Tuesday, February 24, 2015

अव्यवहारिक मांग और अन्ना की कमजोर 'जमीन'

 लैंड बिल पर सरकार डिफेंसिव दिख रही है लेकिन मेरे हिसाब से एकाध संसोधनों के साथ यहीं बिल व्यवहारिक है। दरअसल जब लोग किसान की बात करते हैं तो कई बार नॉस्टेल्जिक हो जाते हैं। देश में किसानों की बदहाली भूमि अधिग्रहण की वजह से नहीं है-बल्कि उपज का सही मूल्य न मिलने, जोत का आकार छोटा होने,उन्नत तकनीक न मिलने, सिंचाई और बिजली न मिलने की वजह से है। फैक्ट्री की वजह से कोई किसान गरीब नहीं होता, वो इस वजह से गरीब होता है कि पिछले 60 साल में उसकी तीन पीढियों को ठीक से पढाया नहीं गया और परिवार बढकर 44 लोगों का हो गया और जोत का आकार घट गया। वह इस वजह से गरीब होता है कि सरकार ने आसपास अस्पताल नहीं खोले और उसे दरभंगा या बनारस के डॉक्टरों ने घेरकर लूट लिया !


बात इस बिल की करें तो इस बिल में जिन पांच बिंदुओं में किसानों की सहमति न लेने की बात कही गई है उसमें सिर्फ एक पर या ज्यादा से ज्यादा डेढ पर मेरी आपत्ति है-वो भी स्पष्टता के संदर्भ में। इंडस्ट्रियल कॉरीडोर पर खासतौर पर। मान लिया जाए कि पटना से दरभंगा इंडस्ट्रियल कॉरीडोर विकसित करने को मंजूरी दी जाती है( माफ करें संदर्भ हमेशा मैं अपने ही इलाके का सोच पाता हूं, रुस या पोलैंड जेहन में नहीं आता!) तो उस कॉरीडोर में अधिग्रहित जमीन सिर्फ सरकार उपयोग करेगी या कोई और? बाद में वह औने-पौने दाम पर औद्योगिक घरानों को तो नहीं दे देगी? तो यह एक नया SEZ टाइप मामला भी हो सकता है। सरकार को इस पर स्पष्टीकरण देने की जरूरत है।

बाकी, सुरक्षा, ग्रामीण विकास, सस्ते आवास और पीपीपी प्रोजेक्ट में आप चाहें तो पीपीपी पर आपत्ति कर लें और स्पष्टीकरण मांग ले। लेकिन पीपीपी प्रोजेक्ट भी अंतत: सरकार और समाज के लिए ही होते हैं-चाहे वो दिल्ली मेट्रो हो या कोई मेगा सड़क परियोजना। अगर अन्ना हजारे की बात मान ली जाए तो देश में नई सड़क और विद्यालय तो दूर की बात है, सरकार एक कुंआ तक नहीं खोद पाएगी और 'स्टेटस को' बना रह जाएगा। 


अन्ना हजारे जो बात कर रहे हैं वो वैसी बात है कि जमीन पर किसानों का 'शाश्वत' या 'अध्यात्मिक' हक है। यह किसी पंचतंत्र की कहानी के वक्त सा लगता है, जबकि आधुनिक राष्ट्र-राज्य में जमीन पर वास्तवकि हक 'स्टेट' का है जिसका नेतृत्व, एक संप्रभु संसद का हिस्सा होता है। गांधी और बिनोवा ने भी कहा था कि 'सभै भूमि गोपाल की'..यहां गोपाल का मतलब गाय चरानेवाला नहीं, गांधी का ईश्वर(या सामूहिक विवेक?) था और लोकतंत्र में 'सार्वभौम सत्ता' है। लेकिन अन्ना कह रहे हैं कि जमीन पर असली हक किसान का है और वो हक वो किसी कीमत पर उससे छीना नहीं जा सकता। कई बार यह बात तो परले दर्जे की पूंजीवादी सोच लगती है जिसमें जो मेरा है वो मेरा है-कोई छीन नहीं सकता। हालांकि मैं किसानों की तुलना पूंजीवादियों से यहां नहीं कर रहा।

अन्ना की बात अगर मान ली जाए तो कल को किसी चीनी हमले की सूरत में दरभंगा एयरपोर्ट में एक ईंच की बढोत्तरी नहीं की जा सकती क्योंकि वहां 70 फीसदी किसानों की सहमति चाहिए होगी ! उनकी बात अगर मान ली जाए तो मेरे गांव में सरकारी अस्पताल नहीं बन पाएगा जिसको नीतीश सरकार मंजूर कर चुकी है लेकिन उतने किसान जमीन देने को राजी नहीं है। मेरे गांव में तीन पगडंडियों को खडंजा सड़क बनाने की योजना नीतीश सरकार पास कर चुकी है लेकिन उसके लिए 1-1 किलोमीटर तक पगडंडी के दोनो तरफ 4-4 फीट जमीन लेनी होगी। अन्ना हजारे की चली तो मेरे गांव में कभी वो पगडंडी सड़क नहीं बन पाएगी-जिस वजह से बरसात के दिनों कई किसानों की पत्नियां प्रसव काल में दम तोड़ देती हैं।

दरअसल, किसानों को असली समस्या भूमि अधिग्रहण से नहीं-मुआवजा और पुनर्वास में भ्रष्टाचार में है। एक आकलन के अनुसार सन् 1947 से लेकर 1990 तक देश में करीब 3.5 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे जिनके पुनर्वास और मुआवजे में भारी गड़बड़ी हुई। बाद में भी गड़बड़ी हुई होगी, ये संदर्भ मुझे राम गुहा की किताब इंडिया आफ्टर गांधी में कहीं मिले जिसका मैंने अनुवाद किया था। कुल मिलाकर कहें कि जनता का भरोसा सरकार पर कई कारणों से नहीं है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम 21वीं सदी में वक्त का पहिया रोक दें और वैदिक युग में प्रस्थान कर जाएं।

