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Monday, November 23, 2015

अपेक्षित बनाम उपेक्षित@तेजस्वी यादव

    सोशल मीडिया और अखबारों में लालू यादव के सुपुत्र तेजस्वी यादव के शपथ ग्रहण के समय अपेक्षित को उपेक्षित बोलने पर भारी मजाक बनाया जा रहा है। मेरे खयाल से यह उचित नहीं है। 
    आधे से ज्यादा पत्रकारों और करीब 80 फीसदी पब्लिक को पूछा जाए कि अपेक्षित और उपेक्षित में क्या फर्क है तो दांत निपोड़ देंगे। लेकिन लालू  के कुंअर  ने कह दिया तो मजे ले रहे हैं।  उस जमाने के लोग ऐसा ही एक किस्सा राजीव गांधी का सुनाते हैं कि बंदे ने कथित तौर पर ये पूछ लिया था कि गेंहू का पेड़ कैसा होता है! जमाना ट्विटर का नहीं था, वरना भारी ट्रॉल होता।
    80 फीसदी वामपंथियो को ये नहीं पता है कि फासीवाद की परिभाषा क्या है। लेकिन सोने से पहले औ...र जागने के बाद एक बार फासीवाद जरूर बोलेंगे। करीब 70-80 फीसदी बिहारियों को ये नहीं पता कि श और र कैसे बोला जाता है, लेकिन मजा लेने में वे कम नहीं हैं। जब मैं दिल्ली आया था तो दिल्ली वालों ने खुद मेरा मजा ले लिया था।
    90 फीसदी टीवी एंकर-एंकरानियां और स्क्रिप्ट राइटर इस बात से भ्रमित हैं कि गृह-मंत्री होता है या ग्रह-मंत्री। लेकिन टीवी एंकर दुनिया का सबसे काबिल आदमी मान लिया जाता है। एंकरानियां उससे भी काबिल। जनता में।
    कुल मिलाकर जिसे देखो फिराक में लगा हुआ है कि तुम गलती करो-फिर मैं पानी उतारता हूं।
    मुझे लगता है कि नेताओं को इससे फर्क नहीं पड़ता। वे ऐसे किसी का मजाक नहीं उड़ाते। ये बीमारी पब्लिक में ज्यादा है। विरोध काम का होना चाहिए न कि उच्चारण का या ड्रेस का। लालूजी के बेटे को जी-न्यूज में एंकरिग थोड़े ही करनी है?
    (यह आलेख हिंदुस्तान दैनिक के राष्ट्रीय संस्करण में 23.11.2015 को प्रकाशित हो चुका है)

Tuesday, August 11, 2015

बिहारी अस्मिता@DNA

 नीतीश कुमार की पार्टी ने ठीक किया कि 50 लाख DNA सैम्पल भेजने की जगह नाखून और बाल ही लिफाफे में भिजवा रही हैं। बाल से समस्या आसान होगी, एक ही लिफाफे में हजार-हजार बाल आ जाएंगे। क्योंकि वैसे भी 50 लाख लोगों के DNA टेस्ट तो बिहार के स्वास्थ्य संस्थान में क्या होते, देश भर के डॉक्टर हांफ जाते। 

नीतीश ने जिस हिसाब से बिहारी अस्मिता की लड़ाई शुरू की है, उसमें कई समस्याएं है। नीतीश कुमार राजनीति के विद्यार्थी हैं, उन्हें क्या समझाना। ये यूपी, बिहार, टाइप के सूबे हैं न..वो सूबाई अस्मिता की बात नहीं करते-वे तो अपने आपको इस मुल्क का बाप समझते हैं। ये ऐसे सूबे हैं जहां कर्नाटक और मध्यप्रदेश का आदमी आकर यहां की पार्टियों का अध्यक्ष बन जाता है और सिर्फ अपनी खोपड़ी का खाता है। यहां के लोगों को कोई असुरक्षा बोध नहीं होता।

