Monday, August 24, 2015

जयपाल सिंह मुंडा, आदिवासी हितों के प्रथम प्रवक्ता

इस किताब का बहुत दिनों से इंतजार था। हालांकि ये किताब अभी मेरी निगाहों से नहीं गुजरी है कि इसके कंटेंट पर कुछ लिख सकूं। रामचंद्र गुहा की किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ का जब मैं अनुवाद कर रहा था तो पहली बार जयपाल सिंह मुंडा के बारे में कुछ विस्तार से पढने को मिला था। गुहा साहब ने लिखा कि भारत में ऐसे कई नायक, कई घटनाएं या कई महत्वपूर्ण लोग हुए जिन्हें आज तक उनका जीवनीकार नसीब नहीं हुआ। उसमें से एक आदिवासी अधिकारों के प्रथम प्रवक्ता, झारखंड आन्दोलन के जनक, संविधान सभा के सदस्य और मशहूर हॉकी खिलाड़ी जयपाल सिंह मुंडा भी थे। ऐसे लोगों ने इस देश की समाजिक-राजनीतिक संरचना को बदलने में अमूल्य योगदान दिया।
जयपाल सिंह मुंडा की शिक्षा-दीक्षा इसाई मिशन की वजह से हुई और मिशन की मदद से ही वे उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए ऑक्सफोर्ड गए। वहां वे ऑक्सफोर्ड की हॉकी टीम में मशहूर खिलाड़ी के तौर पर उभरे और ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ हासिल किया। उनकी मशहूरियत की एक वजह भारतीय हॉकी टीम के कप्तानी भी थी जिसने 1928 के ओलंपिक में स्वर्ण पदक हासिल किया था। हालांकि वो उनकी शख्सियत का एक छोटा सा हिस्सा था, उनको तो अभी बड़े-बड़े काम करने थे।
भारत आने के बाद इसाई मिशन उन्हें धर्म प्रचार के कार्य में लगाना चाहता था जिससे जयपाल ने विनम्रता से इनकार कर दिया। उन्होंने झारखंड पार्टी की स्थापना की जिसने केंद्रीय-पूर्वी भारत में एक अलग आदिवासी राज्य की मांग की। उस प्रांत में वर्तमान झारखंड, बंगाल का कुछ हिस्सा, उड़ीसा का उत्तरी भाग और छत्तीसगढ के कई इलाके शामिल होने थे। हालांकि वो मांग मानी नहीं गई और उनके आन्दोलन के करीब साठ साल बाद एक छोटा सा झारखंड राज्य कथित तौर पर आदिवासियों के लिए बनाया गया जिसमें उस समय तक आदिवासियों की संख्या घटकर 26 फीसदी हो गई थी, जो सन् 1951 में करीब 51 फीसदी थी!

लेकिन जयपाल सिंह मुंडा का योगदान उससे कहीं बढकर है। उनका वो योगदान आदिवासी हितों की रक्षा को लेकर है। जब आजाद भारत के लिए संविधान सभा का गठन किया जा रहा था तो जयपाल सिंह मुंडा को भी उसका सदस्य बनाया गया। लेकिन अगस्त 1947 में जब अल्पसंख्यकों-वंचितों के अधिकारों पर पहली रपट प्रकाशित हुई तो उसमें सिर्फ दलितों के लिए विशेष प्रावधान किए गए। दलित अधिकारों को लेकर डॉ अम्बेदकर का एक मजबूत आन्दोलन रहा था और तत्कालीन नेतृत्व में उस पर सहमति बन चुकी थी। खुद अम्बेदकर अब संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे। उधर देश के बंटवारे के बाद अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के हित में बोलने वालों में खुद पंडित नेहरु और गांधी थे। अल्पसंख्यक अधिकारों से संबंधित प्रस्ताव खुद सरदार पटेल ने संविधान सभा में प्रस्तुत किए थे। भाषाई आन्दोलनकारी भी सक्रिय थे। लेकिन आदिवासी हितों पर बोलनेवाला कोई नहीं था। सरकारी नौकरियों और विधायिका में तो दलितों के लिए 15 फीसदी आरक्षण की बात मान ली गई लेकिन आदिवासियों को सब भूल गए। ऐसे में जयपाल सिंह मुंडा ने ये कमान संभाली और संविधान सभा में एक ओजपूर्ण भाषण दिया-
“एक जंगली और आदिवासी के तौर पर मैं कानूनी बारीकियों को नहीं जानता लेकिन मेरा अंतर्मन कहता है कि आजादी की इस लड़ाई में हम सब को एक साथ चलना चाहिए। पिछले छह हजार साल से अगर इस देश में किसी का शोषण हुआ है तो वे आदिवासी हैं। उन्हें मैदानों से खदेड़कर जंगलों में धकेल दिया गया और उन्हें हर तरह से प्रताड़ित किया गया। लेकिन अब जब भारत अपने इतिहास में एक नया अध्याय शुरू कर कर रहा है तो हमें अवसरों की समानता मिलनी चाहिए और मैं चाहता हूं कि पंडित जवाहर लाल नेहरु की बातों पर भरोसा करुं कि उन्होने जो शब्द कहे हैं उसे सही तरीके से लागू किया जाएगा।”
उसके बाद संविधान सभा ने आदिवासियों की समस्या को स्वीकार करते हुए 400 आदिवासी समूहों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जो आबादी की करीब 7 फीसदी थी। उन्हें नौकरियों और विधायिया में 7.5 आरक्षण प्रदान किया गया।
उसके बाद केंद्रीय-पूर्वी भारत में एक अलग आदिवासी राज्य हासिल करने के लिए जयपाल सिंह ने एक आदिवासी महासभा का गठन किया जो बाद में झारखंड पार्टी बन गई और आज की झारखंड मुक्ति मोर्चा किस्म की पार्टियां उसी पार्टी की मानस-संतानें हैं। सन् 1952 के चुनाव में झारखंड पार्टी के तीन सांसद और तेइस विधायक जीत गए और आदिवासी राज्य का मुद्दा देश के पटल पर स्थापित हो गया। दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह उसी पार्टी के समर्थन से चुनाव जीतकर राज्यसभा के सदस्य बने थे।
अभी जिस नगा शांति वार्ता के मुकाम पर पहुंचने की बात हो रही है उसके जनक अनगामी जापू पिजो को जयपाल सिंह मुंडा ने अलगाववाद छोड़ने के लिए काफी समझाया था। जयपाल का कहना था कि पिजो को भी उसी तरह से पूर्वोत्तर में एक राज्य की मांग करनी चाहिए जिस तरह की मांग जयपाल कर रहे थे। लेकिन पिजो नहीं माने और नगालैंड करीब 50 साल तक अशांति के गर्त में डूबा रहा।
आज जयपाल सिंह मुंडा को बहुत से लोग नहीं जानते। आदिवासियों के नाम पर झारखंड में बनी एक के बाद एक सरकारों ने भी मुंडा के लिए कुछ नहीं किया। शायद रांची में उनके नाम पर कोई स्टेडियम भर है। उन पर रांची के किसी सज्जन ने एक गुटखा किस्म की कितबिया लिखी थी जो बहुत प्रचारित नहीं हो पाई। उम्मीद है कि अब इस किताब में हमें जयपाल सिंह मुंडा के बारे में कई अनजानी बातें पढने को मिलेंगी। इस किताब के लिए लेखक ए के पंकज को ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं।

Wednesday, August 19, 2015

बिहार चुनाव@पैकेज

 बिहार के लिए बढिया हुआ कि नीतीश कुमार पिछले साल नरेंद्र मोदी से भिड़ गए। कम से कम competitive politics के बहाने ही सही बिहार को कुछ तो देने की घोषणा हुई। नीतीश बाबू साथ होते तो इतनी बड़ी रकम थोड़े ही मिलती. अब बिहारी गिन रहे हैं कि इस पैकेज में कितने जीरो हैं और पटना व नोएडा में फ्लैट की कीमत कितनी बढेगी। 