हालांकि इस बहस के अपने फायदे भी हैं। बहस इस पर होगी कि फिर उद्योगों के लिए जमीन कहां से आएगी? बहस का एक सिरा जनसंख्या विस्फोट की तरफ भी मुड़े कि शिक्षा बजट को बढाया जाए, लड़कियों के लिए ज्यादा मौके मुहैया करवाएं जाएं और जनसंख्या पर काबू पाया जाए।

एक प्रश्न है कि किसान एकमुश्त इतना पैसा लेकर करेंगे क्या? उन्हें शेयर बाजार में लगाना या फ्लैट खरीदना आता नहीं-उनका हाल वहीं होगा जो नोएडा वालों का हुआ। 10-12 साल में दारू पीकर फूंक देंगे। इसका उपाय ये है कि सरकार सिर्फ पैसा न दे, बल्कि परिवार में लोगों को सरकारी नौकरी भी दे। वह ज्यादा ठोस उपाय है।

सुना है कि सरकार के पास कोई बंजर जमीन को ठीक करने वाली योजना थी-पुराने जमाने से। लेकिन उसका मकसद सिर्फ खेती के लिए था। अब वक्त आ गया है कि देश के बंजर इलाकों में उद्योग के लिए माहौल बनाया जाए-हालांकि ये इतना आसान नहीं है। उसके लिए वहां बिजली और सबसे जरूरी पानी का इंतजाम करना होगा-जो कठिन तो है लेकिन असंभव नहीं।
10. दरअसल हर बनिया, फरीदाबाद या नासिक के पास ही जमीन चाहता है। कोई भी भिंड मुरैना या जैसलमेर नहीं जाना चाहेगा। 21वीं सदी के हिंदुस्तान को इस पर भी सोचना होगा कि गंगा के मैदान में जहां आबादी ठुसी पड़ी है और बंगाल में कम्यूनिस्टों की खूंखार सरकार जमीन के प्रश्न पर धराशायी हो गई-वहां आखिर रास्ते क्या हैं?

लेकिन शिकारी उद्योगपतियों से इतर भी जमीन तो सरकार को चाहिए ही जन-कल्याण के लिए। ऐसे में सरकार का हाथ बिल्कुल रोक देना उचित नहीं है। बेहतर है कि सरकार इंडस्ट्रियल कॉरीडोर पर बात साफ कर दे, तो फिर भी यह बिल व्यावहारिकता के निकट है।

Monday, February 9, 2015

ठिठकी हुई दलित राजनीति के लिए ऐेसा झटका जरूरी है !

मांझी नेता नहीं हैं, प्रतीक भर हैं। लेकिन राजनीति में प्रतीक बड़े काम का होता है। कई बार प्रतीक ऐसा काम कर देता है जैसा बड़े-बड़े हाकिम नहीं कर पाते हैं। जैसे यूपी में जब पहली दफा मायावती आईँ थीं तो ET ने लिखा कि दलितों में बीए-एमए करने की होड़ लग गई। एक दशक में दलितों की साक्षरता दर पूरे देश के मुकाबले दोगुनी हो गई। मुझे याद है जब लालू यादव बिहार के CM बने तो मेरे कई यादव दोस्तों ने कहा कि वह सिर्फ इसलिए पढता है कि शायद उसकी शादी मीसा भारती से हो सकती है। शादी तो नहीं हुई, लेकिन ढेर सारे यादव ग्रेजुएट जरूर हो गए!
मांझी ने विद्रोह कर अच्छा किया। हार-जीत अलग बात है लेकिन उनका यह विद्रोह उनके समुदाय को अतिरिक्त ऊर्जा देगा। मैं सलमान खान होता तो कहता कि इस विद्रोह में एक 'किक' है! यह विद्रोह दलितों को भविष्य में बेहतर लडाई के लिए प्रेरित करेगा। 

बाबा साहेब ने जाति-विहीन राजनीति की बात की थी, दलित राजनेता दूसरों की तरह ही जाति से चिपकने लगे। हालांकि दलित राजनीति, मंडल राजनीति की तुलना में ज्यादा गतिशील है और प्रगतिशील भी। वह शून्य से शुरू होकर डिक्की तक पहुंची है। पहले उसमें सरकारी मध्यमवर्ग का जन्म हुआ, फिर उसने राजनीति पर दावा ठोका। इसके उलट पिछड़ों ने पहले राजनीति पर दावा ठोका,उसके बाद वहां मध्यमवर्ग पैदा होना शुरू हुआ। उस हिसाब से पिछड़ा राजनीति कूपमंडूक है और सिर्फ संख्याबल पर ही इतराती है। वह हमेशा क्षत्रिय बनने का ख्वाब देखती रहती है जैसे कोई हिंदी का लेखक अंग्रेजी में छपने का ख्वाब देखता रहता है। इस मामले में वह प्रयोगधर्मी नहीं है। दलित ज्यादा साहसी हैं, कम संख्या-बल पर भी उन्होंने अपने हिसाब से मोल-भाव किया है और जगह बनाई है।

भारत का दलित, पिछड़ों की आक्रामकता और सवर्णों की राजनीतिक कुशलता की वजह से बीजेपी की गोद में जा बैठा है। देखा जाए तो उस हिसाब से पिछड़ा वर्ग ज्यादा सनातन-वादी है। बाबा साहब ने कहीं लिखा है कि ये मंझोली जातियां ब्राह्मणों की समाजिक पुलिस है, जब सवर्ण गांव छोड़कर शहर में बस जाएंगे तो ये जातियां सवर्णों से भी ज्यादा आक्रामकता से दलितों पर हमला करेंगी। लगता है कि लिटरली तो नहीं लेकिन क्लासिकल रूप से ऐसा ही हो रहा है।

