Tuesday, February 26, 2013

वैशाली यात्रा-4


हम मजार से नीचे उतरे और बौना पोखर की तरफ चले। खेतों के बीच कच्ची-पक्की सड़कों से होकर करीब एक किलोमीटर जाने के बाद एक तालाब मिला जिसके बगल में एक जैन मंदिर था। बगल में आठ-दस घरों की बस्ती थी। मंदिर के बगल में एक जैन कमेटी का कार्यालय था जिसका दरवाजा अधखुला सा था।

दिन के एक बजनेवाले थे। हमने दरवाजा खटखटाया तो मंदिर के पुजारी मुनिलाल जैन बाहर निकले। घनी सफेद मूंछें रखनेवाले मुनिलालजी करीब 60 साल के प्रौढ़ थे और उनके चेहरे पर शाश्वत मुस्कान थी। बड़े प्यार से उन्होंने मंदिर के कपाट खोले और हमें मंदिर में महावीर स्वामी का दर्शन करवाया। उन्होंने बड़े विस्तार से मंदिर और तालाब का इतिहास बतलाया।


मुनिलाल जैन के मुताबिक उस मंदिर में स्थापित महावीर स्वामी की मूर्ति भगवान महावीर की ऐसी कोई पहली मूर्ति थी जो किसी खुदाई से मिली थी। वह मूर्ति बगल के ही तालाब से मिली थी जिसे बौना पोखर कहते हैं। वह तीन फुट ऊंची काले पत्थरों से बनी मूर्ति थी और कम से कम 2000 साल पुरानी थी। मैंने उनसे पूछा कि मंदिर के संचालन की जिम्मेवारी किस पर है? उनका कहना था, एक जैन कमेटी है जो इसकी देखभाल करती है और वे बतौर पुजारी यहां 16 साल से रहते हैं। जैन कमेटी के अध्यक्ष जयपुर के कोई बड़े कारोबारी हैं और उस कमेटी में देश के अलग-अलग हिस्सों के लोग शामिल हैं। हालांकि उनलोगों को भी मंदिर की चिंता कम ही रहती है और किसी ने इसके विकास के लिए कुछ नहीं किया है।

मुनिलाल जैन आजन्म ब्रह्मचारी हैं और इससे पहले देश के अलग-अलग हिस्सों में रह चुके हैं। वे मूलत: उत्तरप्रदेश के फिरोजाबाद के रहनेवाले थे और धुली हुई हिंदी बोल रहे थे।


इतनी पुरानी मूर्ति और साधारण से मंदिर में बिना किसी सुरक्षा कैसे स्थापित थी? क्या बिहार या भारत सरकार को उसके सुरक्षा की चिंता नहीं थी? इस पर मुनिलालजी का कहना था कि यहां कोई सुरक्षा नहीं है, भगवान महावीर ही इसके रक्षक हैं। नीतीश कुमार द्वारा बार-बार ऐतिहासिक धरोहरो की बात करने के बावजूद फिलहाल इस तरह की सुरक्षा बिहार सरकार के एजेंडे से बाहर थी।। बाहुबली विधायकों से अंटे पड़े इस क्षेत्र में अगर किसी की नीयत डोल गई तो वाकई इस ऐतिहासिक धरोहर का कोई नामलेवा नहीं बचेगा।


उस मंदिर से सटे एक छोटे से मंदिर में महावीर स्वामी की चरणपादुका रखी हुई थी। कहते हैं पहले यह पादुका जमीन से ऊपर थी, लेकिन बाद में उसके ऊपर मंदिर का निर्माण कर उसे जमीन के अंदर कर दिया गया।

मंदिर के बगल में ही बौना पोखर था, जहां से वह मूर्ति मिली थी। करीब दो-तीन एकड़ का तालाब लेकिन बदहाली का जीता-जागता नमूना। वह तालाब जलकुंभी से अंटा पड़ा था और सड़क की तरफ से घाट बना हुआ था जहां गांव की कुछ महिलाएं कपड़े धो रही थी। पास ही कुछ नंग-धड़ंग बच्चे खेल रहे थे। वह तालाब करीब दो हजार साल पुराना था लेकिन उसके सौंदर्यीकरण की चिंता किसी को नहीं थी।    

Monday, February 25, 2013

वैशाली यात्रा-3


विशालगढ़ अवशेष के सुरक्षा प्रहरी ने हमें बताया था कि यहां जो जगहें देखने लायक हैं उसमें बाईं तरफ चमगादड़ पेड़, माया मीर साहब की दरगाह और बौना पोखर का जैन मंदिर है और दाईं तरफ मोनेस्टरीज, अभिषेक पुष्करिणी, संग्रहालय, बुद्ध के अस्थि कलश, शांति स्तूप, अशोक स्तंभ और आगे की तरफ भगवान महावीर का जन्मस्थल वासोकुंड है। हमने पहले वहां से सटे जगहों को देखने का फैसला किया।
 विशालगढ अवशेष के पास चमगादड़ पीपल का पेड़

विशालगढ़ अवशेष से करीब एक किलोमीटर दक्षिण जाने पर एक पीपल का पुराना पेड़ था जिस पर सैकड़ों की संख्या में विशालकाय चमगादड़ लटके हुए थे। लोगों का कहना था कि वह पेड़ सैकड़ों सालों से चमगादड़ों का डेरा है। पेड़ को देखकर ऐसा तो नहीं लगा कि वह हजारों साल पुराना होगा, लेकिन कुछेक सौ साल पुराना होने में कोई संदेह नहीं। हां, आसपास दूसरे पेड़ भी थे लेकिन उन पर चमगादड़ नहीं थे! इसका क्या रहस्य था, पता नहीं चल पाया। लेकिन जो लोग वैशाली घूमने जाते हैं, उन्हें उस पेड़ के बारे में जरूर बताया जाता है। हमने चमगादड़ों के साथ तस्वीरें खिंचवाई और साईकिल पर सवार लोगों ने हमें मुस्कुराकर देखा।

बगल में ही एक गांव था जिससे होकर हमें काजी मीरन सुतारी की दरगाह तक जाना था। उस गांव का नाम बसाढ़ है जिसका जिक्र आचार्य चतुरसेन ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास वैशाली की नगरबधू में किया है। छोटा सा गांव था जिसे देखकर लग रहा था कि खातेपीते लोगों का गांव है जिसमें अधिकांश घरों पर ताला लटका था और लोग अप्रवासी हो गए थे।
काजी मीरन सुतारी की दरगाह, वैशाली


गांव से बाहर दाईं तरफ एक ऊंचे से चबूतरे पर काजी साहब की मजार थी। नीचे कुछ झोपड़िया थीं, जहां कुछ कुपोषित बच्चे खेल रहे थे। मजार पर सन्नाटा छाया हुआ था और वहां कोई नहीं था। वहां का इतिहास बतानेवाला कोई जानकार नहीं मिला। ऊपर से देखने पर वैशाली का विहंगम दृश्य दिख रहा था। खेतों में सरसों के फूल चमक रहे थे और खेतों के पार विशालगढ़ के अवशेष और मोनेस्टरीज।

