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Friday, July 21, 2017

दरभंगा से हवाई सेवा और संजय झा, नीतीश कुमार व अरुण जेटली का रोल

दरभंगा से हवाई सेवा को लेकर सोशल मीडिया और अखबारों में भी काफी चर्चा हो रही है जिसे हाल ही में "उड़ान" योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है, हालांकि अभी सिर्फ सहमति पत्र पर दस्तखत हुए हैं और मीलों लंबा सफर तय करना है. भारत सरकार की उड़ान योजना क्षेत्रीय कनेक्टीविटी के लिए है.
बहुत सारे अन्य एयरपोर्ट की तरह ही दरभंगा एयरपोर्ट भी रक्षा मंत्रालय के अतर्गत आता है जिसके मंत्री अभी अरुण जेटली हैं. जेटली का नीतीश कुमार से मधुर संबंध है और दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद से कटु. लेकिन दरभंगा से सन् 2014 में JD-U के लोकसभा प्रत्याशी और वर्तमान में JD-महासचिव संजय झा, अरुण जेटली के नजदीकी माने जाते हैं. बिहार सरकार के सूत्र बताते हैं कि ये भी एक वजह थी कि दरभंगा एयरपोर्ट पर रक्षा मंत्रालय ने तत्काल NOC दे दिया.
JD-U नेता संजय झा और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार
(यों दो साल पहले जब सोशल मीडिया पर दरभंगा एयरपोर्ट के लिए अभियान चल रहा था तो उस समय कीर्ति आजाद कुछ सांसदों संग PM से मिलने भी गए थे लेकिन बाद में वे BJP में खुद ही अलग-थलग पड़ते गए).

फिलहाल जिस सहमति पत्र पर दस्तखत हुए हैं उसमें दरभंगा से पटना, गया और रायपुर पर सहमति बनी है. चूंकि इस बार नॉन-मेट्रो सिटी से ही कनेक्टिविटी की योजना थी, तो उसमें पटना, गया, रायपुर, बनारस और रांची आ सकते थे. अभी शुरू के तीन पर सहमति बनी है. रायपुर का नाम जुड़वाने में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की व्यक्तिगत रुचि थी, उन्होंने बैठक में कहा कि 'रायपुर और छत्तीसगढ़ में मिथिला समाज के लाखों लोग रहते हैं, कनेक्टिविटी से उनका भला होगा'. रही बात रांची और बनारस की तो अभी मंत्रालय की योजना में वो नहीं था, आगे उस पर विचार किया जा सकता है.

