Friday, January 1, 2010

क्यों न दर्ज हो तिवारी के खिलाफ मुकदमा?

किसी बड़े बुद्धिजीवी की उक्ति है- हम कई औरतों से इसलिए प्रेम करते हैं क्योंकि दुनिया में बुद्धिमान लोगों की भारी कमी है...और इश्वर ने हमें इस विशेष काम के लिए भेजा है कि बुद्धिमान लोगों की आपूर्ति बनी रहे। एन डी तिवारी को बुद्धिजीवी के खांचे में रखने से बहुतों को एतराज होगा लेकिन एन डी ने इस उम्र में युवाओं को जरुर चुनौती दे दी है वे उनकी उर्जा और प्रतिभा का मुकाबला करें। यूं हमारी जनता शासक वर्ग के ऐसे मामलों को 'देवलोक' का मामला मानती रही है और उनके किसी कृत्य के लिए किसी 'खाप' पंचायत का इंतजाम अभी तक नहीं किया गया है। लेकिन सवाल ये है कि क्या एन डी तिवारी को महज उम्र और 'सार्वजनिक जीवन' में उनके 'योगदान'(!) की वजह से छोड़ देना चाहिए?

पक्ष-विपक्ष के नेताओं को मिलाकर तिवारी जैसे बिगड़ैल सांढ़ों का तंत्र इतना ताकतवर है कि वो किसी भी संपादक को वो चीज दे सकता है जो उसे अपने पूरे करियर में लालाओं ने नहीं दी होगी। इसलिेए उनसे किसी भी तरह की उम्मीदे पालना बेकार है। हां, गैरपरंपरागत मीडिया ने जरुर तिवारी के खिलाफ बोलना जारी रखा है। वो तो भला हो यू-ट्यूब का कि 'नारायण' के 'रासलीला' का आनंद जनता लाईव ले सकी।

लेकिन क्या तिवारी को महज राज्यपाल पद से हटा दिया जाना उनकी(या उसकी?) सजा है? तिवारी ने क्या गुनाह किया कि उसके पीछे लोग बल्लम-बर्छे लेकर पिल पड़े? दो वयस्क व्यक्तियों का आपसी सहमति से संबंध कैसे आपराधिक हो सकता है?

लेकिन तिवारी ने आपराधिक गलती की है--

1. राजभवन सेक्स कांड के बारे में कहा गया है कि तिवारी को ये महिलाएं इसलिए मुहैया कराई गई कि उन्होने खदानों के ठेके दिलवाने का भरोसा दिलाया था। अगर वाकई ऐसा था तो तिवारी पर भ्रष्टाचार का मुकदमा दर्ज होना चाहिए और इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए।
2. तिवारी जिस पद पर बैठे थे वहां वे प्रत्य़क्ष या अप्रत्यक्ष रुप से कई लोगों को उपकृत या उपेक्षित कर सकते थे। ऐसे में अगर ये महिलाएं तिवारी के पास किसी दवाब बस भेजी गई या हमबिस्तर हुई तो तिवारी पर बलात्कार के एंगिल से जांच होनी चाहिए।
3. तिवारी ने ऐसा कर के राजभवन की गरिमा को ठेस पहुंचाया है जिसको बरकरार रखने की बात उन्होने अपने पद की शपथ लेते समय कही थी। ऐसा करके उन्होने संविधान का उल्लंघन किया है और इसके लिए सिर्फ उन्हे पद से हटाया जाना काफी नहीं। एक उच्च कार्यालय में बैठने लायक विश्वसनीयता की उन्होने हत्या की है।
4 इस एंगिल से भी जांच होनी चाहिए कि क्या एक साथ कई महिलाओं के साथ संबंध बनाना अप्राकृति यौनाचार की श्रेणी में आता है या नहीं? क्या भारतीय दंड विधान में ऐसा प्रावधान है जो इसे कानूनन सही मानता है?

तिवारी को जो सजा मिली है वो सिर्फ पॉपुलर सेंटीमेंट्स को तुष्ट करने के लिए मिली है न कि उनके वास्तविक अपराधों के लिए। यहां सवाल नैतिकता का बिल्कुल नहीं है-सवाल इसका है कि उन्होने संविधान का शपथ लेकर उसकी धज्जियां उड़ाई है और सत्ता के शीर्षस्थलों में से एक राजभवन में भ्रष्टाचार के साथ रंगरेलियां की है। एन डी तिवारी एक बड़े अपराधी हैं और उनके कारनामों की जांच होनी चाहिए और जबजक वे पाकसाफ नहीं करार कर दिए जाते उनसे तमाम सरकारी सुविधाएं और उनका पेंशन छीन लिया जाना चाहिए।

(ये लेख 'जनतंत्र' पर आ चुका है- http://janatantra.com/2010/01/01/sushant-jha-on-n-d-tiwari-sex-scandal/

Monday, December 28, 2009

सबा सौ साल की कांग्रेस के जश्‍न में वेबसाइट का खलल

इसे अगर आप लापरवाही कहते हैं तो ये एक गंभीर किस्म की लापरवाही है। देश पर हुकूमत करनेवाली कांग्रेस के वेबसाईट में अगर इस तरह की गलतियां है तो ये वाकई दुर्भाग्यजनक है। कांग्रेस पार्टी की ऑफिसियल वेबसाईट बताती है कि कि राजीव गांधी सक्रिय राजनीति में सन्1983 में अपने भाई संजय गांधी की मौत के बाद आए।

अब ये बात सिंधु सभ्यता के स्क्रिप्ट की तरह इतनी पुरानी भी नहीं कि लोग न जानते हों। संजय गांधी की मौत विमान दुर्घटना में 1980 में हुई और राजीव गांधी 81 में ही कांग्रेस महासचिव बन गए। वे उसी साल फरवरी 1981 में अमेठी से लोकसभा के सदस्य चुन लिए गए। लेकिन कांग्रेस की साईट कहती है कि राजीव गांधी सन् 1983 में अपने भाई संजय गांधी की दुखद मृत्यु के बाद सक्रिय राजनीति में आए।


दूसरी बात साईट बताती है वो ये कि उसके अतीत के अध्यक्षों में जवाहरलाल नेहरु नामका कोई व्यक्ति कभी अध्यक्ष नहीं हुआ। साईट में आप हिस्ट्री वाले लिंक पर जाएं फिर उसमें से उसके पूर्व अध्यक्षों का लिंक क्लिक करे तो डॉ मुख्तार अंसारी(1927) के बाद सीधे ये साईट बल्लभभाई पटेल(1931) पर आ जाती है, वो जवाहरलाल नेहरु को भूल जाती है जिन्होने लगातार 1929 और 30 में पार्टी की अध्यक्षता की थी। जिन्होने अपने पिता से अध्यक्षता का चार्ज लिया था।