जब हम वहां से बौना पोखर में जैनमंदिर देखने गए तो वहां के पुजारी ने हमें बताया कि काजी साहब की मजार करीब 600 साल पुरानी है और वह एक विवादित स्थल है। विवादित स्थल ? लेकिन हमें तो विशालगढ़ के कर्मचारी ने बताया था कि वो भी कोई ऐतिहासिक जगह है जिसे देखना चाहिए। बहरहाल जो भी हो, दिल्ली आकर गूगल के सहारे जो जानकारी मिली उसका लव्वोलुआब ये था कि काजी साहब एक प्रसिद्ध संत थे जिनकी वो मजार थी। लेकिन बिहार सरकार या भारतीय पुरातत्व विभाग ने वहां कोई पट्टिका क्यों नहीं लगवाई थी? अपने ऐतिहासिक धरोहरों की ये अवहेलना हमें वैशाली में कई जगह महसूस हुई।

Monday, February 18, 2013

वैशाली यात्रा-2


वैशाली में घुसते ही चौक से दाईं तरफ कुछ सरकारी कार्यालय नजर आए। वहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और बिहार पर्यटन विभाग के कुछ बोर्ड लगे थे। हमने लोगों से पूछा कि पुरानी ऐतिहासिक जगह कहां है। पता चला कि हम विशालगढ़ के अवशेष के पास ही है।

वो एक विशाल सा मैदान था, तीसेक एकड़ में फैला हुआ। उबड़-खाबड़ जमीन और बगल से निकलती हुई खड़ंजे की सड़क जो पास के ही बसाढ़ गांव की तरफ चली गई थी। उस मैदान के एक हिस्से को लोहे की चारदीबारी से घेर दिया गया था जहां पुरातत्व विभाग वालों ने नाम पट्टिका लगा रखी थी। वहां से करीब दो किलोमीटर दूर थाई और जापानी मोनेस्ट्ररीज का प्यारा सा नजारा दिख रहा था। हमने सोचा फोटो सेशन तो बनता है। वो मैदान बिल्कुल वैसा ही लेकिन थोड़ा छोटा सा था जैसा मधुबनी में बलिराजगढ़ किले के प्राचीन अवशेष हैं।

बहरहाल हम आगे बढे और उस लोहे की चारदीबारी वाले जगह पर पहुंचे जहां राजा विशाल का गढ़ के नाम से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अपनी पट्टिका लगा रखी थी। उसे घेरी हुई जमीन का रकबा करीब 10 एकड़ रहा होगा जिसमें प्राचीन किले के अवशेष थे। पट्टिका पर लिखा था कि यह राजा विशाल के किले का अवशेष है जिसके नाम पर इस जगह का नाम वैशाली पड़ा। वहां के सुरक्षा कर्मचारी ने बताया कि यह जगह कम से कम 2600 साल पुरानी है और यहां कुछेक बार खुदाई हुई है। दिल्ली आकर हमने गूगल से तस्दीक किया तो पता चला कि राजा विशाल महाभारत कालीन थे और उस हिसाब से उस किले की प्राचीनता ज्यादा होनी चाहिए। लेकिन इतिहास भी क्या लोचा है, सही तिथि का पता इतनी आसानी से चल जाए तो बात ही क्या हो।

लेकिन उस किले या राजमहल के अवशेष को जितनी जमीन में घेरा गया था वह कम लगी। किसी राजा का महल या किला महज इतना छोटा कैसे हो सकता है? वहां जानकारी के एकमात्र स्रोत उस कर्मचारी रामबृक्ष राय ने बताया कि सरकार और विभाग इस जगह की खोज के लिए बहुत उत्सुक नहीं दिखती। जितना काम अंग्रेजों के जमाने में हो पाया था, उतनी ही जगह अभी भी घेरी गई है।

ऐतिहासिक स्थलों खुदाई में बहुत एहतियात की जरूरत होती है। खुदाई हाथ से ही की जाती है ताकि किसी वस्तु को क्षति न पहुंचे।

उस जगह पर कमरों के वर्गाकार अवशेष थे। ईंटे काफी लंबी और मोटी सी थी। आजकल की ईंटों से बिल्कुल अलहदा। वर्गाकार कमरे और लंबे बरामदे। बीच-बीच में शायद स्नानागार की आकृति। जगह-जगह पुरातत्व विभाग ने मरम्मत करवाई थी जिसके बारे में सुरक्षा कर्मचारी बता रहे थे। लगा कि जब ये इमारते अपनी सही स्वरूप में रही होगीं तो वाकई लाजवाब होंगी। हिंदुस्तान ने 2600 पहले वास्तुकला में कितनी तरक्की की थीहालांकि इसमें आश्चर्यजनक बात नहीं थी। आखिर सिंधुघाटी सभ्यता में मिले मकान और स्नानागार तो उससे भी पुराने हैं।

वैशाली का नाम, उसकी प्रसिद्दि और उसकी प्राचीनता देखकर लगता था कि यहां इतिहास प्रेमी पर्यटकों की कतार लगी होगी। लेकिन वहां तो बिल्कुल सन्नाटा पसरा हुआ था। विशालगढ के मैदान में बकरिया चर रही थी, साईकिल पर गांव की लड़कियां स्कूल जा रही थीं और चारदीबारी के अंदर वह सुरक्षाकर्मी तंद्रा में लेटा हुआ था। बिहार सरकार ने पटना- वैशाली मार्ग पर कुछ जगह पर्यटन विभाग की नाम-पट्टिका, वैशाली में एक गेस्ट हाउस और सूचना केंद्र बनवाकर अपने कर्तव्य का समापन कर लिया था। हमें उस गेस्ट हाउस और सूचना केंद्र को खंगालने का मौका नहीं मिल पाया कि हम जान पाते कि उनका स्वास्थ्य कैसा है।

हां, उस सुरक्षाकर्मचारी ने जरूर हमें काम भर की जानकारी दे दी और शायद इस आशा में दी की हमलोग जाते समय उसे कुछ पैसे दे देंगे। वह कर्मचारी स्थानीय ही था और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से उसे प्रतिमाह महज 2000 रुपये मिलते थे। यानी नरेगा की मजदूरी से भी कम। वहां कुल मिलाकर दो सुरक्षाकर्मचारी थे जिनकी बारी-बारी से दिन और रात की ड्यूटी लगती थी। उनसे बात करनेपर पता चला कि वे पिछले 10 सालों से यहां काम कर रहे हैं और अनुवंध पर हैं। पहले तो और भी कम वेतन था। उसका कहना था कि अधिकारी उसे स्थायी करने के लिए लाखों रुपये घूस मांगते हैं जो उसके बस की बात नहीं है। उसके पास किसी स्थानीय लेखक की लिखी हुई कई पुस्तिकाएं थीं जिसमें वैशाली के बारे में तफ्सील से लिखा हुआ था और जिसे वह अपनी नौकरी के साथ-साथ बेचने का भी काम करता था।

यानी दुनिया के सबसे प्राचीन गणतंत्र के अवशेषों की रखवाली 2000 रुपये प्रतिमाह पर हो रही थी !