जब दो साल पहले हमारे ढेर सारे मित्र सोशल मीडिया और अखबारों के माध्यम से दरभंगा से हवाई सेवा शुरू करवाने के लिए अभियान-रत थे तो उस समय मैंने JD-U नेता संजय झा से इस मामले में पैरवी करने के लिए आग्रह किया था. वे सहमत तो थे लेकिन व्यवहारिकता और नौकरशाही की अड़चन को लेकर सशंकित थे. उन्होंने कहा था कि बेहतर हो कि राजधानी जैसी कुछ सुपरफास्ट ट्रेन या ऐसी ही कनेक्टिविटी का कुछ इंतजाम किया जाए.
लेकिन भारत सरकार जब "उड़ान" योजना लेकर सामने आई तो दरभंगा के लिए संभावना अचानक प्रकट हो गई.
सोशल मीडिया में हमारे अभियान से उस समय सरकार के कान पर तो जूं नहीं रेंगी लेकिन समाज में कुछ हलचल जरूर मची. लोग तो पहले सोचते तक नहीं थे, उन्हें लगता था कि यह अभिजात्य माध्यम है, जिसका विकास से कोई लेनादेना नहीं. हाल यह था कि उस इलाके में एक जमाने में विकास-पुरुष के तौर पर सम्मानित एक प्रख्यात कांग्रेसी नेता के सुपुत्र विधायकजी ने तो यहां तक कहा कि दरभंगा वाले बस में ही बैठने की सलाहियत सीख लें,यही बहुत है!
दरभंगा एयरपोर्ट का रनवे बिहार में सबसे बड़ा है, पटना से भी बड़ा. महाराज दरभंगा का बनवाया हुआ है. छोटा-मंझोला विमान अभी भी उतर सकता है, अगर 2000 फीट रनवे और लंबा हो जाए तो भविष्य के लिए भी, बड़े विमानों के लिए भी पक्की व्यवस्था हो जाएगी.
दरअसल, किसी शहर से विमानन सुविधा वन-टाइम डील होता है. हुआ तो हुआ, नहीं तो बीस-तीस साल नहीं होता. मनीष तिवारी जब केंद्र में मंत्री बने तो दिल्ली-लुधियाना शुरू हुआ, सुना कि उनके हटने के बाद बंद हो गया. इलाहाबाद में एक जमाने में था, फिर बंद हुआ और फिर जाकर मुरलीमनोहर जोशी के समय शुरू हुआ. यानी जिसकी लाठी, उसकी भैंस. वो तो भला हो उड़ान का जो दरभंगा जैसे शहर इसमें शामिल हुए.
दरभंगा एयरपोर्ट मौजूदा हाल में भी उड़ान योजना के लिए फिट था लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दरभंगा एयरपोर्ट के रनवे विस्तार के लिए जमीन अधिग्रहण हेतु सहमत हो गए हैं, ताकि भविष्य में बड़े विमान भी उतर सकें. उसके लिए पचास एकड़ जमीन चाहिए और उन्होंने कैबिनेट सचिवालय के प्रमुख सचिव ब्रजेश मेहरोत्रा को इस बाबत निर्देश दे दए है.
लेकिन इस हवाईअड्डे में कई पेंच हैं और इसमें इतनी दौड़-धूप या कहें कि ब्यूरोक्रेटिक लाइजनिंग की जरूरत है जिसके लिए ऊर्जावान नेतृत्व चाहिए. ये बात जगजाहिर है कि दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद की हवाईअड्डे में कितनी दिलचस्पी है और अगर होगी भी तो अरुण जेटली उनकी कितनी सुनेंगे! दरभंगा डिवीजन के अन्य दो सांसद हुकुमदेव नारायण यादव और बीरेंद्र चौधरी या तो हवाईसेवा के प्रति उदासीन हैं या इसका महत्व नहीं समझते. हां, एक बार बीरेंद्र चौधरी ने संसद में इसे उठाया था. लेकिन उस समय 'उड़ान' जैसी कोई योजना नहीं थी. इस बार योजना तो अनुकूल है लेकिन पेंच नौकरशाही का है और वो पहाड़ जैसा है. देखिए जिस सहमति पत्र पर दस्तखत हुए हैं, उसमें किन-किन चीजों की आवश्यकता बताई गई है:
1. एयर हेड-क्वार्टर से एनओसी लेना(यानी फिर से डिफेंस मिनिस्ट्री के बाबू और वायुसेना अधिकारियों की तेल-मालिश करना)
2. AAI को एयर हेडक्वार्टर से एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करना होगा(बाबुओं को इसके लिए फिर से मनाना)
3. सिविल इन्क्लेव के लिए AAI ने जमीन अधिग्रहण करने का आग्रह किया है
(झंझट का काम है. हालांकि जमीन पचास एकड़ ही चाहिए लेकिन ये "आजकल" मजाक नहीं है. बिहार सरकार के सबसे बड़े बाबू से लेकर जिलाअधिकारी, पुलिस कप्तान, मुआवजा, वित्त विभाग इत्यादि शामिल हैं)
4 रनवे एज लाइटिंग
5 एप्रन और टैक्सी वे का निर्माम
7 NA AIDS(ILS, VOR) का इंस्टालेशन- यानी रेडियो नेविगेशन सिस्टम, इस्ट्रूमेंट लैंडिंग सिस्टम इत्यादि.
और ये जितने काम हैं, उसमें करीब 2000 करोड़ रुपये का खर्च है, क्योंकि 'उड़ान' स्कीम के तहत* बिहार सरकार को इसके सकल खर्च या छूट का 80 फीसदी वहन करना है! अब असली पेंच समझिए कि एक गरीब राज्य का खजाना जिसका बजट सन् 2016-17 के लिए महज 1.44 लाख करोड़ था वह सिर्फ दरभंगा हवाईअड्डे के लिए उसमें से दो हजार करोड़ निकाल दे तो पटना के बाबू लोग कितना नखरा करेंगे!
(* उड़ान योजना में VGF यानी वायवेलिटी गैप फंड के तहत घाटे की भरपाई और सुविधाओं के निर्माण में केंद्र और राज्य का हिस्सा 20 औ 80 फीसदी का है.)
विद्वानों को मालूम है कि महज सहमति पत्र से कुछ नहीं होता, सहमति पत्र तो ऐसे-ऐसे हैं जो तीस-तीस साल से धूल फांक रहे हैं-उन पर काम आगे हुआ ही नहीं-फाइल आगे बढ़ी ही नहीं. असली बात है कि क्रियान्वयन होना और एक पिछड़े इलाके में इतने बड़े प्रोजेक्ट को जमीन पर उतार देना.
यह पोस्ट सिर्फ दरभंगा एयरपोर्ट पर केंद्रित है, पूर्णिया, सहरसा, रक्सौल और किशनगंज का अलग संदर्भ है. लंबा हो जाएगा. आज के समय में एयरपोर्ट का क्या महत्व है, इस पर पोस्ट लिखना जरूरी नहीं. आप ये समझिए कि किसी पूंजीपति या सरकारी बाबू को अगर 20-25 करोड़ का भी प्रोजेक्ट लेकर उत्तर बिहार जाना हो तो वो ट्रेन से नहीं जाएगा. मैं खुद ही साधारण सी नौकरी में हूं, ट्रेन में 25-30 घंटे की सफर से बचता हूं.
मैंने ब्लॉग के जमाने में लिखा था कि ईस्ट-वेस्ट NH कॉरीडोर को मधुबनी-दरभंगा से होकर बनवाने में झंझारपुर और सहरसा के सांसद देवेंद्र प्र. यादव और दिनेश यादव का बड़ा रोल था, उन्होंने उसके लिए जमकर वाजपेयी सरकार में लॉबी की थी. नतीजतन वो मिथिला की लाइफलाइन साबित हुई.
ऐसे में दरभंगा से अगर वाकई 'उड़ान' होता है, तो बधाई के पात्र नीतीश कुमार होंगे, मोदी सरकार होगी और संजय झा होंगे जो इसमें व्यक्तिगत रुचि ले रहे हैं. दरभंगा और उत्तर बिहार के उस इलाके के लोगों को चाहिए कि वो दबाव और समर्थन बनाए रखे. वहां के मौजूदा सांसद-गण भी कुछ जोर लगाएं तो यह जल्दी फलीभूत हो जाएगा. सिर्फ हवाईअड्डा ही क्यों, रेलवे और अन्य योजनाएं भी फलीभूत हो जाएंगी. जय भोलेनाथ!