यूपी में तो एक पंजाब में जन्मी और समाजवादी सिंधी से ब्याही कांग्रेसी बंगालन CM बन गई थी ! देखा जाए तो ये बहुत उदार इलाके हैं-जब मैडम इंदिरा गांधी चिकमगलूर नहीं गई थी उससे बहुत पहले आचार्य कृपलानी, सीतामढी से चुनाव जीत गए थे। ये बातें तमिलनाडु या गुजरात में तब संभव नहीं थी। ऐसे इलाकों के लोग जब सूबाई अस्मिता की बात करें तो शोध का विषय बनता है।

एक बार राजीव गांधी ने आंध्रप्रदेश के CM को हवाईअड्डे पर इतना डांटा कि वेचारे CM की आंखों से बरखा-बहार उमड़ आई। लेकिन उसका फायदा वहां एक फिल्मस्टार एनटी रामाराव ने उठाया और एक पार्टी बना ली। कहा कि तेलुगु बिड्डा का अपमान हुआ है। तेलुगु देशम पार्टी चुनाव में स्वीप कर गई। असम में एक बार अस्मिता वाली बात पर तैंतीस साल का नेता सीएम बन गया। DMK जब 1967 में सत्ता में आई तो उसमें अस्मिता का पुट था। 

इन तमाम अस्मिताओं में कहीं न कहीं विराट हिंदी पट्टी के वर्चस्व के खिलाफ एक असुरक्षा का भाव था। लेकिन बिहार की कौन सी खास अस्मिता है ? क्या व्याख्या है उसकी? पिछले साठ सालों में बिहार ने किस असुरक्षा भाव को जिया है या कब-कब अस्मिता की आवाज उठाई है? बिहारी अस्मिता से कई गुणा ज्यादा तो दिल्ली में मैथिली और भोजपुरी के वास्तविक और फर्जी संगठन अस्मिता के नाम पर कार्यक्रम कर लेते हैं।

कुछ लोग व्यंग्य में कहने लगे हैं कि नीतीश कुमार का खुद का DNA तत्कालीन जद-यू नेता और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी से मेल नहीं खाता, उन्होंने इसीलिए उनको आम और लीची नहीं खाने दिया था। पता नहीं क्या सचाई है।

बात डीएनए की आई तो हमारे यहां मुजफ्फरपुर की एक लड़की थी-नवारुणा। तीन साल पहले गुंडो ने उसे घर से उठा लिया था, आज तक नहीं मिली। कहते हैं कि उसकी हड्डी मिली थी। बिहार पुलिस की तो छोड़िए, आजतक CBI उसके DNA का मिलान नहीं कर पाई। फिर 50 लाख लोगों का DNA कौन मिलान करवाएगा। आज एक अखबार ने ठीक लिखा है-एक अत्यधिक पिछड़े सूबे का चुनाव हाईटेक हो गया है। बातें ट्विटर और DNA से नीचे की ही नहीं जा रही। 

कुछ साल पहले बाल ठाकरे परिवार ने भी दावा किया था कि उनके परिवार के DNA में कुछ बिहारी गुणसूत्र हैं। आशा है कि नीतीश कुमार कम से कम ठाकरे परिवार से अपना नाता कतई नहीं जोड़ेंगे। हालांकि राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने ठाकरे परिवार के साथ कंधा में कंधा मिलाकर प्रणब दादा को जरूर वोट किया था! 

नीतीश कुमार का मजबूत पक्ष उनका विकास पुरुष होना था, जो अपेक्षाकृत जाति से ऊपर की छवि रखता था। ऐसा नेतृत्व बिहार को पिछले छह दशक में मुश्किल से मिला था। उनको विकास के मुद्दे को केंद्र में रखना चाहिए, DNA जैसे मुद्दे पर उन्हें अपनी ऊर्जा नहीं गंवानी चाहिए।