एक जमाने में ऐसा पैसा-मार और प्रोजेक्ट उठाऊ पॉलिटिक्स तमिलनाडु टाइप के दक्षिण के सूबे करते थे। इस बात का श्रेय नीतीश कुमार को इमानदारी से देना चाहिए कि उन्होंने बीजेपी को इतने बड़े पैकेज देने पर मजबूर कर दिया।

PIB की साइट पर देख रहा हूं कि नए हवाई अड्डों में रक्सौल और पूर्णिया को विकसित किया जाएगा-यानी हमलोग जो दरभंगा की मांग कर रहे थे वो मांग फिलहाल खटाई में समझी जाए। वैसे पूर्णिया भी बुरा विकल्प नहीं है, मेरे घर से मात्र तीन घंटे का रास्ता है। हां, पटना में नया हवाईअड्डा जरूरी है जिसकी बात इस पैकेज में है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

भागलपुर में एक नया केंद्रीय विश्वविद्यालय। आमीन। शायद विक्रमशिला विश्वविद्यालय नाम रखा जाए! नीतीश के नालंदा के जवाब में भाजपा का विक्रमशिला-मानो हिंदू यूनिवर्सिटी के जवाब में अलीगढ। competitive politics का अपना मजा है!

बिहार शायद पहला सूबा बन जाएगा जहां पर राज्य विश्वविद्यालयों की संख्या के बराबर ही केंद्रीय विश्वविद्यालय हो जाएंगे! गया, मोतिहारी, नालंदा, पूसा कृषि वि.वि., स्किल यूनिवर्सिटी, किशनगंज(अलीगढ की शाखा) के बाद अब भागलपुर! बात बुरी नहीं है-लेकिन अपने आप में एक बड़ा कटाक्ष है कि राज्य में पिछले करीब सात दशकों में कितने कम विश्वविद्यालय बने। और केंद्र ने तो उस सात में से छह दशक तक कुछ स्थापित ही नहीं किया। मामला ये भी है कि बिहारी पढने में तेज होते हैं, लेकिन बिहारी लोग अच्छा कॉलेज और अच्छा विश्वविद्यालय नहीं खोल पाते।

गंगा, कोसी और सोन पर नए पुल की घोषणा है। अच्छी बात है..बिहार में गंगा की लंबाई करीब 400 किमी है जबकि अभी तक इस पर ढंग का डेढ पुल(एक मोकामा और आधा नौगछिया-भागलपुर) काम कर रहा है। जबकि कम से कम 6-7 पुल होना ही चाहिए। नीतीश बाबू ने भी इस दिशा में ठीक-ठाक काम किया था। गंगा पर नया पुल जरुरी भी था। कोसी पर नए पुल की जो बात है, वो कहां बनेगा? देखने वाली बात होगी।

सॉफ्टवेयर पार्क की तो बात है लेकिन क्रियान्वयन कमजोर है। दरभंगा में पिछले साल एक सॉफ्टवेयर पार्क की बात हुई, लेकिन जमीन ही अभी तक नहीं मिल पाई। इसमें राज्य सरकार का भी रोल है, लेकिन जहां राज्य और केंद्र एक दूसरे से हमेशा भिड़ंत की मुद्रा में हो, वहां ऐसे प्रोजेक्ट कितना कामयाब होंगे-ये विचारणीय बात है।

कुल मिलाकर बिहारियों के बल्ले-बल्ले हैं। वोट में तो खैर जाति, कंवर्ट होती है। हां, पैकेज से परसेप्शन कुछ जरूर बनेगा। अब देखना है कि दूसरे राज्य इस भीमकाय पैकेज को किस तरह लेते हैं। कहीं ममता बनर्जी ये न कह बैठे कि वित्त मंत्रालय को दिल्ली से उठाकर कलकत्ता में स्थापित कर दिया जाए!

Tuesday, August 11, 2015

बिहारी अस्मिता@DNA

 नीतीश कुमार की पार्टी ने ठीक किया कि 50 लाख DNA सैम्पल भेजने की जगह नाखून और बाल ही लिफाफे में भिजवा रही हैं। बाल से समस्या आसान होगी, एक ही लिफाफे में हजार-हजार बाल आ जाएंगे। क्योंकि वैसे भी 50 लाख लोगों के DNA टेस्ट तो बिहार के स्वास्थ्य संस्थान में क्या होते, देश भर के डॉक्टर हांफ जाते। 

नीतीश ने जिस हिसाब से बिहारी अस्मिता की लड़ाई शुरू की है, उसमें कई समस्याएं है। नीतीश कुमार राजनीति के विद्यार्थी हैं, उन्हें क्या समझाना। ये यूपी, बिहार, टाइप के सूबे हैं न..वो सूबाई अस्मिता की बात नहीं करते-वे तो अपने आपको इस मुल्क का बाप समझते हैं। ये ऐसे सूबे हैं जहां कर्नाटक और मध्यप्रदेश का आदमी आकर यहां की पार्टियों का अध्यक्ष बन जाता है और सिर्फ अपनी खोपड़ी का खाता है। यहां के लोगों को कोई असुरक्षा बोध नहीं होता।

यूपी में तो एक पंजाब में जन्मी और समाजवादी सिंधी से ब्याही कांग्रेसी बंगालन CM बन गई थी ! देखा जाए तो ये बहुत उदार इलाके हैं-जब मैडम इंदिरा गांधी चिकमगलूर नहीं गई थी उससे बहुत पहले आचार्य कृपलानी, सीतामढी से चुनाव जीत गए थे। ये बातें तमिलनाडु या गुजरात में तब संभव नहीं थी। ऐसे इलाकों के लोग जब सूबाई अस्मिता की बात करें तो शोध का विषय बनता है।

एक बार राजीव गांधी ने आंध्रप्रदेश के CM को हवाईअड्डे पर इतना डांटा कि वेचारे CM की आंखों से बरखा-बहार उमड़ आई। लेकिन उसका फायदा वहां एक फिल्मस्टार एनटी रामाराव ने उठाया और एक पार्टी बना ली। कहा कि तेलुगु बिड्डा का अपमान हुआ है। तेलुगु देशम पार्टी चुनाव में स्वीप कर गई। असम में एक बार अस्मिता वाली बात पर तैंतीस साल का नेता सीएम बन गया। DMK जब 1967 में सत्ता में आई तो उसमें अस्मिता का पुट था। 

इन तमाम अस्मिताओं में कहीं न कहीं विराट हिंदी पट्टी के वर्चस्व के खिलाफ एक असुरक्षा का भाव था। लेकिन बिहार की कौन सी खास अस्मिता है ? क्या व्याख्या है उसकी? पिछले साठ सालों में बिहार ने किस असुरक्षा भाव को जिया है या कब-कब अस्मिता की आवाज उठाई है? बिहारी अस्मिता से कई गुणा ज्यादा तो दिल्ली में मैथिली और भोजपुरी के वास्तविक और फर्जी संगठन अस्मिता के नाम पर कार्यक्रम कर लेते हैं।

कुछ लोग व्यंग्य में कहने लगे हैं कि नीतीश कुमार का खुद का DNA तत्कालीन जद-यू नेता और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी से मेल नहीं खाता, उन्होंने इसीलिए उनको आम और लीची नहीं खाने दिया था। पता नहीं क्या सचाई है।

बात डीएनए की आई तो हमारे यहां मुजफ्फरपुर की एक लड़की थी-नवारुणा। तीन साल पहले गुंडो ने उसे घर से उठा लिया था, आज तक नहीं मिली। कहते हैं कि उसकी हड्डी मिली थी। बिहार पुलिस की तो छोड़िए, आजतक CBI उसके DNA का मिलान नहीं कर पाई। फिर 50 लाख लोगों का DNA कौन मिलान करवाएगा। आज एक अखबार ने ठीक लिखा है-एक अत्यधिक पिछड़े सूबे का चुनाव हाईटेक हो गया है। बातें ट्विटर और DNA से नीचे की ही नहीं जा रही। 

कुछ साल पहले बाल ठाकरे परिवार ने भी दावा किया था कि उनके परिवार के DNA में कुछ बिहारी गुणसूत्र हैं। आशा है कि नीतीश कुमार कम से कम ठाकरे परिवार से अपना नाता कतई नहीं जोड़ेंगे। हालांकि राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने ठाकरे परिवार के साथ कंधा में कंधा मिलाकर प्रणब दादा को जरूर वोट किया था! 