Wednesday, August 19, 2015

बिहार चुनाव@पैकेज

 बिहार के लिए बढिया हुआ कि नीतीश कुमार पिछले साल नरेंद्र मोदी से भिड़ गए। कम से कम competitive politics के बहाने ही सही बिहार को कुछ तो देने की घोषणा हुई। नीतीश बाबू साथ होते तो इतनी बड़ी रकम थोड़े ही मिलती. अब बिहारी गिन रहे हैं कि इस पैकेज में कितने जीरो हैं और पटना व नोएडा में फ्लैट की कीमत कितनी बढेगी। 


एक जमाने में ऐसा पैसा-मार और प्रोजेक्ट उठाऊ पॉलिटिक्स तमिलनाडु टाइप के दक्षिण के सूबे करते थे। इस बात का श्रेय नीतीश कुमार को इमानदारी से देना चाहिए कि उन्होंने बीजेपी को इतने बड़े पैकेज देने पर मजबूर कर दिया।

PIB की साइट पर देख रहा हूं कि नए हवाई अड्डों में रक्सौल और पूर्णिया को विकसित किया जाएगा-यानी हमलोग जो दरभंगा की मांग कर रहे थे वो मांग फिलहाल खटाई में समझी जाए। वैसे पूर्णिया भी बुरा विकल्प नहीं है, मेरे घर से मात्र तीन घंटे का रास्ता है। हां, पटना में नया हवाईअड्डा जरूरी है जिसकी बात इस पैकेज में है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

भागलपुर में एक नया केंद्रीय विश्वविद्यालय। आमीन। शायद विक्रमशिला विश्वविद्यालय नाम रखा जाए! नीतीश के नालंदा के जवाब में भाजपा का विक्रमशिला-मानो हिंदू यूनिवर्सिटी के जवाब में अलीगढ। competitive politics का अपना मजा है!

