Wednesday, February 20, 2008

इतिहास के दोराहे पर नेपाल.........

नेपाल की समस्या अभी तक सुलझ नहीं सकी है और शांति के राह में बाधाएं खत्म नहीं हुई है। माओवादियों द्वारा युद्ध विराम की घोषणा और चुनाव में भाग लेने का फैसला ही सिर्फ शांति का गारंटीकार्ड नहीं है। आज नेपाल, इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां से एक तरफ स्थिरता और विकास के तमाम रास्ते खुलते हैं तो दूसरी तरफ बर्बादी का अथाह समंदर है। दरअसल नेपाल, भारत और चीन की क्षेत्रीय महात्वाकांक्षाओँ का शिकार हो गया है। लेकिन ये इसकी असली बीमारी नहीं है। नेपाल जैसे देशों की कोई भी समस्या भारत से ही शुरु होती है और भारत में ही जाकर खत्म भी होती है।
नेपाल के इतिहास की थोड़ी सी पड़ताल करें तो असली समस्या तब शुरु हुई जब भारत की आजादी के कुछ ही समय बाद नेपाल में वर्तमान शाह राजवंश को भारत सरकार की मदद से पुनर्स्थापित किया गया-इससे पहले लगभग सौ सालों तक वास्तविक सत्ता राणा परिवार ने हथिया रखी थी। १८४४ में महल हत्याकांड के बाद राणा जंगबहादुर ने सत्ता अपने हाथों में ले ली थीं और सन सत्तावन के भारतीय विद्रोह के समय अंग्रेजों के सबसे काबिल चमचों में उसका नाम सिंधिया और सिख रजवारों के साथ आता है। लेकिन भारत की आजादी के बाद भारत ने अपने देश में तो लोकतंत्र को बढ़ावा दिया, लेकिन नेपाल की ओर से आंखे मूंद ली। नेपाल में निरंकुश राजतंत्र को फलने-फूलने का भरपूर मौका दिया गया-एक ऐसे देश द्वारा जो खुद को लोकतंत्र का अगुआ मानता था। गौर कीजिए- भारत ने दक्षिण अफ्रिका और म्यांमार को लंवे अर्से तक इसी बिना पर वहिष्कृत किए रखा, लेकिन पड़ोस की घटनाएं भारत के लिए क्षम्य बन गई। और इस शुतुरमुर्गी रबैये का खमियाजा भारत को भुगतना ही था।
दरअसल भारत ने अपनी विग व्रदर बाली भूमिका का निर्वाह करते हुए नेपाल की छोटी-मोटी जरुरतों का तो ख्याल रखा, लेकिन अपनी सुरक्षा के नाम पर कई एकतरफा संधि भी किए जिसका नेपाल की जनता के एक छोटे से लेकिन प्रभावशाली तबके ने सदा विरोध किया। नेपाल में एक परजीवी एलीट का विकास होता रहा जिसकी फैंटेसी भारत के बड़े शहरों में बसने की होती थी और जिनके बच्चे आईआईटी में पढ़ने का ख्वाब देखते थे। और राजा इस तबके का नेता हुआ करता था। जनता को इस दर्जे तक अशिक्षित और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से दूर रखा गया था कि राजा ही बिष्णु अबतार था शायद बिष्णु का ग्यारहवां अबतार। भारत का सत्ताधारी वर्ग सोंचता था कि एक कमजोर नेपाल और उसका कमजोर नेतृत्व बड़ी आसानी से काबू में रह सकता है। किसी लोकतांत्रिक नेता से बात करने की तुलना में तानाशाह या राजा टाइप के नेता से बात मनबाना बड़ी ताकतों के लिए हमेशा से आसान रहा है।