नीतीश कुमार का मजबूत पक्ष उनका विकास पुरुष होना था, जो अपेक्षाकृत जाति से ऊपर की छवि रखता था। ऐसा नेतृत्व बिहार को पिछले छह दशक में मुश्किल से मिला था। उनको विकास के मुद्दे को केंद्र में रखना चाहिए, DNA जैसे मुद्दे पर उन्हें अपनी ऊर्जा नहीं गंवानी चाहिए।

Wednesday, July 29, 2015

कलाम साहब को वामपंथियों की "सशर्त" श्रद्धांजलियां...!

मिथिला की एक लोककथा में एक ब्राह्मण का जिक्र आता है जो हर बात में मीन-मेख निकालता था। एक दिन पार्वती ने शिव से कहा कि हे महादेव मैं उस ब्राह्मण को भोजन पर निमंत्रित करना चाहती हूं, वो मेरी पाक-कला में कोई दोष नहीं ढ़ूंढ़ पाएगा। महादेव ने पार्वती को मना करते हुए कहा कि अपनी पाककला पर गुरूर मत करो, वो ब्राह्मण वैचारिक रूप से ही शैतान है। लेकिन पार्वती नहीं मानी। आखिर में ब्राह्मण को भोजन पर निमंत्रित कर ही दिया गया। पार्वती ने पूछा, 'हे ब्राह्मण भोजन कैसा था, कुछ त्रुटि तो नहीं हुई? इस पर उस ब्राह्मण ने कहा, 'भोजन तो अच्छा था, लेकिन इतना भी अच्छा नहीं होना चाहिए!'  आज कलाम साहब की मृत्यु के बाद ज्यादातर वामपंथी फेसबुकियों की टिप्पणी देखकर उसी ब्राह्मण की याद आ गयी।


मेरा मानना है कि ऑनलाइन कोई भी 'पंथी' गैंग ज्यादा खतरनाक होता है, वहीं ऑफलाइन होते ही वो शरीफ हो जाता है। आप उससे किसी चाय की दुकान पर मिल जाएं तो अपने पैसे की चाय पिलाएगा, लेकिन ऑनलाइन होते ही चंगेज खान हो जाएगा। यहां पर आते ही वो फाइटर प्लेन उड़ाने लगता है। चूंकि फेसबुक पर ऑनलाइन वामपंथी घनघोर अल्पसंख्यक हैं, तो यहां गुंडागर्दी सिर्फ दक्षिणपंथियों की दिखती है। यहां पर वामपंथियों ने ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट का चोला ओढ़ लिया है।

हमारे देश की परंपराओं में मृतकों के बारे में अपशब्द नहीं बोला जाता। खासकर तत्काल तो बिल्कुल नहीं, भले 10-20 साल बाद किसी ऐतिहासिक रिफरेंस में आलोचना कर दी जाए। मेरा अनुमान है कि जयचंद या मीरजाफर पर जो कहावतें बनीं है वो भी उनके मरने के तत्काल बाद न बनीं होंगी। लेकिन वामपंथी..ठहरे वामपंथी। वे कलाम साहब को "सशर्त श्रद्धांजलि" दे रहे हैं-मानो ये देवगौड़ा या मनमोहन सिंह की सरकार बनने का मसला हो।

फेसबुकिया पीढ़ी को इस प्रकरण से ये समझने में आसानी होगी कि हमारे देश का वामपंथ किन-किन वजहों से जमीन में धंस गया। अन्य बड़ी वजहें भी रही होंगी। कोई कायदे से रिसर्च करे तो सुभाष बाबू और गांधीजी के बारे में वाम श्रद्धांजलि भी इसी टाइप की मिलेगी-क्योंकि वाम स्कूल के सिलेबस में पिछले नब्बे सालों से एक ही किताब चल रही है-प्रगति प्रकाशन मास्को वाली।

कहते हैं कि गांधी की हत्या की वजह से संघ परिवार का ग्रोथ रेट 20-25 साल तक हिचकोला खाता रहा, लेकिन अब कलाम की जैसी-जैसी फेसबुकिया वाम श्रद्धांजलियां आ रही हैं-मुझे भय है कि वाम निगेटिव में न चला जाए। इस देश में 3-4 फीसदी वाम जरूरी है-ऐसा मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है।

Saturday, July 25, 2015

मुजफ्फरपुर रैली: मोदी ही लड़ रहे हैं बिहार विधानसभा चुनाव

मोदी ने साफ कर दिया कि वो चुनाव जीतने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। RJD का जिस तरह से उन्होंने फुल फॉर्म दिया वो कोई प्रधानमंत्री पर पर बैठा व्यक्ति शायद ही बोल पाता या भविष्य में कर पाएगा। नीतीश के बारे में उन्होंने कहा कि 'DNA' में ही गड़बड़ है। यह खतरनाक बयान वैसा ही है जैसे किसी कुत्ते को मारना हो तो उसे पहले पागल साबित कर दो। लालू-नीतीश के लिए यह चुनाव 'बहुत भारी' पड़ने वाला है।

जाति का कार्ड खेलने से नरेंद्र मोदी नहीं चूके। उन्होंंने 'यदुवंश', 'महादलित' आदि शब्दों के इस्तेमाल में कोई हिचक नहीं दिखाई। शायद अटल बिहारी वाजपेयी या इंदिरा गांधी ऐसा शब्द कभी इस्तेमाल न कर पाती। स्टोरीटेलिंग कोई मोदी से सीखे। उन्होंने नेपाल और भूटान यात्रा को भी बिजली के संदर्भ में उत्तर बिहार में बेच दिया। जबकि अमूमन विदेश विभाग से संबंधित बातें आम लोग कम ही समझ पाते हैं।

बिजली या सड़क के बारे में उनकी बाते पूरी सही नहीं थी-नीतीश के राज में बिहार में बिजली भी 'बेहतर' हुई है और सड़क भी। लेकिन 24-घंटे बिजली का वादा मोदी ने ऐसा कर दिया मानो वे खुद CM पद की दौड़ में हो। 

कोई प्रधानमंत्री इस तरह नहीं बोलता कि सीतामढ़ी-शिवहर हाईवे के लिए इतना करोड़ दिया, पटाना-बक्सर के लिए इतना करोड़। ये तो राज्यमंत्रियों वाली बातें हैं या NHAI अधिकारी टाइप बातें हैं। लेकिन मोदी के लिए इस युद्ध में हर कुछ जायज है। उस हिसाब से तो उनके मंत्रीगण ही प्रचार करने में फिसड्डी लगते हैं। (ऐसा उन्होंने पटना वाली मीटिंग में बोला जिसमें नीतीश भी थे)

उन्होंने बिहार की जनता को लालच भी दिया कि राज्य में अगर बीजेपी की सरकार आई तो केंद्र से उसे 'ज्यादा समर्थन' मिलेगा। उन्होंने 'डबल इंजन वाली गाड़ी' का जिक्र किया। पता नहीं, यह बयान कानूनी रूप से सही है या नहीं।