बाबा साहब ग्राम्य-व्यवस्था के भी एक हद तक आलोचक थे। उनके हिसाब से गांव दलितों का कब्रगाह है। आज की तारीख में वहां पर सवर्णों की जायदाद भी सुरक्षित नहीं है। यानी शहर दलितों के लिए गतिशीलता देता है और सवर्णों को तो मानो पंख ही दे देता है। तो गांव किसके लिए सुरक्षित है? पिछड़ो के लिए? शायद ये भी पूरा सच नहीं है। वे गांव में सुरक्षित रहकर भी क्या कर पाएंगे जहां विकास की धारा ही सूख गई है। गांधी ने अलग अर्थों में ग्राम-स्वराज्य की बात की थी। वह विकेंद्रीकरण का मॉडेल था। हूबहू गांव न सही तो छोटे-छोटे 100-500 कस्बे-शहर जिसकी बात मोदी भी कर रहे हैं। तो ऐसे में बापू का विकेंद्रीकरण और अम्बेदकर के नगरीय व्यवस्था की तरफ झुकाव को मिला दिया जाए तो दलितों का कुछ हो सकता है। 

लेकिन सावधान। कहीं ऐसा न हो कि गांव से उठकर शहरी दलित, मजदूर का मजदूर बना रह जाए। इसके लिए कौन उपाय करेगा? सरकार? वह सिर्फ हिंदी पढाएगी, कुछेक नौकरियां दे देगी। समाज? समाज तो दलितों के लिए उपेक्षा का भाव रखता है और नीतीश कुमार की तरह इस्तेमाल भी करता है। दलितों का समाज सक्षम नहीं है-जो सक्षम हैं वे नव-ब्राह्मण बन गए हैं ! ये ऐसे कुछ सवाल हैं जिनसे दलितों को और पूरे समाज को टकराना होगा और मांझी जैसे प्रकरण उन्हें बार-बार अपनी हकीकत की याद दिलाते रहेंगे।

Saturday, February 7, 2015

दिल्ली चुनाव: जीत सकती है बीजेपी!

पिछले साल विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 33 फीसदी वोट मिले थे और आप को 29.5 फीसदी। लोकसभा चुनाव में बीजेपी का वोट 13 फीसदी बढ गया, उसे 46 फीसदी मिला और आपको 33 फीसदी। यानी थोड़ा आप का भी बढा। कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुक्सान हुआ। उसे विधानसभा में 24.5 फीसदी वोट मिला था जो लोकसभा के वक्त गिरकर करीब 15 फीसदी रह गया। 
लोकसभा चुनाव में मोदी को जिताने और मनमोहन को हराने के लिए वोट हुआ था। यानी 46 फीसदी वोट बीजेपी को इन्ही दो महान कार्यों के लिए मिले थे। लेकिन इस चुनाव में न तो मनमोहन जैसा अलोकप्रिय विरोधी सामने था और न ही मोदी जैसा करिश्माई सामने था। यानी बीजेपी को उन बहुत सारे लोगों का वोट नहीं मिला होगा जिन्होंने "मोदी बनाओ-कांग्रेस हटाओ" प्रोजेक्ट के तहत उसे वोट दिया होगा। मान लिया जाए कि उस बढे हुए 13 फीसदी में से आधे ने यानी करीब 6.5 फीसदी ने भी उदासीनता दिखाई हो तो बीजेपी घटकर 39.5 फीसदी पर आ जाएगी। लेकिन वो 6.5 फीसदी जाएगा कहां? कांग्रेस में कदापि नहीं। यानी वो "आप" को मिलेगा। यानी "आप" का वोट बढकर 33+6.5= 39.5 फीसदी हो जाएगा।

लेकिन अभी ठहरिये। आप को और फायदा होना है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 15 फीसदी वोट मिले थे जिसमें बहुत सारे अल्पसंख्यकों के थे और मध्यमवर्ग व कुछ दलितों के भी रहे होंगे। इस बार कांग्रेस की जो हालत है उसका वोट सत्यनारायण पूजा के प्रसाद की तरह बंट गया होगा। मान लें कि उस 15 फीसदी में करीब 7 फीसदी वोट खांटी अल्पसंख्यकों के थे, तो तय मानिए कि उसमें से 5 फीसदी तो इस बार आप में चले गए होंगे। यानी "आप" हो जाती है बढकर 39.5+5=44.5 फीसदी। 

लेकिन ठहरिए, यहां आप में से अब कुछ वोट माइनस कीजिए। आप ने जिस तरह से गरीबों और अल्पसंख्यकों का जमावड़ा किया है-वो कुछ मध्यमवर्गीय वोटरों को बैचेन कर रहा है जिसने पिछली बार उसे विधानसभा व लोकसभा में वोट कर दिया था। यहां पर ऐसे वोटर करीब 3-4 फीसदी होंगे। ज्यादा हुए तो आप को भारी झटका लगेगा। शाही इमाम ने भी कम से कम 1 फीसदी वोटरों को हिलाया-डुलाया होगा। यानी आप के इस 44 फीसदी में से 4 फीसदी घटा दीजिए। कुल मिलाकर आप की फाइनल टैली 40 फीसदी वोट के आसपास है।
लेकिन दूसरी तरफ कांग्रेस से कुछ मध्यमवर्गीय हिंदू और दिल्ली का दलित वोट बीजेपी में भी गया होगा(दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम दंगा दरअसल दलित-मुस्मिल दंगा था)। कांग्रेस के पतन की मलाई सिर्फ आप नहीं खाएगी। यानी अगर हम मान लें कि इस बार कांग्रेस को 15 की जगह महज 8-10 फीसदी वोट मिले तो 2-3 फीसदी मध्यमवर्गीय हिंदू वोट बीजेपी में जाएगा। यानी बीजेपी हो जाएगी 43 फीसदी। यहां पर थोड़ा सा और दलित वोट बैंक बीजेपी को भारी कर देता है जैसा कि अनुमान है। 
5.इस अनुमान से बीजेपी करीब 44-45 वोट पर बैठी है और आप 40 फीसदी पर। दोनों के बीच 5 फीसदी की भारी खाई है। ऐसे में बीजेपी चुनाव जीत जाएगी।
लेकिन प्वाइंट नंबर-2 में वर्णित भाजपा के 13 फीसदी वोट में से अगर "आप" 10 फीसदी खींच लेती है तो "आप" 43 फीसदी और बीजेपी 40 फीसदी पर चली आएगी।
लेकिन देखा गया है कि 10 फीसदी की निगेटिव वोटिंग अमूमन नहीं होती है-अगर होती है तो किसी पार्टी के खिलाफ जबर्दस्त गुस्से में होती है। यहां बीजेपी से ऐसा गुस्सा था नहीं। ऐसे में 8 फीसदी की निगेटिव वोटिंग दोनो के वोट को "टाई" कर देंगे।
8. यानी स्थिति जो दिख रही है उसमें या तो बीजेपी जीत जाएगी या दोनों दल की स्थिति बराबर हो जाएगी। "आप" के जीतने की स्थिति मुश्किल लग रही है।

