Sunday, February 8, 2009

ताल तो भोपाल का और सब तलैया-पार्ट तीन

भोपाल में कई चीजें जानने को मिली। वहीं मुझे पता चला कि विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में कैसे जुगाड़ चलता है। अगर आप किसी लॉवी के मेंम्बर हैं, तो ये काम कितना आसान हो जाता है। वहीं पता चला कि जिनका जुगाड़ नहीं था वो लाख प्रतिभाशाली और डिग्रियों के अंबार होने के बावजूद कैसे जिंदगी भर परिसरों के चक्कर काटते रहे। कैसे एक यूनिवर्सिटी के विभागाध्यक्ष ने तीन साल तक सारे उम्मीदवारों को नाकाबिल घोषित कर दिया, क्योंकि चौंथे साल उसके बेटे की पीएचडी पूरी होने वाली थी। ये भी एहसास हो गया कि क्यों राजेंद्र यादव और उदय प्रकाश जैसे लोग लाख काबिलियत के बावजूद यूनिवर्सिटियों में जगह नहीं बना पाए और ये भी कि उनके लेखन में एकेडमिक साहित्यकारों के लिए क्यों आलोचना का भाव है। ऐसे एक नहीं दो नहीं बल्कि सैकड़ों उदाहरण सुनने को मिले जिसमें यूनिवर्सिटियों को खानदानी चारागाह बना कर रख दिया गया। बड़े यूनिवर्सिटी में ऐसे-ऐसे लोग नियुक्त कर दिए गए जिन्हे विषय की बेसिक जानकारी तक नहीं थी। भोपाल के साहित्य सम्मेलन में रवीन्द्र कालिया के नया ज्ञानोदय विवाद और ममता कालिया का अंग्रेजी के प्रोफेसर के तौर पर नियुक्ति काफी चर्चा में थी। दूसरी बात साहित्य के क्षेत्र में दिए जानेवाले पुरस्कारों और आलोचनाओं की भी थी। कई दफा काफी औसत दर्जे के साहित्यकारों को कैसे पुरस्कृत कर दिया गया और जिस कवि पर किसी बड़े आलोचक की वक्र दृष्टि पड़ गई कैसे उसे धरासायी कर दिया गया।


शुरु में मुझे लगता था कि हिंदी साहित्य का स्तर बंग्ला या देश के अन्य भाषाओं की तुलना में पिछड़ा हुआ ही होगा। भोपाल साहित्य सम्मेलन में जाकर मुझे पता चला कि नहीं ऐसा खास कुछ नहीं है। साहित्य के बारे में जानकारी देने के लिए पंकज पराशर जी को मैं खासतौर पर धन्यवाद देना चाहूंगा कि उन्होने कई बारीक बातें बताई। मसलन, बंग्ला में कथा और उपन्यास की परंपरा काफी प्राचीन और समृद्ध है और वहां हिंदी कुछ कमजोर लग सकती है। लेकिन कविता और दूसरी विधाओं में हिंदी में काफी काम हुआ है, बल्कि इसने नई ऊचाईंया पाईं है। दूसरे भाषाओं के साहित्यकार हिंदी में अब छपने के लिए कितने लालायित हो रहे हैं-इसका भी पता चला (जारी)

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