उन्होंने बिहार को 'कम से कम 50 हजार करोड़ के पैकेज' और उद्योग लगाने के लिए करों में छूट की घोषणा तो आज ही कर दी। संसद सत्र के बाद वे फिर से इस बहाने इस प्रचार युद्ध में गोला-बारूद भरेंगे।
सुशील मोदी के संदर्भ में

मुजफ्फरपुर की रैली में नरेंद्र मोदी ने सुशील मोदी का नाम नहीं लिया, लेकिन इशारों में कहा कि एक बिहारी को स्किल डेपलपमेंट नामका बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण मंत्रालय दिया है। 
उन्होंने कहा, "पहले लोग कहते थे कि बिहार में पहले से मोदी है तो दूसरे मोदी की क्या आवश्यकता है?" यह वाक्य सुशील मोदी के भविष्य के लिए अभी भी खतरनाक है।


सुशील मोदी का नाम उन्होंने सिर्फ नीतीश कुमार के साथ वाली परियोजनाओं के उद्घाटन भाषण में(सबसे पहला भाषण) लिया कि उस समय सुशील मोदी वित्त मंत्री थे और फंड के लिए केंद्र के पास आया करते थे।

नरेंद्र मोदी ने कहा कि नेता लोग अपना वादा भूल जाते हैं, जबकि वे नहीं भूलते। गांधी-मैदान में बम कांड और ढाई साल पहले बीजेपी नेताओं को आमंत्रित कर नीतीश कुमार का उस भोज को रद्द कर देने का जिक्र उन्होंने किया। नरेंद्र मोदी अगर ये बात अभी तक नहीं भूले हैं तो वे ये भी नहीं भूले होंगे कि सुशील मोदी ने उस समय नीतीश के समर्थन में जुबान सी ली थी।


और अंत में... मोदी ने साफ कर दिया कि सीपी ठाकुर 'मार्गदर्शक' हैं और जीतन राम मांझी का चेहरा 'सदैव मुस्कुराता' रहता है। दोनों नेता इस बात मतलब जरूर निकाल रहे होंगे।

Saturday, July 18, 2015

रथयात्रा के बहाने कुछ इतिहास, कुछ स्मृतियां

रथ-यात्रा मानो राष्ट्रीय पर्व होता जा रहा है। मेरे गांव का बच्चा भी रथ-यात्रा की तस्वीरें मोबाइल से शेयर कर रहा है। आज से सौ साल पहले मेरे पुरखे सिर्फ रथयात्रा के बारे में सुना करते थे-उस जमाने में कोई-कोई जाता था जगन्नाथ पुरी।

हमारे इलाके के लोग सबसे ज्यादा बाबाधाम(देवघर), काशी और प्रयाग जाते थे। नजदीक भी था। खाते-पीते या सम्पन्न लोग ही जाते थे ‘जगरनाथ’(जगन्नाथपुरी को मैथिली में ऐसे ही बोलते थे)। मेरी दादी काशी, प्रयाग और जगरनाथ गई थी। ऐसा इसलिए कि उस समय तक रेलवे की सुविधा हो गई थी। दादी काशी, प्रयाग, मथुरा, जगरनाथ और रामेश्वरम का नाम ज्यादा लेती थी। अयोध्या का कम लेती थी। रामेश्वरम तो खैर बहुत दूर था, लेकिन उसे पता था कि मेरे गांव से करीब एक हजार कोस है! 

इधर जब अंग्रेजी राज स्थापित हुआ, तो लोग कलकत्ता जाने लगे और वहां से जगन्नाथ पुरी जाने का प्रचलन बढ़ने लगा। मेरे पर-बाबा के समय तक हमारे इलाके में रेल लाइन बननी शुरू हो चुकी थी (करीब 1890 ), लेकिन वे शायद उस पर चढ़े नहीं थे। पूरे गांव से एकाध आदमी गया था जगन्नाथ पुरी। इसकी वजह थी कि बीच में झारखंड का विशाल जंगल था और जो लोग वहां जाते थे वे पहले अपना अंतिम संस्कार करवाकर जाते थे! क्योंकि जीवित लौटने की गारंटी नहीं थी। 

जगन्नाथ पुरी मेरे गांव से करीब एक हजार किलोमीटर था/है। बीच में विशाल जंगल था, नदी-नाले, जानवर, पहाड़ और भाषाई विभिन्नता। फिर कैसे जाते होंगे लोग? पापा के दादा बताते थे कि अकेले कोई जाता नहीं था,दस-बीस के झुंड में जाते थे। देवघर तक तो नियमित संपर्क था। संस्कृत शिक्षा के लिए नवद्वीप से भी थोड़ा सा संबंध बना हुआ था। लेकिन नवद्वीप वाली बातें कम से कम तीन-चार सौ साल पुरानी होगी। 

उस जमाने में आबादी कम थी, कई-कई कोस तक बस्तियां नहीं थीं, लेकिन पगडंडी बनी हुई थी और गांव वाले अगले 100-200 किलोमीटर का रास्ता बता देते थे। बीच-बीच में सराय बने हुए थे, व्यापारियों-राजाओं ने धर्मशालाएं बनवाईं थी या किसी साधु का आश्रम उनका डेरा बनता था। अमूमन तीर्थ-यात्रियों से लूटमार कम होती थी-लेकिन मुसलमानी राज कायम हो जाने के बाद अवाध तीर्थयात्राएं जरूर कम हो गई थीं। मुगलों के पतन के बाद तो अराजकता के समय पिंडारियों की लूटमार और बढ़ गई थी। लोग अपने खोल में समाने लगे थे। सिर्फ जीवट लोग यात्रा करते थे।

जगन्नाथ जी पहुंचने पर अन्य तीर्थ स्थलों की तरह ही वहां के पंडे, लोगों के रहने-खाने का इंतजाम करते। उनके पास लोगों की वंशावली होती, अपने-अपने इलाके होते। पंडों में आज की तरह लालच नहीं था, लोग जाते भी कम थे, साधन भी नहीं था। लेकिन लोग संवाद कैसे करते होंगे? मिथिला का अंगूठा छाप आदमी(या दो-चार जमात पढ़ा व्यक्ति) उड़ीसा के लोगों से कैसे संवाद करता होगा? किसी-किसी लाल बुझक्कड़ को फारसी आती थी या थोड़ी सी संस्कृत। उसी में संवाद होता था। यहां के लोग मैथिली बोलते थे, वहां का के लोग उड़िया। लेकिन दिल की बात एक दूसरे की समझ में आ जाती थी। 

ऐसे में ‘जगरनाथ जी’ हमारे इलाके के लोगों की जातीय स्मृति में ही ज्यादातर सुरक्षित थे। बाबा जगरनाथ, राष्ट्रीय नहीं हुए थे। उनको टीवी, इंटरनेट ने अंतर्राष्ट्रीय बना दिया है। कहते हैं अंग्रेजी का ‘जॉगरनॉट’ शब्द भी जगन्नाथ रथ-यात्रा से ही प्रेरित है! 

आज फेसबुक पर रथ-यात्रा की तस्वीरों की बाढ़ सी आई हुई है। इमानदारी से कहूं तो "कुछ लोग" ईद के जवाब में भी लगा रहे हैं-मानो हम किसी से कम नहीं हैं! कुछ लोग इसलिए लगा रहे हैं क्योंकि उन्हें "छद्म" कम्यूनिस्टों से चिढ़ है और वे मजा ले रहे हैं। मैंने खुद ही एक बधाई में कटाक्ष किया था, लेकिन मैंने उन्हें शिवरात्रि की बधाई की याद दिलाई थी-रथयात्रा की नहीं !