Tuesday, May 7, 2013

वैशाली यात्रा-10


अब हमारे एजेंडे में था भगवान महावीर की जन्मस्थली को देखना जो वैशाली की शायद सबसे महत्वपूर्ण जगह है लेकिन लोगबाग अशोक स्तंभ की प्रसिद्धि के सामने अक्सर इसे भूल जाते हैं। वैशाली में जहां अशोक स्तंभ है, उससे करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर मुख्य सड़क से दाईं तरफ एक पक्की सड़क निकलती है जो वासोकुंड गांव चली जाती है। इसे प्राचीन ग्रंथों में विदेहकुंड, कुंडलग्राम या कुंडग्राम भी कहा गया है। आज से करीब 2600 साल पहले जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म यहीं हुआ था।


वासोकुंड सांस्कृतिक-भौगोलिक रूप से वैशाली का ही हिस्सा है लेकिन प्रशासनिक रूप से जिला वैशाली की सीमा यहां खत्म हो जाती है और अब यह मुजफ्फरपुर का हिस्सा है। कह सकते हैं कि यह वैशाली-मुजफ्फरपुर के बिल्कुल बीच में है। वासोकुंड की तरफ जाते हुए आपको लीचियों के बागान दिखने लगते हैं और आप समझने लगते हैं कि कुछ-कुछ अलग सा है।

मैं जब वासोकुंड जा रहा था तो मेरे मन में एक गजब सा उल्लास था। मैं दुनिया में एक प्रमुख धर्म के तीर्थंकर के जन्मस्थल की तरफ जा रहा था जहां मेरी कल्पना में हजारो श्रद्धालुओं की जमघट होगी। लेकिन रास्ते में वीरानगी छाई हुई थी। इक्का दुक्का साईकिल सवार और यदा कदा गाय-भैंसों के अलावा कुछ नहीं मिला। गांव शुरू होने से पहले सड़क की दाईं तरफ एक जैन शोध संस्थान दिखा, तो लगा कि हम वासोकुंड के नजदीक हैं।

आगे चौक पर किसी से पूछने पर पता चला कि वासोकुंड यहीं है। महावीर का जन्मस्थल कहां है? ‘दाएं लीजिए, सामने बोर्ड लगा है।


वह पांचेक एकड़ में फैला हुआ एक परिसर था, जो निर्माणाधीन था। ईंट की चारदीवारी से घिरी हुई जमीन थी जहां सड़क की तरफ से एक लोह का फाटक लगा हुआ था। अंदर लीची के पेड़ और ईंट और पत्थरों के ढ़ेर। दूर-दूर तक कोई नहीं। हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ की हमारी कल्पना को गहरा धक्का लगा। वहां तो सन्नाटा पसरा हुआ था। फाटक से अंदर जाने पर एक गार्डनुमा व्यक्ति बैठा मिला जिसने बताया कि मंदिर पिछले कई सालों से निर्माणाधीन है और विस्तृत जानकारी मंदिर के मुख्य प्रबंधक जमुना प्रसाद देंगे जो मध्यप्रदेश के सागर के रहनेवाले थे।

बहरहाल, हम ईंट-पत्थरों के ढ़ेर से होकर आगे बढ़े तो एक विशालकाय निर्माणाधीन मंदिर था जिसमें जगह-जगह ऊपर से लेकर नीचे तक बांस के बल्ले लगे हुए थे। उस मंदिर में महावीर स्वामी की एक मूर्ति स्थापित थी और चबूतरे पर मंदिर का एक भव्य डिजायन था। बगल में दीवार पर एक पोस्टर टंगा था जिसमें मंदिर कमेटी के सदस्यों और उसके संरक्षक आचार्य विद्यानंदजी की तस्वीर थी। विद्यानंदजी का मंदिर निर्माण में बहुत बड़ा योगदान बताया जा रहा था और वे दिल्ली में रहते थे।


मंदिर के पहले माले से बाईं तरफ एक गेस्ट हाउस का निर्माण किया जा रहा था और दाईं तरफ एक जैन कमेटी का भोजनालय था जिसमें सस्ते दर पर भोजन की व्यवस्था थी। अलबत्ता दिन के चार बज चुके थे, तो भोजनालय बंद था।

कुर्सी पर मंदिर के प्रबंधक जमुना प्रसाद बैठे थे और सामने एक गेस्ट रजिस्टर और दानपेटी थी। उनसे बात करने पर टुकड़े-टुकड़े में जो जानकारी मिली उसके मुताबिक यह जगह 1957 तक भारत सरकार के अधीन थी और बाद में बिहार सरकार की देखरेख में आ गई। जैन कमेटी ने मुकदमा दायर किया तो सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई के बाद सन् 2007 में इसे जैन कमेटी को सुपुर्द कर दिया गया जिसने आसपास की पांचेक एकड़ जमीन खरीदकर इस पर एक भव्य मंदिर बनवाने का काम शुरू किया। मंदिर सन् 2013 में बनकर तैयार हो जाने की उम्मीद थी।हालांकि वहां काम के रफ्तार को देखकर कतई नहीं लग पा रहा था कि सन् 2013 में मंदिर बन पाएगा।

