Tuesday, June 22, 2010

भोपाल नरसंहार पर...काफी देर बाद...

एक शहर को जिंदा गैस चैंबर में भून डालने के बाद भी कुछ सवाल जिंदा हैं। न्यूज चैनल स्टूडियों में बैठे देश के दोनों बड़े दलों के प्रवक्ता या तो जनता की असहायता के प्रतीक लगते हैं या फिर अपनी हरमजदगी के विज्ञापन करते मॉडल। सवाल ये भी नहीं है कि ओबामा ने ब्रिटिश पेट्रोलियम से 20 अरब डॉलर की रकम कैसे निचोड़ ली या फिर हमारी सरकार ने इतने कम पैसे पर कैसे यूनियन कार्बाइड को क्लीन चिट दे दी। किसी सरकारी लालबुझक्कड़ ने कहा कि भोपाल के न्यायाधीश ने अपने फैसले के दिन महज नियम-कायदों के हिसाब से ही अभियुक्तों को इतनी कम सजा दी। मानो इसका तो कुछ किया ही नहीं जा सकता। सरकार ने हमेशा की तरह जनता के आक्रोश को देखते हुए एक ग्रुप ऑफ मिनिस्टर बना दिया, जो अनंत काल में अपना फैसला सुनाएगी। तब तक शायद एंडरसन भी मर चुका होगा और महिंद्रा भी।

अब चूंकि सरकार को इस बात का बिलकुल डर नहीं है कि 5-10 लाख लोग दिल्ली की सड़कों पर उतर कर साउथ ब्‍लॉक को घेर सकते हैं या इसमें कथित रूप से शामिल नेताओं और उनके नामलेवाओं को घर में घेरकर मारा जा सकता है – तो सरकार क्यों कोई कार्रवाई करेगी। जब पिछले 26 साल से कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ तो अब खाक होगा। सरकार ये जानती है।

लेकिन सवाल ये है कि क्या भोपाल महानरसंहार के जिंदा भारतीय दोषियों को सजा दिलाने के लिए संसद कानून में संशोधन नहीं कर सकती? इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता को जब सुप्रीम कोर्ट में रद्द दिया गया था तो याद कीजिए क्या हुआ था। इंदिरा गांधी जो खुद ही सरकार थी – उन्होंने रातोरात संविधान में संशोधन कर अपने आपको उस फैसले से ऊपर कर लिया था। यानी वैसे तो भारत की सरकार ‘महासरकार’ है लेकिन अमेरिका का मामला होता है तो पिद्दी हो जाती है। लेकिन फर्ज कीजिए, सरकार हिंदुस्तान में सुकून की जिंदगी जी रहे भोपाल नरसंहार के शरीफजादों को कोई सजा देती है, तो अमेरिका को क्यों खुजली होगी? उसे तो सिर्फ एंडरसन से मतलब है, जिसका मामला उसने रफा-दफा मान लिया है। लेकिन नहीं, सरकार महिंद्रा टाइप के भारतीय गुनहगारों को कोई सजा नहीं देगी। आप और हम जब अपने-अपने ऑफिसों में महिंद्रा के बंधु-बांधवों की कंपनियों में खट रहे होंगे तो लगभग पौरुषहीन हो चुका महिंद्रा किसी कोमलांगी की बाहों में झूल रहा होगा और उसका पोता किसी जेसिका लाल जैसियों की हत्या कर रहा होगा।

मजे की बात ये है कि आरोप-प्रत्यारोप के बावजूद किसी ने अभी तक अर्जुन सिंह या स्वर्गीय हो चुके राजीव गांधी या फिर बीच के सालों में बीजेपी के कुर्सीधारी नेताओं की भूमिका की जांच करने की मांग नहीं की है। क्यों न इन लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाया जाए। सारे लोग ‘बड़े लोगों’ को बचाते हुए ही अभी तक बहस कर रहे हैं। हमें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि अर्जुन सिंह का सोनिया से ‘चुप्पी’ का डील कैसे फ्लॉप हुआ। हमें सिर्फ इस बात से मतलब होनी चाहिए की अगर अर्जुन सिंह या राजीव गांधी दोषी हैं तो फिर उनको सजा जरूर मिलनी चाहिए। हमें इस बात का जवाब चाहिए कि बीच के दौर में वीपी सिंह से लेकर वाजपेयी सरकार तक ने उस अमेरिकी हत्यारे को भारत न लाकर संविधान की किस धारा का उल्लंघन किया।

कुछ लोगों की राय में राजीव गांधी तो दिवंगत हो चुके हैं, उनको जांच के दायरे में कैसे लाया जा सकता है? इसका जवाब ये है कि अगर जांच के बाद राजीव गांधी दोषी पाये जाते हैं, उनको दिये गये तमाम राष्ट्रीय सम्मान छीन लिये जाएं, जिनमें भारत रत्न भी शामिल है, और दूसरे जिंदा लोगों के पेंशन और सम्मान छीने जा सकते हैं।

लेकिन मैं ये सवाल किससे कर रहा हूं? जब देश का पक्ष और विपक्ष ही इस नरमेघ में शामिल है तो फिर सवाल किससे और क्यों?

2 comments:

Pratibha Katiyar said...

सवाल...चुप!...जवाब गुम...यही दस्तूर है. चलिये आपकी चुप्पी तो टूटी बड़े मियां.

शरद कोकास said...

सही है यह सवाल किससे करे ?