Sunday, July 12, 2015

बिहार विधान परिषद परिणाम: पप्पू, मांझी और बीजेपी संगठन फैक्टर

बिहार में विधान परिषद चुनाव में बीजेपी-गठबंधन की जीत की अलग-अलग व्याख्या जारी है। आज हम सामान्य तथ्यों और धन-बल से इतर कुछ अन्य फैक्टर की चर्चा करेंगे।

पप्पू यादव ने अपने फेसबुक वाल पर संकेत किया कि राजद-जद-यू की हार में उनकी अहम भूमिका है-क्योंकि लोकसभा चुनाव में जब वे राजद के साथ थे तो कोसी से पूरव बीजेपी का खाता नहीं खुल पाया। जबकि इस चुनाव में जब वे राजद से निष्काषित हैं तो राजद-जद-यू का खाता नहीं खुला। आंशिक रूप से वे सही है, उस इलाके में उनका एक निश्चित प्रभाव है। 

लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा चुनाव में पूरे पूर्वी बिहार में-गंगा के उत्तर और दक्षिण-दोनों जगह बीजेपी साफ हो गई थी। उन सीटों में सुपौल, अररिया, मधेपुरा, कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज, भागलपुर और बांका की सीटें थीं। इतना तो पप्पू भी मानते होंगे कि उन आठो सीटों पर उनका असर नहीं है! दरअसल, उस चुनाव में अन्य कारकों के अलावा पश्चिम की तरफ से आ रही बीजेपी की लहर को बंग्लादेश की सीमा से सटे एक ‘पूर्वी लहर’ ने भी रोक लिया था। पप्पू महज एक ‘बैलेंसिंग फैक्टर’ थे, जो वे इस बार भी थे- जब वे साइलेंट रह गए तो बीजेपी वहां से जीत गई। जहां पप्पू का असर नहीं था(बांका-भागलपुर) वहां फिर से जद-यू जीत गया।
एक फैक्टर जीतनराम मांझी भी है। स्थानीय निकायों में दलितों के लिए आबादी के हिसाब से सीटें रिजर्व हैं। यह बिल्कुल संभव है कि मांझी प्रकरण के बाद से दलितों का बड़ा हिस्सा जद-यू-राजद से नाराज हो गया हो।
चुनावों में बीजेपी की जीत को सिर्फ पैसे से जोड़ना पूरी तरह सही नहीं है। लोग इस बात को नजर अंदाज कर देते हैं कि बीजेपी और संघ ने पिछले 10-15 सालों में ग्रासरूट स्तर पर अपने संगठन का कितना फैलाव किया है। संघ का अपना नेटवर्क तो बना ही है, बीजेपी ने पिछले दशक में ग्राम पंचायत स्तर तक अपनी इकाई और अध्यक्ष बना लिए हैं। मेरे ग्राम पंचायत का बीजेपी अध्यक्ष एक मुसलमान है और उसकी अपनी कमेटी है। जबकि राजद या जद-यू ब्लॉक और जिला स्तर पर भी नहीं दिखते। उनका कार्यालय किसी चाय या पान की दुकान में चलता पाया जाता है। मेरे ब्लॉक में जद-यू की दो-दो कमेटियां हैं जो आपस में प्रमाणिकता के लिए लड़ती रहती हैं।


मैं अपने जिले(मधुबनी) की बात अगर करुं तो इस चुनाव में बीजेपी ने हमारे ब्लॉक(बाबूबरही) के कुल 20 ग्राम पंचायतों में हरेक 3 पंचायतों पर पांच कार्यकर्ताओं की कमेटी बनाई थी। इसके अलावा प्रखंड कमेटी और जिला कमेटी के लोग भी उसका सुपरविजन कर रहे थे। अब तीन पंचायत में विधान परिषद के करीब 45 वोटर थे जबकि उसके पीछे बीजेपी-संघ और उस खास उम्मीदवार और गठबंधन के सहयोगी दल के करीब 20 हार्डकोर वर्कर लोग लगे हुए थे। इतना टारगेटेड प्रचार क्या जद-यू और राजद से संभव है, जहां ये ही नहीं पता चलता कि प्रखंड अध्यक्ष कौन है और प्रखंड में अन्य कितनी कमेटिया हैं? बीजेपी की प्रखंड कमेटी में करीब दर्जन भर विभाग हैं जिसकी बकायदा पाक्षिक-मासिक बैठकें होती हैं, सुपरविजन होता है और रिपोर्ट तैयार होती है।

 हां, बीजेपी अगर कहीं कमजोर है तो अपने बौद्धिक विभाग में। लेकिन उसकी भरपाई उसने एक दुर्जेय पार्टी मशीनरी बनाकर करने की कोशिश की है। उसने पिछले दशकों में ‘आदमी’ बनाए हैं, तंत्र बनाया है जो शायद थोड़ा-थोड़ा कम्यूनिस्टों से प्रेरित भी लगता है। अब बीजेपी का वह निचला तंत्र कभी बीजेपी के लिए ‘एलियन’ माने जानेवाले अल्पसंख्यक समूहों तक में घुसपैठ कर रहा है, उन्हें प्रभावित कर रहा है। बाकी का काम अन्य ‘कारक’ पूरा कर देते हैं। 
अन्य दलों के पास विचार तो है, लेकिन उसे नीचे ले जाने के लिए तंत्र नहीं है, आदमी नहीं है। ऐसे में सिर्फ समाजिक गठबंधन करके या मीडिया की बहसों में हिस्सा लेकर बीजेपी ले लड़ना नाकाफी है। जद-यू-राजद जैसी पार्टियों को अपने उन विभागों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

Saturday, July 11, 2015

बिहार विधान परिषद चुनाव: जाति समीकरण और धन-बल का असर

बिहार विधान परिषद की 24 सीटों में से भाजपा गठबंधन ने 13 और जद-यू -राजद महा-गठबंधन ने 10 सीटों पर विजय हासिल की। एक सीट निर्दलीय के खाते में गई जो लालू प्रसाद के अतिशय करीबी हैं। कुल मिलाकर एक लाइन की स्टोरी ये है कि लालू-नीतीश-कांग्रेस के महा-गठबंधन के मनोबल को भारी झटका लगा है-हालांकि वे अभी मोर्चा हारे हैं। जंग बाकी है। 

विधान परिषद या इस तरह के चुनावों में सत्ताधारी दलों का एक निश्चित प्रभाव रहता है। उस हिसाब से राजद-जद-यू को अवधारणात्मक बढत हासिल थी और वे विराट समाजिक गठबंधन भी प्रोजेक्ट कर रहे थे। ऐसे में यह चुनाव जद-यू-राजद-कांग्रेस महाजोट के लिए अपशकुन है। 
इस चुनाव के संबंध में कुछ बातें समझनी जरूरी हैं। बिहार विधान परिषद में कुल 75 सीटें हैं जिन्हें अलग-अलग तरीकों से भरा जाता है। आज जिन 24 सीटों का परिणाम आया( 1 को छोड़कर) उन्हें स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों द्वारा चुना गया है जिसमें ग्राम-पंचायत सदस्यों और नगरपालिका/निगम/विकास प्राधिकार/नगर पंचायत आदि के सदस्य चुनते हैं। इस बार बिहार में ऐसे स्थानीय निकाय वाले वोटरों की कुल संख्या करीब 1 लाख 39 हजार थी जिनमें से 50 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए रिजर्व हैं। स्थानीय निकायों में नियमानुसार दलितों और पिछड़ी जातियों के लिए भी सीटें रिजर्व हैं।
बिहार में चूंकि शहरीकरण देश में संभवत: सबसे कम है (करीब 12 फीसदी) तो ऐसे में इन वोटरों में भी लगभग 15 फीसदी वोटर ही शहरी थे।
जिन 24 सीटों पर चुनाव हुए थे उनमें पहले 15 सीटें जेडी-यू के पास, 4 राजद के पास और 5 भाजपा के पास थीं। यानी अभी के हिसाब से नीतीश के महाजोट के पास 19 सीटें थीं जो घटकर 9 रह गई हैं। भाजपा के पास 5 थीं जो बढ़कर 13 हो गई हैं। यों, जेडी-यू ने जब 15 सीटें जीतीं थीं तो वो उस समय भाजपा की जोड़ीदार थीं।