Sunday, February 17, 2013

वैशाली यात्रा-1


वैशाली जाने की योजना अनायास ही बन गई। हम एक शादी में पटना गए थे और हमारे एजेंडे में नालंदा और बोधगया था। लेकिन जिस शाम शादी होनी थी, वो दिन पूरा हमारे पास था और पटना से वैशाली की दूरी कुछ खास भी नहीं। हमने सोचा था कि नालंदा-बोधगया जाने के लिए हम टैक्सी कर लेंगे, लेकिन पटना जाकर हमने बाईक से जाने का फैसला किया ताकि इलाके में हुए बदलाव को भी सूंघा जा सके।

पटना के महेंद्रू इलाके में हम(मैं और मेरा दोस्त राजीव) रुके थे, वहां से हमने अशोक राजपथ लिया और गांधी सेतु पहुंच गए। पटना में भीड़भाड़ बहुत बढ़ गयी है और अशोक राजपथ का इलाका तो वैसे भी संकरा है। पटना बिल्कुल बनारस जैसा दिखता है जहां सड़कों पर रिक्शा और ऑटो के बीच लंबी कारें अपना रास्ता बनाने की घनघोर कोशिश करती हैं। गांधी सेतु की मरम्मत हो रही थी और कई सालों से हो रही थी। उत्तर बिहार को पटना से जोड़नेवाला यह महत्वपूर्ण पुल राजनीतिक वजहों से अपने उद्धार की राह देख रहा है।

हाजीपुर पहुंचकर हमने वैशाली की दूरी पूछी। पता चला कि वहां से लालगंज 18 किलोमीटर है और फिर लालगंज से वैशाली 15 किलोमीटर। यानी हाजीपुर से वैशाली कुल जमा 33 किलोमीटर है और पटना के केंद्र से करीब 50 किलोमीटर।

सड़क ठीकठाक थी। यों पर्यटकों की बहुत आवाजाही नहीं दिख रही थी। बिहार सरकार थोड़ी सक्रिय तो हुई थी कि उसने सड़कों के किनारे पर्यटन सूचना संबंधी बोर्ड लगवा दिया था जो आज से दशक भर पहले नहीं दिखते थे।

रास्ते में जो खास बात दिखी वो थी झुंड़ की झुंड लड़किया साईकिल पर सवार होकर स्कूल जा रही थी। साथ ही निजी स्कूलों की बसें भी खूब देखने को मिली। यानी सरकार और निजी स्कूल बच्चों और अभिभावकों को अपनी तरफ आकर्षित करने की होड़ में लगे थे। ये बिहार का वो इलाका है जहां गंगा के उत्तरी तट पर केले की अच्छी खेती होती है। यहां का चिनिया केला बहुत ही मशहूर है।  

हमने लालगंज में चाय पी और उसके बाद सीधे वैशाली रुके। रास्ते में जमीन ऊंची थी यानी सड़क के बराबर। ये इलाका सब्जियों और व्यवसायिक फसलों के लिए अच्छा माना जाता है। किसानों के पास थोड़ा बहुत पैसा आ जाता है। कच्चे मकान न के बराबर दिखे। यानी बिहार के सुदूर उत्तरी या उत्तर-पूर्वी इलाकों से तुलना की जाए तो लोगों की स्थिति ठीकठाक है। 

वैशाली के बारे में बचपन से किताबों में पढ़ता आया था लेकिन जो बात मालूम नहीं थी वो ये कि वैशाली में सिर्फ अशोक स्तंभ या भगवान महावीर का जन्मस्थल ही नहीं है। वहां ढ़ेर सारी ऐसी जगहें हैं जो अपने में इतिहास का खजाना छुपाए हुए हैं। वैशाली की नगरबधू उपन्यास में आचार्य चतुरसेन ने अभिषेक पुष्करिणी का जिक्र किया है वो अभी भी वहां है। अभिषेक पुष्करिणी वो तालाब था जिसमें स्नान करवाकर आम्रपाली को उस समय की प्रथा के अनुसार जबरन नगरबधु घोषित कर दिया गया था जिसके खिलाफ आम्रपाली ने विद्रोह किया था। वैशाली के गणपति की नियुक्त भी उसी तालाब जल से अभिषेक कर होता था। बहरहाल वो कहानी आगे।


मैं जब पटना में पढाई करता था तो मेरे गांव से पटना आनेवाली बस जाम से बचने के लिए एक बार वैशाली से होकर आई थी। अशोक स्तंभ मुझे दूर से दिखा था लेकिन मैं कभी वैशाली जा नहीं पाया। आज वो घड़ी आन पहुंची थी और मैं दुनिया के पहले गणतंत्र के भग्नावशेष के पास पहुंच गया था।(जारी)   

Monday, September 24, 2012

सुशासन का तेज़ाबी चेहराः ज्योति को इंसाफ चाहिए

(ज्योति पहले)

बिहार के सुशासन का बड़ा शोर है, लेकिन इसका असली चेहरा कुछ और ही है। जाति के बंधनों में जकड़े इस सूबे के हालात पर चाहे जितना लिखा जाए, कम ही होगा। लेकिन जाति ने कानून के हाथ भी बांध दिए हैं। 

22
सितंबर की शाम मेरे मित्र गौरव गया के दौरे पर थे। शाम में उनकी बातचीत शहर के मंगला गौरी मंदिर के पुजारी से हो रही थी। बातचीत के क्रम में ही प्रमोद कुमार वैद्य (पुजारी) फफक कर रोने लग गए। गौरव के बहुत पूछने पर उन्होंने बताया तो कुछ नहीं, बस अपनी बेटियों की तस्वीर आगे कर दी। गौरव तस्वीर देखकर सन्न रह गए। 


उनकी बेटी ज्योति पर एक मनचले ने तेज़ाबी हमला कर दिया था। हमले में ज्योति और उनकी छोटी बहन श्रुति बुरी तरह घायल हो गए। ज्योति करीब 70 फीसद जल गई। 
लेकिन इस मामले में दो साल बीत जाने पर अब तक कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है।

हुआ यों कि गया शहर की ज्योति से मुहल्ले के एक मनचले टुनटुन कुमार को प्यार हो गया था। आए दिन वह ज्योति का पीछा किया करता था। लेकिन ज्योति के विरोध के बाद एक दिन, अहिंसा के पुजारी बापू के जन्मदिवस 2 अक्तूबर को अहिंसा के जन्मदाता महात्मा बुद्ध के स्थल गया में ज्योति पर तेजाबी हमला कर दिया गया। इस हमले में ज्योति बुरी तरह जल गई और उनकी बहन श्रुति भी बुरी तरह घायल हो गई। यह घटना साल 2010 की है।

(ज्योति, तेजाब हमले के बाद)
जब श्री वैद इसकी शिकायत लेकर कोतवाली थाने गए तो थाना प्रभारी सी के झा ने प्राथमिकी दर्ज करने के एवज़ में दस हज़ार रूपयों की मांग की और नहीं देने पर प्राथमिकी दर्ज करने से मना कर दिया। टुनटुन (अभियुक्त) के पिता प्रदीप कुमार झा ने श्री वैद को जान से मारने की धमकी भी दी। 

अब इस घटना को दो साल बीत चुके हैं, लेकिन आर्थिक रूप से असहाय वैद के सामने कोई रास्ता नहीं बचा। ज्योति अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई को जारी रखने का मन बना चुकी है, लेकिन उसके पास इसका रास्ता नहीं...उसे नहीं पता कि आखिर उसे न्याय कैसे हासिल होगा।