बिहार शायद पहला सूबा बन जाएगा जहां पर राज्य विश्वविद्यालयों की संख्या के बराबर ही केंद्रीय विश्वविद्यालय हो जाएंगे! गया, मोतिहारी, नालंदा, पूसा कृषि वि.वि., स्किल यूनिवर्सिटी, किशनगंज(अलीगढ की शाखा) के बाद अब भागलपुर! बात बुरी नहीं है-लेकिन अपने आप में एक बड़ा कटाक्ष है कि राज्य में पिछले करीब सात दशकों में कितने कम विश्वविद्यालय बने। और केंद्र ने तो उस सात में से छह दशक तक कुछ स्थापित ही नहीं किया। मामला ये भी है कि बिहारी पढने में तेज होते हैं, लेकिन बिहारी लोग अच्छा कॉलेज और अच्छा विश्वविद्यालय नहीं खोल पाते।

गंगा, कोसी और सोन पर नए पुल की घोषणा है। अच्छी बात है..बिहार में गंगा की लंबाई करीब 400 किमी है जबकि अभी तक इस पर ढंग का डेढ पुल(एक मोकामा और आधा नौगछिया-भागलपुर) काम कर रहा है। जबकि कम से कम 6-7 पुल होना ही चाहिए। नीतीश बाबू ने भी इस दिशा में ठीक-ठाक काम किया था। गंगा पर नया पुल जरुरी भी था। कोसी पर नए पुल की जो बात है, वो कहां बनेगा? देखने वाली बात होगी।

सॉफ्टवेयर पार्क की तो बात है लेकिन क्रियान्वयन कमजोर है। दरभंगा में पिछले साल एक सॉफ्टवेयर पार्क की बात हुई, लेकिन जमीन ही अभी तक नहीं मिल पाई। इसमें राज्य सरकार का भी रोल है, लेकिन जहां राज्य और केंद्र एक दूसरे से हमेशा भिड़ंत की मुद्रा में हो, वहां ऐसे प्रोजेक्ट कितना कामयाब होंगे-ये विचारणीय बात है।

कुल मिलाकर बिहारियों के बल्ले-बल्ले हैं। वोट में तो खैर जाति, कंवर्ट होती है। हां, पैकेज से परसेप्शन कुछ जरूर बनेगा। अब देखना है कि दूसरे राज्य इस भीमकाय पैकेज को किस तरह लेते हैं। कहीं ममता बनर्जी ये न कह बैठे कि वित्त मंत्रालय को दिल्ली से उठाकर कलकत्ता में स्थापित कर दिया जाए!

Tuesday, August 11, 2015

बिहारी अस्मिता@DNA

 नीतीश कुमार की पार्टी ने ठीक किया कि 50 लाख DNA सैम्पल भेजने की जगह नाखून और बाल ही लिफाफे में भिजवा रही हैं। बाल से समस्या आसान होगी, एक ही लिफाफे में हजार-हजार बाल आ जाएंगे। क्योंकि वैसे भी 50 लाख लोगों के DNA टेस्ट तो बिहार के स्वास्थ्य संस्थान में क्या होते, देश भर के डॉक्टर हांफ जाते। 

नीतीश ने जिस हिसाब से बिहारी अस्मिता की लड़ाई शुरू की है, उसमें कई समस्याएं है। नीतीश कुमार राजनीति के विद्यार्थी हैं, उन्हें क्या समझाना। ये यूपी, बिहार, टाइप के सूबे हैं न..वो सूबाई अस्मिता की बात नहीं करते-वे तो अपने आपको इस मुल्क का बाप समझते हैं। ये ऐसे सूबे हैं जहां कर्नाटक और मध्यप्रदेश का आदमी आकर यहां की पार्टियों का अध्यक्ष बन जाता है और सिर्फ अपनी खोपड़ी का खाता है। यहां के लोगों को कोई असुरक्षा बोध नहीं होता।

