Wednesday, December 17, 2008

मुम्बई हमले और पाकिस्तान-4

बहुत दिनों पहले जनसत्ता के साहित्य विशेषांक मे चाणक्य सेन का लिखा पाकिस्तान डायरी पढ़ने का मौका मिला। चाणक्य सेन ने बेहतरीन अंदाज में समझाया था कि पाकिस्तान की मानसिकता क्या है और वहां के लोग क्या सोचते हैं। सेन ने इस किताब में अपने कई पाकिस्तान दौरों के यादों को साझा किया है कि कैसे जनरल जिया ने पाकिस्तानी सेना और समाज का सांस्थानिक इस्लामीकरण करना शुरु किया था जो 90के दशक के बाद एक विशाल बटबृक्ष बन गया।

पाकिस्तान की बीमारी ये है कि वहां जनता में सेना को बहुत ही सम्मान प्राप्त है और लोकतंत्र की जड़े कभी मजबूत नहीं हो पाई। शुरु से ही नेताओं ने भी इसमें खास दिलचस्पी नहीं दिखाई, वो सेना का दुरुपयोग करते रहे ये सोचे बिना की ये सेना आनेवाले दिनों में उन्ही के लिए भस्मासुर साबित होगी। पाकिस्तान की जनता सोचती है कि सेना ही एक ऐसी संस्था है जो उसे भारत के 'कोप' से छुटकारा दिला सकती है। चाणक्य सेन ने लिखा है कि किस तरह पाकिस्तान का मध्यमवर्ग भी उसी अंदाज में सोचता है, मौज-मस्ती उड़ाता है और अपने बच्चों को अमेरिका के यूनिवर्सिटियों में पढ़ाने की फिक्र में दिनरात लगा रहता है। लेकिन उसका आकार इतना छोटा है कि उस पर कट्टरपंथी जमात हावी हो गई है।

पाकिस्तान के एक बड़े पत्रकार ने चाणक्यसेन को कहा कि सेन साब... पाकिस्तान के जन्म के तुरंत बाद नियति ने उसे छल लिया। हिंदुस्तान में गांधी की हत्या के बाद भी दूसरी पंक्ति के नेताओं की एक कतार थी, और नेहरु ने बखूबी मुल्क को लंबे समय तक एक ठोस नेतृत्व दे दिया लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं हो पाया। पाकिस्तान में जिन्ना के मरने के बाद वो मुल्क लोकतांत्रिक अस्थिरता का शिकार हो गया और सेना ने सत्ता में दखलअंदाजी कर दी। पाकिस्तान के नेता भी बांग्लादेश को दबाने के लिए सेना को हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे, साथ ही देश में कभी भी हिंदुस्तान की तर्ज पर समाजिक और आर्थिक समानता लाने की बात नहीं सोची गई। भारत की तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं को विकसित नहीं किया गया और सेना ही एकमात्र संस्था बच गई जो मुल्क को आपतकाल में संभाल सके। इसमें कोई ताज्जुब भी नहीं है, वैसे भी जब राजनीतिक संस्थाएं फेल हो जाती हैं तो ऐसा ही होता है।

इसके आलावा भारत से हुई कई लड़ाईयों में हार ने भी पाकिस्तान के जनता के मन ये भावना भर दी कि अगर कोई तारणहार है तो फौज ही है, नेताओं के भरोसे मुल्क को छोड़ा नहीं जा सकता। और आज कोई नेता अगर इमानदारी से मुल्क में लोकतंत्र लाना भी चाहता है तो जनता में वो भरोसा नहीं है,अलबत्ता अब धीरे-धीरे माहौल बन रहा है। लेकिन सवाल ये है कि क्या पाकिस्तान की सेना,आईएसआई और कट्टरपंथी इतनी आसानी से लोकतंत्र को जड़ जमाने देंगे और खुद को परदे के पीछे कर लेंगे... हाल दिनों में जिस नेता ने भी पाकिस्तान में सेना को काबू में करने की कोशिश की सेना ने तिकड़म करके उसका तख्ता पलट दिया और इसके ताजा उदाहरण नवाज शरीफ हैं जिन्हे मुशर्रफ ने बेदखल कर दिया था। अब जरदारी भी वहीं काम करना चाहते हैं,और सेना उन्हे कब तक काम करने देगी कहना मुश्किल है।(जारी)

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