Saturday, July 11, 2015

बिहार विधान परिषद चुनाव: जाति समीकरण और धन-बल का असर

बिहार विधान परिषद की 24 सीटों में से भाजपा गठबंधन ने 13 और जद-यू -राजद महा-गठबंधन ने 10 सीटों पर विजय हासिल की। एक सीट निर्दलीय के खाते में गई जो लालू प्रसाद के अतिशय करीबी हैं। कुल मिलाकर एक लाइन की स्टोरी ये है कि लालू-नीतीश-कांग्रेस के महा-गठबंधन के मनोबल को भारी झटका लगा है-हालांकि वे अभी मोर्चा हारे हैं। जंग बाकी है। 

विधान परिषद या इस तरह के चुनावों में सत्ताधारी दलों का एक निश्चित प्रभाव रहता है। उस हिसाब से राजद-जद-यू को अवधारणात्मक बढत हासिल थी और वे विराट समाजिक गठबंधन भी प्रोजेक्ट कर रहे थे। ऐसे में यह चुनाव जद-यू-राजद-कांग्रेस महाजोट के लिए अपशकुन है। 
इस चुनाव के संबंध में कुछ बातें समझनी जरूरी हैं। बिहार विधान परिषद में कुल 75 सीटें हैं जिन्हें अलग-अलग तरीकों से भरा जाता है। आज जिन 24 सीटों का परिणाम आया( 1 को छोड़कर) उन्हें स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों द्वारा चुना गया है जिसमें ग्राम-पंचायत सदस्यों और नगरपालिका/निगम/विकास प्राधिकार/नगर पंचायत आदि के सदस्य चुनते हैं। इस बार बिहार में ऐसे स्थानीय निकाय वाले वोटरों की कुल संख्या करीब 1 लाख 39 हजार थी जिनमें से 50 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए रिजर्व हैं। स्थानीय निकायों में नियमानुसार दलितों और पिछड़ी जातियों के लिए भी सीटें रिजर्व हैं।
बिहार में चूंकि शहरीकरण देश में संभवत: सबसे कम है (करीब 12 फीसदी) तो ऐसे में इन वोटरों में भी लगभग 15 फीसदी वोटर ही शहरी थे।
जिन 24 सीटों पर चुनाव हुए थे उनमें पहले 15 सीटें जेडी-यू के पास, 4 राजद के पास और 5 भाजपा के पास थीं। यानी अभी के हिसाब से नीतीश के महाजोट के पास 19 सीटें थीं जो घटकर 9 रह गई हैं। भाजपा के पास 5 थीं जो बढ़कर 13 हो गई हैं। यों, जेडी-यू ने जब 15 सीटें जीतीं थीं तो वो उस समय भाजपा की जोड़ीदार थीं।