कहना न होगा कि भाजपा ने अपने दम पर जबर्दस्त प्रदर्शन किया है। भाजपा 18 पर लड़ी थी उसमें उसे 13 पर जीत हुई। उस हिसाब से उसका स्ट्राइक रेट लोकसभा जैसा ही है। जबकि पिछले साल हुए विधानसभा उपचुनाव में वो 10 में से 4 सीटें ही जीत पाई थीं। भाजपा की सहयोगी लोजपा 4 पर और रालोसपा 2 पर लड़ी थी। लोजपा महज एक सीट जीत पाई जबकि रालोसपा शून्य पर अटक गई जिसके नेता उपेंद्र कुशवाहा भी गाहे-बगाहे बिहार की सरदारी का दावा ठोकते रहते हैं।
इस चुनाव में जनता सीधे मतदान तो नहीं करती, हां उसकी नजरों के सामने लगभग हमेशा रहनेवाले प्रतिनिधि जरूर मतदान करते हैं। थोड़ा-थोड़ा वृहत रूप में राज्यसभा जैसा मामला होता है-लेकिन इसे राज्यसभा से इस मामले में ज्यादा पारदर्शी और जनता का नजदीकी माना जा सकता है कि राज्यसभा में जो विधायक अपने सांसदों को चुनते हैं वे अपनी पार्टी के व्हिप से बंधे होते हैं। लेकिन यहां पर किसी ग्राम पंचायत के सदस्य पर ऐसा कोई ह्विप नहीं होता। 
हां, चूंकि निचले स्तर पर जनप्रतिनिधियों की चेतना, उनका स्तर, धनबल का प्रभाव, जातीय राजनीति आदि ज्यादा हावी होती है तो ऐसे में यहां पर धन और जाति का असर भी देखने को मिलता है, बल्कि जाति से ज्यादा धन और अन्य प्रभावों का असर देखा जाता है। उस हिसाब से राज्यसभा चुनाव से तुलना किया जाए तो विधान परिषद के इस चुनाव में धन का प्रभाव बराबर ही होगा। हां, राज्यसभा में स्तर ऊंचा होता है, विधान परिषद में स्तर माइक्रो होता है। 
इस चुनाव में कुछ अपराधी चुनाव हार गए, लेकिन एक तो जेल से जीत गया ! एडमिशन माफिया के रूप में कुख्यात लोजपा उम्मीदवार रंजीत डॉन और लोजपा के ही हुलास पांडे हार गए तो पटना से रीतलाल यादव जीत गए जो जेल में हैं। रीतलाल, लालू के काफी करीबी हैं और उन्होंने जद-यू उम्मीदवार को हरा दिया। अब जद-यू उम्मीदवार कह रहे हैं कि लालू ने अपने यादव वोटरों का वोट उन्हें ट्रांसफर नहीं करवाया। इस आरोप में कुछ सचाई है क्योंकि पिछली बार जब पाटलिपुत्र लोकसभा सीट से लालू की बेटी चुनाव लड़ रही थीं तो रीतलाल बागी हो गए थे और लालू यादव ने उनके घर जाकर उनके पिता को कुछ आश्वासन दिया था।
रीतलाल यादव की जीत की निश्चय ही पूरे बिहार में अलग व्याख्या की जाएगी। वो जीत बिहार में राजद-जद-यू वोटरों के बीच गहरी दरार खींच सकती है जो वैसे भी पहले से धुंधला सा बना हुआ है। जद-यू उम्मीदवारों को हमेशा ये संशय रहेगा कि लालू अपना सारा वोट उन्हें ट्रांसफर नहीं करवाएंगे या करवा पाएंगे। बिहार में यादव वोटरों की जितनी संख्या है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगर गठबंधन के प्रति उनकी निष्ठा दो-चार फीसदी भी डोली तो बीजेपी को इसका भारी फायदा हो जाएगा।
हां, ये कहना ठीक नहीं है कि लालू के वोटरों ने इस परिषद चुनाव में जद-यू को पूरा वोट नहीं दिया। बल्कि लालू के स्वजातीय वोटर न होते तो जद-यू भागलपुर, नालंदा या नवादा जैसी सीटें कभी नहीं जीत पाती। एक अन्य कारक भी है। दरअसल एक लंबे समय तक यादवों के राज, काउंटर पोलराइजेशन और अति-पिछड़ों के उभार ने बिहार के स्थानीय निकायों में यादव प्रतिनिधियों की संख्या कम कर दी है। आशिंक रूप से वो भी इस चुनाव में झलक रहा है। वरना यादवों के गढ़ मिथिलांचल में यादव प्रतिनिधि जरूर चुनाव जीत जाते। 
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वाम दलों ने 16 उम्मीदवार खड़े किए थे, सारे खेत रहे। मुस्लिम उम्मीदवार एक ही जीत पाया, स्त्रियां करीब 12-15 फीसदी जीतीं और बनिए करीब 22 फीसदी और उतने ही यादव। जबकि यादवों की संख्या बिहार में बनियों से ज्यादा है। अंदाज लगा लीजिए कि धन-बल का कितना महत्व है !

Monday, July 6, 2015

यह व्यापम घोटाला है या जेम्स बॉंन्ड की कोई जासूसी फिल्म है?

व्यापम की वेबसाइट देख रहा था कि इसमें मेडिकल या प्री-इंजीनियरिंग टेस्ट है या नहीं। क्योंकि डॉक्टर भी मारे गए हैं, पत्रकार भी और चपरासी भी। बड़ा घालमेल है। इसका गठन तो हुआ था मेडिकल इंट्रेस इक्जाम के लिए लेकिन बाद में किसी 'दिमाग' वाले CM ने मेडिकल प्रवेश परीक्षा हटा दिया और उसके लिए अलग बोर्ड बना दिया। अब व्यापम चौकीदार से लेकर एग्रीकल्चर ऑफिसर तक की बहाली करता है। वह पुलिस कांस्टेबल भी बहाल करता है, इजीनियर भी और साथ ही कई विषयों का इंट्रेस्ट टेस्ट भी लेता है। MCA करना है तो व्यापम जाइये। वो सौ मर्ज की एक दवा है। यानी व्यापम नौकरी बांटने और एडमिशन देने की थोक एेजेंसी है जो साल में पूरे MP में 25-30 हजार नौकरियां और एडमिशन के लिए जिम्मेवार है। 