जमुना प्रसाद ज्यादा कुरेदने पर बातों को कुछ छुपाते नजर आए और बार-बार वे मंदिर के मुख्य इंजिनीयर से बात करने की सलाह देते नजर आए जो थोड़ी दूर खड़े किसी से मोबाईल पर लंबी वार्ता में तल्लीन थे।

तो जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर के जन्मस्थली का ये हाल था। बिहार या भारत की सरकार ने उसे जैन कमेटी के हवाले कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी और जैन कमेटी वाले भी बहुत उत्साहित नहीं लग रहे थे। मुझे पिछले साल अपनी जयपुर यात्रा का स्मरण हो आया जहां शहर से बाहर पदमपुर जैन मंदिर में हजारों पर्यटकों और श्रद्धालुओं का तांता लगा हुआ था और उस इलाके का वह एक लैंडमार्क था। लेकिन महावीर स्वामी की जन्मस्थली की यह अवहेलना क्यों थी, मेरी समझ से बाहर थी।

Monday, May 6, 2013

वैशाली यात्रा-9


हमारे पास समय कम था और अब हम अशोक स्तंभ देखने के लिए चले जो वहां से करीब 2 किलोमीटर उत्तर की दिशा में था। उस जगह को कोल्हुआ गांव कहते हैं। अशोक स्तंभ को बचपन से हम किताबों मे देखते आ रहे थे।

हमने परिसर में जाने का टिकट लिया और बाहर ही बाईक खड़ी की। बाहर कुछ दुकानें थी जो अमूमन इस तरह के जगहों पर होती हैं। बोतलबंद पानी, कोल्डड्रिंक, बुद्ध की काष्ठ और प्रस्तर मूर्तियों के साथ गणेश और बहुत सारी आकृतियां बिक रही थीं। लेकिन वहां भी बहुत भीड़-भाड़ नहीं थी। बाहर सन्नाटा सा था और फरवरी का सूरज प्यारा लग रहा था।


अंदर जाते ही स्तूप का भग्नावशेष और स्तंभ दिखा। परिसर में प्रवेश करते ही खुदाई में मिली इंटों से निर्मित गोलाकार स्तूप और अशोक स्तम्भ दिखायी दे जाता है। एकाश्म स्‍तंभ का निर्माण लाल बलुआ पत्‍थर से हुआ है। इस स्‍तंभ के ऊपर घंटी के आकार की बनावट है (लगभग १८.३ मीटर ऊंची ) जो इसको और आकर्षक बनाता है। अशोक स्तंभ को स्थानीय लोग भीमसेन की लाठी कहकर पुकारते हैं। यहीं पर एक छोटा सा कुंड है, जिसको रामकुंड के नाम से जाना जाता है। पुरातत्व विभाग ने इस कुण्ड की पहचान मर्कक-हद के रूप में की है। कुण्ड के एक ओर बुद्ध का मुख्य स्तूप है और दूसरी ओर कुटाग्रशाला है जिसका जिक्र बुद्ध साहित्य में व्यापक तौर पर आता है।

 परिसर में बड़े करीने से रंग-बिरंगे गुलाब लगाए गए थे और घासों की छंटाई की गई थी। सामने स्तंभ के पास एक दक्षिण कोरियाई दल(जिसमें करीब 30 लोग थे) बैठकर कुछ मंत्रोच्चार कर रहा था जिसमें कॉरपोरेट किस्म के लोग थे और कुछ बौद्ध भिक्षु उन्हें मंत्र पढ़वा रहे थे।

उस मंत्र सभा में हम भी बैठ गए। हमें मंत्र तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था-पता नहीं वो पालि भाषा में था या कोरियन में। लेकिन उसकी धुन गजब की थी। मन के गहरे तल तक एक शांति पसर आई। हमने राजीव की तरफ देखा, वो मुस्कुरा रहा था। शायद वह सोच रहा था कि इस दल में जरूर सैमसंग या हुंडई मोटर्स का चेयरमैन बैठा होगा जिससे वह दोस्ती गांठ लेगा !


कोरियन दल के अलावा वहां कुछ हिंदुस्तानी जोड़े भी थे जो शायद बुद्ध से अपने लिए आशीर्वाद मांगने आए थे। मोबाईल और डिजिटल कैमरों के इस दौर में फोटोग्राफरों का धंधा दम तोड़ रहा था।

वैशाली में जिस जगह पर अशोक का स्तंभ है वह एक बौद्ध विहार था जिसका नाम कुटाग्रशाला विहार था और जहां महात्मा बुद्ध अक्सर ठहरा करते थे। वहां पर जिस स्तूप का भग्नावशेष है उसे आनंद स्तूप कहते हैं और इस स्तंभ का निर्माण सम्राट अशोक ने करीब 2300 साल पहले करवाया था। एक अन्य कथा के अनुसार यह बौद्धविहार और इससे लगा वन आम्रपाली ने बुद्ध को भेंट स्वरूप दी थी।

हमने स्तंभ को छुआ, स्तूप और वहां के ईंटों को छुआ मानो हम इतिहास को टटोलने की कोशिश कर रहे हों। हमने सोचा कि इन ईंटो को सम्राट अशोक ने भी जरूर छुआ होगा।

Friday, May 3, 2013

वैशाली यात्रा-8


अस्थि स्तूप या रेलिक स्तूप के सामने की सड़क पर कुछ बालक भिक्षु नजर आए। हमने उनसे बात की और पूछा कि वे कब भिक्षु बने? बातचीत से पता चला कि वे बोधगया के रहनेवाले हैं और वहीं उन्हें दीक्षा दी गई। हमने उनसे उनका नाम पूछा, तो जैसा कि भिक्षुओं का नाम होता है, उसी तरह का उनका नाम था जिसके शुरु में भंते लगा हुआ था। वे भगवा और पीले वस्त्रों में थे और उनके सिर मुंडे हुए थे।