कहना न होगा कि भाजपा ने अपने दम पर जबर्दस्त प्रदर्शन किया है। भाजपा 18 पर लड़ी थी उसमें उसे 13 पर जीत हुई। उस हिसाब से उसका स्ट्राइक रेट लोकसभा जैसा ही है। जबकि पिछले साल हुए विधानसभा उपचुनाव में वो 10 में से 4 सीटें ही जीत पाई थीं। भाजपा की सहयोगी लोजपा 4 पर और रालोसपा 2 पर लड़ी थी। लोजपा महज एक सीट जीत पाई जबकि रालोसपा शून्य पर अटक गई जिसके नेता उपेंद्र कुशवाहा भी गाहे-बगाहे बिहार की सरदारी का दावा ठोकते रहते हैं।
इस चुनाव में जनता सीधे मतदान तो नहीं करती, हां उसकी नजरों के सामने लगभग हमेशा रहनेवाले प्रतिनिधि जरूर मतदान करते हैं। थोड़ा-थोड़ा वृहत रूप में राज्यसभा जैसा मामला होता है-लेकिन इसे राज्यसभा से इस मामले में ज्यादा पारदर्शी और जनता का नजदीकी माना जा सकता है कि राज्यसभा में जो विधायक अपने सांसदों को चुनते हैं वे अपनी पार्टी के व्हिप से बंधे होते हैं। लेकिन यहां पर किसी ग्राम पंचायत के सदस्य पर ऐसा कोई ह्विप नहीं होता। 
हां, चूंकि निचले स्तर पर जनप्रतिनिधियों की चेतना, उनका स्तर, धनबल का प्रभाव, जातीय राजनीति आदि ज्यादा हावी होती है तो ऐसे में यहां पर धन और जाति का असर भी देखने को मिलता है, बल्कि जाति से ज्यादा धन और अन्य प्रभावों का असर देखा जाता है। उस हिसाब से राज्यसभा चुनाव से तुलना किया जाए तो विधान परिषद के इस चुनाव में धन का प्रभाव बराबर ही होगा। हां, राज्यसभा में स्तर ऊंचा होता है, विधान परिषद में स्तर माइक्रो होता है। 
इस चुनाव में कुछ अपराधी चुनाव हार गए, लेकिन एक तो जेल से जीत गया ! एडमिशन माफिया के रूप में कुख्यात लोजपा उम्मीदवार रंजीत डॉन और लोजपा के ही हुलास पांडे हार गए तो पटना से रीतलाल यादव जीत गए जो जेल में हैं। रीतलाल, लालू के काफी करीबी हैं और उन्होंने जद-यू उम्मीदवार को हरा दिया। अब जद-यू उम्मीदवार कह रहे हैं कि लालू ने अपने यादव वोटरों का वोट उन्हें ट्रांसफर नहीं करवाया। इस आरोप में कुछ सचाई है क्योंकि पिछली बार जब पाटलिपुत्र लोकसभा सीट से लालू की बेटी चुनाव लड़ रही थीं तो रीतलाल बागी हो गए थे और लालू यादव ने उनके घर जाकर उनके पिता को कुछ आश्वासन दिया था।
रीतलाल यादव की जीत की निश्चय ही पूरे बिहार में अलग व्याख्या की जाएगी। वो जीत बिहार में राजद-जद-यू वोटरों के बीच गहरी दरार खींच सकती है जो वैसे भी पहले से धुंधला सा बना हुआ है। जद-यू उम्मीदवारों को हमेशा ये संशय रहेगा कि लालू अपना सारा वोट उन्हें ट्रांसफर नहीं करवाएंगे या करवा पाएंगे। बिहार में यादव वोटरों की जितनी संख्या है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगर गठबंधन के प्रति उनकी निष्ठा दो-चार फीसदी भी डोली तो बीजेपी को इसका भारी फायदा हो जाएगा।
हां, ये कहना ठीक नहीं है कि लालू के वोटरों ने इस परिषद चुनाव में जद-यू को पूरा वोट नहीं दिया। बल्कि लालू के स्वजातीय वोटर न होते तो जद-यू भागलपुर, नालंदा या नवादा जैसी सीटें कभी नहीं जीत पाती। एक अन्य कारक भी है। दरअसल एक लंबे समय तक यादवों के राज, काउंटर पोलराइजेशन और अति-पिछड़ों के उभार ने बिहार के स्थानीय निकायों में यादव प्रतिनिधियों की संख्या कम कर दी है। आशिंक रूप से वो भी इस चुनाव में झलक रहा है। वरना यादवों के गढ़ मिथिलांचल में यादव प्रतिनिधि जरूर चुनाव जीत जाते। 
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वाम दलों ने 16 उम्मीदवार खड़े किए थे, सारे खेत रहे। मुस्लिम उम्मीदवार एक ही जीत पाया, स्त्रियां करीब 12-15 फीसदी जीतीं और बनिए करीब 22 फीसदी और उतने ही यादव। जबकि यादवों की संख्या बिहार में बनियों से ज्यादा है। अंदाज लगा लीजिए कि धन-बल का कितना महत्व है !

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