हम लोग बचपन से हिंदी पट्टी में मध्यप्रदेश और राजस्थान को अलग मानते थे। शरीफ बच्चा सा दिखनेवाला सूबा जो अपना सारा काम समय पर करता है। जो धीरे-धीरे 'बीमारू' प्रदेश की श्रेणी से बाहर निकल गया था। हमें क्या पता था कि विकास होते रहने के बावजूद भ्रष्टाचार का कैंसर वैसे ही पसर सकता है। बहुत सारी बातें साफ हो रही है। हमने हाल के सालों में अखबारों में देखा कि कैसे भोपाल के अफसरों के घरों से सैकड़ों करोड़ बरामद हुए। कायदे से इतने पैसे लखनऊ या पटना के हाकिमों के घर से मिलने चाहिए थे।
अब आप इस बेरोजगारों भरे भ्रष्ट देश में अदांज लगाइये कि एक नौकरी की कीमत क्या हो सकती है। बाजार में एक औसत किरानी की नौकरी घूस देकर 6 से 8 लाख में मिलती है और हम इसे औसत मान लेते हैं। और अगर एक कंजूसी भरा आकलन करके माना जाए कि व्यापम में ज्यादा से ज्यादा 50 % सीटें भी बिकती हो तो कम से कम साल में 10 हजार नौकरी और एडमिशन की बोली लगती होगी।
अब हम 10 हजार को 6 लाख से गुणा कर देते हैं जो 600 करोड़ रुपये का सालाना मुनाफे वाला धंधा है। कहते हैं कि इसका इतिहास सनातन है। मान लिया जाए कि इसने पिछले 10-12 सालों में जोर पकड़ा हो तो व्यापम ने कम से कम 6-7 हजार करोड़ का धंधा किया होगा। एक राज्य स्तरीय सस्था के लिए इतना बढ़िया धंधा 'स्तुत्य' और 'प्रेरक' माना जाएगा। व्यापम को नवरत्न की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
जिस हिसाब से हत्याएं हुई हैं और सभी वर्ग-जाति का ख्याल रखा गया है, ऐसा लगता है कि इस घोटाले के बहुत सारे दावेदार हैं। शिवराज सिंह चौहान अगर कहते हैं कि उन्हें कोई फंसा रहा है तो उन्हें इसी बात पर इस्तीफा दे देना चाहिए। क्योंकि किसी शासक को वैसे भी गद्दी पर रहने का कोई अधिकार नहीं है जो अपनी सुरक्षा न कर सके।
ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस भी व्यापम घोटाले को ज्यादा तूल नहीं देना चाहती। हमें याद है कि बिहार में जब चारा घोटाल हुआ था तो पटना हाईकोर्ट ने ठोक-बजा कर राज्य सरकार की हालत खराब कर दी थी और मामला CBI को दे दिया गया। लेकिन व्यापम घोटाले में इतनी जानें जाने के बाद भी माननीय जबलपुर/भोपाल हाईकोर्ट उतना सख्त क्यों नहीं है?

बिहार में चारा घोटाला या यूपी में हेल्थ घोटाला में भी हत्याएं हुईं थीं। लेकिन वहां पर 50 लोग नहीं मरे थे। व्यापम तो सबका बाप निकला।

व्यापम में हो रही हत्याएं किसी हॉलीवुड जासूसी फिल्म या सुरेंद्र मो. पाठक के उपन्यास जैसी लगती है कि घुप्प अंधेरे में कोई आता है और किसी का कत्ल कर देता है। 

इसका नाम जिसने व्यापम रखा होगा वो जरूर किसी ज्योतिषी की औलाद होगा। व्यापम सुनकर ही लगता है कि यह व्यापक घोटाला है। कल हमारे एक वरिष्ठ ने लिखा कि टीवी प्रोड्यूशर व्यापम पर कोई प्रोग्राम बनाते हुए डरने लगे हैं कि क्या पता एडीटिंग मशीन से कोई भूत निकलकर कत्ल न कर दे।

Wednesday, July 1, 2015

यमुना की गंदगी और हथनिकुंड बांध


करीब दो साल पहले यमुना बचाओ अभियान के लोगों से मिलना हुआ तो हथिनीकुंड बराज के बारे में जानकारी मिली। वे लोग मथुरा से दिल्ली तक पदयात्रा करते आ रहे थे और पलवल के पास सड़क के किनारे एक स्कूल के मैदान में टेंट में विश्राम कर कर रहे थे। पता चला कि यमुना की गंदगी की असली वजह तो ये है कि उसका पानी हरियाणा के यमुनानगर में हथिनीकुंड बराज में रोक लिया गया है। वहां से यूपी और हरियाणा के लिए दाएं-बाएं नहर निकाल ली गई और यमुना का पानी खेतों में बांट लिया गया। ऐसे में यमुना सदानीरा नहीं रह पाई और रही-सही कसर दिल्ली के कचड़े(घरेलू और औद्यौगिक दोनों) और उसके कु-प्रबंधन ने पूरा कर दिया। 
यानी हथिनीकुंड का बराज यमुना का सारा पानी पी गया और प्रदूषण के लिए सारी गाली दिल्ली के कचड़े(फैलानेवालों) को मिली! विकीपीडिया कहता है कि बराज 1996 से 1999 के बीच बना जबकि उससे नीचे भी अंग्रेजी राज का करीब सवा सौ साल तजेवाला बराज पहले से था। लेकिन उसकी जगह हथिनीकुंड बनाया गया ताकि यूपी और हरियाणा की नहरों को पानी मिल सके।


केंद्र में उस समय देवगौड़ा-गुजराल और वाजपेयी की सरकारें थी और हरियाणा- यूपी में बीजेपी के ही भाई-बंधु थे। पता नहीं किन महानुभावों ने हथिनीकुंड बराज बनवाकर यमुना का पूरा पानी पी लेने की सहमति दी थी-यह अपने आप में शोध का विषय है। उस समय के कथित NGO क्या कर रहे थे, कोई सुप्रीम कोर्ट में क्यों नहीं गया या अखबारों ने क्या-क्या लिखा इस पर विस्तृत शोध होना चाहिए।

दिक्कत ये है कि मामला नहर-सिंचाई और किसानों से जुड़ा था तो सब ने चुप्पी साध ली। हमारे देश में कुछ मामले अत्यधिक पवित्र होते हैं, कोई उसे नहीं छूता। यमुना का पानी रूक गया, नदी जल-विहीन हो गई, ऐसे में उसमें गिरनेवाला थोड़ा भी कचड़ा उसे नरक बनाने के लिए काफी था। यहां तो उसे दिल्ली जैसे भीमकाय शहर का कचड़ा झेलना था, फरीदाबाद-बल्लभगढ, पलवल, मथुरा और आगरा को झेलना था। ऐसे में उसकी क्या गत हुई, इसे समझने के लिए किसी IIT में पढ़ने की जरूरत कहां है?
ऐसा नहीं है कि इन शहरों के कचड़ों के प्रबंधन के लिए धन खर्च नहीं किए गए, लेकिन अरबों रुपये कहां गए किसी को पता नहीं है। इधर मोदी सरकार ने नदियों को साफ करने को लेकर कुछ रुचि दिखाई है- लेकिन मुझे शक है कि किसानों की आड़ में हरियाणा और यूपी की सरकारें नहरों में पानी की कटौती होने देंगी। दीर्घकालीन हित तो कोई सोचता नहीं, ऐसे में यमुना भले ही बर्बाद हो जाए या उसके किनारे की दसियों करोड़ की आबादी भले ही विनाश के कगार पर पहुंच जाए-हमारी राजनीति को कोई फर्क नहीं पड़ता।

परिवहन मंत्री नितिन गडकरी तो और भी कमाल के हैं! उन्हें लगा कि चूंकि यमुना में सिल्टिंग है-इसलिए पानी नहीं है। मंत्री जी ने कहा कि नदी की ड्रेजिंग करवाएंगे-यानी भीमकाय मशीन लाकर मिट्टी निकाल दो और नदी को गहरा कर दो। बिना इस बात की चिंता किए हुए कि हजारों सालों में एक प्रक्रिया के तहत बनी नदी और उसके मिट्टी के लेयर को ऐसे ड्रेंजिंग करके नहीं हटाया जा सकता और बीमारी, नदी की गहराई में नहीं-हथिनीकुंड में पानी की रुकावट में है-मंत्रीजी उसी जोश में आ गए मानो नेशनल हाईवे बनावा रहे हों। उनके दिमाग में सबसे पहली बात ये आई कि ड्रेजिंग करवा कर नदी में प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिए नौका-विहार का आयोजन करवाएंगे!
पर्यावरणविदों का कहना है कि यमुना में बालू और मिट्टी का जो चरित्र है वो अलग है। दिल्ली की यमुना, पहाड़ से ज्यादा दूरी पर नहीं है। ऐसे में नदी की गहरी खुदाई मिट्टी के उस लेयर को हटा देगा और .यमुना के दोनों तट कटाव के लिए असुरक्षित हो जाएंगे।ये अच्छी बात है कि National Green Tribunal (NGT) ने हरियाणा सरकार से कहा है कि वो 10 क्यूसेक पानी छोड़े ताकि दिल्ली के वजीराबाद तक यमुना की प्राकृतिक धारा एक हद तक कायम रहे।
यमुना के लिए आवाज उठाना इसलिए जरूरी है क्योंकि अगर हमने आज यमुना को खो दिया, तो कल को गंगा भी नहीं बचेगी, फिर एक दिन नर्मदा, कोसी और चंबल की भी बारी आएगी।

Saturday, June 27, 2015

अच्छी नींद से याददाश्त भी बढ़ती है और सैलरी भी!

