Friday, November 13, 2015

उदारवाद का प्रतीक एक भविष्यद्रष्टा प्रधानमंत्री


खलील जिब्रान ने लिखा है कि किसी व्यक्ति के दिलो-दिमाग को अगर समझना है तो इस बात को नहीं देखिए कि उसने अब तक क्या हासिल किया है, बल्कि इस बात पर गौर कीजिए कि वह क्या करने की अभिलाषा रखता है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के व्यक्तित्व पर विचार करने के लिए जिब्रान की यह उक्ति एक कसौटी हो सकती है। समस्या यह है कि नेहरु के व्यक्तित्व पर विचार करते समय देश की वर्तमान परिस्थिति और कांग्रेस पार्टी का मौजूदा नेतृत्व कुछ ज्यादा ही हावी हो जाते हैं, जबकि नेहरु का मूल्यांकन सम्पूर्णता में होना चाहिए। नेहरु का मूल्यांकन अतीत और वर्तमान दोनों के आइने में होना चाहिए-तभी हम उनके व्यक्तित्व की एक मुकम्मल तस्वीर हासिल कर पाएंगे।

आजाद भारत में नेहरू का प्रधानमंत्री बनना महज संयोग नहीं था, बल्कि नेहरु का व्यक्तित्व उन बहुत सारी बातों को परिलक्षित करता था जो इस देश की वास्तविकता थी और जिसे इस देश को अपने भविष्य में हासिल करना था और जिसका वादा आजादी की लड़ाई के दौरान किया गया था। इसमें कोई दो मत नहीं कि नेहरु, गांधी के सबसे प्रिय उत्तराधिकारी थे-एक प्राच्यवादी और देसी मानसिकता के गांधी के उत्तराधिकारी जिसे तत्कालीन और बाद के भी कई उदार वाम इतिहासकारों ने हिंदू राइट की संज्ञा दी थी। लेकिन इसके उलट नेहरु एक हद तक पश्चिमी, आधुनिक, वैज्ञानिक मूल्यों को मानने वाले और समाजवाद की ओर झुके हुए व्यक्तित्व के थे। फिर भी गांधी के वे प्रिय शिष्य थे और कम से कम गांधी इस बात से मुतमईन थे कि इस देश की बहुलता, अखंडता, उदारवादी मूल्य और परंपरा के साथ वैज्ञानकि चेतना का सम्मिश्रण अगर हो सकता है तो वो नेहरु के व्यक्तित्व में ही संभव है। यह उस पीढी के नेतृत्व की उदारता थी जिसे गांधी की हत्या के बाद उनके सबसे प्रमुख शिष्यों में से एक पटेल ने भी स्वीकार किया था, जबकि बकौल डोमिनिक लेपियर उस समय कांग्रेस संगठन पर पटेल का लौह नियंत्रण था।
 

नेहरु का मूल्यांकन करते समय उस कालखंड की समस्याओं पर एक नजर डालनी जरूरी है और आज की समस्याओं से उनकी तुलना भी। आजादी के बाद की मुख्य समस्याएं थीं-देश के बंटवारे के बाद की साम्प्रदायिक स्थिति, पाकिस्तान से आए हुए शरणार्थियों का पुनर्वास, सैकड़ों रजवाड़ों में बंटे देश का एकीकरण, भयंकर समाजिक-आर्थिक विषमता, दो ध्रुबों में बंट चुकी दुनिया और उनकी चुनौतियां और सबसे बड़ी बात कि एक सार्थक लोकतंत्र की बहाली और उसे गतिशील बनाना। ये तो प्राथमिकताएं थीं लेकिन इसके अलावा एक वैज्ञानिक सोच से युक्त समाज निर्माण के लिए प्रेरक तत्व की भूमिका निभाना और ठोस नींव पर खड़े लोकतांत्रिक संस्थानों को गरिमा देना भी सरकार के एजेंडे में होना था। नेहरु के व्यक्तित्व का आकलन इन्हीं बिंदुओं पर किया जाना चाहिए कि वे उसमें कितना सफल हुए या उस दिशा में वे कितना अग्रसर हुए।

उस कालखंड की कई समस्याएं वर्तमान में भी ज्यों की त्यों बनी हुई है और कई तो उससे भी विकराल हो चुकी हैं जिसका सामना नेहरु ने किया था। ऐसे में नेहरु का अध्ययन अभी के लिए और आने वाले समय के लिए भी ज्यादा से ज्यादा प्रसांगिक होता जाएगा।

