण जातियों ने नए रहनुमा की तलाश शुरु कर दी है...कल तक जिस मायावती को कान में जनेउ बांधकर गरियाते थे...आज वही उनकी आराध्य बन गई हैं...बधाई हो....

dibyanshu said...

आशुतोष भाई ब्राहमणों का अखिल भारतीय चेहरा तो आपको नजर आता है...लेकिन आपको क्या लगता है दक्षिण भारत और उत्तर भारत के ब्राहम्ण एक साथ आ पाएंगे...18 से अधिक उपजातियां तो अकेले आपके बिहार में हैं ब्राहम्णों की...जिनके बीच ना तो बेटी का संबध है और ना ही रोटी का...कभी किसी अखबार का मेट्रोमोनियल उठाकर देख लीजए...सेंसेशन साफ नजर आ जाएगा...दरअसल शीर्ष सत्ता से बेदखल होने के बाद से ही लगभग सभी सवर्ण जातियों ने नए रहनुमा की तलाश शुरु कर दी है...कल तक जिस मायावती को कान में जनेउ बांधकर गरियाते थे...आज वही उनकी आराध्य बन गई हैं...बधाई हो....

sushant jha said...

दिव्यांशु जी...आपकी बात से बहुत हद तक सहमत हूं...लेकिन मेरा इतना मानना है कि ब्राह्मण जैसी जातियां अपने जातीय हित को लेकर इतनी चौकन्नी रहती है कि वो रोटो-बेटी के रिश्ते के बिना भी अपने दुर्भाग्य से अपने हित के आलावा कुछ नहीं सोच पाती...

Unknown said...

badiaa bisleshan,jo aapke rajnaitik bisleshan chhamta ko dikhlaati hai

विवेक सत्य मित्रम् said...

ये मायावती का ही करिश्मा है... घोर ब्राह्मणवादी लोग भी अब उनके सियासी भविष्य पर दांव लगाने को तैयार हो रहे हैं... ये एक किस्म की उदारता भी हो सकती है... और दूसरे तरह की मजबूरी भी... वैसे भी ब्राह्मण अपने हितों के प्रति पहले से कहीं ज्यादा सजग हुआ है... उसे भी रोज रोज कुआं खोदकर पानी पीने की मजबूरी चुभने लगी है... ऐसे में अपने सामाजिक आधार के प्रति सजग लोग अगर मायावती को भविष्य में भारत के प्रधानमंत्री के रुप में देख रहे हैं.. तो इसमें शाबाशी देने जैसी कोई बात नहीं है... ये समझना जरुरी है... सियासत में भावनाओं की कोई जगह नहीं होती... समाज के इस तबके की विचारधारा में दलित रुझान मजबूरीवश आ रहा है... और इसमें कोई हर्ज भी नहीं है... आखिर में यही कहूंगा... सुशांत जैसे लोगों से मुझे गहरी सहानुभूति है..... हां.. जहां तक लेख की बात है.... सियासी समझ के मामले में मैं आपको पहले भी दाद देता रहा हूं.....