Tuesday, February 26, 2013
वैशाली यात्रा-4
Monday, February 25, 2013
वैशाली यात्रा-3
विशालगढ अवशेष के पास चमगादड़ पीपल का पेड़ |
काजी मीरन सुतारी की दरगाह, वैशाली |
Monday, February 18, 2013
वैशाली यात्रा-2
Sunday, February 17, 2013
वैशाली यात्रा-1
Monday, September 24, 2012
सुशासन का तेज़ाबी चेहराः ज्योति को इंसाफ चाहिए
![]() |
(ज्योति पहले) |
22 सितंबर की शाम मेरे मित्र गौरव गया के दौरे पर थे। शाम में उनकी बातचीत शहर के मंगला गौरी मंदिर के पुजारी से हो रही थी। बातचीत के क्रम में ही प्रमोद कुमार वैद्य (पुजारी) फफक कर रोने लग गए। गौरव के बहुत पूछने पर उन्होंने बताया तो कुछ नहीं, बस अपनी बेटियों की तस्वीर आगे कर दी। गौरव तस्वीर देखकर सन्न रह गए।
उनकी बेटी ज्योति पर एक मनचले ने तेज़ाबी हमला कर दिया था। हमले में ज्योति और उनकी छोटी बहन श्रुति बुरी तरह घायल हो गए। ज्योति करीब 70 फीसद जल गई।
हुआ यों कि गया शहर की ज्योति से मुहल्ले के एक मनचले टुनटुन कुमार को प्यार हो गया था। आए दिन वह ज्योति का पीछा किया करता था। लेकिन ज्योति के विरोध के बाद एक दिन, अहिंसा के पुजारी बापू के जन्मदिवस 2 अक्तूबर को अहिंसा के जन्मदाता महात्मा बुद्ध के स्थल गया में ज्योति पर तेजाबी हमला कर दिया गया। इस हमले में ज्योति बुरी तरह जल गई और उनकी बहन श्रुति भी बुरी तरह घायल हो गई। यह घटना साल 2010 की है।
![]() |
(ज्योति, तेजाब हमले के बाद) |
अब इस घटना को दो साल बीत चुके हैं, लेकिन आर्थिक रूप से असहाय वैद के सामने कोई रास्ता नहीं बचा। ज्योति अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई को जारी रखने का मन बना चुकी है, लेकिन उसके पास इसका रास्ता नहीं...उसे नहीं पता कि आखिर उसे न्याय कैसे हासिल होगा।
आप सब इस पोस्ट को फेसबुक, ब्लॉग अपने अखबारों और बाकी सोशल साइट्स पर शेयर करें और ज्योति को कानूनी सहायता देने के लिए आगे आएं।
मंजीत ठाकुर
(यह पोस्ट मंजीत ठाकुर के ब्लॉग से लिया गया हैः http://gustakh.blogspot.in/2012/09/blog-post_24.html)
Thursday, May 17, 2012
कोसी(पुल) कथा-6
Tuesday, February 14, 2012
कोसी (पुल) कथा-5

मेरे एक परिचित मजाक में कहते हैं कि कोसी पुल बन जाने से दरभंगा-मधुबनी के दूल्हों का भाव गिर जाएगा! इस इलाके में दहेज का जो दानव पिछले दशकों में मजबूत हुआ है उतना दहेज कोसी के पूरब नहीं है। क्या वाकई ऐसा है..? हो सकता है ऐसा हो। सुना है पहले के जमाने में भी लोग इस इलाके में शादी ब्याह करने को प्राथमिकता देते थे। कहते हैं कि मेरी मौसी जब आज से पचास साल पहले पूर्णिया ब्याही गई थी तो उनके ससुर का सीना गज भर चौड़ा हो गया था! आखिर उनके बेटे की शादी मधुबनी में पंचकोसी के ब्राह्मणों के घर जो हुई थी!(पंचकोसी-सौराठ के इर्दगिर्द के तथाकथित कुलीन ब्राह्मणों का इलाका!) हलांकि कुलीनता की ये परिभाषा अब फिजुल लगती है और धूमिल पड़ चुकी है। शायद इसकी एक वजह बीती सदियों में कोसी की विभिषिका झेल रहे उन इलाकों की तत्कालीन स्थिति हो!
दरभंगा में किसी ने कहा कि अब पूर्णिया महज ढ़ाई-तीन घंटा का मामला है। मिथिला का सबसे नजदीकी हिल स्टेशन दार्जिलिंग हो जाएगा। यानी दरभंगा में अगर चले तो महज 6 घंटे में दार्जिलिंग ! यानी अब हनीमून मनाना आसान हो जाएगा ! तो क्या दार्जिलिंग जैसी जगहों का सितारा फिर से चमकेगा ?

