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Wednesday, August 19, 2015

बिहार चुनाव@पैकेज

 बिहार के लिए बढिया हुआ कि नीतीश कुमार पिछले साल नरेंद्र मोदी से भिड़ गए। कम से कम competitive politics के बहाने ही सही बिहार को कुछ तो देने की घोषणा हुई। नीतीश बाबू साथ होते तो इतनी बड़ी रकम थोड़े ही मिलती. अब बिहारी गिन रहे हैं कि इस पैकेज में कितने जीरो हैं और पटना व नोएडा में फ्लैट की कीमत कितनी बढेगी। 


एक जमाने में ऐसा पैसा-मार और प्रोजेक्ट उठाऊ पॉलिटिक्स तमिलनाडु टाइप के दक्षिण के सूबे करते थे। इस बात का श्रेय नीतीश कुमार को इमानदारी से देना चाहिए कि उन्होंने बीजेपी को इतने बड़े पैकेज देने पर मजबूर कर दिया।

PIB की साइट पर देख रहा हूं कि नए हवाई अड्डों में रक्सौल और पूर्णिया को विकसित किया जाएगा-यानी हमलोग जो दरभंगा की मांग कर रहे थे वो मांग फिलहाल खटाई में समझी जाए। वैसे पूर्णिया भी बुरा विकल्प नहीं है, मेरे घर से मात्र तीन घंटे का रास्ता है। हां, पटना में नया हवाईअड्डा जरूरी है जिसकी बात इस पैकेज में है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

भागलपुर में एक नया केंद्रीय विश्वविद्यालय। आमीन। शायद विक्रमशिला विश्वविद्यालय नाम रखा जाए! नीतीश के नालंदा के जवाब में भाजपा का विक्रमशिला-मानो हिंदू यूनिवर्सिटी के जवाब में अलीगढ। competitive politics का अपना मजा है!

बिहार शायद पहला सूबा बन जाएगा जहां पर राज्य विश्वविद्यालयों की संख्या के बराबर ही केंद्रीय विश्वविद्यालय हो जाएंगे! गया, मोतिहारी, नालंदा, पूसा कृषि वि.वि., स्किल यूनिवर्सिटी, किशनगंज(अलीगढ की शाखा) के बाद अब भागलपुर! बात बुरी नहीं है-लेकिन अपने आप में एक बड़ा कटाक्ष है कि राज्य में पिछले करीब सात दशकों में कितने कम विश्वविद्यालय बने। और केंद्र ने तो उस सात में से छह दशक तक कुछ स्थापित ही नहीं किया। मामला ये भी है कि बिहारी पढने में तेज होते हैं, लेकिन बिहारी लोग अच्छा कॉलेज और अच्छा विश्वविद्यालय नहीं खोल पाते।

गंगा, कोसी और सोन पर नए पुल की घोषणा है। अच्छी बात है..बिहार में गंगा की लंबाई करीब 400 किमी है जबकि अभी तक इस पर ढंग का डेढ पुल(एक मोकामा और आधा नौगछिया-भागलपुर) काम कर रहा है। जबकि कम से कम 6-7 पुल होना ही चाहिए। नीतीश बाबू ने भी इस दिशा में ठीक-ठाक काम किया था। गंगा पर नया पुल जरुरी भी था। कोसी पर नए पुल की जो बात है, वो कहां बनेगा? देखने वाली बात होगी।

सॉफ्टवेयर पार्क की तो बात है लेकिन क्रियान्वयन कमजोर है। दरभंगा में पिछले साल एक सॉफ्टवेयर पार्क की बात हुई, लेकिन जमीन ही अभी तक नहीं मिल पाई। इसमें राज्य सरकार का भी रोल है, लेकिन जहां राज्य और केंद्र एक दूसरे से हमेशा भिड़ंत की मुद्रा में हो, वहां ऐसे प्रोजेक्ट कितना कामयाब होंगे-ये विचारणीय बात है।

कुल मिलाकर बिहारियों के बल्ले-बल्ले हैं। वोट में तो खैर जाति, कंवर्ट होती है। हां, पैकेज से परसेप्शन कुछ जरूर बनेगा। अब देखना है कि दूसरे राज्य इस भीमकाय पैकेज को किस तरह लेते हैं। कहीं ममता बनर्जी ये न कह बैठे कि वित्त मंत्रालय को दिल्ली से उठाकर कलकत्ता में स्थापित कर दिया जाए!