आप सब इस पोस्ट को फेसबुक, ब्लॉग अपने अखबारों और बाकी सोशल साइट्स पर शेयर करें और ज्योति को कानूनी सहायता देने के लिए आगे आएं।

मंजीत ठाकुर

(यह पोस्ट मंजीत ठाकुर के ब्लॉग से लिया गया हैः 
http://gustakh.blogspot.in/2012/09/blog-post_24.html)

Thursday, May 17, 2012

कोसी(पुल) कथा-6


बहरहाल, कोसी पुल पर जब हम पहुंचे थे तो दिन के बारह बज चुके थे। जनवरी का सूरज माथे पर सबार होने के बावजूद प्यारा लग रहा था। हमारे पास तीन-चार घंटे थे और जाने के लिए दो गंतव्य। एक विचार यह था कि सहरसा में महिषी जाकर मैया उग्रतारा का दर्शन किया जाए और मंडन मिश्र की कर्मस्थली की कुछ हवा अपने फेफड़े में भर लिया जाए। दूसरा विचार यह था नेपाल में सखरा देवी जाया जाए जो वहां से बीसेक किलोमीटर दूर था। गूगल पर हमने पहले ही अंदाज लगा लिया था कि सहरसा जाने का मतलब है करीब 70 किलोमीटर जाना और फिर आगे सड़क का अंदाज भी नहीं था। लोगों ने कहा कि सखरा तक की सड़क भारतीय सीमा में शानदार बन चुकी है, बस नेपाल में दो-चार किलोमीटर खराब है। हमने सखरा जाने का फैसला किया।

कोसी पुल से थोड़ा पीछे होने पर(पश्चिम यानी मेरे घर की तरफ ही) भुतहा चौक पड़ता है जहां से कोसी के सामान्तार एक नई सड़क बन चुकी थी। हमने वो सड़क ली और करीब 20 किलोमीटर चले। बीच में छोटे-छोटे गांव, कच्चे मकान, कहीं-2 डीटीएच और थ्रेसर। भैंस का झुंड...बांस के पेड़ और अमराई। सड़क के पूरब इतराती हुई कोसी थी जिसने सड़क के साथ करीब 10 किलोमीटर तक हमारा साथ दिया। पानी काम था, बीच-बीच में बालू के टीले, किनारे से नकलती धारा, पलटी हुईं डोंगिया, मछली मारने के जाल और बालू निकालते ट्रैक्टर। कोसी का पूर्वी तट साफ दिख रहा था जहां इक्का-दुक्का जानवर चर रहे थे। कहीं-2 मीलों तक नदी के किनारे अथाह बालुका राशि...जिनपर तिनके भी बमुश्किल उगे थे। परती जमीन.. शायद मैला आंचल की जमीन सी।   

फिजां में गुलाबी ठंढ़क तैर रही थी। मन में था कि बीच में कहीं चाय पी लेंगे। लेकिन मीलों तक कहीं चाय की दुकान नहीं दिखी। हमने बच्चों से गांव का नाम पूछा तो कई बच्चों ने तो जवाब ही नहीं दिया। एकाध बच्चे स्कूल से लौट रहे थे, उन्होंने जो नाम बताया वो दिमाग से विस्मृत हो गए। मैंने अपने दोस्त से पूछा, यार बीस किलोमीटर में हजारों की आबादी तो फिर भी है लेकिन चाय की दुकान क्यों नहीं है?’ उसका जवाब था, शायद यहां के लोग इतने गरीब हैं कि चाय पीने की आदत नहीं है। हां, उन्होंने गुटखा खाना जरूर सीख लिया है इसलिए कहीं-कहीं परचून की छोटी सी दुकान में गुटखा मिल जाता है।

भारत-नेपाल सीमा के नजदीक कोसी हमसे छिटक कर उत्तर-पूरब की तरफ मुड़ गई थी और हम उत्तर-पश्चिम की तरफ चल रहे थे। इलाका बेतरतीब हो गया था। पता नहीं चला कि सरहद कहां है। उबर-खाबड़ जमीन थी, छोटे-छोटे पानी के नाले थे जो कोसी में मिलने जा रहे थे। काठ का एक पुल था जिसे सावधानी से पार करना था। तभी दूसरी तरफ मेरी निगाह गई। पुल के उस पार बांस के एक ऊंचे मचान पर एसएसबी का एक हथियारबंद जवान दूरबीन लिए दूर कुछ देख रहा था। हमें एहसास हो गया कि हम सरहद के आसपास हैं। हमने मचान के पास जाकर अपनी बाईक धीमी कर दी। उसने हमें हाथ से जाने का इशारा किया। फिर हमने एक साईकिल वाले से पूछा, नेपाल कहां है। उसने कहा, पांच सौ मीटर दूर।

अब सड़क बहुत खराब हो गई थी। नेपाल-भारत की सीमा बहुत खुली हुई है। हाल ही में आतंकी गतिविधियों के मद्देनजर एसएसबी की तैनाती की गई है जिनके कारनामों का विरोध यदाकदा गांववाले करते रहते हैं। सुना कि एक बार नगालैंड के जवानों की बहाली कर दी गई। उसके बाद इलाके से कुत्ते गायब हो गए। गांव वालों ने जबर्दस्त विरोध किया था। फिर उन्हें वहां से हटाना पड़ा।

बहरहाल, हम आगे बढ़ते गए। एक जगह तालाब के किनारे तीन-चार जवान हाथ में वाकी-टाकी लिए पेड़ के नीचे बैठे थे। ये भारतीय जवान थे। उन्होंने हमें जाने दिया। आगे नेपाली चेकपोस्ट था। गोरखा जवान बैडमिंटन खेल रहे थे। किसी ने हमें नहीं रोका। वे एक तरह से बेफिक्र थे कि उनका काम भारतीय ही कर रहे हैं। हमने एक बुजुर्ग से मैथिली में पूछा जो तालाब से नहाकर आ रहे थे, ये नेपाल है या भारत। उन्होंने कहा, बाबू अब आप नेपाल में हैं।हमने पूछा  कि सखरा देवी का मंदिर कितना दूर है तो उन्होंने बताया कि बस आ ही गए हैं।(जारी)

Tuesday, February 14, 2012

कोसी (पुल) कथा-5

कोसी पर पुल बनने से मधुबनी-दरभंगा में काफी खुशी थी। हर चौक, हर चौराहे पर कोसी पुल की चर्चा जरूर होती थी। जो वहां से पहले हो आए थे वे इसकी चर्चा उचित ही किसी दर्शनीय स्थल के रूप में कर रहे थे। कोसी पुल को देख आना अपडेट होने और बुद्धिजीवी होने की निशानी जैसा लगता था। पता नहीं उस पार कैसा माहौल था। हलांकि इतना तो तय है कि सुपौल-सहरसा के लोग भी जरूर खुश होंगे क्योंकि सबसे ज्यादा कोसी का प्रकोप उन्होंने ही झेला था।
कहते हैं कोसी के इलाके की मछलियों का स्वाद दरभंगा की मछली से अच्छा होता है। कोसी के पानी में और उसकी धाराओं में मछलियों के लिए आदर्श खाद्य पदार्थ होता है। पता नहीं ये कितना सच है। अगर ऐसा है तो वाकई कोसी की मछली मेरे इलाके में 300 रुपये किलो बिकेगी!