दरभंगा और सुपौल जबसे 1 घंटा की दूरी पर आ गया है लगता है दरभंगा के डॉक्टरों की आमदनी अभी और बढ़ेगी। कोसी के उस पार अच्छे मेडिकल कॉलेज नहीं हैं। अब बिहार सरकार ने मधेपुरा में एक मेडिकल कॉलेज बनाने का फैसला किया है, लेकिन उसे जमने में अभी कुछ वक्त लगेगा। इधर दरभंगा में एक प्रसिद्ध मेडिकल कॉलेज है और इस इलाके में वो स्वास्थ्य का सबसे बड़ा केंद्र बनकर उभरा है।
मेरे मित्र आशीष झा कहते हैं कि कोसी पुल ने मिथिला को सिर्फ भौगोलिक स्तर पर ही नहीं जोड़ा है। इसने मिथिला के सांस्कृतिक और मानसिक एकीकरण को भी मजबूत किया है। दोनो भाग अलग-अलग होने से लोग दरभंगा-मधुबनी-समस्तीपुर को तो मिथिला कहने लगे थे लेकिन सहरसा-सुपौल-मधेपुरा को ‘कोसी’ कहने लगे थे। अब ये धारणा धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। मिथिलांचल फिर से मिथिलांचल हो जाएगा। कोसी महासेतु से करीब 30 किलोमीटर दक्षिण भी कोसी पर बलुआ घाट के नजदीक एक पुल बन रहा है और उससे भी आगे एक और पुल। यानी कोसी पर कई पुल बन रहे हैं। कहते हैं कि बलुआ घाट पुल बन जाने से सहरसा और कुशेश्वरस्थान आस-पास हो जाएंगे। तो क्या इस तरह के पुल अपने भीतर एक बड़े राजनीतिक आन्दोलन की संभावना को हवा नहीं देंगे?
एक अलग मिथिला राज्य का ढ़ीला-ढ़ाला आन्दोलन बरसों से चल रहा है लेकिन उसमें फिलहाल उतनी धार नहीं है। आम जनता उसे अक्सर ‘ब्राह्मणों’ का आन्दोलन मानती है, लेकिन धीरे-धीरे इसमें समाज के दूसरे वर्ग भी शामिल होते जा रहे हैं। जब से छोटे राज्यों के समर्थन में ज्यादा चर्चा होने लगी है, उसका अप्रत्यक्ष असर मिथिलांचल के लोगों पर भी पड़ता ही है। पता नहीं आगे यह आन्दोलन कितना मजबूत होगा। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि कोसी पुल उस आन्दोलन को जरूर मजबूती प्रदान करेगा। गौर करनेवाली बात ये भी है कि ये कोसी पुल का ही उद्घाटन था जब प्रधानमंत्री वाजपेयी ने मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसुची में शामिल करने का वादा किया था। उस हिसाब से इस पुल ने अपने उद्घाटन के साथ ही इस इलाके की भाषा को संवैधानिक दर्जा दिला दिया था!
वैसे भी किसी नए राज्य के बनने में दशकों लग जाते हैं। इतना तय है कि आनेवाले दशकों में अगर बिहार के इस हिस्से का उचित विकास नहीं हुआ या बिहार में क्षेत्रीय विषमता पैदा हुई तो एक नए सूबे की मांग को रोकना असंभव हो जाएगा।(जारी)
Sunday, February 5, 2012
कोसी (पुल) कथा-4
पिछले सौ सालों में सारे जंगल खेत में तब्दील हो चुके हैं और नदियां कुछ ज्यादा ही उफनने लगी हैं। ये वहीं इलाके हैं जहां हर दस-बीस किलोमीटर के बाद कोई न कोई नदी हिमालय से निकलकर गंगा की तरफ आती है और अब तो कुछ ज्यादा ही गुस्से में आने लगी है। जंगलों के गायब होने का ये स्वभाविक नतीजा है। पहले जंगलों की वजह से पहाड़ से पानी धीरे-धीरे मैदान में उतरता था। लेकिन अब वो सुरक्षा कवच गायब हो चुका है।