शुरू में हमारे सवालों का जवाब देते हुए वे हिचक रहे थे। हमने उनसे पूछा कि क्या वे पढ़ते लिखते भी हैं, तो पता चला बगल के बौद्ध मठ में एक स्कूल है जहां उनके पढ़ने और रहने-खाने की व्यवस्था है। उनमें से अधिकांश या सबके सब दलित और पिछड़ी जातियों के गरीब बच्चे थे जिनमें से किसी का पिता मध्य बिहार में खेतिहर मजदूर था तो कोई गया में रिक्शा चलाता था। आसपास मूर्तियां और कैलेंडर बेचनेवाले बच्चे उन्हें छेड़ रहे थे और वे शरमाकर कर भाग रहे थे। मुझे ऐसा लगा मानो किसी नाटक में उन्हें जबरन अभिनय करने भेज दिया गया हो ! बौद्ध भिक्षु बनने-बनाने की यह भी एक कहानी थी।  

आगे चलकर सड़क बाईं और दाईं तरफ मुड़ गई है। अभिषेक पुष्करिणी के किनारे आगे से बाईं ओर मुड़ने पर खूबसूरत और विशाल सा शांति स्तूप दिखता है जो मन मोह लेता है। दूसरी तरफ कुछ होटलनुमा इमारतें दिखीं, जो शायद सरकारी थी।


वैशाली के शांति स्तूप का निर्माण जापान के निप्पोनजन मायहोजी पंथ ने राजगीर के बुद्ध विहार सोसाईसटी के साथ संयुक्त रूप से किया है। द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद से जापान के निचिदात्सु फूजिई गुरूजी ने पूरी दुनिया में शांति स्तूपों के निर्माण की शुरुआत की थी और वैशाली का शांति स्तूप भी उसी सिलसिले में एक कड़ी है। गोल घुमावदार गुम्बद, अलंकृत सीढियां और उनके दोनों ओर स्वर्ण रंग के बड़े सिंह जैसे पहरेदार शांति स्तूप की रखवाली कर रहे प्रतीत होते हैं। सीढियों के सामने ही ध्यानमग्न बुद्ध की चमकती हुई प्रतिमा दिखायी देती है। शांति स्तूप के चारों ओर बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में अत्यन्त सुन्दर मूर्तियां ओजस्विता की चमक से भरी दिखाई देती हैं।


शांति स्तूप के सामने अभिषेक पुष्करिणी है और उसके उस पार बुद्ध का रेलिक या अस्थि स्तूप। दूसरी तरफ गेहूं के हरे-भरे खेत और सरसो के फूल। बड़ा मनमोहक दृश्य बन पड़ता है। मन करता है घंटों वहीं बैठे रहे। ढ़ेर सारे स्कूली बच्चे और स्थानीय लोग वहां फोटो खिंचवा रहे थे जिसमें से तो बहुत सारे नव-विवाहित जोड़े थे जो आसपास के गांवों से आए हुए थे।

Thursday, April 25, 2013

वैशाली यात्रा-7


अभिषेक पुष्करिणी की दाईं तरफ वैशाली म्यूजियम, सरकारी इस्पेक्शन बंग्लो और बुद्ध के अस्थि स्तूप हैं लेकिन उस दिन म्यूजियम बंद था और लोगों ने कहा कि वहां देखने को बहुत कुछ है भी नहीं। सरकारी इस्पेक्शन बंग्लो दूर से ही चमक रहा था और ऐसा लग रहा था कि अधिकारियों ने अपने रहने-खाने का शानदार इंतजाम किया था।  


हम वहां से बुद्ध के अस्थि स्तूप देखने गए जिसे अपेक्षाकृत ठीकठाक तरीके से संरक्षित किया गया है। दसेक एकड़ जमीन को दीवारों से घेर दिया गया था और पुरातत्व विभाग ने नाम पट्टिका लगा रखी थी। अंदर मैदान में रंग-बिरंगे फूल खिले था जहां पचास के करीब देशी-विदेशी पर्यटक थे। मजे की बात ये उस जगह के बारे में तो कि नाम पट्टिका थोड़ा भीतर लगाई गई थी, लेकिन आदेशात्मक लहजे में क्या करें और क्या नहीं करें कई जगह लिखा हुआ था। ऐसा वैशाली में कई जगह मिला। पता नहीं पुरातत्व विभाग इतना गुरुत्व का भाव क्यों पाले हुआ था।
वैशाली में बुद्ध का अस्थि स्तूप


बुद्ध की अस्थि जहां रखी हुई थी उस जगह को लोहे से घेर कर स्तूपनुमा बना दिया गया था। ऊपर एस्बेस्टस या टीन की छत थी। बीच में पत्थर की आकृति थी और हमें बताया गया कि बुद्ध के अस्थि अवशेष के कुछ अंश यहां जमीन के अंदर रखे गए थे। बौद्ध श्रद्धालू उस जगह की परिक्रमा कर रहे थे। वहां हमें एक बौद्ध भिक्षु भंते बुद्धवरण मिले जो तफ्सील से लोगों को उस जगह के बारे में बता रहे थे।

भंते बुद्धवरण ने हमें बताया, अपनी मृत्यु(महापरिनिर्वाण) से पहले बुद्ध वैशाली आए थे और उसके बाद वे कुशीनारा चले गए जहां उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद उनके अस्थि अवशेष को आठ भागों में बांटा गया जिसका एक हिस्सा वैशाली गणतंत्र को मिला था। वहीं वो अस्थि अवशेष है जिसे यहां रखा गया है और बौद्ध श्रद्धालुओं के लिए यह जगह अत्यंत ही पवित्र है।


