15 अप्रैल 2023 का दिन धर्म यात्रा और उस बहाने पर्यटन में गुजरा। बहुत दिनों से मन में था कि कैंची धाम स्थित नीब करौरी बाबा के आश्रम की यात्रा दुबारा की जाए, जो हमने साल 2019 में कोरोना से पूर्व की थी जिसमें नितेंद्र सिंह और हिमांशु झा भी हमारे साथ थे। बीच में दो साल तो वैसे भी कोरोना की भेंट रहे। इस बीच फिर से वहाँ जाने की प्रेरणा जोर मारने लगी। पिछले के पिछले सप्ताह हम वृंदावन स्थित उनकी समाधि का दर्शन कर ही आए थे। कहते हैं कि धर्मस्थल पर आप तभी जाते हैं जब वहाँ से बुलावा आता है--बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता'। कैंची धाम उत्तराखंड के जिला नैनीताल में पड़ता है जहाँ प्रसिद्ध संत नीब करौरी बाबा ( या नीम करौली बाबा भी उन्हें कहते हैं) का आश्रम है। बाबा को इस दुनिया से गए करीब पांच दशक से ऊपर हो चुके हैं। श्रद्धालुओं के बीच इस आश्रम की बहुत मान्यता है।
हम सुबह करीब साढ़े चार बजे नोएडा से रवाना हुए और हमें कैंची धाम तक की करीब 300 किलोमीटर की यात्रा सड़क मार्ग से करनी थी। डील यह थी कि हम लोग एक दोस्त की गाड़ी से वहाँ तक जाएँगे और तेल और टोल का खर्चा आपस में बराबर बाँटा जाएगा। भोजन-चायपानी इत्यादि में भले ही कोई दरियादिली दिखा दे। फिर जब हम नोएडा से निकले तो लगा कि इसमें गढ़ मुक्तेश्वर में गंगा स्नान भी शामिल कर लिया जाए। आखिर गंगा के पास से गुजरें और गंगा स्नान न करें, ये तो कोई बात न हुई।
खैर, हम लोग डासना, मसूरी, पिलखुआ, हापुड़ होते हुए करीब साढ़े छह बजे गढ़ मुक्तेश्वर पहुँच गए। बीच में एक बक्सर भी पड़ा, तो हमने सोचा कि गंगा के आसपास आखिर कितने बक्सर हैं! गंगा के किनारे श्रद्धालु जुटने लगे थे। जैसा कि धार्मिक जगहों पर दृश्य होता है, बिल्कुल वैसी ही दुकानें। ये दुकानें देवघर से लेकर बनारस और हरिद्वार से लेकर पुष्कर तक में करीब-करीब एक-सी होती हैं। चाय-नाश्ते दुकानें हमें लुभाने लगीं लेकिन हमने तय किया कि पेट पूजा तो कैंची धाम जाकर ही होगी, हाँ चाय जरूर पी सकते हैं क्योंकि उसे अभी तक भोजन या पोषण वाले पेय में शुमार नहीं किया गया है। वहाँ बहुत सारे कुत्ते, गायें, बंदर और आधुनिक शैली के भिखाड़ी घूम रहे थे जो चाय पिलाने के नाम पर दस रुपये मांग रहे थे। मैंने एक दुकानदार से कहा कि भाईसाब को चाय पिला दो तो चाय के पैसे मांगने वाला साफ मुकर गया। उसे दस रुपये अपनी शर्तों पर चाहिए थे! ऐसी जगहों पर मुझे एक सुंदर एहसास होता है जो शायद ऐतिहासिक इमारतों, पार्कों या यहाँ तक मंदिरों तक में नहीं होता। धर्मस्थलों की भीड़ या लोगो का एक अलस भाव से मूवमेंट बहुत प्राकृतिक लगता है, कोई आरोपण नहीं। कोई हड़बड़ी नहीं। तरह-तरह के चेहरे। एक भाईसाब गाय को रोटी खिला रहे थे, तभी उधर से एक बंदर आया और उसने गाय को एक चांटा मारकर उसके मुंह से रोटी छीन ली।
सामने उगते हुए सूरज की लालिमा पर पानी पर पर रही थी और ऐसा लग रहा था कि गंगा जल के ऊपर सोना बिखेर दिया गया हो। कितना प्यारा और कितना शीतल सूरज लग रहा था। गढ़मुक्तेश्वर से होकर मैं गुजरा तो बहुत बार था, लेकिन वहाँ गंगा स्नान का यह पहला अवसर था। वहाँ गंगा के ऊपर से दो-दो पुल गुजरते हैं, एक रेलपुल और एक सड़क पुल। जब रेलगाड़ी वहाँ से गुजरती है तो चालायमान सड़क के साथ दो-दो दृश्यों का वह कोलाज और प्यारा लगता है। कहते हैं कि इन्हीं पुलों की वजह से इसे ब्रिज घाट कहा जाने लगा