साईट में चूंकि पहले ही मोतीलाल नेहरु का जिक्र कर दिया गया है तो ये बात फिर भी क्षम्य है कि उनकी 1928 की अध्यक्षता का जिक्र नहीं है। लेकिन जिस जवाहरलाल नेहरु को अपनी अध्यक्षता के दरम्यान लाहौर अधिवेशन में तिरंगा फहराने और पूर्ण स्वराज्य की घोषणा करने का श्रेय जाता है-पार्टी उन्हे ही भूल गई।

यूं, कांग्रेस की ऑफिसियल साईट में इस आपराधिक लापरवाही से आम जनता के स्वास्थ्य पर कोई असर नहीं पड़ता लेकिन देश पर हुकूमत करने वाली पार्टी की विश्वसनीयता पर सवाल जरुर उठता है। सवाल ये भी उठता है कि एक माध्यम के रुप में पार्टी इंटरनेट को कितने हल्के रुप में लेती है। ये उस पार्टी की वेबसाईट है जो हिंदुस्तान में कंम्प्यूटर क्रान्ति लाने का दंभ भरती है-लेकिन अपने उसी नेता के बारे में तथ्यात्मक गलतबयानी करती है जो इसका सूत्रधार माना जाता है। दूसरी बात ये कि जिस नेहरुजी को देश और दुनिया का एक बड़ा हिस्सा आधुनिक विचारों का पोषक मानता है उन्ही के खानदान द्वारा संचालित पार्टी एक आधुनिक प्रचार माध्यम पर अपने पितृपुरुष को भूल जाती है।

यूं, एक विचार ये भी है कि हमारे राजनेता या कई दूसरे पेशे के लोग भी पढ़ाई-लिखाई या भाषाई-तथ्यात्मक शुद्धता को बेवकूफों का शगल समझते हैं। शायद राहुल गांधी या खुद कांग्रेस अध्यक्ष भी कभी अपना वेबसाईट नहीं देखते। या हो सकता है कि कांग्रेस के किसी घनघोर उदारवादी (रिफॉर्मिस्ट?) मैनेजर ने ये काम किसी एजेंसी को आउटसोर्स कर दिया हो जिसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि नेहरुजी नामका जीव भी इस धरा पर कभी अवतरित हुआ था। क्या फर्क पड़ता है कि राजीव गांधी ‘83 मे राजनीति में आए थे या ‘81 में? क्या फर्क पड़ता है कि साईट में कुछ गलतियां दिख रही हैं...जनता तो वोट देकर फिर भी चुन ही रही है न! आमीन!

Friday, December 11, 2009

तेलंगाना के बहाने.....

तेलंगाना की केंद्र द्वारा एक तरह से स्वीकृति ने छोटे राज्यों के पैरोकारों में एक नया उत्साह भरा है। पूरे देश से इस तरह की मांग उठ रही हैं जिनमें से कई तो बहुत पुरानी है या फिर जिनका कुछ आधार भी बनता है। लेकिन कुछ लोगों द्वारा इसका विरोध इस अंदाज में किया जाता है मानो छोटे भौगोलिक-सांस्कृतिक या क्षेत्रीय अभिव्यक्तियों को बोलने का हक ही नहीं है। ये विरोध कई बार सामंती अंदाज ले लेता है मानो वे शासक हों और मांग करनेवाला शासित। बहरहाल, मीडिया के कुछ लालबुझक्कड़ इस चिंता में दुबले होते जा रहे हैं कि देश का क्या होगा या फिर कौन सा शहर किस राज्य की राजधानी बनेगी।

सबसे लचर तर्क ये दिया जा रहा है कि खर्चे बढ़ जाएंगे और भ्रष्टाचार की गंगोत्री खुल जाएगी जब ये छोटे राज्य राजनीतिक अस्थिरता के शिकार होंगे। ये मानकर चला जाता है कि स्थिर सरकार भ्रष्ट नहीं होती और वहां सबकुछ ठीकठाक होता है या फिर बड़े राज्य हमेशा से स्थिर होते हैं या फिर उनके नेता बड़े ही पवित्र। यहां पिछले दो दशकों से यूपी जैसे बड़े राज्यों की अस्थिरता आंखें खोलने वाली है जहां पिछले पचास साल से स्थिर सरकार होने के बावजूद हरियाणा, केरल या गोवा जैसा विकास सपना ही है। कहने को तो बिहार, बंगाल में भी पिछले सालों दो दशकीय या फिर तीन दशकीय महा-स्थिरता रही है लेकिन विकास के मामले में ये फिसड्डी ही रहे। दूसरी तरफ हरियाणा, गोवा, मिजोरम जैसे राज्य आयाराम-गयाराम के नायाब उदाहरण हैं लेकिन वहां के लोग एक यूपी या बिहार जैसे तथाकथित बड़े रुप से महान राज्यों को लोगों को अपने यहां कर्मचारी तो रख ही सकते हैं। यूं, यहां जापान या इटली का उदाहरण देना ठीक नहीं होगा लेकिन सनद के लिए कहा जा सकता है कि पिछले 50 सालों में वहां तकरीबन 50 सरकारें आईं और गईं लेकिन वहां के विकास पर कोई फर्क नहीं पड़ा। तो कुल मिलाकर मामला बड़ा होने या स्थिर होने का नहीं विकास करने की मानसिकता और विकास के हालात होने का है।

नेताओं ने अपने-अपने हिसाब से स्टैंड लिया है। बीजेपी का एजेंडा संघ का है जो छोटे राज्यों को केंद्र की मजबूती मानती है। कांग्रेस का कोई एजेंडा नहीं-हालात इसका एजेंडा है, यूं इसे छोटे राज्यों से परहेज नहीं है। बड़ी पार्टी है, आराम से दुकानदारी चलाती रह सकती है। क्षेत्रीय पार्टीयां सहूलियत के हिसाब से रुख अपनाती है-लालू को तेलंगाना से कोई परहेज नहीं-उनका क्या जाता है-जबकि यहीं लालू झारखंड बनते वक्त अपने लाश पर झारखंड बनाने की बात करते थे। माया ने बुंदेलखंड का एजेंडा राहुल गांधी की गोदी में डाल दी है कि देते रहो पैकेज-अब राज्य मांग रही हूं। दूसरी तरफ ये कि उसे लगता है कि बुंदेलखंड और हरितप्रदेश में दलितों का अनुपात अच्छा है तो क्या बुराई है। मारे जाएंगे मुलायम जो फिरोजाबाद और कन्नौज के नेता बनकर रह जाएंगे-वहां से भी उनकी जमीन खिसक रही है।