Tuesday, August 11, 2015

बिहारी अस्मिता@DNA

 नीतीश कुमार की पार्टी ने ठीक किया कि 50 लाख DNA सैम्पल भेजने की जगह नाखून और बाल ही लिफाफे में भिजवा रही हैं। बाल से समस्या आसान होगी, एक ही लिफाफे में हजार-हजार बाल आ जाएंगे। क्योंकि वैसे भी 50 लाख लोगों के DNA टेस्ट तो बिहार के स्वास्थ्य संस्थान में क्या होते, देश भर के डॉक्टर हांफ जाते। 

नीतीश ने जिस हिसाब से बिहारी अस्मिता की लड़ाई शुरू की है, उसमें कई समस्याएं है। नीतीश कुमार राजनीति के विद्यार्थी हैं, उन्हें क्या समझाना। ये यूपी, बिहार, टाइप के सूबे हैं न..वो सूबाई अस्मिता की बात नहीं करते-वे तो अपने आपको इस मुल्क का बाप समझते हैं। ये ऐसे सूबे हैं जहां कर्नाटक और मध्यप्रदेश का आदमी आकर यहां की पार्टियों का अध्यक्ष बन जाता है और सिर्फ अपनी खोपड़ी का खाता है। यहां के लोगों को कोई असुरक्षा बोध नहीं होता।

यूपी में तो एक पंजाब में जन्मी और समाजवादी सिंधी से ब्याही कांग्रेसी बंगालन CM बन गई थी ! देखा जाए तो ये बहुत उदार इलाके हैं-जब मैडम इंदिरा गांधी चिकमगलूर नहीं गई थी उससे बहुत पहले आचार्य कृपलानी, सीतामढी से चुनाव जीत गए थे। ये बातें तमिलनाडु या गुजरात में तब संभव नहीं थी। ऐसे इलाकों के लोग जब सूबाई अस्मिता की बात करें तो शोध का विषय बनता है।

एक बार राजीव गांधी ने आंध्रप्रदेश के CM को हवाईअड्डे पर इतना डांटा कि वेचारे CM की आंखों से बरखा-बहार उमड़ आई। लेकिन उसका फायदा वहां एक फिल्मस्टार एनटी रामाराव ने उठाया और एक पार्टी बना ली। कहा कि तेलुगु बिड्डा का अपमान हुआ है। तेलुगु देशम पार्टी चुनाव में स्वीप कर गई। असम में एक बार अस्मिता वाली बात पर तैंतीस साल का नेता सीएम बन गया। DMK जब 1967 में सत्ता में आई तो उसमें अस्मिता का पुट था। 

इन तमाम अस्मिताओं में कहीं न कहीं विराट हिंदी पट्टी के वर्चस्व के खिलाफ एक असुरक्षा का भाव था। लेकिन बिहार की कौन सी खास अस्मिता है ? क्या व्याख्या है उसकी? पिछले साठ सालों में बिहार ने किस असुरक्षा भाव को जिया है या कब-कब अस्मिता की आवाज उठाई है? बिहारी अस्मिता से कई गुणा ज्यादा तो दिल्ली में मैथिली और भोजपुरी के वास्तविक और फर्जी संगठन अस्मिता के नाम पर कार्यक्रम कर लेते हैं।

कुछ लोग व्यंग्य में कहने लगे हैं कि नीतीश कुमार का खुद का DNA तत्कालीन जद-यू नेता और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी से मेल नहीं खाता, उन्होंने इसीलिए उनको आम और लीची नहीं खाने दिया था। पता नहीं क्या सचाई है।

बात डीएनए की आई तो हमारे यहां मुजफ्फरपुर की एक लड़की थी-नवारुणा। तीन साल पहले गुंडो ने उसे घर से उठा लिया था, आज तक नहीं मिली। कहते हैं कि उसकी हड्डी मिली थी। बिहार पुलिस की तो छोड़िए, आजतक CBI उसके DNA का मिलान नहीं कर पाई। फिर 50 लाख लोगों का DNA कौन मिलान करवाएगा। आज एक अखबार ने ठीक लिखा है-एक अत्यधिक पिछड़े सूबे का चुनाव हाईटेक हो गया है। बातें ट्विटर और DNA से नीचे की ही नहीं जा रही। 

कुछ साल पहले बाल ठाकरे परिवार ने भी दावा किया था कि उनके परिवार के DNA में कुछ बिहारी गुणसूत्र हैं। आशा है कि नीतीश कुमार कम से कम ठाकरे परिवार से अपना नाता कतई नहीं जोड़ेंगे। हालांकि राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने ठाकरे परिवार के साथ कंधा में कंधा मिलाकर प्रणब दादा को जरूर वोट किया था! 