यूपी में तो एक पंजाब में जन्मी और समाजवादी सिंधी से ब्याही कांग्रेसी बंगालन CM बन गई थी ! देखा जाए तो ये बहुत उदार इलाके हैं-जब मैडम इंदिरा गांधी चिकमगलूर नहीं गई थी उससे बहुत पहले आचार्य कृपलानी, सीतामढी से चुनाव जीत गए थे। ये बातें तमिलनाडु या गुजरात में तब संभव नहीं थी। ऐसे इलाकों के लोग जब सूबाई अस्मिता की बात करें तो शोध का विषय बनता है।

एक बार राजीव गांधी ने आंध्रप्रदेश के CM को हवाईअड्डे पर इतना डांटा कि वेचारे CM की आंखों से बरखा-बहार उमड़ आई। लेकिन उसका फायदा वहां एक फिल्मस्टार एनटी रामाराव ने उठाया और एक पार्टी बना ली। कहा कि तेलुगु बिड्डा का अपमान हुआ है। तेलुगु देशम पार्टी चुनाव में स्वीप कर गई। असम में एक बार अस्मिता वाली बात पर तैंतीस साल का नेता सीएम बन गया। DMK जब 1967 में सत्ता में आई तो उसमें अस्मिता का पुट था। 

इन तमाम अस्मिताओं में कहीं न कहीं विराट हिंदी पट्टी के वर्चस्व के खिलाफ एक असुरक्षा का भाव था। लेकिन बिहार की कौन सी खास अस्मिता है ? क्या व्याख्या है उसकी? पिछले साठ सालों में बिहार ने किस असुरक्षा भाव को जिया है या कब-कब अस्मिता की आवाज उठाई है? बिहारी अस्मिता से कई गुणा ज्यादा तो दिल्ली में मैथिली और भोजपुरी के वास्तविक और फर्जी संगठन अस्मिता के नाम पर कार्यक्रम कर लेते हैं।

कुछ लोग व्यंग्य में कहने लगे हैं कि नीतीश कुमार का खुद का DNA तत्कालीन जद-यू नेता और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी से मेल नहीं खाता, उन्होंने इसीलिए उनको आम और लीची नहीं खाने दिया था। पता नहीं क्या सचाई है।

बात डीएनए की आई तो हमारे यहां मुजफ्फरपुर की एक लड़की थी-नवारुणा। तीन साल पहले गुंडो ने उसे घर से उठा लिया था, आज तक नहीं मिली। कहते हैं कि उसकी हड्डी मिली थी। बिहार पुलिस की तो छोड़िए, आजतक CBI उसके DNA का मिलान नहीं कर पाई। फिर 50 लाख लोगों का DNA कौन मिलान करवाएगा। आज एक अखबार ने ठीक लिखा है-एक अत्यधिक पिछड़े सूबे का चुनाव हाईटेक हो गया है। बातें ट्विटर और DNA से नीचे की ही नहीं जा रही। 

कुछ साल पहले बाल ठाकरे परिवार ने भी दावा किया था कि उनके परिवार के DNA में कुछ बिहारी गुणसूत्र हैं। आशा है कि नीतीश कुमार कम से कम ठाकरे परिवार से अपना नाता कतई नहीं जोड़ेंगे। हालांकि राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने ठाकरे परिवार के साथ कंधा में कंधा मिलाकर प्रणब दादा को जरूर वोट किया था! 

नीतीश कुमार का मजबूत पक्ष उनका विकास पुरुष होना था, जो अपेक्षाकृत जाति से ऊपर की छवि रखता था। ऐसा नेतृत्व बिहार को पिछले छह दशक में मुश्किल से मिला था। उनको विकास के मुद्दे को केंद्र में रखना चाहिए, DNA जैसे मुद्दे पर उन्हें अपनी ऊर्जा नहीं गंवानी चाहिए।