यूं ऐसा हमेशा नहीं होता कि छोटे राज्य विकसित ही हो जाएं लेकिन वे बड़े राज्यों से बेहतर तो हैं ही। कुलमिलाकर बड़े राज्य नेताओं-ब्यूरोक्रेटों को बड़ा संसाधन हड़पने का मौका देते हैं जबकि छोटे राज्यों में छोटा संसाधन और जनता की पैनी नजर का खतरा होता है। यहां झारखंड का उदाहरण देकर विषयांतर किया जा सकता है लेकिन यहां तो हरेक तर्क के दर्जन भर से ज्यादा प्रति तर्क दिए जा सकते हैं।

तो कुल मिलाकर मामला इन टुच्चे स्वार्थो के बीच न फंसे इसके लिए फिर से राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करना जरुरी हो गया है। जो उचित मांगों पर एक खास समय सीमा में अपनी रिपोर्ट दे और देश में एक बार में दो-चार या पांच राज्य बनाए जाएं। राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हर 50 साल पर किया जाए और बेहतर प्रशासन, क्षेत्रीय अभिव्यक्ति और देश की मजबूती के लिए नए राज्यों को बनाने की प्रक्रिया शुरु हो। नए राज्य देश से अलग इकाई नहीं होने जा रहे जैसा कुछ टीवी एंकरों की जुबान से भयानक रुप से ध्वनित होता लगता है-ये देश को ही मजबूती प्रदान करेंगे।

Sunday, November 22, 2009

मंहगाई पर बोलना गुनाह है।

सीएनबीसी के सैकड़ों पत्रकार सड़क पर आ गए, लेकिन कोई चूं तक नहीं बोला। बोलना भी नहीं चाहिए, क्योंकि लाखों लोग हर रोज जब नौकरी से निकाल दिए जाते हैं तब तो कोई नहीं बोलता-भला सीएनबीसी के लोगों में कौन से सुरखाब के पर लगे थे। यूं हमारी मीडिया कभी-कभी दूसरे समूहों में हो रही छंटनी पर खबरें दिखा या छाप देती हैं लेकिन वो खबर तभी बन पाती है जब उससे बड़े खातेपीते और बड़बोले तबको का हित प्रभावित होता हो। जेट एयरवेज की छंटनी को याद कीजिए वो इसलिए खबर बन पाई थी क्योंकि नेताओं, कारोबारियों और अपार्टमेंट-कोठियों में रहनेवालों की फ्लाईट छूट रही थी और मीटिंग्स कैंसिल होनेवाली थी जिससे इस ‘देश’ का बहुत बड़ा नु्कसान होता। अब मान लीजिए की डीटीसी बसों के कर्मचारियों की छंटनी हो जाए तो भला क्यों दिखाएगी मीडिया? हां, ये कर्मचारी हड़ताल कर दें तो बात अलग है।
तो फिर इस देश में बोलेगा कौन? जब सबने बोलना ही बंद कर दिया है तो फिर बोलेगा कौन? आपको नहीं लगता कि ये स्पेस कोई और हड़प सकता है जो बोलने से आगे जाकर बंदूक की भाषा भी बोल सकता है। चलिए इसे भी यूटोपिया मान लेते हैं, आखिर हमारी लाखों की सेना और पूरा तंत्र उन्हे कुचल करने के लिए काफी है।

इधर, देखने में आया है कि लोगों की नौकरी और महंगाई पर बोलने के लिए कोई नहीं बचा। नेताओं की जुबान को लकवा मार गया है। यह देश पक्ष-विपक्ष विहीन देश हो गया है जहां दलालों, माफियाओं, सेटरों और फिक्सरों का बोलवाला है। इधर चीनी की कीमत 40 पार गई तो मैंने आजतक किसी भी माननीय का बाईट नहीं सुना। दूसरी तरफ किसानों का दिल्ली में जिस दिन आन्दोलन हो रहा था उस दिन ऐसे-ऐसे लोगों का बाईट टीवी पर देख रहा था जो कारपोरेट सेक्टर के दलाल हैं। इन्हे कुछ दिनो तक लाईजनर कहते थे लेकिन आजकल कंसलटेंट कहा जाने लगा है। यहां मकसद किसानों के आन्दोलन की आलोचना नहीं है लेकिन उसमें घुसे नेताओं की नीयत जरुर संदेहों के घरे में है। ये लोग वहां इसलिए थे कि वहां हजारों की भीड़ थी। आजतक इनमें से किसी भी नेता को हमने अलग से चीनी के मुद्दे पर नहीं सुना, और न ही इन्होने कभी महंगाई पर बोला।

पिताजी से कल फोन पर बात हो रही थी। उन्होने कहा कि अभी अगर कोई मंहगाई के मुद्दे पर संसद में किसी मंत्री को कुर्सी फेंककर मार डाले तो वो बड़ा नेता बन सकता है। मंहगाई के मुद्दे पर किसी विमान का अपहरण कर भी सुर्खी बटोरी जा सकती है। इस 120 करोड़े के देश में लोग तो हाड़तोड़ मेहनत करते हैं लेकिन उससे उपजने वाला पैसा कहां जाता है कि ये नहीं मालूम। वो पैसा हमें न तो स्कूलों में दिखता है न ही सड़कों पर। बस लोग धकियाए जा रहे हैं, पीटे जा रहे हैं और उनकी कटोरियों से दाल और कपों से चाय कम होती जा रही हैं। फिर इस सिस्टम का मतलब क्या है ?

लेकिन मेहरबानों...कदरदानों ज्यादा मुद्दों और जनहितों की बात करोगे तो लेफ्टिस्ट करार कर दिए जाओगे, सरकार आतंकवादी करार दे सकती है और तुम्हारे दोस्त तुम्हे पागल। वे तुम्हे अपनी पार्टी में बुलाने से मना कर सकते हैं, तुम्हारा फोन अटेंड करना बंद कर सकते हैं सबसे बड़ी बात तो ये कि आप एक लोकतंत्र में जी रहे हैं जहां हाल ही में जनता ने एक स्थिर सरकार के लिए वोट किया है। फिर क्या फर्क पड़ता है कि चीनी 40 पार गई है !