नेहरु से किसी विदेशी पत्रकार ने उनके जीवन और कार्यकाल के अंत में एक साक्षात्कार में पूछा था कि आप अपने कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं? नेहरु का जवाब था, एक अत्यधिक धार्मिक मानसिकता वाले देश में एक धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के निर्माण की दिशा में कोशिश करना।नेहरु के उन पत्रों में जो वे राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक नियमित अंतराल पर लिखते रहते थे, देश के अल्पसंख्यकों के प्रति चिंता साफ झलकती है। देश के बंटवारे के समय हुई भयानक हिंसा ने नेहरु और उस पीढी के कई नेताओं को गहराई से प्रभावित किया था और गांधी की हत्या के बाद साम्प्रदायिकता देश के केंद्र में दस्तक दे रही थी। ऐसे में स्वभाविक ही था कि सरकार का मुखिया साम्प्रदायिकता को अपना दुश्मन नंबर एक कहता था और सन् बावन में हुए पहले आम चुनाव में नेहरु ने इसे एक महत्वपूर्ण मुद्दा भी बनाया था।

उस जमाने में सरकार और कांग्रेस संगठन में शीर्ष स्तर पर कई बार नेहरु और पटेल के बीच मतभेद के बिंदु उभर कर सामने आए थे लकिन नेहरु ने साम्प्रदायिकता पर अपना स्पष्ट रुख बनाए रखा। चाहे तो पुरुषोत्तम दास टंडन का कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हो या राजेंद्र प्रसाद का राष्ट्रपति बनना, नेहरु ने हर बार अपना स्पष्ट मत जाहिर किया। नेहरु ने उस समय भी अपना स्पष्ट विरोध जाहिर किया जब राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर पुनर्निमाण के उद्घाटन में जाने का फैसला किया। हिंदू कोड बिल को पारित करवाने में नेहरु ने अम्बेदकर के साथ कंधा में कंधा मिलाकर काम किया, हालांकि डॉ अम्बेदकर उसे तीब्र गति से पारित करवाना चाहते थे। लेकिन नेहरु जानते थे कि उनकी सीमाएं क्या हैं और वे एक हद तक बंटवारे के बाद की तत्कालीन हिंदू भावनाओं से सीधा टकराव भी नहीं चाहते थे। डॉ अम्बेदकर, सामान नागरिक संहिता के हिमायती थे लेकिन नेहरु ने इसे भविष्य में उचित समय आने तक के लिए छोड़ देने का आग्रह किया क्योंकि बकौल नेहरु, देश के अल्पसंख्यक इस समय बंटवारे के बाद की स्थिति में भय के साये में जी रहे थे और उन्हें एक मरहम की जरूरत थी। तो नेहरु की धर्मनिरपेक्षता इस तरह की थी, जो नारों या सतही जुमलों से कम उनके कार्यों से ज्यादा झलकती थी।

सन् अस्सी के दशक में कई बार पाकिस्तान का दौरा कर चुके प्रसिद्ध स्तंभकार चाणक्य सेन ने पाकिस्तान डायरी नामकी किताब में पाकिस्तान के एक मशहूर पत्रकार को उद्धृत किया जिसमें उसने कहा था कि पाकिस्तान की बदनसीबी ये रही कि कायदे आजम जिन्ना की जल्द ही मृत्यु हो गई और वहां के पहले प्रधानमंत्री को सालभर के अंदर गोली मार दी गई। जबकि हिंदुस्तान को नेहरु के नेतृत्व में एक लंबा और स्थायी शासनकाल मिला। नेहरु जिस हिसाब से देश में पहले आम चुनाव के लिए व्याकुल दिख रहे थे और जिस काबिलियत से उनकी सरकार ने पहले निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन को इसकी जिम्मेवारी सौंपी थी, वो नेहरु की लोकतंत्र में आस्था दर्शाता था। हालांकि उसकी एक वजह ये भी थी कि नेहरु नई संसद द्वारा कई महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित करवाना चाहते थे जिसमें हिंदू कोड बिल और जमींदारी उन्मूलन से संबंधित विधेयक भी थे। लेकिन अन्य वजह ये भी थी कि नेहरु इस देश को जल्द से जल्द लोकतंत्रिक प्रक्रिया से पहला साक्षात्कार करवाना चाहते थे जिसकी कई विदेशी विद्वानों ने एक खतरनाक जुआ कहकर आलोचना भी की थी। यहां गौर करने वाली बात ये है कि भारत के साथ आजाद हुए कई देशों(इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो हमारे साथ आजाद हुआ पाकिस्तान ही है)में लोकतंत्र की जगह अधिनायकवाद पनप आया, जबकि नेहरु के नेतृत्व में भारत में तीन निर्विघ्न लोकसभा चुनाव हुए और दर्जनों विधानसभाओं के चुनाव भी। उस जमाने में भी विदेशी आलोचकों ने भी किसी भी स्तर पर उन चुनावों को भेदभावजनक करार नहीं दिया। आजाद भारत, लोकतंत्र की पथरीली राह पर धीरे-धीरे अपना मजबूत कदम बढा रहा था और उस भारत के सबसे बड़े नायक जवाहरलाल नेहरु ही थे।       