राजीव शुरू में मुकर रहा था कि सुबह तीन बजे नहाने के बाद उसे दुबारा नहाना पड़ेगा, लेकिन मुझे और हमारे दूसरे मित्र को नहाते देख उसे लगा कि कहीं हम लोग पुण्य की इस यात्रा में उससे आगे न निकल जाएँ। आखिरकर उसने भी मन बना लिया। गढ़ मुक्तेश्वर में गंगा का जल साफ है, उसमें मैदानों वाली गंदगी नहीं मिली है, क्योंकि उसे पहाड़ से आए हुए अभी कुछ ही दूर हुए हैं। हरिद्वार में जहाँ गंगा मैदान में उतरती है, वहाँ से गढ़ मुक्तेश्वर तक गंगा करीब 160 किलोमीटर का सफर तय करती है। वह हरिद्वार से नीचे बिजनौर और हस्तिनापुर के बगल से मवाना और परिक्षितगढ़ के थोड़ा पूरब से बहते होते गढ़ मुक्तेश्वर आती है और फिर नीचे अनूपशहर तक तकरीबन 90 डिग्री के कोण पर सीधे दक्षिण की ओर बहती है।
गढ़ मुक्तेश्वर की एक तीर्थ के रूप में मान्यता हजारों सालों से है। महाभारत और भागवत पुराण में भी इसका जिक्र है। कहते हैं कि यहाँ लगने वाला प्रसिद्ध गढ मुक्तेश्वर मेला करीब पाँच हजार साल पुराना है। महाभारत युद्ध के बाद युद्ध की विभीषिका और नरसंहार को देखकर हुई ग्लानि की वजह से युद्धिष्ठिर ने यहाँ विद्वत सभा बुलाई और मृतकों का पिंडदान किया। यह मान्यता है कि उसी समय से यहाँ यह मेला चलती आ रही है। मेले, शोभायात्राएँ, पदयात्राएँ, कांवर इत्यादि हमारी सांस्कृतिक निरंतरता की यूँ ही प्रतीक नहीं हैं जो निरंतर आक्रमण और बलात रोक के बावजूद अनवरत जारी रहीं।
हमने गंगा में डुबकी ली तो राजीव ने कहा कि 'सिविलाइजेशनल कनेक्ट' फील हो रहा है। ऐसा लगा जैसे हजारों सालों की परंपरा से हम एकाकार हो गए। हमारे सारे धर्मग्रंथ, हमारे सारे पूर्वज, दादी-नानियों की कहानियाँ, पंचतंत्र, नेहरू के गंगा पर लिखे वाक्य, फिल्मी गाने, हमारे घर के सबसे नज़दीक सिमरिया की गंगा, पटना की गंगा, प्रयागराज और बनारस की गंगा और वे सारी नदियाँ जिसमें हम गंगा को देखते हैं और अपना सिर झुकाते हैं, उस एक पल को मानो साक्षात हो उठीं। इसी गंगा में भीष्म ने स्नान किया होगा, निषादराज ने इसी गंगा से श्री राम को पार कराया होगा। मेरी मां को लगता है कि बेटे ने गंगा स्नान किया है, तो वह सही रास्ते पर है।
गढ़ मुक्तेश्वर का ब्रिज घाट साफ-सुथरा है। ज्यादा भीड़ भी नहीं थी। उसी समय गंगा आरती भी शुरू हुई। घाट पर ही गंगाजी की एक मूर्ति है, जहाँ पुजारी पूजा कर रहे थे। माइक पर अनाउंस किया गया कि आरती के समय कृपया स्नान न करें। अन्य धर्म स्थानों की तरफ पुजारी या पंडे लोगों को तंग नहीं कर रहे थे। फूल-माला और आरती सामग्री बेचने वाले ने जरूर एकाध बार आग्रह किया। यह जगह दिल्ली से करीब 100 किलोमीटर दूर है और नोएडा में हमारे निवास स्थान से करीब 80 किलोमीटर। हमने सोचा महीना या पखवाड़े में यहाँ एकाध बार आया ही जा सकता है और पांच-दस किलोमीटर पैदल घूमा भी जा सकता है क्योंकि वहाँ कई सारे गुरुकुल, आर्यसमाज के संस्थान और अन्य धार्मिक संस्थान भी हैं जिनकी अपनी कहानियाँ हैं।
( क्रमश: )