Sunday, November 15, 2009

हिंदी को गाय और ब्राह्मण की तरह पवित्र मत बनाईये

मेरे एक वरिष्ट फिरोज नकबी का मानना है कि देश में हिदी की दुर्दशा तभी से शुरु हुई जब आजादी के बाद इसे पवित्रतावादियों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। महात्मा गांधी चाहते थे कि देश में हिंदुस्तानी का विकास हो जिसमें लिपि तो देवनागरी हो लेकिन उसमें उर्दू और दूसरी भाषाओं के शब्द भी लिए जाएं। कुछ लोगों ने ये भी कहा कि हिंदी को देवनागरी और फारसी दोनों ही लिपिय़ों में लिखने की आजादी दी जाए। लेकिन कुछ अति पवित्रतावादियों के चक्कर में हिंदी को वो स्वरुप नहीं मिल पाया। इसमें हिंदी भाषा के कट्टरपंथी भी थे और उर्दू के भी। हिंदी वाले अपनी संस्कृतनिष्ट पहचान के लिए मरे जा रहे थे जबकि उर्दू वालों को लग रहा था कि उनकी भाषा ही खत्म हो जाएगी। पवित्रतावादियों को ये ख्याल नहीं था कि जब भाषा ही नहीं बच पाएगी तो उसका विकास कहां से होगा।

इलाहाबाद में उस जमाने में इस उद्येश्य से एक हिंदुस्तानी अकादमी की भी स्थापना की गई जिसमें अपने जमाने के जानेमाने विद्वान प्रोफेसर जामिन अली और डा अमरनाथ झा का अहम योगदान था। इस संस्था को महात्मा गांधी का भी आशीर्वाद मिला हुआ था। लेकिन हिंदुस्तानी अकादमी अकेली क्या करती। वो भाषाई कट्टरपंथियों के सामने टिक नहीं पाई। आज हालत ये है कि हिंदुस्तानी अकादमी के साईट पर जाएं तो वहां भी संस्कृतनिष्ठ हिंदी का ही बोलवाला दिखता है।

आज अगर हिंदुस्तानी भाषा का वो प्रयोग कामयाब हो गया होता तो देश में हिंदी एक बड़े क्षेत्र की भाषा बन चुकी होती। 2001 की जनगणना के मुताबिक जो हिंदी महज 45 लोगो की जुबान है वो अपने साथ मराठी, गुजराती, बंगाली, उडिया और असमी को भी जोड़ सकती थी और वो तकरीबन 70 फीसदी लोगों की भाषा होती। इसका इतना बड़ा साईकोलिजकल इम्पैक्ट होता कि हिंदी-विरोधी आंदोलन की इस देश में कल्पना नहीं की जा सकती थी। गौरतलब है कि मराठी की अपनी लिपि नहीं है और वो देवनागरी में ही लिखी जाती है। इसके अलावा गुजराती भी देवनागरी से मिलती जुलती है। पंजाबी, बंगला, उडिया और असमी के इतने शब्द हिंदी से मिलते जुलते हैं कि उन्हे आसानी से हिंदी का दर्जा दिया जा सकता था-बशर्ते हम लचीला रुख अपनाते। (ये ऐसे ही होता जैसे अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा आदि हिंदी की क्षेत्रीय भाषा या बोलियां बनकर रह रही हैं-ये अलग विमर्श है कि खड़ी हिंदी के विकास ने उन भाषाओं पर क्या असर डाला है!) लेकिन अफसोस, पवित्रतावादियों ने सब गुर-गोबर कर दिया। जो हिंदी वास्तविक संपर्क की भाषा बन सकती थी वो सिर्फ आमलोगों के संपर्क की भाषा बनी-बड़े लोग, सत्ताधीश और कारोबारियों ने अंग्रेजी अपना लिया। हिंदी और गौर-हिंदी के चक्कर में अंग्रेजी दबे पांव आ गई और इसने सबको खत्म कर दिया।

यूं, ऐसा जनता के स्तर पर नहीं हुआ। आम जनता हिंदुस्तानी ही बोलती रही लेकिन ये सिस्टम उसे संस्कृतनिष्ठ हिंदी सिखाने पर अमादा थी और अभी भी है। आप सरकारी विज्ञप्तियों को ध्यान से पढ़ें तो आप माथा पीट लेंगे-शायद हजारी प्रसाद द्विवेदी भी जिंदा होते तो न पढ़ पाते।

भला हो टीवी, सिनेमा और मीडिया का जिसने आम आदमी के बीच हिंदुस्तानी का प्रचार किया। औसत हिंदुस्तानी को इस भाषा से कोई परहेज नहीं लेकिन हमारे सरकारी कूढ़मगजों के दिमाग में कौन ये बात घुसाए।

दूसरी बात ये कि आज भले ही हिंदी अपने तरीके से अपना बिस्तार और विकास कर रही है लेकिन तथाकथित हिंदीवादियों और राज ठाकरे में उस स्तर पर अभी भी कोई फर्क नहीं है। हिंदीवादियों ने कभी भी हिंदी में कायदे के अनुवाद की कोशिश नहीं की। जो लोग हिंदी की मर्सिया गाते फिरते हैं उनसे कोई पूछे कि उन्होने विज्ञान, प्रबंधन और मेडीसीन के कितने पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया है। आज हालत ये है कि हिंदी में ढ़ंग की किताबे उपलब्ध नहीं है जो रोजगार में सहायक हो। इसके लिए कौन जिम्मेवार है? हमारी सरकार, भाषावादी या फिर ये बाजार?

बाजार को दोष देना बेवकूफी है। बाजार ने कभी भाषा का विरोध नहीं किया। बल्कि उसने माल बेचने के लिए हमेशा उसका उपयोग ही किया है। आज हिंदी सीखने के लिए अगर दूसरे प्रदेशों के लोगों में भी इच्छा जगी है तो इसके पीछे भी बाजार ही है। आज कारपोरेट बोर्ड रुम में भी हिंदी घुस गई है तो जाहिर है इसके पीछे बाजार है। मूल गलती हिंदी-वादियों की जो हिंदी को गाय, गंगा और ब्राह्मण की तरह पवित्र बनाए रखना चाहते हैं।

Wednesday, November 11, 2009

मायावती को खुश नहीं होना चाहिए

उपचुनाव के नतीजों की व्याख्या खंगालने बैठा तो नेट पर खास हाथ नहीं लगा। इधर टीवी वाले तो ऐसे ही हैं। हर जगह सिर्फ हेडलाईन बनाने की होड़ थी कि बब्बर को शेर कैसे लिखा जाए और कांग्रेस का ‘राज’ अच्छा लगेगा या हाथी की चिंघाड़। बहरहाल इन सबसे उलट ये कहीं नहीं मिल पा रहा था किस पार्टी को कितने फीसदी वोट मिले या किसने किसका वोट खाया और पहले किसको कितना मिला था। मेहनत का काम है, तुरत-फुरत तो हो भी नहीं सकता। दिमाग खपाना पड़ता है और वो भी अगर कनिष्ठ किस्म के गैरराजनीतिक मिजाज वाले स्टाफ को कहा जाए तो स्टोरी की मां-बहन एक हो जाए। लखटकिया सैलरी लेनेवाले हुक्मरान कहते हैं कि राजनीति बिकती नहीं-कौन माथापच्ची करे।(ये अलग विमर्श हो सकता है कि माथा बचा भी है या नहीं) दूसरी तरफ राजनीतिक खबरों का मतलब हमारे यहां राज ठाकरे, अमर सिंह टाईप के नेताओं की बाईट या फिर कैची हेडलाईन लगाना हो गया है। खासकर टेलिविजन चैनलों में।