नीतीश कुमार का मजबूत पक्ष उनका विकास पुरुष होना था, जो अपेक्षाकृत जाति से ऊपर की छवि रखता था। ऐसा नेतृत्व बिहार को पिछले छह दशक में मुश्किल से मिला था। उनको विकास के मुद्दे को केंद्र में रखना चाहिए, DNA जैसे मुद्दे पर उन्हें अपनी ऊर्जा नहीं गंवानी चाहिए।

Sunday, July 12, 2015

बिहार विधान परिषद परिणाम: पप्पू, मांझी और बीजेपी संगठन फैक्टर

बिहार में विधान परिषद चुनाव में बीजेपी-गठबंधन की जीत की अलग-अलग व्याख्या जारी है। आज हम सामान्य तथ्यों और धन-बल से इतर कुछ अन्य फैक्टर की चर्चा करेंगे।

पप्पू यादव ने अपने फेसबुक वाल पर संकेत किया कि राजद-जद-यू की हार में उनकी अहम भूमिका है-क्योंकि लोकसभा चुनाव में जब वे राजद के साथ थे तो कोसी से पूरव बीजेपी का खाता नहीं खुल पाया। जबकि इस चुनाव में जब वे राजद से निष्काषित हैं तो राजद-जद-यू का खाता नहीं खुला। आंशिक रूप से वे सही है, उस इलाके में उनका एक निश्चित प्रभाव है। 

लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा चुनाव में पूरे पूर्वी बिहार में-गंगा के उत्तर और दक्षिण-दोनों जगह बीजेपी साफ हो गई थी। उन सीटों में सुपौल, अररिया, मधेपुरा, कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज, भागलपुर और बांका की सीटें थीं। इतना तो पप्पू भी मानते होंगे कि उन आठो सीटों पर उनका असर नहीं है! दरअसल, उस चुनाव में अन्य कारकों के अलावा पश्चिम की तरफ से आ रही बीजेपी की लहर को बंग्लादेश की सीमा से सटे एक ‘पूर्वी लहर’ ने भी रोक लिया था। पप्पू महज एक ‘बैलेंसिंग फैक्टर’ थे, जो वे इस बार भी थे- जब वे साइलेंट रह गए तो बीजेपी वहां से जीत गई। जहां पप्पू का असर नहीं था(बांका-भागलपुर) वहां फिर से जद-यू जीत गया।
एक फैक्टर जीतनराम मांझी भी है। स्थानीय निकायों में दलितों के लिए आबादी के हिसाब से सीटें रिजर्व हैं। यह बिल्कुल संभव है कि मांझी प्रकरण के बाद से दलितों का बड़ा हिस्सा जद-यू-राजद से नाराज हो गया हो।
चुनावों में बीजेपी की जीत को सिर्फ पैसे से जोड़ना पूरी तरह सही नहीं है। लोग इस बात को नजर अंदाज कर देते हैं कि बीजेपी और संघ ने पिछले 10-15 सालों में ग्रासरूट स्तर पर अपने संगठन का कितना फैलाव किया है। संघ का अपना नेटवर्क तो बना ही है, बीजेपी ने पिछले दशक में ग्राम पंचायत स्तर तक अपनी इकाई और अध्यक्ष बना लिए हैं। मेरे ग्राम पंचायत का बीजेपी अध्यक्ष एक मुसलमान है और उसकी अपनी कमेटी है। जबकि राजद या जद-यू ब्लॉक और जिला स्तर पर भी नहीं दिखते। उनका कार्यालय किसी चाय या पान की दुकान में चलता पाया जाता है। मेरे ब्लॉक में जद-यू की दो-दो कमेटियां हैं जो आपस में प्रमाणिकता के लिए लड़ती रहती हैं।


मैं अपने जिले(मधुबनी) की बात अगर करुं तो इस चुनाव में बीजेपी ने हमारे ब्लॉक(बाबूबरही) के कुल 20 ग्राम पंचायतों में हरेक 3 पंचायतों पर पांच कार्यकर्ताओं की कमेटी बनाई थी। इसके अलावा प्रखंड कमेटी और जिला कमेटी के लोग भी उसका सुपरविजन कर रहे थे। अब तीन पंचायत में विधान परिषद के करीब 45 वोटर थे जबकि उसके पीछे बीजेपी-संघ और उस खास उम्मीदवार और गठबंधन के सहयोगी दल के करीब 20 हार्डकोर वर्कर लोग लगे हुए थे। इतना टारगेटेड प्रचार क्या जद-यू और राजद से संभव है, जहां ये ही नहीं पता चलता कि प्रखंड अध्यक्ष कौन है और प्रखंड में अन्य कितनी कमेटिया हैं? बीजेपी की प्रखंड कमेटी में करीब दर्जन भर विभाग हैं जिसकी बकायदा पाक्षिक-मासिक बैठकें होती हैं, सुपरविजन होता है और रिपोर्ट तैयार होती है।