लेकिन एक ऐसे देश में, जो दुरुह घाटियों से भरा पड़ा हो और जिसके दोनों तरफ दो विशाल विकासशील और गतिशील देश हों, यह लगभग असंभव ही है कि ज्यादा दिन तक उस देश में युग-सत्य न पहुंचे। कायदे से भारत को पचास के दशक से ही नेपाल में एक स्वस्थ और गतिशील लोकतंत्र के प्रयास करना चाहिए था और ऐसा न करके भारत ने राजनीति की लगभग सारी जमीन ही किसी बैकल्पिक ताकत के खाली छोड़ दी और माओवादियों ने इसे सिर्फ दस सालों में भर दिया। लेकिन सवाल सिर्फ राजशाही के खात्मे और बैकल्पिक शासन व्यवस्था की नहीं है- नेपाल में कई अन्य विवाद भी हैं। नेपाल की आवादी में भारत से गये लोगों या भारतवंशियों की संख्या उसकी कुल आवादी का लगभग ४८ प्रतिशत है औप पहाड़ी लोगों की जनसंख्यया ५२ फीसदी है। जबकि प्रशासन में मधेशी १० फीसदी भी नहीं है। नेपाल का राज परिवार मधेशी मूल का है और अपनी सत्ता बचाने के लिए उसने शताव्दियों से पहाड़ियो का तुष्टीकरण किया है। मधेशी अभी तक राजा को अपना मानते थे-पहाड़ी इसलिए शान्त थे क्योंकि सत्ता में उनका सीधा दखल था। आश्चर्य की बात तो यह है कि धुर कम्युनिस्ट माओवादियों के दल में भी मधेशी बहुत कम हैं। नेपाल के सभी दलों में पहाड़ियों का दबदबा है। तो ऐसे में चुनाव होता भी है तो मधेशियों के साथ कितना न्याय हो पाएगा? क्या उन्हे युगों तक फिर अपने अधिकारों के संघर्ष नहीं करना पड़ेगा?
यहीं वह बिन्दु है जहां राजा अपने को फिर से मजबूत पाता है और उसने अपने पत्ते चल भी दिए हैं। तराई में मधेशियों का अांदोलन शुरु हो गया हैं। नेपाली कांग्रेस, नेपाली सेना, भारत और अमरीका पहले से ही राजा के समर्थक हैं-कम से कम सांविधानिक राजतंत्र तक तो जरुर ही।अगर मधेशी आंदोलन जोर पकड़ता है जिसकी संभावना ज्यादा है( उनकी संख्या को देखते हुए) तो ये माओवादियों के लिए बहुत बड़ा धक्का होगा और शोषितों व दलितों के बीच बहुत मेहनत से बनाया गया उनका आधार दो फाड़ हो जाएगा। दरअसल तब राजा नाम की संस्था ही वो विकल्प रह जाएगी जिस पर पहाड़ी और मधेशी दोनों ही भरोसा कर सकते हैं। और यहीं नेपाल नरेश की दिली इच्छा है और भारत -अमरीका की भी। भारत के हित में चीन को नेपाल की राजनीति से बाहर रखने का अभी यहीं एकमात्र उपाय है जिसपर अमल होना चाहिए, हलांकि भारत काफी देर से जागा है। चीन की विराट सैन्य और आर्थिक ताकत नेपाल में इतनी जल्दी शांति होने देगी, मानना मुश्किल है। लेकिन भारत अगर अभी भी नेपाल नरेश को काबू में रखकर दृढ़ता और इमानदारी से नेपाल में लोकतंत्र बहाल करवाए- तो बाजीं अभी भी अपने हाथ में है।

3 comments:

Manjit Thakur said...

क्या नेपाल के मधेशी भारत में विलय होने की संभावना के बारे मं सोच रहे हैं। क्या उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के हिस्से, नेपाल के तराई वाले मधेशी बहुल इलाकों - यानी जहां-जहां गोबरपट्टी का फैलाव कूता जा सकता है- वहां तक... क्या एक अलग देश के बारे में सोचा जा सकता है। ताकि राज ठाकरे जैसा या असम, मणिपुर में हिंदीभाषियों के कत्ल जैसा वाकया सामने न आ सके।

Manjit Thakur said...

ब्लाग पर बदलाव काबिले तारीफ है। सुंदर परिवर्तन.. सकारात्मक .. लेकिन आपको दोस्तों में महज बाबा और राजीव याद हैँ। ऋषि भाई की कविताओं को कैसा ग्रहण लगा है?

Manjit Thakur said...

ब्लाग पर बदलाव काबिले तारीफ है। सुंदर परिवर्तन.. सकारात्मक .. लेकिन आपको दोस्तों में महज बाबा और राजीव याद हैँ। ऋषि भाई की कविताओं को कैसा ग्रहण लगा है?