इधर हमारे एक मित्र ने कहा कि अमां यार सारी खबर ये टीवी वाले दे देंगे तो पत्रिकाएं कैसे चलेंगी। ये तो उनका काम है कि आराम से विश्लेषण करती रहें। फ्रंटलाईन या इस तरह की पत्रिकाओं का काम है यह।

बहरहाल, यूपी उपचुनाव के नतीजे बताते हैं कि विधानसभा में माया सबपर भारी पड़ी। उधर उसने फिरोजाबाद में अपने उम्मीदवार को ढ़ीला कर दिया और राज बब्बर जीत गए। कांग्रेस खुश है। शायद माया ने सोचा होगा कि पहले सपा को निपटाना जरुरी है। जनता में मैसेज यहीं गया है कि सपा साफ हो रही है। कांग्रेस का साईकोलिजकल ग्राफ बढ़ा है। लेकिन ये भी महज खुशखबरी ही है। कांग्रेस अपने कद्दावर नेताओं का सीट हार गई। पंडरौना में विधायक से सांसद बने आरपीएन सिंह की मां तीसरे नंबर पर रही, तो उधर झांसी में राहुल के प्रदीप जैन अपना उम्मीदवार नहीं जितवा पाए। इसका क्या मतलब लगाया जाए? हां, कांग्रेस को थोड़ी तसल्ली इस बात से मिली की उसने लखनऊ पश्चिमी सीट बीजेपी से छीन ली जो वो पिछले तकरीबन 20 साल से दबाए बैठी थी। भला हो टंडन के कोप का कि बीजेपी उम्मीदवार खेत रहे-टंडन अपने दुलारे के लिए टिकट जो चाहते थे।

कुछ जानकार कहते हैं कि भले ही माया ने सपा को निपटा दिया हो लेकिन इसका खामियाजा उसे अगले विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है। अब लोगों के दिमाग में साईकोलोजिकली कांग्रेस नंबर-2 हो गई है। अगर कांग्रेस इस रफ्तार को बरकरार रखती है तो अब माया विरोधी मतों का ध्रुबीकरण कांग्रेस के इर्द-गिर्द होगा। मुसलमान वैसे ही मूड बना चुका है, अब पंडितों में भगदड़ मचेगी। फिर तो कांग्रेस मजबूत होगी ही, बीएसपी का ग्राफ नीचे आएगा-क्योंकि ये संवर्णों का वोट ही था जिसने बीएसपी को 24 फीसदी से उछाल कर 33-34 फीसदी कर दिया था। गौर करने लायक बात ये है कि मुलायम का आधार व्यापक है। मुलायम और कल्याण मिलकर पिछड़ों की एकमात्र पार्टी है। ऐसे में ये हो सकता है कि लड़ाई सिमटकर कांग्रेस-सपा में हो जाए और बहनजी तीसरे नंबर पर पहुंच जाएं। ये बिल्कुल हो सकता है कि बसपा कांशीराम के जमाने में चली जाए। आमीन।

Tuesday, October 27, 2009

अंग्रेजी शिक्षा और दलित

संजीव एड एजेंसी में काम करता है। बोल रहा है कि उसका सीईओ भी कभी-कभी हिंदी बोल लेता है या अक्सर हिंग्लिश बोल रहा होता है। उस दिन रतन टाटा भी नैनो मसले पर पीसी में बोल रहे थे। लेकिन कैसे बोल रहे थे? वे अटक-अटक कर बोल रहे थे। सुना कि फिल्म जगत में अधिकांश नए कलाकारों को देवनागरी में स्क्रिप्ट पढ़ने में दिक्कत होती है, उन्हे रोमन अंग्रेजी में लिखकर दिया जाता है। शुरु में ये बाते बचकानी लगती थी, लगता था कि कोई मजाक तो नहीं रहा। लेकिन दिल्ली आने के बाद लगा कि नहीं ये हकीकत है। मेरे कई दोस्तों ने कहा कि यार हिंदी पढ़ने में दिक्कत होती है। माफ कीजिए वे उत्तरभारत के ही थे। इधर रवीशजी ने पोस्ट लिखा कि चंद्रभान प्रसाद अंग्रेजी देवी की मूर्ति लगवा रहे हैं ताकि दलित भी अंग्रेजी में पढ़कर ऊंची जगह जाए। मुझे तकनीकी तौर पर इसमें कोई दिक्कत नजर नहीं आती।

मैने मोहल्लालाईव(mailto:mohallalive.com/2009/10/27/sushant-jha-writeup-on-hindi-english-debate/) पर एक लंबा सा पोस्ट लिखा जिसमें कई लोगों को मेरे हिंदी विरोध या इसके प्रति हिकारत की गंध नजह आई। लेकिन सवाल ये है कि क्या अंग्रेजी की तारीफ हिंदी विरोध है ?

हिंदी इस देश में क्यों नहीं रोजगार, कामकाज और रिसर्च की भाषा बन पाई और क्यो वह एक संपर्क की भाषा बनकर रह गई-ये अलग विमर्श हैं। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हिंदी प्रेम दिखाने के लिए उसे सीने में चिपकाए रखा जाए, बस, आटो, बेडरुम और वाथरुम में भी विलाप किया जाए। भाषा की चिंता और उसके लिए उपाय खोजना अलग चीज है, मौजूदा दौर में व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाना अलग चीज है। हिंदी के एक बड़े पैरोकार डा राम मनोहर लोहिया तो अंग्रेजी के बड़े विद्वान थे, उन्हे जर्मन भी उतनी ही आती थी-लेकिन सिर्फ हिंदी प्रेम की वजह से उन्होने अपने आपको हिंदी तक सीमित नहीं रखा।

हिंदी को अगर वाकई रोजगार से जोड़ना है तो जो चीजें व्यावहारिक हैं उन्हे अमल में लाना होगा। हमारे देश में कितने हिंदी प्रेमी हैं जिन्होने तकनीक, प्रबंधन, प्रशासन के किताबों का हिंदी में अनुवाद किया है या मौलिक रुप से लिखा ही है? सिर्फ मन से हीन भावना हटा लेने और भाषा-संस्कृति की दुहाई देने से हिंदी कैसे अंग्रेजी के समकक्ष आ सकती है।