बहरहाल, फुलपरास में पलाश के जंगल थे, तो क्या पहले पलाश के पेड़ इस इलाके में बहुतायत से पाए जाते थे? पलाश से पलासी याद आती है जहां हुई एक लड़ाई ने भारतीय इतिहास की धारा बदलकर रख दी थी। लेकिन हमारा फुलपरास भी कुछ कम नहीं। इसने भी बिहार की राजनीतिक धारा को अपने तरीके से प्रभावित किया है। राजनीतिक रूप से अति-जागरुक यह क्षेत्र बिहार में समाजवादियों का गढ़ रहा है। कद्दावर समाजवादी नेता और एक तरह से लालू-नीतीश-पासवान के राजनीतिक गुरु कर्पूरी ठाकुर जब निर्णयात्मक रूप से दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तो फुलपरास ने ही उन्हें चुनकर विधानसभा पहुंचाया था। कर्पूरी उस समय सांसद थे और फुलपरास के तत्कालीन विधायक देवेंद्र प्रसाद यादव(जो बाद में कई बार सांसद और केंद्रीय मंत्री भी बने। वे उस बार पहली दफा विधायक बने थे।) ने उनके लिए फुलपरास सीट से इस्तीफा दे दिया था। कहना न होगा कि बिहार के पिछड़ों-दलितों में राजनीतिक चेतना जगाने का जो काम कर्पूरी ठाकुर ने किया, वह भी एक कारण था कि नब्बे के दशक तक आते-आते पिछड़े दलित बिहार की राजनीति के केंद्रविंदु बन गए।
जिक्र देवेंद्र प्रसाद यादव का आया तो यहां एक बात लिखनी जरूरी है। दरभंगा-मधुबनी-सुपौल से होकर ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर और इसी वजह से कोसी पर सड़क पुल बनवाने की योजना में देंवेंद्र प्रसाद यादव का अहम योगदान था। वे उस समय झंझारपुर के सांसद थे। कहते हैं कि वाजपेयी सरकार जब ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर का खाका खींच रही थी तो कुछ राजनेता और नौकरशाह इसे मुजफ्फरपुर-बरौनी-खगड़िया से होकर ले जाना चाहते थे। लेकिन देवेंद्र यादव ने कई सांसदों का समर्थन जुटाकर और मजबूत तर्कों के आधार पर वाजपेयी सरकार को इस बात के लिए मनाया कि इलाके के पिछड़ेपन को देखते हुए ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर दरभंगा-मधुबनी-सुपौल से ही जाना चाहिए। और ऐसा ही हुआ। लेकिन इस हाईवे के लिए जो श्रेय देवेंद्र प्रसाद यादव को मिलना चाहिए था, वो उन्हें नसीब नहीं हुआ। लोगबाग सिर्फ वाजपेयी या नीतीश की चर्चा करते हैं देवेंद्र यादव की लोग चर्चा भी नहीं करते !

नदियों से अंटे पड़े इस इलाके का जिक्र हमने पहले भी किया है। सुगरवे, तिलयुगा और भुतही बलान का जिक्र हम कर चुके हैं। हाईवे जिधर से गुजरती है कोसी से पहले एक चौक का नाम ही भुतहा चौक है। पल-पल रंग बदलनेवाली नदियों और विनाशकारी बाढ़लानेवाली धाराओं के इलाके में ऐसे नाम होने अस्वभाविक नहीं हैं। यहां हम कलात्मक, सजे-धजे, और गढ़े हुए नामों की उम्मीद भी नहीं कर सकते। न ही किसी रजवाड़े, कुंअंर या जमींदार के नाम पर किसी खूबसूरत नगर या पुर की कल्पना !
हमने इससे पहले नरहिया बाजार का भी जिक्र किया था जिसे पूरब से कोसी ने और पश्चिम से भुतही बलान ने काटकर तबाह कर दिया था। वह बाजार इतिहास के अनलिखे अध्यायों में विलीन हो गया। नरहिया नामके पीछे भी एक दंतकथा है। कहते हैं कि इस जगह का नाम इतिहास में हुए किसी भीषण नरसंहार के नाम पर पड़ा है। किसी इलाकाई सरदार ने तत्कालीन शासक के खिलाफ बगावत की थी। पता नहीं वो बगावत दरभंगा महाराज के खिलाफ थी या उससे भी पहले के किसी शासक के खिलाफ। नरहिया से होकर कोसी पुल की तरफ जाते हुए बरबस ही वो लोककथा याद आ गई। मैं पुल की तरफ जाते हुए एक-एक गांव के बारे में जानना चाहता था जो नदियों की अठखेलियों के शिकार हो गए थे।(जारी)
Friday, February 3, 2012
कोसी (पुल) कथा-3

