
तो फिर इस देश में बोलेगा कौन? जब सबने बोलना ही बंद कर दिया है तो फिर बोलेगा कौन? आपको नहीं लगता कि ये स्पेस कोई और हड़प सकता है जो बोलने से आगे जाकर बंदूक की भाषा भी बोल सकता है। चलिए इसे भी यूटोपिया मान लेते हैं, आखिर हमारी लाखों की सेना और पूरा तंत्र उन्हे कुचल करने के लिए काफी है।
इधर, देखने में आया है कि लोगों की नौकरी और महंगाई पर बोलने के लिए कोई नहीं बचा। नेताओं की जुबान को लकवा मार गया है। यह देश पक्ष-विपक्ष विहीन देश हो गया है जहां दलालों, माफियाओं, सेटरों और फिक्सरों का बोलवाला है। इधर चीनी की कीमत 40 पार गई तो मैंने आजतक किसी भी माननीय का बाईट नहीं सुना। दूसरी तरफ किसानों का दिल्ली में जिस दिन आन्दोलन हो रहा था उस दिन ऐसे-ऐसे लोगों का बाईट टीवी पर देख रहा था जो कारपोरेट सेक्टर के दलाल हैं। इन्हे कुछ दिनो तक लाईजनर कहते थे लेकिन आजकल कंसलटेंट कहा जाने लगा है। यहां मकसद किसानों के आन्दोलन की आलोचना नहीं है लेकिन उसमें घुसे नेताओं की नीयत जरुर संदेहों के घरे में है। ये लोग वहां इसलिए थे कि वहां हजारों की भीड़ थी। आजतक इनमें से किसी भी नेता को हमने अलग से चीनी के मुद्दे पर नहीं सुना, और न ही इन्होने कभी महंगाई पर बोला।
पिताजी से कल फोन पर बात हो रही थी। उन्होने कहा कि अभी अगर कोई मंहगाई के मुद्दे पर संसद में किसी मंत्री को कुर्सी फेंककर मार डाले तो वो बड़ा नेता बन सकता है। मंहगाई के मुद्दे पर किसी विमान का अपहरण कर भी सुर्खी बटोरी जा सकती है। इस 120 करोड़े के देश में लोग तो हाड़तोड़ मेहनत करते हैं लेकिन उससे उपजने वाला पैसा कहां जाता है कि ये नहीं मालूम। वो पैसा हमें न तो स्कूलों में दिखता है न ही सड़कों पर। बस लोग धकियाए जा रहे हैं, पीटे जा रहे हैं और उनकी कटोरियों से दाल और कपों से चाय कम होती जा रही हैं। फिर इस सिस्टम का मतलब क्या है ?
लेकिन मेहरबानों...कदरदानों ज्यादा मुद्दों और जनहितों की बात करोगे तो लेफ्टिस्ट करार कर दिए जाओगे, सरकार आतंकवादी करार दे सकती है और तुम्हारे दोस्त तुम्हे पागल। वे तुम्हे अपनी पार्टी में बुलाने से मना कर सकते हैं, तुम्हारा फोन अटेंड करना बंद कर सकते हैं सबसे बड़ी बात तो ये कि आप एक लोकतंत्र में जी रहे हैं जहां हाल ही में जनता ने एक स्थिर सरकार के लिए वोट किया है। फिर क्या फर्क पड़ता है कि चीनी 40 पार गई है !
इधर, देखने में आया है कि लोगों की नौकरी और महंगाई पर बोलने के लिए कोई नहीं बचा। नेताओं की जुबान को लकवा मार गया है। यह देश पक्ष-विपक्ष विहीन देश हो गया है जहां दलालों, माफियाओं, सेटरों और फिक्सरों का बोलवाला है। इधर चीनी की कीमत 40 पार गई तो मैंने आजतक किसी भी माननीय का बाईट नहीं सुना। दूसरी तरफ किसानों का दिल्ली में जिस दिन आन्दोलन हो रहा था उस दिन ऐसे-ऐसे लोगों का बाईट टीवी पर देख रहा था जो कारपोरेट सेक्टर के दलाल हैं। इन्हे कुछ दिनो तक लाईजनर कहते थे लेकिन आजकल कंसलटेंट कहा जाने लगा है। यहां मकसद किसानों के आन्दोलन की आलोचना नहीं है लेकिन उसमें घुसे नेताओं की नीयत जरुर संदेहों के घरे में है। ये लोग वहां इसलिए थे कि वहां हजारों की भीड़ थी। आजतक इनमें से किसी भी नेता को हमने अलग से चीनी के मुद्दे पर नहीं सुना, और न ही इन्होने कभी महंगाई पर बोला।
पिताजी से कल फोन पर बात हो रही थी। उन्होने कहा कि अभी अगर कोई मंहगाई के मुद्दे पर संसद में किसी मंत्री को कुर्सी फेंककर मार डाले तो वो बड़ा नेता बन सकता है। मंहगाई के मुद्दे पर किसी विमान का अपहरण कर भी सुर्खी बटोरी जा सकती है। इस 120 करोड़े के देश में लोग तो हाड़तोड़ मेहनत करते हैं लेकिन उससे उपजने वाला पैसा कहां जाता है कि ये नहीं मालूम। वो पैसा हमें न तो स्कूलों में दिखता है न ही सड़कों पर। बस लोग धकियाए जा रहे हैं, पीटे जा रहे हैं और उनकी कटोरियों से दाल और कपों से चाय कम होती जा रही हैं। फिर इस सिस्टम का मतलब क्या है ?
लेकिन मेहरबानों...कदरदानों ज्यादा मुद्दों और जनहितों की बात करोगे तो लेफ्टिस्ट करार कर दिए जाओगे, सरकार आतंकवादी करार दे सकती है और तुम्हारे दोस्त तुम्हे पागल। वे तुम्हे अपनी पार्टी में बुलाने से मना कर सकते हैं, तुम्हारा फोन अटेंड करना बंद कर सकते हैं सबसे बड़ी बात तो ये कि आप एक लोकतंत्र में जी रहे हैं जहां हाल ही में जनता ने एक स्थिर सरकार के लिए वोट किया है। फिर क्या फर्क पड़ता है कि चीनी 40 पार गई है !