नेहरु ने कल कारखानों को आजाद भारत का तीर्थ कहा था। देश में विशाल इस्पात के कारखाने, पनबिजली परियोजनाएं, परमाणु बिजली के संयंत्र नेहरु सरकार की देन है। सरकार ने योजना-वद्ध विकास का एजेंडा तैयार किया था जो थोड़ा-थोड़ा सोवियत मॉडेल से प्रभावित था। हालांकि ऐसा नहीं है कि इसमे सिर्फ समाजवादी प्रभाव था, हकीकत तो ये है कि उस जमाने के उद्योगपति भी चाहते थे योजनावद्ध विकास का मॉडेल अपनाया जाए। देश के प्रमुख औद्योगिक घरानों ने आजादी के पूर्व ही बंबई प्लान के नाम से  एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसमें सरकार से आग्रह किया गया था कि वो बुनियादी ढांचों में निवेश करे क्योंकि निजी क्षेत्र उस क्षेत्र में जाने के लिए तैयार नहीं था। दूसरी बात ये थी कि देश में भीषण आर्थिक असमानता थी और ऐसे में एक शिशु अर्थव्यवस्था को बिल्कलु निजी हाथों में छोड़ देने के अपने खतरे थे। भारत एक पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देश की गुलामी से हाल ही में मुक्त हुआ था और देश का आम जनमानस भी पूंजीवाद को संशय की दृष्टि से देखता था। दुनिया के अधिकांश देशों में ये मानसिकता थी जो साम्राज्यवाद के चंगुल से उस समय मुक्त हो रहे थे। विदेश नीति के क्षेत्र में जवाहर लाल नेहरु ने जिस गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया, वो भी उसी भाव से प्रेरित था। ऐसे में नेहरु सरकार ने जिस योजनावद्ध विकास का मॉडेल अपनाया, उसकी कामयाबी पर बहस हो सकती है, लेकिन उसके उद्येश्यों पर नेहरु के विरोधी भी सवाल नहीं उठाते।

नेहरु के कार्यकाल में ही भाषा के आधार पर देश में पहली बार राज्यों का निर्माण हुआ था। हालांकि शुरू में खुद प्रधानमंत्री उसके समर्थक नहीं थे। हाल ही में धर्म के नाम पर देश का बंटवारा हो चुका था, सरकार इस बात से आशंकित थी कि भाषा के मुद्दे पर नया उथल-पुथल शुरू न हो। लेकिन आंध्रप्रदेश के आन्दोलनकारी पोट्टी श्रीराममलु ने जब राज्य के मुद्दे पर अनशन करते हुए जान दे दी तो नेहरु सरकार ने अपनी नीति पर पुनर्विचार किया। ऐसा ही पुनर्विचार सरकार ने हिंदी को लागू किए जाने पर किया और नेहरु के उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री ने भी सन् 1965 में वैसा ही किया। इस बात के लिए धुर हिंदीवादियों ने नेहरु के नेतृत्व की आलोचना की कि देश में अंग्रेजी के लिए एक चोर-द्वार खोल दिया गया लकिन इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि देश की अखंडता के मुद्दे पर तत्कालीन नेतृत्व ने भाषा के मुद्दे पर नरम रुख अख्तियार कर लिया। जबकि उसी समय हमारे पड़ोसी श्रीलंका और पाकिस्तान में भी कुछ ऐसी ही जिद वहां के बहुसंख्यकों ने कर ली थी, नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तान के कुछ ही सालों में दो टुकड़े हो गए और श्रीलंका करीब आधी सदी तक उथल-पुथल से ग्रस्त और रक्तरंजित होता रहा। इन बातों के आलोक में नेहरु के नेतृत्व को देखा जाए तो हमें उसकी परिपक्वता का पता चलता है।   