 हां, बीजेपी अगर कहीं कमजोर है तो अपने बौद्धिक विभाग में। लेकिन उसकी भरपाई उसने एक दुर्जेय पार्टी मशीनरी बनाकर करने की कोशिश की है। उसने पिछले दशकों में ‘आदमी’ बनाए हैं, तंत्र बनाया है जो शायद थोड़ा-थोड़ा कम्यूनिस्टों से प्रेरित भी लगता है। अब बीजेपी का वह निचला तंत्र कभी बीजेपी के लिए ‘एलियन’ माने जानेवाले अल्पसंख्यक समूहों तक में घुसपैठ कर रहा है, उन्हें प्रभावित कर रहा है। बाकी का काम अन्य ‘कारक’ पूरा कर देते हैं। 
अन्य दलों के पास विचार तो है, लेकिन उसे नीचे ले जाने के लिए तंत्र नहीं है, आदमी नहीं है। ऐसे में सिर्फ समाजिक गठबंधन करके या मीडिया की बहसों में हिस्सा लेकर बीजेपी ले लड़ना नाकाफी है। जद-यू-राजद जैसी पार्टियों को अपने उन विभागों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

Saturday, July 11, 2015

बिहार विधान परिषद चुनाव: जाति समीकरण और धन-बल का असर

बिहार विधान परिषद की 24 सीटों में से भाजपा गठबंधन ने 13 और जद-यू -राजद महा-गठबंधन ने 10 सीटों पर विजय हासिल की। एक सीट निर्दलीय के खाते में गई जो लालू प्रसाद के अतिशय करीबी हैं। कुल मिलाकर एक लाइन की स्टोरी ये है कि लालू-नीतीश-कांग्रेस के महा-गठबंधन के मनोबल को भारी झटका लगा है-हालांकि वे अभी मोर्चा हारे हैं। जंग बाकी है। 

विधान परिषद या इस तरह के चुनावों में सत्ताधारी दलों का एक निश्चित प्रभाव रहता है। उस हिसाब से राजद-जद-यू को अवधारणात्मक बढत हासिल थी और वे विराट समाजिक गठबंधन भी प्रोजेक्ट कर रहे थे। ऐसे में यह चुनाव जद-यू-राजद-कांग्रेस महाजोट के लिए अपशकुन है। 
इस चुनाव के संबंध में कुछ बातें समझनी जरूरी हैं। बिहार विधान परिषद में कुल 75 सीटें हैं जिन्हें अलग-अलग तरीकों से भरा जाता है। आज जिन 24 सीटों का परिणाम आया( 1 को छोड़कर) उन्हें स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों द्वारा चुना गया है जिसमें ग्राम-पंचायत सदस्यों और नगरपालिका/निगम/विकास प्राधिकार/नगर पंचायत आदि के सदस्य चुनते हैं। इस बार बिहार में ऐसे स्थानीय निकाय वाले वोटरों की कुल संख्या करीब 1 लाख 39 हजार थी जिनमें से 50 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए रिजर्व हैं। स्थानीय निकायों में नियमानुसार दलितों और पिछड़ी जातियों के लिए भी सीटें रिजर्व हैं।
बिहार में चूंकि शहरीकरण देश में संभवत: सबसे कम है (करीब 12 फीसदी) तो ऐसे में इन वोटरों में भी लगभग 15 फीसदी वोटर ही शहरी थे।
जिन 24 सीटों पर चुनाव हुए थे उनमें पहले 15 सीटें जेडी-यू के पास, 4 राजद के पास और 5 भाजपा के पास थीं। यानी अभी के हिसाब से नीतीश के महाजोट के पास 19 सीटें थीं जो घटकर 9 रह गई हैं। भाजपा के पास 5 थीं जो बढ़कर 13 हो गई हैं। यों, जेडी-यू ने जब 15 सीटें जीतीं थीं तो वो उस समय भाजपा की जोड़ीदार थीं।