मेरे एक परिचित मजाक में कहते हैं कि कोसी पुल बन जाने से दरभंगा-मधुबनी के दूल्हों का भाव गिर जाएगा! इस इलाके में दहेज का जो दानव पिछले दशकों में मजबूत हुआ है उतना दहेज कोसी के पूरब नहीं है। क्या वाकई ऐसा है..? हो सकता है ऐसा हो। सुना है पहले के जमाने में भी लोग इस इलाके में शादी ब्याह करने को प्राथमिकता देते थे। कहते हैं कि मेरी मौसी जब आज से पचास साल पहले पूर्णिया ब्याही गई थी तो उनके ससुर का सीना गज भर चौड़ा हो गया था! आखिर उनके बेटे की शादी मधुबनी में पंचकोसी के ब्राह्मणों के घर जो हुई थी!(पंचकोसी-सौराठ के इर्दगिर्द के तथाकथित कुलीन ब्राह्मणों का इलाका!) हलांकि कुलीनता की ये परिभाषा अब फिजुल लगती है और धूमिल पड़ चुकी है। शायद इसकी एक वजह बीती सदियों में कोसी की विभिषिका झेल रहे उन इलाकों की तत्कालीन स्थिति हो!

दरभंगा में किसी ने कहा कि अब पूर्णिया महज ढ़ाई-तीन घंटा का मामला है। मिथिला का सबसे नजदीकी हिल स्टेशन दार्जिलिंग हो जाएगा। यानी दरभंगा में अगर चले तो महज 6 घंटे में दार्जिलिंग ! यानी अब हनीमून मनाना आसान हो जाएगा ! तो क्या दार्जिलिंग जैसी जगहों का सितारा फिर से चमकेगा ?

दरभंगा और सुपौल जबसे 1 घंटा की दूरी पर आ गया है लगता है दरभंगा के डॉक्टरों की आमदनी अभी और बढ़ेगी। कोसी के उस पार अच्छे मेडिकल कॉलेज नहीं हैं। अब बिहार सरकार ने मधेपुरा में एक मेडिकल कॉलेज बनाने का फैसला किया है, लेकिन उसे जमने में अभी कुछ वक्त लगेगा। इधर दरभंगा में एक प्रसिद्ध मेडिकल कॉलेज है और इस इलाके में वो स्वास्थ्य का सबसे बड़ा केंद्र बनकर उभरा है।

मेरे मित्र आशीष झा कहते हैं कि कोसी पुल ने मिथिला को सिर्फ भौगोलिक स्तर पर ही नहीं जोड़ा है। इसने मिथिला के सांस्कृतिक और मानसिक एकीकरण को भी मजबूत किया है। दोनो भाग अलग-अलग होने से लोग दरभंगा-मधुबनी-समस्तीपुर को तो मिथिला कहने लगे थे लेकिन सहरसा-सुपौल-मधेपुरा को कोसी कहने लगे थे। अब ये धारणा धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। मिथिलांचल फिर से मिथिलांचल हो जाएगा। कोसी महासेतु से करीब 30 किलोमीटर दक्षिण भी कोसी पर बलुआ घाट के नजदीक एक पुल बन रहा है और उससे भी आगे एक और पुल। यानी कोसी पर कई पुल बन रहे हैं। कहते हैं कि बलुआ घाट पुल बन जाने से सहरसा और कुशेश्वरस्थान आस-पास हो जाएंगे। तो क्या इस तरह के पुल अपने भीतर एक बड़े राजनीतिक आन्दोलन की संभावना को हवा नहीं देंगे?

एक अलग मिथिला राज्य का ढ़ीला-ढ़ाला आन्दोलन बरसों से चल रहा है लेकिन उसमें फिलहाल उतनी धार नहीं है। आम जनता उसे अक्सर ब्राह्मणों का आन्दोलन मानती है, लेकिन धीरे-धीरे इसमें समाज के दूसरे वर्ग भी शामिल होते जा रहे हैं। जब से छोटे राज्यों के समर्थन में ज्यादा चर्चा होने लगी है, उसका अप्रत्यक्ष असर मिथिलांचल के लोगों पर भी पड़ता ही है। पता नहीं आगे यह आन्दोलन कितना मजबूत होगा। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि कोसी पुल उस आन्दोलन को जरूर मजबूती प्रदान करेगा। गौर करनेवाली बात ये भी है कि ये कोसी पुल का ही उद्घाटन था जब प्रधानमंत्री वाजपेयी ने मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसुची में शामिल करने का वादा किया था। उस हिसाब से इस पुल ने अपने उद्घाटन के साथ ही इस इलाके की भाषा को संवैधानिक दर्जा दिला दिया था!

वैसे भी किसी नए राज्य के बनने में दशकों लग जाते हैं। इतना तय है कि आनेवाले दशकों में अगर बिहार के इस हिस्से का उचित विकास नहीं हुआ या बिहार में क्षेत्रीय विषमता पैदा हुई तो एक नए सूबे की मांग को रोकना असंभव हो जाएगा।(जारी)

Sunday, February 5, 2012

कोसी (पुल) कथा-4

कोसी पुल तक जाने के लिए हम फुलपरास से होकर गए थे जो कोसी से करीब 20 किलोमीटर पश्चिम है। इसका जिक्र हमने पहले भी किया है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है फुलपरास का नाम पलाश से पड़ा है। कहते हैं कि यहां कभी पलाश के पेड़ों का घना जंगल था। पिताजी बताते हैं कि उनके बचपने तक पलाश के जंगल तो गायब हो चुके थे लेकिन करीब सौ साल पहले तक फुलपरास से लेकर उत्तर में हिमालय की तलहटी तक(नेपाल में) वनों की एक श्रृंखला फैली हुई थी जिसमें हिंसक जानवर बिचरते थे ! ऐसा ही मेरे गांव से एक किलोमीटर दक्षिण बलिराजगढ़ के किले में भी था। वहां भी घने जंगल थे। यानी बहुत दिन नहीं हुए जब हमारे इलाके में भी घने जंगल थे, जानवर थे। आज उनका नामोनिशान नहीं मिलता।

पिछले सौ सालों में सारे जंगल खेत में तब्दील हो चुके हैं और नदियां कुछ ज्यादा ही उफनने लगी हैं। ये वहीं इलाके हैं जहां हर दस-बीस किलोमीटर के बाद कोई न कोई नदी हिमालय से निकलकर गंगा की तरफ आती है और अब तो कुछ ज्यादा ही गुस्से में आने लगी है। जंगलों के गायब होने का ये स्वभाविक नतीजा है। पहले जंगलों की वजह से पहाड़ से पानी धीरे-धीरे मैदान में उतरता था। लेकिन अब वो सुरक्षा कवच गायब हो चुका है।

