Thursday, October 30, 2008

बिहार की बीमारी सामान्य नहीं है...

सवाल ये है कि क्या बिहार में 50 इंजिनियरिंग कॉलेज, 20 मेडिकल कॉलेज, 50 एमबीए, 10 होटल मेनेजमेंट और 200 आईटीआई खोले जा सकते हैं ? क्या बिहार में सिर्फ 1000 किलोमीटर भी चार लेन की सड़कें बनाई जा सकती है? क्या बिहार में तीस-तीस, चालीस-चालीस लाख के शहर बसाए जा सकते हैं? शहरों को बसाने की बात छोड़ दी जाए तो बाकी सारे काम 5 साल में निबटाए जा सकते हैं। और यहीं सार है आज मुहल्ला में छपे हरिवंश जी के लेख का। अगर ये काम हो जाए तो बिहार बहुत तेजी से अपने पुरान गौरव को फिर से प्राप्त कर ले। हरिवंश जी लिखते हैं कि हरेक जिले में एक विश्वस्तरीय युनिवर्सिटी होनी चाहिए। लेकिन सवाल है कि ये काम करेगा कौन। इन काम को करने के जरुरी ताकत नेताओं के पास हैं और नीतियां भी वहीं बनाते हैं। लेकिन बिहार के मौजूदा नेताओं पर भरोसा किया जा सकता है?

हलांकि नीतीश ने कुछ शुरुआत की है, और रामविलास भी जुझारु किस्म के हैं। लालू भी दिल्ली आकर थोड़ा बदले हैं। अगर इनपर सकारात्मक जनदबाव बनाया जाए, तो इस दिशा में काम हो सकता है। हलांकि ये काम सुनने में जितना आसान लगता है, करना उतना आसान नहीं है।

इतने बड़े पैमाने पर आधारभूत ढ़ाचा बनाने के लिए बड़े पैमाने पर जमीन की जरुरत पड़ेगी। बिहार की गिनती देश के गिनेचुने सघन आबादी वाले सूबों में होती है। हमने सिंगूर का उदाहरण देखा है। उत्तराखंड सरकार भी जमीन की वजह से टाटा को अपने यहां नहीं बुला पाई। तो फिर बिहार जैसे सूबों में ये इतना आसानी से कैसे हो सकता है जहां जमीन का जोत एक-एक,दो-दो बीघे का रह गया है। ये बड़े सौभाग्य की बात हुई है कि नालंदा में बनने बाले नए युनिवर्सिटी के लिए जमीन आसानी से मिल गई। लेकिन आगे भी ऐसा होगा, कहना मुश्किल है। हलांकि बिहार सरकार के पास काफी-कुछ जमीने ऐसी हैं जो 50-60 के दशक में विभिन्न कार्यों के लिए ली गई थी। लेकिन वो जस की तस पड़ी हुई है। उस जमीन का उपयोग किया जा सकता है।

दूसरी बात है वर्क कल्चर की। जिन राज्यों ने उत्तम शिक्षण और स्वास्थ्य संस्थान बनाए हैं, वो एक दिन में नहीं बने। वो दशकों की मेहनत का नतीजा है और वहां एक परिपक्वता आ गई है। इस गैप को पाटना आसान नहीं। सबसे बड़ी बात ये है कि बिहार का एक बड़ा हिस्सा कुदरत की कहर का शिकार है। बाढ़, तकरीबन एक तिहाई बिहार को हर साल तबाह करती है। बिहार के सियासतदानों को निरंतर इसके लिए केंद्र पर दबाव डालकर इसका कोई पुख्ता समाधान निकालना होगा। लेकिन हमारे सूबे के नेताओं की जमात जरा ढ़ीली किस्म की है। जनता को, छात्रों को युवा और बौद्धिक तबके को निरंतर इस पर चौकस निगाह रखनी होगी। मुझे लगता है कि राहुल राज की हत्या और मुम्बई में बिहारियों को प्रताड़ित किया जाना इस दिशा में एक सकारात्मक बदलाव ला सकता है। और हरिवंश जी ने सही समय पर, सारगर्भित, संयमित और दूरदृष्टिपूर्ण बहस का आगाज किया है।


पुनश्च:- बिहार और कुछ दूसरे राज्यों की आर्थिक तुलना आंखे खोलने वाली हैं-

1.प्रतिव्यक्ति आमदनी के मामले में गोवा बिहार से 7 गुना और पंजाब-हरियाणा 5 गुणा आगे हैं। यानी एक औसत गोवन और पंजाबी...एक बिहारी को आराम से रसोइया की नौकरी दे सकता है।
2. 9 करोड़ की आबादी वाले बिहार में बिजली की जरुरत महज 1000 मेगावाट हैं (वो भी पूरा नहीं पड़ता) तो हरियाणा, जो कि आबादी में हमारा पांचवा हिस्सा है तकरीबन 5000 मेगावाट बिजली उपभोग करता है।
3. बिहार में महज 8 युनिवर्सिटी हैं और आबादी 9 करोड़ है।
4.बिहार की युनिवर्सिटियों में जितनी सामान्य स्नातको के लिए सीटें नहीं है उससे ज्यादा कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इंजिनियरींग की सीटें हैं।
5.अभी तक बिहार में एक भी सेंट्रल युनिवर्सिटी नहीं है (अब एक का ऐलान हुआ है) जबकि पड़ोस के यूपी तक में तकरीबन दर्जन भर (आईआईटी सरीखे संस्थान समेत) है।
6.एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 50 फीसदी बिहारी दिल्ली, पंजाब, मुम्बई और न जाने कहां- कहां रोजी रोटी की तलाश में चले गए हैं। क्योंकि सूबे में 2000 रुपये की भी नौकरी नहीं है।
7.बिहार के तकरीबन 90 फीसदी गांवों में बिजली नहीं है जबकि हरियाणा के आखिरी गांव का विद्युतीकरण बंसीलाल ने 1973 में ही कर दिया था।
8.मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य जो 90 के दशक के शुरुआत तक बिहार जैसे ही गिने जाते थे, लेकिन अपने अच्छे शासन के बल पर हमसे मीलों आगे निकल गए हैं।
9.दिल्ली में तकरीबन 25 फीसदी बिहारी हो गए हैं, जिनमें ज्यादातर कम आमदनी वाली नौकरी करते हैं। इसकी वजह ये है कि उनके पास अच्छी शिक्षा नहीं है, न ही अंग्रेजी का ज्ञान।
10. हर सूबे में बिहारियों की बड़ी तादाद ने दूसरे सूबों के लोगों के मन में एक असुरक्षा का भाव भर दिया है- जो बहुत हद तक स्वभाविक है। बिहार में ढ़ंग के शिक्षण संस्थान न होने और उद्योग धंधों की कमी होने से बड़ी तादाद में बिहारी हाईप्रोफाईल जॉब में भी भर गए हैं जिस वजह से दूसरे सूबों के लोगों की निगाह में खटकने लगे हैं। दिल्ली की तमाम युनिवर्सिटियां और देश के दूसरे केंद्रीय शिक्षण संस्थान बिहारियों से खदबदा रहे हैं- और इसकी कतई वजह उनकी जहानियत नहीं है। इसकी वजह बिहार के पिछड़ेपन में छुपी हुई है।

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