कहना न होगा कि भाजपा ने अपने दम पर जबर्दस्त प्रदर्शन किया है। भाजपा 18 पर लड़ी थी उसमें उसे 13 पर जीत हुई। उस हिसाब से उसका स्ट्राइक रेट लोकसभा जैसा ही है। जबकि पिछले साल हुए विधानसभा उपचुनाव में वो 10 में से 4 सीटें ही जीत पाई थीं। भाजपा की सहयोगी लोजपा 4 पर और रालोसपा 2 पर लड़ी थी। लोजपा महज एक सीट जीत पाई जबकि रालोसपा शून्य पर अटक गई जिसके नेता उपेंद्र कुशवाहा भी गाहे-बगाहे बिहार की सरदारी का दावा ठोकते रहते हैं।
इस चुनाव में जनता सीधे मतदान तो नहीं करती, हां उसकी नजरों के सामने लगभग हमेशा रहनेवाले प्रतिनिधि जरूर मतदान करते हैं। थोड़ा-थोड़ा वृहत रूप में राज्यसभा जैसा मामला होता है-लेकिन इसे राज्यसभा से इस मामले में ज्यादा पारदर्शी और जनता का नजदीकी माना जा सकता है कि राज्यसभा में जो विधायक अपने सांसदों को चुनते हैं वे अपनी पार्टी के व्हिप से बंधे होते हैं। लेकिन यहां पर किसी ग्राम पंचायत के सदस्य पर ऐसा कोई ह्विप नहीं होता। 
हां, चूंकि निचले स्तर पर जनप्रतिनिधियों की चेतना, उनका स्तर, धनबल का प्रभाव, जातीय राजनीति आदि ज्यादा हावी होती है तो ऐसे में यहां पर धन और जाति का असर भी देखने को मिलता है, बल्कि जाति से ज्यादा धन और अन्य प्रभावों का असर देखा जाता है। उस हिसाब से राज्यसभा चुनाव से तुलना किया जाए तो विधान परिषद के इस चुनाव में धन का प्रभाव बराबर ही होगा। हां, राज्यसभा में स्तर ऊंचा होता है, विधान परिषद में स्तर माइक्रो होता है। 
इस चुनाव में कुछ अपराधी चुनाव हार गए, लेकिन एक तो जेल से जीत गया ! एडमिशन माफिया के रूप में कुख्यात लोजपा उम्मीदवार रंजीत डॉन और लोजपा के ही हुलास पांडे हार गए तो पटना से रीतलाल यादव जीत गए जो जेल में हैं। रीतलाल, लालू के काफी करीबी हैं और उन्होंने जद-यू उम्मीदवार को हरा दिया। अब जद-यू उम्मीदवार कह रहे हैं कि लालू ने अपने यादव वोटरों का वोट उन्हें ट्रांसफर नहीं करवाया। इस आरोप में कुछ सचाई है क्योंकि पिछली बार जब पाटलिपुत्र लोकसभा सीट से लालू की बेटी चुनाव लड़ रही थीं तो रीतलाल बागी हो गए थे और लालू यादव ने उनके घर जाकर उनके पिता को कुछ आश्वासन दिया था।
रीतलाल यादव की जीत की निश्चय ही पूरे बिहार में अलग व्याख्या की जाएगी। वो जीत बिहार में राजद-जद-यू वोटरों के बीच गहरी दरार खींच सकती है जो वैसे भी पहले से धुंधला सा बना हुआ है। जद-यू उम्मीदवारों को हमेशा ये संशय रहेगा कि लालू अपना सारा वोट उन्हें ट्रांसफर नहीं करवाएंगे या करवा पाएंगे। बिहार में यादव वोटरों की जितनी संख्या है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगर गठबंधन के प्रति उनकी निष्ठा दो-चार फीसदी भी डोली तो बीजेपी को इसका भारी फायदा हो जाएगा।
हां, ये कहना ठीक नहीं है कि लालू के वोटरों ने इस परिषद चुनाव में जद-यू को पूरा वोट नहीं दिया। बल्कि लालू के स्वजातीय वोटर न होते तो जद-यू भागलपुर, नालंदा या नवादा जैसी सीटें कभी नहीं जीत पाती। एक अन्य कारक भी है। दरअसल एक लंबे समय तक यादवों के राज, काउंटर पोलराइजेशन और अति-पिछड़ों के उभार ने बिहार के स्थानीय निकायों में यादव प्रतिनिधियों की संख्या कम कर दी है। आशिंक रूप से वो भी इस चुनाव में झलक रहा है। वरना यादवों के गढ़ मिथिलांचल में यादव प्रतिनिधि जरूर चुनाव जीत जाते। 
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वाम दलों ने 16 उम्मीदवार खड़े किए थे, सारे खेत रहे। मुस्लिम उम्मीदवार एक ही जीत पाया, स्त्रियां करीब 12-15 फीसदी जीतीं और बनिए करीब 22 फीसदी और उतने ही यादव। जबकि यादवों की संख्या बिहार में बनियों से ज्यादा है। अंदाज लगा लीजिए कि धन-बल का कितना महत्व है !