प्रसिद्द इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब इंडिया आफ्टर गांधी में लिखा है कि सन् नब्बे और उसके बाद के दशकों में भारत सॉफ्टवेयर सहित कई क्षेत्रों में जो दुनिया भर में झंडे गाड़े थे उसका श्रेय बहुत हद तक नेहरु की भाषा नीति और विज्ञान और तकनीक के प्रति उनके प्रेम को जाता है। ये बातें रेखांकित किए जाने योग्य हैं कि आईआईटी जैसे देश के मशहूर संस्थान पंडित नेहरु के ही स्वप्न थे। यहां यह बात गौर करने लायक है कि आजादी के करीब पचास साल बाद भारत को जिन-जिन क्षेत्रों में सफलता मिलती दिख रही है, उसमें नेहरु कालीन नीतियों की बड़ी भूमिका है। चाहे भारत का एक सॉफ्टवेयर महाशक्ति के तौर पर उभरना हो या अंतरिक्ष के क्षेत्र में छलांग लगाना या फिर एक लंबे समय तक लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास कायम रखना, इन सारी बातों की नींव नेहरु के शासनकाल में ही डाली गई थी।

जहां तक विदेश नीति की बात थी तो नेहरु के नेतृत्व में भारत ने उचित ही तत्कालीन परिस्थितियों के हिसाब से गुटनिरपेक्षता की राह पकड़ी थी। क्योंकि साम्राज्यवाद के चुंगुल से मुक्त हो रहे एशिया और अफ्रीका के देशों को महाशक्तियों की होड़ में पड़ने की जरूरत नहीं थी। अमेरिका चाहता था कि दुनिया के तमाम देश उसकी सोवियत विरोधी मुहिम में शामिल हो और ऐसा वो पैसा और हथियार के बल पर करना चाहता था। ऐसे नवजात देशों में स्वभाविक रूप से पूंजीवादी-साम्राज्यवादी अमेरिकी खेमे के प्रति संशय का भाव था। दूसरी तरफ वे देश सीधे तौर पर सोवियत खेमा में भी नहीं जाना चाहते थे, क्योंकि हर देश की परिस्थितियां अलग-अलग थीं। ऐसे में विश्व पटल पर नेहरु का उदय गुट निरपेक्ष देशों के एक बड़े नायक के तौर पर हुआ जिसकी एक नैतिक सत्ता थी। आज के समय में ये बात आश्चर्यजनक लगती है कि एक गरीब, शक्तिहीन, नव-स्वतंत्र और समस्याओं से ग्रस्त देश का नेता कैसे इतनी नैतितक सत्ता हासिल कर सकता था कि दुनिया की बड़ी शक्तियां उसकी बात सुनने को मजबूर थी?

नेहरु ने पड़ोसियों के साथ शांति की नीति अख्तियार की थी। उनके मन में एक एशियाई का ब्लॉक बनाने का सपना भी तैर रहा था। ये नेहरु ही थे जिन्होंने चीन को मान्यता देने और सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता प्रदान करने के लिए जोर लगाया था, ये बाद अलग है कि सन् बासठ की लड़ाई के आईने में वो बात आज कइयों को अतार्किक लगती है। लेकिन नेहरु की दृष्टि सिर्फ दस-बीस सालों के तात्कालिक लाभ पर केंद्रित नहीं थी, वे दुनिया की दो प्राचीन सभ्यताओं को नजदीक लाने की कोशिश कर रहे थे जिसका असर विश्व की भू-राजनैतिक अर्थव्यवस्थाओं को बदलने वाला था। आजादी के करीब सात दशक बाद और एक-धुब्रीय हो चुकी विश्व-व्यवस्था की तपिश झेलने के बाद अगर वर्तमान भारतीय नेतृत्व फिर से वो कोशिश करता नजर आ रहा है तो हमें इस बात को स्वीकार करनी चाहिए कि नेहरु की दूरदृष्टि कहां तक थी। नेहरु की पाकिस्तान नीति भी शांति पर आधारित थी, वे चाहते थे कि कश्मीर समस्या का समाधान बातचीत से हो और अभी तक वहीं बातें कही जा रही है। नेहरु के बारे में जो लोग उनके पश्चिमी सोच के प्रति अत्यधिक झुकाव और अल्पसंख्यकों के प्रति अत्यधिक नरम रवैये के प्रति शंकालु हैं उन्हें नेहरू की किताब डिसकवरी ऑफ इंडिया पढनी चाहिए और गंगा नदी के बारे में व्यक्त उनके उदगार पढने चाहिए। साथ ही उन्हें ये देखना चाहिए कि यूरोप में फासदीवाद के उदय के प्रति नेहरू की प्रतिक्रिया थी। भारत की बहुलतावादी संस्कृति सिर्फ नेहरु का स्वप्न नहीं था, यह तो इस देश की संस्कृति का स्वभाव था और है, जिसे नेहरु कायम रखना चाहते थे।