बहरहाल, फुलपरास में पलाश के जंगल थे, तो क्या पहले पलाश के पेड़ इस इलाके में बहुतायत से पाए जाते थे? पलाश से पलासी याद आती है जहां हुई एक लड़ाई ने भारतीय इतिहास की धारा बदलकर रख दी थी। लेकिन हमारा फुलपरास भी कुछ कम नहीं। इसने भी बिहार की राजनीतिक धारा को अपने तरीके से प्रभावित किया है। राजनीतिक रूप से अति-जागरुक यह क्षेत्र बिहार में समाजवादियों का गढ़ रहा है। कद्दावर समाजवादी नेता और एक तरह से लालू-नीतीश-पासवान के राजनीतिक गुरु कर्पूरी ठाकुर जब निर्णयात्मक रूप से दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तो फुलपरास ने ही उन्हें चुनकर विधानसभा पहुंचाया था। कर्पूरी उस समय सांसद थे और फुलपरास के तत्कालीन विधायक देवेंद्र प्रसाद यादव(जो बाद में कई बार सांसद और केंद्रीय मंत्री भी बने। वे उस बार पहली दफा विधायक बने थे।) ने उनके लिए फुलपरास सीट से इस्तीफा दे दिया था। कहना न होगा कि बिहार के पिछड़ों-दलितों में राजनीतिक चेतना जगाने का जो काम कर्पूरी ठाकुर ने किया, वह भी एक कारण था कि नब्बे के दशक तक आते-आते पिछड़े दलित बिहार की राजनीति के केंद्रविंदु बन गए।

जिक्र देवेंद्र प्रसाद यादव का आया तो यहां एक बात लिखनी जरूरी है। दरभंगा-मधुबनी-सुपौल से होकर ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर और इसी वजह से कोसी पर सड़क पुल बनवाने की योजना में देंवेंद्र प्रसाद यादव का अहम योगदान था। वे उस समय झंझारपुर के सांसद थे। कहते हैं कि वाजपेयी सरकार जब ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर का खाका खींच रही थी तो कुछ राजनेता और नौकरशाह इसे मुजफ्फरपुर-बरौनी-खगड़िया से होकर ले जाना चाहते थे। लेकिन देवेंद्र यादव ने कई सांसदों का समर्थन जुटाकर और मजबूत तर्कों के आधार पर वाजपेयी सरकार को इस बात के लिए मनाया कि इलाके के पिछड़ेपन को देखते हुए ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर दरभंगा-मधुबनी-सुपौल से ही जाना चाहिए। और ऐसा ही हुआ। लेकिन इस हाईवे के लिए जो श्रेय देवेंद्र प्रसाद यादव को मिलना चाहिए था, वो उन्हें नसीब नहीं हुआ। लोगबाग सिर्फ वाजपेयी या नीतीश की चर्चा करते हैं देवेंद्र यादव की लोग चर्चा भी नहीं करते !

नदियों से अंटे पड़े इस इलाके का जिक्र हमने पहले भी किया है। सुगरवे, तिलयुगा और भुतही बलान का जिक्र हम कर चुके हैं। हाईवे जिधर से गुजरती है कोसी से पहले एक चौक का नाम ही भुतहा चौक है। पल-पल रंग बदलनेवाली नदियों और विनाशकारी बाढ़लानेवाली धाराओं के इलाके में ऐसे नाम होने अस्वभाविक नहीं हैं। यहां हम कलात्मक, सजे-धजे, और गढ़े हुए नामों की उम्मीद भी नहीं कर सकते। न ही किसी रजवाड़े, कुंअंर या जमींदार के नाम पर किसी खूबसूरत नगर या पुर की कल्पना !

हमने इससे पहले नरहिया बाजार का भी जिक्र किया था जिसे पूरब से कोसी ने और पश्चिम से भुतही बलान ने काटकर तबाह कर दिया था। वह बाजार इतिहास के अनलिखे अध्यायों में विलीन हो गया। नरहिया नामके पीछे भी एक दंतकथा है। कहते हैं कि इस जगह का नाम इतिहास में हुए किसी भीषण नरसंहार के नाम पर पड़ा है। किसी इलाकाई सरदार ने तत्कालीन शासक के खिलाफ बगावत की थी। पता नहीं वो बगावत दरभंगा महाराज के खिलाफ थी या उससे भी पहले के किसी शासक के खिलाफ। नरहिया से होकर कोसी पुल की तरफ जाते हुए बरबस ही वो लोककथा याद आ गई। मैं पुल की तरफ जाते हुए एक-एक गांव के बारे में जानना चाहता था जो नदियों की अठखेलियों के शिकार हो गए थे।(जारी)

Friday, February 3, 2012

कोसी (पुल) कथा-3

कोसी नदी मधुबनी-सुपौल की सीमा नहीं है, बल्कि सुपौल से ही होकर बहती है। कोसी के पश्चिम तक सुपौल जिला है। निर्मली, सुपौल जिला में ही पड़ता है, यों नदीं होने के कारण वहां के लोगों के लिए जिला मुख्यालय जाना काफी मुश्किल भरा काम था। निर्मली, कोसी के पश्चिम में है जबकि सुपौल कोसी से पूरब। उस तुलना में दूरी होने के बावजूद निर्मली से मधुबनी-दरभंगा जाना ज्यादा आसान था। अब पुल बनने के कारण सुपौल का अपने जिला मुख्यालय से जुड़ाव सही हो गया है।
हाईवे नंबर 57( ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर) से निर्मली करीब 7 किलोमीटर दक्षिण में है और वहां तक जाने के लिए अच्छी सड़क बन गई है। समय की कमी की वजह से मैं निर्मली नहीं जा पाया। वो पुरानी रेल लाईन जो सन् 1934 के भूकंप में ध्वस्त हो गई थी, निर्मली तक ही थी। उस पार भपटियाही था। इसे दरभंगा-निर्मली रेलखंड बोलते हैं, जो छोटी लाईन की है। उस पर नियमित रेलगाडिया चलती हैं। अब कोसी पर नया रेल पुल भी बन रहा है जिसके बाद से ये लाईन बड़ी लाईन हो जाएगी।
मेरे कोसी पुल तक जाने की कई वजहें थी। नदी और पुल को देखने के अलावा हाल के सालों में उधर से एक संबंध भी बना था। मेरे बहनोई का पुश्तैनी गांव उधर ही था, जिसे सन् 70 के दशक में कोसी पूरी तरह लील गई थी। उस गांव का नाम बनैनियां था(है?)। कहते हैं बनैनियां उस इलाके का एक प्रसिद्ध गांव था जहां कई नामी-गिरामी लोग पैदा हुए थे। मेरी दीदी के श्वसुर गुणानंद ठाकुर सहरसा से सांसद भी रहे। इसके अलावा हिंदी-मैथिली के साहित्यकार मायानंद मिश्र, इनकम टैक्स कमिश्नर सीताराम झा उसी गांव के थे जिनका नाम पूरे इलाके भर में था। जब कोसी ने उस गांव को लीलना शुरु किया तो वहां के लोग जहां-तहां पलायन कर गए। जिसको जहां ठिकाना मिला वहीं बस गया। सरायगढ.सहरसा, सुपौल, पटना, दिल्ली, बंबई आदि शहरों में वहां के लोग पलायन कर गए।
जब भी मैं दिल्ली में अपने बहनोई के घर जाता तो उनकी मां भाव-विह्वल होकर बनैनिया का जिक्र करती ! वे अपनी घर, आम के बगीचे, तालाब, मंदिर का जिक्र करती। उनकी बड़ी बेटी की शादी गांव से ही हुई थी। उनकी मंझली बेटी बतातीं कि कैसे उनके घर के सामने आम के पेड़ से लगा एक झूला हुआ करता था जहां बचपन में वे लोग खेलते थे! उस गांव में उनके पचासो बीघे जमीन थे, वे सब नदी के पेट में समा गए। देखते ही देखते लोग राजा से रंक हो गए। सुना की हाल के दिनों में नदी के पेट से बनैनिया के कुछ जमीन बाहर आए हैं। उनका पुराना बटाईदार कभी-2 दिल्ली आता तो बताता कि कुछ जमीन बाहर निकला हैं। उनकी आंखों में एक चमक सी आ जाती! वे फिर से कल्पना करते कि शायद कभी वे अपने पुरखों की जमीन को देख पाएंगे! उन्होंने मुझसे कहा भी था कि अगर मैं उस तरफ जाऊं तो जरा बनैनिया का थाह लूं कि क्या वो पानी से वाकई बाहर निकल आया है ?