जो लोग चीन, कोरिया और जापान का उदाहरण देते हैं उन्हे भारत और उन देशों के हालातों को समझना होगा। उन देशों की राष्ट्रीयता का एक बड़ा आधार वहां की भाषा है जो वहुसंख्य जनता बोलती और लिखती है। क्या हिंदी के साथ ऐसी स्थिति थी या है? मौजूदा हिंदी तो सिर्फ हिंदी पट्टी में ही पिछले डेढ-दो सौ सालों में अपने असितित्व में आई है, पूरे देश की बात तो अलग है। आजादी के बाद हिंदी इस देश की संपर्क भाषा बन सकती थी लेकिन उसके लिए तत्कालीन हालात अनुकूल नहीं थे। ऐसे में वो जगह अंग्रेजी ने ले ली। अब अगर अंग्रेजी में सारे कारोबार, रिसर्च और प्रशासन का काम हो रहा है तो ये बिल्कुल उचित है कि उसके पढ़ाई की समुचित व्यवस्था की जाए। ऐसा नहीं हो सकता कि देश का एक वर्ग अंग्रेजी पढ़कर अच्छी-2 नौकरी करता रहे और दूसरा वर्ग मातृभाषा पढ़ते हुए ही जिंदगी गुजार दे। अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त करना हर देशवासी, खासकर गरीबों का मौलिक अधिकार होना चाहिए। चंद्रभान प्रसाद इस मायने में सही हैं कि दलितों को अंग्रेजी पढ़नी ही चाहिए।

Thursday, September 24, 2009

दून-लंदन में पढ़ा शख्स कोबाद गांधी भी हो सकता है, राहुल गांधी ही नहीं...

टीवी पर कोबाद गांधी की खबर आ रही थी। आफिस में साथ करनेवाले एक मेरे मित्र ने उसे धोखे से राहुल गांधी समझ लिया। वजह ? वजह ये कि वो गांधी भी दून और लंदन में पढ़ा था। मतलब ये कि अधिकांश लोग यहीं सोचते हैं कि एक नक्सली दून और लंदन में कैसे पढ़ सकता है ? उसे तो फटेहाल या दीनहीन होना चाहिए। पेट की भूख ही किसी को नक्सली बना सकती है ! क्या वाकई ऐसा है?

विश्वदीपक मेरे मित्र है, एक टीवी चैनल में काम करते है। हमारी सप्ताहिक मुलाकातों में अक्सर इस विषय पर गंभीर बतकुट्टौवल होती है कि वाकई नक्सलवाद या अतिवामपंथ का हमारे देश में कोई भविष्य है। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि वामपंथ ही अप्रसांगिक हो गया है। इसकी वजह वे ये गिनाते हैं कि सोबियत ढ़ह गया, चीन बदल गया और अपने यहां बंगाल में उसका किला कमजोर पड़ गया है। तो क्या यहीं वामपंथ की प्रसांगिकता या परिभाषा है। विश्वदीपक कहता है कि अगर नक्सली समस्या पर हम दिल्ली के पाश इलाके के किसी फ्लैट में बहस कर रहे हैं तो इसका मतलब है कि वो हमारे ड्राईंग रुम में घुस गया है।


ये तर्क मुझे परेशान कर देता है, लेकिन वाकई इस तर्क में दम है। उसका ये भी कहना है कि वो कौन सी वजहें है जिस वजह से अचानक ग्रामीण विकास मंत्रालय पिछले कुछ सालों में ‘एलीट’ मंत्रालय बन गया है, और राहुल गांधी ‘नरेगा’ की माला जप रहे हैं? इसकी ये वजह नहीं कि देश के संभ्रान्त शासक वर्ग का हृदय परिवर्तन हो गया है, बल्कि इसकी वजह दांतेवाड़ा और लातेहार की गरजती बंदूके हैं जिससे हिंदुस्तान का सत्ताधारी एलीट घवरा गया है। ये नक्सलवाद की पहली विजय है। वो दिल्ली की सत्ता पर भले ही कब्जा न कर सके लेकिन उसके संघर्षों ने लुटियंस जोन में बैठों शासकों को प्रतीकात्मक रुप से ही बदलने को जरुर मजबूर कर दिया है।

कुछ आंकड़ों पर गौर करने की जरुरत है। देश में पिछले 60 साल में साक्षरता बढ़ी है, आमदनी बढ़ी है, लोगों का जीवनस्तर बढ़ा है। ये आंकड़े खुशफहमी पैदा करते हैं। लेकिन सवाल को जरा पटल दीजिए। क्या पिछले साठ साल में सकल निरक्षरों की तादाद में कमी आई है ? क्या गरीबों की सकल तादाद में कमी आई है, भले ही फीसदी में कमी जरुर आ गई हो ? देश की एक बड़ी आबादी निरक्षर है, गरीबी रेखा से नीचे है और स्तरीय मानकों पर उसके जीवन जीनें की दूर-2 तक अभी कोई संभावना नहीं है। हालत इतनी खराब है कि देश के उद्योगपतियों को सिर्फ जीवनयापन की कीमत पर सस्ते मजदूर मिलते हैं और देश के कई अंबानी दुनिया के रईसों में शुमार हो गए हैं। वे इसलिए अमीर नहीं हुए कि उन्होने किसी इनोवेटिव उत्पाद का आविष्कार किया हो और दुनिया के बाजारों में भर दिया हो। ये नितांत सस्ते श्रम का मायाजाल है।

ऐसी हालत में अगर 70-80 करोड़ लोग एक स्तरहीन जिंदगी जी रहे हैं और गुस्सा, खींझ, बीमारी, कुपोषण और निरक्षरता की हालात में फंसे हैं तो क्या ये हालात नक्सलवादी आंदोलन के लिए उपजाऊ जमीन मुहैया नहीं कराती ? गृहमंत्रालय के आंकड़े बता रहे हैं कि देश के तकरीबन एक चौथाई जिले माओवादियों के असर में है या उनका वहां कुछ प्रभाव है। ऐसे में अगर प्रधानमंत्री तक बार-बार चिंता जाहिर करते हैं कि माओबादी सबसे बड़ा खतरा है तो वे मजाक नहीं कर रहे होते-उनकी जुबान से एक अज्ञात भय झलकता है। वक्त आ गया है हम इस समस्या को वास्तविकता के स्तर पर झेंले न कि सिर्फ लफ्फाजी करके। अगर हम दून और लंदन में पढ़े हर आदमी को राहुल गांधी समझने की गलती करेंगे तो नक्सली वाकई राजधानी तक आ जाएंगे।

Wednesday, September 23, 2009

कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएं...

रायबरेली के फिरोज भाई बड़े दिलदार इंसान हैं। वे गालिब से लेकर माईकेल जेक्सन तक की बात करते हैं। हाल ही में उन्होने एक हिंदी का एक गजल सुनायी। ये गजल इलाहाबाद में रहनेवाले उनके एक मित्र एहतेराम इस्लाम ने लिखी थी जिसे मैं अपने ब्लाग पर बांटने का लोभ नहीं छोड़ पा रहा...