नेहरु पर सबसे बड़ा आरोप चीन युद्ध में भारत की पराजय और वंशवाद को लेकर है। जहां तक वंशवाद की बात है तो ये याद रखने की आवश्यकता है कि नेहरु की मृत्यु के बाद उनके परिवार का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री नहीं बना था और उनके वंशजों के कार्यों के लिए नेहरु को दोषी ठहराना उचित नहीं है। जहां तक चीन युद्ध की बात है तो नेहरु ने एक इतिहास के विद्यार्थी के तौर पर खुद स्वीकार किया था कि दोनों देश अपने ज्ञात इतिहास में पहली बार अपनी सीमा को खोजने निकले थे। ऐसे में दोनों का अपनी सीमा को लेकर दावा-प्रतिदावा करना स्वभाविक था।जहां तक उस युद्ध में भारत की पराजय की बात है तो यह सिर्फ सैन्य पराजय से बढकर थी। जैसा कि सरदार पटेल ने नेहरु को अपनी मृत्यु से पहले ही आगाह किया था कि चीन का साम्यवाद दरअसल साम्यवाद की आड़ में चीनी राष्ट्रवाद है। उस दृष्टि से देखा जाय तो वह लड़ाई एक उदार, बहुलतावादी और वैश्विक मानसिकता के भारत का एक अति राष्ट्रवादी, आत्मकेंद्रित, यूरोप-विरोधी मानसिकता वाले चीन से भिडंत थी। उस हिसाब से चीन युद्ध नेहरु के सम्पूर्ण करियर में एक मात्र बड़ी गलती दिखती है, लेकिन राष्ट्रों के इतिहास में ऐसे क्षण आते रहते हैं और किसी नेतृत्व के आकलन की एकमात्र कसौटी वो नहीं होती।

नेहरु दिल से समाजवादी थे, वे सोवियत म़ॉडेल की नियोजित अर्थव्यवस्था के प्रशंसक थे, लेकिन गांधी का वह शिष्य अपने अंतर्मन में उतना ही बड़ा अहिंसक था। यूरोपीय उदारवाद का उन पर गहरा असर था, प्रेस की स्वतंत्रता के वे प्रबल समर्थक थे। एक दलीय अधिनायकवाद के वे उतने ही खिलाफ थे और सुयोग्य व्यक्तियों की उनको उतनी ही कद्र थी। वैज्ञानिक डॉ होमी भाभा, विक्रम साराभाई, चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन, द्वीतिय पंचवर्षीय योजना के मुख्य सूत्रधार पी सी महालनोबिस नेहरु के ही चुनाव थे। संसदीय परंपरा में विपक्ष की भूमिका के वे उतने ही समर्थक थे, इसका अंदाज उन बहसों और पत्राचारों से लगाया जा सकता है जो नेहरु ने तत्कालीन प्रतिपक्ष के नेताओं के साथ की थी।

हिंदुस्तान की मौजूदा पीढी जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, उदारवाद, विदेशों में अपनी सफलता और भारत की नव-अर्जित वैश्विक स्थित का गौरवगान करती है तो वो प्रधानमंत्री नेहरु को अक्सर भूल जाती है। अक्सर उनके व्यक्तित्व को उनके वंशजों के व्यक्तित्व साथ गड्डमड्ड कर दिया जाता है। शायद आनेवाला दौर नेहरु को और भी बेहतर समझ पाएगा-जब भारत और दुनिया भर में बहुलतावादी संस्कृति और वैचारिक उदारता पर हमले लोगों को ज्यादा बैचेन कर रहे होंगे।   

  (यह आलेख 'अहा! जिंदगी' के नवंबर 2015 अंक में प्रकाशित हो चुका है)