जब मैं कोसी पुल पर था तो मैंने कुछ लोगों से पूछा कि बनैनियां कहां हैं? नए लोगों को इसके बारे में ज्यादा पता नहीं था। एक पुराने बुजुर्ग मिले जिन्होंने इशारे से बताया कि वो पुल से उत्तर बीच पानी में कहीं होगा। वे मेरी दीदी के ससुर को जानते थे। उन्होंने कहा कि नेताजी का घर उसी जगह था। वहां कोसी का पानी हिलोड़ मार रहा था। हम पुल के पूर्वी छोड़ तक गए जहां नया तटबंध बना दिया गया है। उस पार की जमीन वर्तमान में पानी से बाहर सुरक्षित हो गई है। हाईवे के नीचे तटबंध के पूरब उस खाली जमीन पर बस्तियां पनप आई थीं। वहां सौ-दो सौ के करीब झोपड़ियां उग आई थीं। बिल्कुल नए-नए साल दो साल के बने घर। कुछ पान के खोखे..कुछ चाय की दुकानें...। उस गांव का नाम इटरही था। वह गांव पुराने बनैनियां से करीब 2-3 किलोमीटर उत्तर था। उस गांव की ये खुशनसीबी थी कि वो नए तटबंध से बाहर आ गया, लेकिन बनैनियां इतना खुशनसीब नहीं था। वो पानी के पेट में ही पड़ा रहा गया, और शायद स्थायी रुप से इतिहास और विस्मृति के गर्भ में भी।

Tuesday, January 24, 2012
कोसी(पुल)कथा-2

लेकिन हम चाहकर भी उस पार आसानी से नहीं जा पाते। सहरसा या पूर्णिया जाने का मतलब था पांच जिला पार कर के जाना। ट्रेन या बस से जाने का मतलब था लगभग 18-20 घंटे का सफर। ऐसा ही उस पार के लोगों के लिए भी था। दिल्ली जाना आसान लगता था, लेकिन पुर्णिया जाना दुरुह। हम रेणु का मैला आंचल पढ़कर अंदाज लगाते कि फारबिसगंज कैसा होगा। पुरनिया कैसा होगा। श्रीनगर, चंपानगर स्टेट, गढ़बनैली स्टेट, कुमार गंगानंद सिंह...सिंहेश्वर स्थान.. मैथिली-हिंदी के ढ़ेरों प्रसिद्ध साहित्यकार उधर से हुए। हिंदी-मैथिली के प्रसिद्ध साहित्यकार राजकमल चौधरी महिषी के ही थे।
पिताजी की एक बुआ उधर ही ब्याही थी, परिहारी गांव में। शायद अब अररिया में है। दादाजी अक्सर उस पार जाते, बताते कि उधर पटुआ(पटसन) की खेती बहुत होती है। किसानों के पास बहुत जमीन हैं। बड़े जमींदार हैं, लेकिन साथ ही ये भी बताते कि इलाका ‘थोड़ा पिछड़ा’ हुआ है। सड़के खराब हैं...और लोग ‘मोटा खाते-पहनते’ हैं ! ये बातें उस वक्त समझ में नहीं आती थी। हम मधुबनी-दरभंगा के लोग अपने आपको थोड़ा ऊंचा समझते! अकड़ में रहते! कोसी के इलाके को हमारे इलाके के लोगों ने ‘कोसिकंधा’ बना दिया!