सीनें में धधकती हैं आक्रोष की ज्वालाएं...हम लांघ गए शायद सतोष की सीमाएं..

पग-पग पर प्रतिष्ठित हैं पथभ्रष्ट दुराचारी....इस नक्शे में हम खुद को किस बिन्दु से दर्शाएं....

बांसों का घना जंगल, कुछ काम न आएगा, हां खेल दिखाएंगी कुछ अग्नि शलाकाएं...

बीरानी बिछा दी है मौसम के बुढ़ापे ने, कुछ गुल न खिला बैठें यौवन की निराशाएं...

तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो, कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएं...


ये गजल कुछ वामपंथी तेवर लिए हुए है, लेकिन मौजूदा दौर में लोगों की छटपटाहट और व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश को बखूबी बयां कर रही है। खासकर तब, जब गरीबों के लिए इंदिरा आवास की कीमत पचीस हजार रुपये आंकी जाती हो और देश के महानगरों में कोठियों की कीमत तीन सौ करोड़ तक पहुंच गई हो।

Tuesday, September 22, 2009

बिहार उपचुनाव के नतीजे और निहितार्थ


बिहार विधानसभा का हालिया उपचुनाव बहुत से लालबुझक्कड़ों के लिए नीतीश कुमार के अवसान का पैगाम लेकर आया। लेकिन लालू के चेहरे पर खुशी का अतिरेक नहीं था। लालू जानते हैं कि नीतीश, डैमेज कंट्रोल में माहिर है। इसलिए उन्होने गंभीरता से बयान दिया, कम से कम उनके चेहरे से यहीं लगा। हाल के दिनो में बिहार की जनता में ये मेसेज गया है कि नीतीश कुमार कुछ अहंकारी टाईप के हो गए है। हलांकि इस संदेश को फैलाने में जितनी विपक्ष की भूमिका नही थी उससे ज्यादा नीतीश के मंत्रियों की थी जिनका कहना था कि मुख्यमंत्री उपलब्ध ही नहीं होते। देखा जाए तो ये आरोप पूरी तरह से गलत भी नहीं है। नीतीश के समर्थकों का कहना है कि मंत्री और पार्टी के विधायक इसलिए नाराज है कि उन्हे मनमानी की छूट नही है। दूसरी तरफ विरोधियों का कहना है कि नीतीश ने सारे अधिकार अपने हाथ में रख लिए हैं। लेकिन जो भी हो अगर चुनाव किसी चीज का आईना है तो ये उपचुनाव ये साबित नहीं कर सकता कि नीतीश का जनाधार ढ़लान पर है क्योंकि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी गठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की थी।

सबसे बड़ी बात ये कि ये चुनाव पटना की गद्दी के लिए नहीं था। इस चुनाव से मुख्यमंत्री का फैसला होनेवाला नही था। इसलिए स्थानीय स्तर के मुद्दे हावी हो गए और ये चुनाव पंचायत चुनाव सरीखा हो गया। ये बात लालू और पासवान भी जानते हैं कि साल भर बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव में उनका मुकाबला एक व्यक्तित्व से कुशल प्रशासक बन गए नीतीश कुमार से होनेवाला है जिसके बरक्श जनता लालू-पासवान के 15 सालों की जुगलबंदी को तौलेगी।

ऊपर की पंक्तियां नीतीश कुमार का आनलाईन पीआर लग सकती है लेकिन जमीनी हकीकत यहीं है। नीतीश कुमार ने बिहार के समाजिक ‘ मेल्टिंग पाट’ में कई प्रयोग किये है। अतिपिछड़ों की गोलबंदी नीतीश के पक्ष में है(जिसकी आबादी करीब 38 फीसदी है) जबकि महादलितों के लिए कई योजनाएं बनाकर सरकार ने उन्हे अपने पक्ष में करने का कोशिश की है। लेकिन इसके नतीजे में कई जगहों पर कई मजबूत जातियों की जुगलबंदी और समीकरण पनप गए हैं जिस वजह से पिछले उपचुनाव में उनकी पार्टी को कई जगह पर नुकसान हुआ है। अतिपिछड़ाबाद और अति-महादलितवाद कई लोगों को नाराज भी कर गया है-ये बात नीतीश भी जानते हैं।

लेकिन उससे भी बड़ी बात ये कि जेडी-यू ने राजद के कई नेताओं को टिकट देकर अपने बनते हुए मजबूत वोट बैंक को नाराज कर दिया। श्याम रजक और रमई राम की हार तो यहीं कहानी कह रही है। तीसरी और अहम बात ये कि सरकार की दो समर्थक जातियां-ब्राह्मण और राजपूत- सरकार से नाराज दिखती हैं। ये नाराजगी पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त ही शुरु हुई थी-लेकिन अब जाकर आकार लेने लगी है। इसकी ऐतिहासिक-भौगोलिक वजहें भी हैं।

नीतीश कुमार से सरकारी कर्मचारी नाराज हैं। क्योंकि उन्होने हड़ताल का कड़ाई से सामना किया और काम का दवाब बढ़ गया हैं। भष्टाचार पर थोड़ा सा अंकुश लगा है, मास्टरजी को स्कूल जाना पड़ता है। इसकी वजह सिर्फ नीतीश कुमार नहीं है, केंद्र की तरफ से भी ढ़ेर सीरी योजनाओं के लिए ढ़ेर सारा पैसा आने लगा है-जिस वजह से कर्मचारियों को कम से कम आफिस में तो रहना ही पड़ता है।

ये सारी तस्वीरे क्या कहती है ? जनता को इन सब चीजों से कोई ऐतराज नहीं। वो उसके घाटे का सौदा नहीं। सामान्य तौर पर सूबे की कानून व्यवस्था ठीक हुई है, सड़के चमकने लगी है और गांवो में बिजली की तार दिखती है। लोगबाग नीतीश की आलोचना नहीं करते। एंटी इन्कम्बेंसी अभी तक नहीं है।

नीतीश, गलतियों को स्वीकार करने और उससे सबक सीखने में माहिर है। बड़ी बात ये कि जनता का बड़ा वर्ग उनके साथ है। ब्रांड नीतीश बहुत दिनों में बना है, वो इतने कम दिनों में खत्म नहीं हो सकता। इसलिए ये मानना कि उपचुनाव के नतीजे बिहार की जनता का लालू-पासवान के लिए मुहब्बत का पैगाम है-जल्दबाजी के सिवा कुछ नहीं। अगला चुनाव भी नीतीश बनाम अन्य ही होगा-जैसा बिहार में इससे पहले का दो चुनाव था। लालू बनाम अन्य तो अभी नहीं दिख रहा।

Friday, September 18, 2009

मोदी आज सठिया गए...