जब मैं को
सी पुल पर था तो मैंने कुछ लोगों से पूछा कि बनैनियां कहां हैं? नए लोगों को इसके बारे में ज्यादा पता नहीं था। एक पुराने बुजुर्ग मिले जिन्होंने इशारे से बताया कि वो पुल से उत्तर बीच पानी में कहीं होगा। वे मेरी दीदी के ससुर को जानते थे। उन्होंने कहा कि नेताजी का घर उसी जगह था। वहां कोसी का पानी हिलोड़ मार रहा था। हम पुल के पूर्वी छोड़ तक गए जहां नया तटबंध बना दिया गया है। उस पार की जमीन वर्तमान में पानी से बाहर सुरक्षित हो गई है। हाईवे के नीचे तटबंध के पूरब उस खाली जमीन पर बस्तियां पनप आई थीं। वहां सौ-दो सौ के करीब झोपड़ियां उग आई थीं। बिल्कुल नए-नए साल दो साल के बने घर। कुछ पान के खोखे..कुछ चाय की दुकानें...। उस गांव का नाम इटरही था। वह गांव पुराने बनैनियां से करीब 2-3 किलोमीटर उत्तर था। उस गांव की ये खुशनसीबी थी कि वो नए तटबंध से बाहर आ गया, लेकिन बनैनियां इतना खुशनसीब नहीं था। वो पानी के पेट में ही पड़ा रहा गया, और शायद स्थायी रुप से इतिहास और विस्मृति के गर्भ में भी।
कुल मिलाकर उस समय मुझे वो गांव कहीं नजर नहीं आया। हां, दूर पानी में कुछ जमीन उग आए थे। उस पर कुछ घर बन गए थे। जीवन का संचार दिख रहा था। लेकिन वो जमीन बिल्कुल कोसी के पेट में थी। दोनो तरफ कोसी की धाराएं और बीच में वो जमीन और उस पर कुछ घर...। तो क्या यहीं बनैनियां थी? मैं निश्चित नहीं हो पाया। दिल्ली आकर गूगल मैप पर देखा तो किसी जानकार व्यक्ति ने विकिमैपिया पर उसी उग आई आबाद जमीन को बनैनिया के नाम से चिह्नित किया था। लेकिन अथाह जलराशि के बीच में उस सौ-दो सौ एक एकड़ उथली जमीन का क्या मतलब था...? क्या कभी वो जिंदा हो पाएगा..? क्या कोसी फिर से उसे नहीं लील जाएगी..? लोगों की जीवटता देखकर आश्चर्य हुआ कि फिर भी कुछ लोगों ने उस पर अपने घर बना लिए थे। वे धारा पारकर सरायगढ या भपटियाही जाते हैं लेकिन बाढ़ के दिनों में वे क्या करते होंगे...?
दीदी की सास ने बताया कि जो लोग संपन्न थे वे लोग तो सहरसा, सुपौल या दिल्ली स्थायी रुप से पलायन कर गए, लेकिन गरीब लोगों ने कोसी के पुराने तटबंध पर ही अपना डेरा डाल लिया। उनके पास कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। वे दशकों से उम्मीद में थे कि शायद कभी कोसी मैया उनके जमीन को आजाद करेगी। ज्योंही वो जमीन निकली, लोग फिर से वहां पहुंच गए। लोगों की जीवटता देखकर मैं दंग रहा गया। नदी किनारे रहनेवाले लोग कितने जीवट होते हैं, पहली बार मुझे इसका एहसास हो रहा था! हाहाकारी बाढ़ लानेवाली नदी के पेट में कोई गांव पनप सकता है, और वहां लोग दशकों-सदियों तक रह भी सकते हैं इसकी कोई कल्पना नहीं थी!
कोसी से लौटकर जब गांव आया था तो छोटी दादी ने वहां का हाल पूछा था। मैंने बनैनिया का जिक्र किया तो उन्होंने पूछा कि नकटा हुलास नामका गांव उधर ही कहीं था। वो बनैनियां से पंद्रह-बीस किलोमीटर दक्षिण था। उसे भी कोसी ने साठ के दशक में लील लिया था। दादी के रिश्ते में कोई भाई वहां से उनके गांव आकर बस गए थे। दादी के पिता ने उन्हें गांव में कुछ जमीन दे दी थी। दादी इसी तरह के कई गांवों का जिक्र कर रही थीं जो कोसी के पेट में समा गए थे। उनकी आखों में उनके रिश्तेदारों का दर्द मैं महसूस कर पा रहा था। शायद इसी तरह मुल्क के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से पंजाबी शरर्णार्थी आए थे। गुजराबालां की याद शायद ऐसी ही होगी। बंटवारे के बाद आए शरणार्थियों के लिए तो सरकार ने व्यापक पुनर्वास की योजना भी बनाई, लेकिन क्या कोसी जैसी नदियों द्वारा शरणार्थी बना दिए गए लोगों का कोई पुनर्वास हो पाया ? पता नहीं सरकार ने उनकी कितनी मदद की और उन तक कितनी मदद पहुंच पाई। यह अभी भी एक शोध का विषय है।

इधर सरकार ने कोसी को नए तटबंधों में जकड़कर समेटने की कोशिश की है। इससे पुल के नजदीक कोसी का पाट थोड़ा छोटा हो गया है। पुल की लंबाई लगभग ढ़ाई किलोमीटर ही है, जबकि कोसी का पुराना पाट करीब 6-7 किलोमीटर से कम का क्या रहा होगा। पता नहीं भविष्य में इसका क्या नतीजा होगा। क्या वो पुल और उसके नए तटबंध भविष्य में पानी के दवाब को झेल पाएंगे? कोसी का चरित्र पश्चिम की तरफ खिसकने का रहा है और इसकी वजह ये है कि उसमें सिल्टिंग काफी होती है। अगर वो नदी जिसे पुल के नजदीक समेटकर महज ढ़ाई किलोमीटर का कर दिया ग्या है, पश्चिम की तरफ दवाब बनाती है और खिसक जाती है तो पुल का क्या मतलब रह जाएगा...? यह कल्पना ही अपने आप में दिल-दहला देने वाली है। हाल ही में कोसी ने अपना रूप दिखाया था जब कुसहा के नजदीक उसके तटबंध टूटे थे।
बहरहाल, जश्न के इन पलों में इस भयानक कल्पना का जिक्र असहज बना देता है...लेकिन पुल पर खड़ा होकर मैं इस कल्पना को अपने जेहन में आने देने से रोक नहीं पा रहा हूं...। (जारी)