भंते बुद्धवरण से हमने पूछा कि वो कब से बौद्ध भिक्षु हैं? उनका कहना था कि उनका जन्म नेपाल के लुंबिनी में(महात्मा बुद्ध का जन्मस्थल) हुआ था और उनके माता-पिता भी बौद्ध थे। उसके बाद वहीं उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हासिल की और बाद में नालंदा चले आए। वहां उन्होंने पालि और बौद्ध साहित्य में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की और एक बौद्ध भिक्षु का जीवन जी रहे हैं और जगह-जगह घूमते रहते हैं। मैंने उनसे पूछा कि उनका खर्च कैसे चलता है? वे मुस्कराने लगे। उनके चेहरे पर एक अपूर्व शांति थी। उन्होंने कहा, बौद्ध भिक्षुओं का जीवन सदा से भिक्षा पर आधारित रहा है। आप जैसे लोग कुछ न कुछ दे देते हैं जो जीवन जीने के लिए काफी होता है।

बुद्ध के अस्थि स्तूप परिसर में काफी लोग हिमाचल प्रदेश के भी मिले जो अपने आराध्य के स्थल को देखने आए थे। बाहर बौद्ध साहित्य, माला, काष्ठ प्रतिमाएं और कैलेंडर बिक रहे थे। हम स्तूप से बाहर आए तो अभिषेक पुष्करिणी के किनारे सैकड़ों की संख्या में स्कूली बच्चे बैठकर पूरी जलेबी और सब्जी का भोज खा रहे थे। पता चला एक सरकारी स्कूल का ट्रिप है जिसे वैशाली घुमाने लाया गया है। हमें ये तो पता था कि बिहार सरकार आजकल इस तरह का ट्रिप करवा रही है, लेकिन बच्चों को पूरी जलेबी खिलाया जाता होगा, इसकी कल्पना नहीं थी !


हमने स्कूल के एक शिक्षक से पूछा तो उन्होंने कहा कि सरकारी फंड तो पांच हजार का ही था, लेकिन शिक्षकों ने अपने वेतन से पैसा जमाकर बच्चों को ये ट्रिप करवाया जिसका कुल खर्च करीब बीस हजार का आया था। सुनकर अच्छा लगा कि कुछ शिक्षकों में जरूर इतिहासबोध बाकी है। बदलते बिहार का यह एक नमूना था।

Friday, April 19, 2013

वैशाली यात्रा-6


वैशाली की यात्रा और उसका वृतांत आम्रपाली के बिना वाकई अधूरी है। आम्रपाली वैशाली की प्रसिद्ध नगरबधू थी जिसका जिसके बारे में कई दंतकथाएं प्रचलित हैं। मेरे मन में था कि चूंकि आम्रपाली की कहानी सब जानते ही होंगे इसलिए इस पर अलग से एक पोस्ट लिखना जरूरी नहीं है। लेकिन मेरे कुछ मित्रों का आग्रह था कि आम्रपाली पर एक पोस्ट होना ही चाहिए।
बुद्ध से दीक्षा लेती आम्रपाली


ऐतिहासिक उपन्यसों को लिखने के लिए प्रसिद्ध आचार्य चतुरसेन ने आम्रपाली पर एक उपन्यास लिखा जिसका नाम है-वैशाली की नगरबधू। चतुरसेन ने तत्कालीन वैशाली में आम्रपाली की महत्ता का वर्णन करते हुए लिखा है-  

वैशाली की मंगल पुष्करिणी का अभिषेक वैशाली जनपद में सबसे बड़ा सम्मान था। इस पुष्करिणी में जीवन में एक बार स्नान करने का अधिकार सिर्फ उसी लिच्छवि को मिलता था जो गणसंस्था का सदस्य निर्वाचित किया जाता था। उस समय बड़ा उत्सव समारोह होता था और उस दिन गण-नक्षत्र मनाया जाता था। यह पुष्करिणी उस समय बनाई गई थी जब वैशाली प्रथम बार बसाई गई थी। इसमें लिच्छवियों के उन पूर्वजों के शरीर की पूत गंध होने की कल्पना की गई थी जिन्हें आर्यों ने व्रात्य कहकर वहिष्कृत कर दिया था और जिन्होंने अपने भुजबल से अष्टकुल की स्थापना की थी। उस समय तक लिच्छवियों के अष्टकुल के सिर्फ 999 सदस्य ऐसे थे जिन्होंने पुष्करिणी में स्नान किया था। लेकिन अम्बपाली लिच्छवि थी और वैशाली की जनपद कल्याणी का पद उसे मिला था। उसे विशेषाधिकार के तौर पर वैशाली के जनपद ने यह सम्मान दिया था।


आम्रपाली या अम्बपाली का जिक्र आते ही भारतीय इतिहास की: विद्रोहिणी नारियों में से एक की तस्वीर उभरती है। आम्रपाली एक सेवानिवृत सेनानायक की बेटी थी और आम के बाग में जन्म लेने की वजह से उसका नाम आम्रपाली पड़ा। जन्म के समय ही उसे अपनी माता का वियोग सहना पड़ा और उसे उसके पिता ने लाड़-प्यार से पाला था। यौवन की दहलीज पर पहुंचते ही आम्रपाली के सौंदर्य की चर्चा पूरे वैशाली में फैल गई और सामंतपुत्रों, वणिकों और अभिजात्यों में उसे पाने की होड़ लग गई। वैशाली में तत्कालीन प्रथा के मुताबिक आम्रपाली को बलात नगरबधू घोषित कर दिया गया जिसका आम्रपाली ने कटु विरोध किया।

आम्रपाली अपने इस अपमान को कभी भूल नहीं पाई। उस समय मगध और वैशाली में प्रतिद्वंदिता चल रही थी। मगध सम्राट बिम्बिसार को जब आम्रपाली की सुंदरता के बारे में पता चला तो उन्होंने गुप्त रूप से उसे अपना प्रणय निवेदन भेजा। आम्रपाली ने दो शर्तें रखी। पहली, बिम्बिसार वैशाली पर आक्रमण कर उसे खाक में मिला देंगे और दूसरी अगर इस संबंध से अगर किसी बच्चे का जन्म होता है तो वह मगध का भावी सम्राट होगा।