वैसे तो मोदी के कई फैसले पहले से ही इशारा कर रहे थे कि वे सठिया चुके हैं लेकिन आज अखबारों से पता चला कि वे वाकई सठिया गए हैं। वैसे सुना कि जब नेता सठियाता है तो क्रिकेट संस्थानों पर कब्जा कर लेता है। मोदी ये हाल ही में काम कर चुके हैं। लालू और पवार भी सठियाए थे तो उन्होने बिहार और देश स्तर के क्रिकेट संस्थाओं पर कब्जा कर लिया था।

वैसे एक थ्योरी ये भी है कि नेता सठियाता है तो दंगे करवाने लगता है। 90 के दशक में लालकृष्ण आडवाणी सठियाए थे तो बाबरी-अयोध्या दंगा हुआ था। उससे भी पहले सुना कि आजादी से पहले एक बार जिन्ना सठियाए थे तो देश भर में यादगार दंगे हुए थे। उस हिसाब से मोदी बहुत पहले सठिया चुके हैं, वैसे सर्टिफिकेट पर आज सठियाए हैं।

बुजुर्गों का कहना है कि नेता जब सठिया जाता है तो वो संत किस्म का हो जाता है। सुना कि वो अपने पाप का घड़ा भरकर पूण्य लूटने निकल जाता है। जिन्ना भी पाकिस्तान के जन्म के बाद वहां कि नेशनल एसेंबली में उदारवादी भाषण देते हुए पाए गए। आडवाणी ने जिन्ना के मजार पर पर सजदा किया, लालू ने मांसाहार छोड़ दिया और पवार ने विदेशी मूल की महिला का विरोध करना छोड़ दिया। हो सकता है कि मोदी भी कुछ ऐसा ही करें। वैसे मोदी ने रतन टाटा से आशीर्वचन (नैनो) लेकर संत-त्व तरफ एक कदम बढ़ा ही दिया है। उनका अगला कदम देव-त्व की तरफ होगा जिसके लिए वे अपने वरिष्ठ आडवाणी की तरह बुजुर्ग नहीं होना चाहते।

Wednesday, September 16, 2009

एक सनसनी जो बनते-बनते रह गई...

“लाख अन्यायपूर्ण और अनुचित आलोचनाओं के बावजूद सोनिया गांधी ने जिस गरिमा और गंभीरता के साथ सत्ता की कामना का वलिदान किया वो अपने आप में एक मिसाल है। वो एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिज्ञ हैं जिन्हे ग्रामीण और शहरी संभ्रान्त वर्ग समान रुप से पसंद करता है। हमारे देश में ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्होने महाद्वीपों, सभ्यताओं और भाषाओं के बंधन को इतनी आसानी से पार किया है और जिनको दुनिया गंभीरता से सुनती है। सोनिया गांधी का दिल हमेशा गरीबों, कमजोरों और सुविधाविहीन लोगों की भलाई के लिए धड़कता है”
पाठक इन शब्दों को पढ़कर परेशान या गुमराह न हों, न ही इन पंक्तियों के लेखक का कांग्रेसीकरण हो गया है। ये शब्द हैं इनफोसिस के अध्यक्ष नारायण मूर्ति के। अपने पाठकों की याददाश्त के लिए बताते चलें कि ये वहीं नारायण मूर्ति हैं जिनका नाम एक दौर में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए लंबे समय तक हवा में रहा था। माफ कीजिएगा, जरा हिंदी कठिन लिखी हुई है, क्योंकि ये पीटीआई की खबर का शब्दश: अनुवाद है जो नारायणमूर्ति की पांडित्यपूर्ण अंग्रेजी में दिया गया था। मौका था 15 सितंबर 2009 को मैसूर में इनफोसिस के दूसरे ग्लोबल एजुकेशन सेंटर के उद्धाटन का जो सोनिया गांधी के हाथों संपन्न हुआ था। लेकिन खबर ये नहीं है।

ठीक उसी दिन मैसूर से तकरीबन 2500 किलोमीटर उत्तर में पंजाब के शहर लुधियाना में सोनिया गांधी के बेटे और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी यूथ कांग्रेस के एक ट्रेंनिंग कैम्प का उद्धाटन करते हैं। इस कैम्प में य़ुवा कांग्रेसियों को चार दिन का ट्रेनिंग दिया जाना है कि तृणमूल जनता(ग्रासरुट मासेज) तक कैसे पहुंचा जाए और कांग्रेस को कैसे सत्ता की स्वभाविक पार्टी बनाए रखा जाए। इस कैम्प को साफ्ट स्किल का ट्रेंनिंग देने के लिए बंगलूरु से एक कंसलटेंसी को बुलाया जाता है जिसका नाम है- इस्टिट्यूट आफ लीडरशिप एंड इस्टिट्यूशनल डेवलपमेंट। इस फर्म के साईट पर जाएं तो पता चलता है कि इसके डाईरेक्टर का नाम है- डा जी के जयराम। डा जयराम इंफोसिस लीडरशिप इस्टिट्ट्यूट के प्रमुख रहे हैं। इस फर्म को एक ट्रस्ट चलाती है जिसकी एक ट्रस्टी है रोहिणी निलकेणी। रोहिणी निलकेणी, नंदन निलकेणी की पत्नी है। अब ये बताना कोई जरुरी नहीं है कि ये वहीं नंदन निलकेणी हैं जिन्हे सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली यूपीए सरकार ने अपने सबसे बड़ी महात्वाकांक्षी परियोजना यूनिक आईडेंटीफिकेशन कार्ड का अध्यक्ष बनाया हुआ है।

अब यहां दो अनुमान तो लगाए ही जा सकते हैं। अगर बीजेपी के धुरंधर, डा कलाम जैसे वैज्ञानिक को राष्ट्रपति बनाकर ‘सेक्युलर’ होने का भी तमगा हासिल कर सकते हैं तो भला कांग्रेस क्यों नहीं डा नारायण मूर्ति को राष्ट्रपति बनाकर अपना आधुनिकतावादी चेहरा दिखा सकती ? बिल्कुल दिखा सकती है, माना कि पिछले बार वाम एक महिला के नाम पर अड़ गया था-अब क्या परेशानी है ? नारायणमूर्ति ने अपने आपको निष्ठावान तो कमसे कम साबित कर ही दिया है !

इस खबर का मकसद न तो नारायण मूर्ति की पहुंच का मर्सिया पढ़ना है न ही उनकी गरिमा और अहमियत को ठेस पहुंचाना। इस खबर का मकसद सनसनीखेज पत्रकारिता करनेवाले भाई बंधुओं को आईना दिखाना है कि असल सनसनी तो यहां थी जिसमें वे चूक गए। खैर, हमारे देश में लकीर पीटने का भी रिवाज रहा है, सो वो अभी भी इस पर अमल कर सकते हैं।