Tuesday, January 24, 2012

कोसी(पुल)कथा-2


एक जमाना था जब दोनों इलाके रेललाईन से जुड़े हुए थे। निर्मली से भपटियाही रेललाईन थी। लेकिन सन् 1934 के भूंकंप में वो पुल भी टूट गया। फिर तो सारा कुछ बर्बाद हो गया। तमाम पुराने संबंध खत्म होते गए। दरभंगा-मधुबनी वालों के लिए सहरसा-पूर्णिया की चर्चा दंतकथा जैसी हो गई। मेरी दादी बताती थी कि उस पार परसरमां की एक काकी थीं, उधर चैनपुर नामका कोई गांव था। हम गौर से उन गावों का नाम सुनते और कल्पना करते कि वे गांव कहां होंगे। हम बनगांव-महिषी का नाम सुनते और वहां की प्रसिद्ध उग्रतारा भगवती की कहांनियां सुनते। कोई दूर के संबंधी उधर से आते तो बनगांव के संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं की कहानी सुनाते। हवा का कोई ताजा सा झोंका आता।

लेकिन हम चाहकर भी उस पार आसानी से नहीं जा पाते। सहरसा या पूर्णिया जाने का मतलब था पांच जिला पार कर के जाना। ट्रेन या बस से जाने का मतलब था लगभग 18-20 घंटे का सफर। ऐसा ही उस पार के लोगों के लिए भी था। दिल्ली जाना आसान लगता था, लेकिन पुर्णिया जाना दुरुह। हम रेणु का मैला आंचल पढ़कर अंदाज लगाते कि फारबिसगंज कैसा होगा। पुरनिया कैसा होगा। श्रीनगर, चंपानगर स्टेट, गढ़बनैली स्टेट, कुमार गंगानंद सिंह...सिंहेश्वर स्थान.. मैथिली-हिंदी के ढ़ेरों प्रसिद्ध साहित्यकार उधर से हुए। हिंदी-मैथिली के प्रसिद्ध साहित्यकार राजकमल चौधरी महिषी के ही थे।

पिताजी की एक बुआ उधर ही ब्याही थी, परिहारी गांव में। शायद अब अररिया में है। दादाजी अक्सर उस पार जाते, बताते कि उधर पटुआ(पटसन) की खेती बहुत होती है। किसानों के पास बहुत जमीन हैं। बड़े जमींदार हैं, लेकिन साथ ही ये भी बताते कि इलाका
थोड़ा पिछड़ा हुआ है। सड़के खराब हैं...और लोग मोटा खाते-पहनते हैं ! ये बातें उस वक्त समझ में नहीं आती थी। हम
मधुबनी-दरभंगा के लोग अपने आपको थोड़ा ऊंचा समझते! अकड़ में रहते! कोसी के इलाके को हमारे इलाके के लोगों ने कोसिकंधा बना दिया!

दरभंगा वालों ने उन्हें हमेशा कम करके आंका। एक श्रेष्टतावोध उन पर हमेशा हावी रहा!शायद ऐसा मैथिली साहित्य में भी हुआ। दरभंगा और सहरसा वालों में अक्सर शीतयुद्ध चलता रहता। दरभंगा वाले अक्सर अपनी मैथिली को मानक मैथिली साबित करने की कोशिश करते। वे उधर की मैथिली पर नाक-भौं सिकोरते। दुर्भाग्यवश कमोवेश अभी भी वैसी ही मानसिकता है।
ये बातें बचपमें भेजे में अंटती नहीं थी। हमें क्या पता था कि कोसी ने बीती सदियों में उस इलाके का ये हाकर दिया है कि हमारे इलाके के लोग उसे कोसिकंधा कहने लगे।पिछली ढ़ाई शताब्दियों में कोसी करीब 120 किलोमीटर खिसक कर पश्चिम आ गई।पिछली बार यह चालीस के दशक में पश्चिम की तरफ खिसकी थी। यानी इसने करीब 8 बार अपनी धारा बदली। सैकड़ों गांव, हजारों-लाखों लोग बेघर हो गए।जमीन रेत से पट गई। तो फिर उस इलाके का क्या हाल हुआ होगा...?
आजादी के बाद कुछ कोशिशें हुई, लेकिन कामयाब नहीं हो पाई। पचास के दशक में नेपाल के साथ एक समझौता करके कोसी पर तटबंध बनाने की शुरुआत हुई। कोसी की भुजाओं में मानो हथकड़ी डाल दिया गया। साठ के दशक में प्रसिद्ध नदी घाटी परियोजना कोसी प्रोजेक्ट शुरु हुई। मेरे गांव से होकर पश्चिमी कोसी नहर की मुख्य शाखा जाती है। इसे सन् 1983 में पूरा हो जाना था। तीस साल होने को आए, लेकिन वो आज तक नहीं बन पाई। सुना कि पूर्वी कोसी नहर लगभग
कामयाब हो गई। अगर ठीक से शोध किया जाए तो पश्चिमी कोसी नहर की विफलता बिहार के भ्रष्टाचार की कहानियों में शीर्ष स्थान हासिल करेगी।
लेकिन लाख प्रयासों के बावजूद कोसी पर फिर से पुल नहीं बनाया जा सका। न तो रेल पुल, न ही सड़क पुल। इस तथ्य के बावजूद कि सूबे पर लंबे समय तक राज करनेवाला और राजनीति को प्रभावित करनेवाला एक प्रमुख परिवार उसी इलाके से आता था। पूर्व रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र को इलाके में काफी प्रतिष्ठा मिली-खासकर मधुबनी-दरभंगा में। कहते है कि उन्होंने कोसी पर फिर से रेल पुल बनवाने की कोशिश भी की थी। लेकिन इसमें वे कामयाब हो पाते, इससे पहले ही वे दुनिया से कूच कर गए। उनके मुख्यमंत्री भाई ने फिर उस इलाके की तरफ बहुत ध्यान नहीं दिया।
करीब एक दशक पहले जब अटल बिहारी वाजपेयी ने कोसी पुल का शिलान्यास किया तो अचानक एक उम्मीद सी जगी। सदियों की प्यास मानों जिंदा हो उठी। सन् 2012 में अब वो जुड़ाव पूरा हो गया है। कोसी पुल के साथ बिल्कुल उससे सटे हुए रेल पुल का भी निर्माण हो रहा है। राजनीतिक कारणों से उसमें विलंब हो रहा है। मैं पुल पर ख़ड़ा होकर सोच रहा हूं कि अगली बार चाय पीने पुरनियां जरुर जाऊंगा। या फिर अपने जैसे यार मिल गए तो सिलीगुड़ी तक जाऊंगा। उस पार से छोटी बसों और टैक्सियों में सबार होकर कुछ झुंड के झुंड स्कूली बच्चे कोसी पुल देखने आ रहे हैं। कभी पंडित नेहरु ने कल-कारखानों और पुलों को आधुनिक भारत का तीर्थ कहा था। ये बच्चे उसी तीर्थ को देखने आए हैं। उनकी आंखों की चमक में मैं इस इलाके का सपना ढ़ूंढ रहा हूं। वो सपना मुझे साफ दिखाई दे रहा है। (जारी)