बिम्बिसार ने ये शर्तें मान ली और वैशाली मगध के हमलों से खंडहर बनता गया। हजारों लोग मारे गए। अब आम्रपाली वैशाली के विनाश को देखकर पाश्चाताप की अग्न में जलने लगी। उसी समय वैशाली में बुद्ध का आगमन हुआ और आम्रपाली ने उन्हें भोजन का निमंत्रण दिया। बुद्ध ने आम्रपाली को अपने संघ में शामिल कर लिया और कहा कि वह उतनी ही पवित्र है जितना गंगा का पानी।

चतुरसेन के उपन्यास का यहीं कथानाक है। यह कहानी लगभग ढ़ाई हजार साल पुरानी है। हालांकि अलग-अलग कथाओं में आम्रपाली की कहानी अलग तरीके से कही गई है। कुछ में कहना है कि आम्रपाली और बिम्बिसार का बेटा ही मगध सम्राट अजातशत्रु बना तो कुछ का कहना है कि आम्रपाली और बिम्बिसार का पुत्र एक बौद्ध भिक्षु बना जो बाद में आयुर्वेदाचार्य जीवक के नाम से प्रसिद्द हुआ। तिक न्यात हन्ह ने भी अपनी किताब जहं जहं चरण पड़े गौतम के में ऐसा ही लिखा है। आम्रपाली की कहानी पर लेख टंडन के निर्देशन में सन् 1966 में एक फिल्म भी बनी जिसमें वैजयंतीमाला आम्रपाली की भूमिका में है।

तो ये है आम्रपाली और मंगल अभिषेक पुष्करिणी की कथा जो उस विद्रोहिणी नायिका की गाथा को अभी भी सुना रही है। कुछ श्रुतियों के मुताबिक आम्रपाली के बौद्ध संघ में जाने के बाद ही बौद्ध संघ में भिक्षुणियों का प्रवेश संभव हो पाया।

Friday, March 1, 2013

वैशाली यात्रा-5


हम वैशाली के ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा उसके महत्व के हिसाब से सिलसिलेवार नहीं कर रहे थे, बल्कि अपनी सहूलियतों के हिसाब से कर रहे थे। जो जगह नजदीक मालूम पड़ती थी और हमारे रास्ते में पड़ती थी उसे हम फटाफट देख  ले रहे थे। हमारे पास समय कम था, हालांकि ऐतिहासिक स्थलों को देखने के लिए पर्याप्त वक्त देना होता है।

बौनापोखर में जैन मंदिर देखने के बाद अब हमारी मंजिल थी अभेषेक पुष्करिणी और बौद्ध स्तूप। बौना पोखर से वह जगह करीब तीनेक किलोमीटर उत्तर थी और रास्ते में रंग-बिरंगे बौद्ध मठ थे जो थाईलैंड, जापान और अन्य देशों के बौद्ध श्रद्धालुओं और संगठनों द्वारा बनवाए गए थे। सड़क ठीक थी और यातायात का बहुत दवाब नहीं था। हालांकि ये बात हमें अखर रही थी कि वैशाली पुरातात्विक रूप से इतना समृद्ध होते हुए भी देशी-विदेशी टूरिस्टों को क्यों  नहीं आकर्षित कर पा रही थी?
मंगल अभिषेक पुष्करिणई


रास्ते में एक निर्माणाधीन होटल मिला और एक बच्चों के मनोरंजन के लिए पार्क। यानी वैशाली में बहुत सारे होटल नहीं थे और टूरिस्ट वहां स्टे(टिक) नहीं कर पा रहे थे।

बहरहाल हम अभिषेक पुष्करिणी पहुंचे। तालाब का पानी साफ था और चमक रहा था। यह ऐतिहासिक तालाब या लघु-झील कम से कम 2600 साल पुराना था जिसके जल से लिच्छवि गणतंत्र के प्रमुख का अभिषेक किया जाता था। ये वहीं तालाब था जहां वैशाली की नगरबधू आम्रपाली का अभिषेक किया गया था और उस जमाने के प्रोटोकॉल के मुताबिक उसे गणतंत्र के प्रमुख की पत्नी से भी ऊंचा दर्जा दे दिया गया था। आचार्य चतुरसेन ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास वैशाली की नगरबधू में इस तालाब की काफी चर्चा की है। बरसों पहले पढ़ा वो उपन्यास बरबस याद आ गया और मैं अचानक इतिहास में गोते लगाते हुए ढ़ाई हजार साल पीछे चला गया।
मंगल अभिषेक पुष्करिणई


अभिषेक पुष्करिणी वर्तमान में पचासेक बीघे से कम में क्या फैला होगा। कहते हैं कि अपने मूल स्वरूप में यह काफी विशाल था और कालक्रम में तालाब में मिट्टी भरते-भरते इतना सा रह गया। आश्चर्य की बात ये कि हजारों साल तक यह फिर भी बचा रह गया और अपने इतिहास से अनभिज्ञ लोगों ने इसे पाटकर खेत नहीं बना लिया। इसकी खोज एलेक्जेंडर कनिंघम(1861-65 और फिर 1870-1885) के समय में की गई थी जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण(एएसआई) के प्रथम निदेशक थे और बाद में उसके डाईरेक्टर जनरल बने। वर्तमान में इसके चारों किनारों पर लोहे की दीवारे बना दी गई हैं और अपनी आदत के मुताबिक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने एक छोडी सी पट्टिका लगा दी है।
इंस्पेक्शन बंग्लो


तालाब के दाईं तरफ वैशाली म्यूजियम, सरकारी इस्पेक्शन बंग्लो और बुद्ध के अस्थि स्तूप हैं लेकिन उस दिन म्यूजियम बंद था और लोगों ने कहा कि वहां देखने को बहुत कुछ है भी नहीं। सरकारी इस्पेक्शन बंग्लो दूर से ही चमक रहा था और ऐसा लग रहा था कि अधिकारियों ने अपने रहने-खाने का शानदार इंतजाम किया था।