 रात से शुरू करते हैं। कोशिश करें कि रात का खाना जितनी जल्दी खा सकें, खा लें। सोने से कम से कम 3 घंटे पहले खाना खा लें। ज्यादातर लोग खाना खाकर तुरंत सोने चले जाते हैं। यह ठीक बात नहीं है। लगभग पूरा चीन सूर्यास्त से पहले खाना खा लेता है। लगभग 80 फीसदी अमेरिकी शाम में 8 बजे तक डिनर कर लेते हैं। हमारे यहां जैनी भी ऐसे करते थे और पुराने जमाने में पूरा समाज सवेरे खाना खाता था। गांव में आज भी रात में 8 बजे तक लोग खाना खा लेते हैं। शहरों में ही कुछ लोग रात में 11 बजे खाते हैं और 2 बजे सोते हैं फिर सुबह में 10 बजे उठकर दिन भर भकुआते हुए घूमते रहते हैं।

खाना खाकर तुरंत सोने का मतलब ये है कि जब आप सोने जाते हैं तो शरीर कुछ काम कर रहा होता है। वो पाचन क्रिया में जुटा होता है। ऐसे में गाढी नींद नहीं आएगी। हम सोने के नाम पर खाना-पूर्ति कर रहे होंगे। बेहतर है कि सोने से 3 घंटा पहले खा लें। बेहतर नींद के लिए भोजन पर ध्यान देना जरूरी है। महात्मा गांधी ने इसे लेकर कई प्रयोग किए थे। उन्होंने कम घंटों में पूरी नींद लेने की महारत हासिल कर ली थी। भोजन कम से कम दिन में तीन बार और हो सके तो 5 बार थोड़ा-थोड़ा करके लें। अपने यहां कॉरपोरेट में काम करनेवालों को समय ही नहीं मिलता कि सुकून से खा सकें। लेकिन इस पर ध्यान देना होगा।

दिन का पहला भोजन यानी सुबह का नाश्ता भरपेट होना चाहिए। यानी दिन में अगर आप तीन बार खाते हैं तो सबसे तगड़ा भोजन सुबह का लीजिए। मान लीजिए आप पूरे दिन में 600 ग्राम खाते हैं तो 300 ग्राम सुबह में खाएं, फिर 200 ग्राम दिन में खाएं और 100 ग्राम रात में। हमारे यहां होता उल्टा है। लोग रात का खाना ही भकोस कर खाएंगे कि रात तो अपनी है और खाकर सो जाना है! जबकि रात में चूंकि आप कोई काम नहीं करते, तो ऐसे में ज्यादा खाना फैट में बदल जाएगा और उसका पाचन, आपकी साउंड स्लीप में खलल डालेगा अलग।

शाकाहार का अपना महत्व है। शाकाहार को शरीर आसानी से पचा लेता है, शरीर को ज्यादा मेहनत नहीं करनी होती पचाने में(हालांकि मैं खुद पूरी तरह से नहीं हो पाया हूं, लेकिन मुफ्त ज्ञान देने का अपना मजा है)। मन हल्का रहता है। भटकता नहीं है। किसी रिसर्च में आया है कि शाकाहार से आपकी याददाश्त भी बढ़ती है।  सोने से कम से कम एक घंटा पहले तमाम इलेक्ट्रानिक उपकरणों से अपनी आंख को दूर रखें। लैपटॉप, मोबाइल स्क्रीन नींद में बड़ी बाधा है। एक ब्रिटिश रिसर्च में ये बात सामने आई है कि जो लोग सोने से पहले मोबाइल स्क्रीन पर डटे रहते हैं, उनके नींद की गुणवत्ता घट जाती है।

 रात की नींद का कोई जोड़ नहीं। रात की 2 घंटे की नींद दिन के 5 घंटे से ज्यादा महत्वपूर्ण है। कोशिश करें कि जब आप सो रहे हों तो कहीं से भी प्रकाश की किरण या आभा आपके कमरे में प्रवेश न करें। मोबाइल को अपने से कम से कम 3 फीट की दूरी पर उलट कर रखें।

कई लोग गाढ़ी नींद लेने के लिए सोने से पहले वर्क आउट करते हैं। ताकि शरीर थोड़ा थक जाए। अमेरिका में खासकर इसका ज्यादा चलन है। आप चाहें तो सोने से पहले 15 मिनट तेज वॉक कर सकते हैं। इसे आजमा कर देखिए। 

कुल मिलाकर मामला ये है कि अच्छी नींद आएगी तो मेमोरी अच्छी रहेगी। चिड़चिड़ापन नहीं रहेगा। लोग आपको पसंद करेंगे! बॉस आपका 'पटा' रहेगा और बॉस की सेकरेटरी तुरंत आपको अप्वाइंटमेंट दिलवा देगी। 
हर-हर महादेव। रमजान आपको मुबारक हो।

Saturday, May 16, 2015

मोदी सरकार के एक साल, मेरी तरफ से 10 में 6 नंबर

मोदी सरकार के एक साल पर मैं उसे 10 में कम से कम 6 नंबर देता हूं। इस पर निम्नलिखित रूप से बिंदुवार चर्चा की गई है-
1. मेरी नजर में सबसे बड़ा काम था योजना आयोग को भंग करना और वित्त आयोग की सिफारिश मानकर राज्यों को ज्यादा पैसा देना। एक 67 साल के कथित रूप से बुजुर्ग हो चुके लोकतंत्र को अब अपने राज्यों पर भरोसा करना ही चाहिए। केंद्रीकृत व्यवस्था ने हमारे बचपन तक सिर्फ चार शहर पैदा किए थे। इसका असर आनेवाले सालों-दशकों में पता चलेगा जब एक बिहारी मुख्यमंत्री अपने हिसाब से पेयजल या गरीबों के लिए हाउसिंग स्कीम चला पाएगा। साथ ही सरकार अलग-अलग शहरों के विकास पर जोर दे रही है। हां, नाम रखने में कांग्रेसी ज्यादा माहिर थे-बीजेपी वाले अंग्रेजीदां नाम रखकर(जैसे स्मार्ट सिटी!) गरीबों को भयांक्रांत कर देते हैं।
2. विदेश नीति सही पटरी पर है-बहुत लोगों को इंदिरा गांधी की याद आ रही है। बहुत दिनों के बाद भारत अपने पड़ोसियों के साथ ठीक से पेश आ रहा है।


3. कम से कम आंकड़ों में अर्थव्यवस्था बेहतर लगती है। तेल मेहरवान रहा और प्रकृति बहुत बाद में नाराज हुई। सरकार ने कौशल विकास और विनिर्माण पर जोर दिया है। हालांकि जमीन पर उसे उतारने में समय लगेगा-लेकिन माहौल ऐसे ही बनाया जाता है।
4. भारत, आपदा के समय तारणहार बनकर उभरा है। कश्मीर, मालदीव, यमन और अब नेपाल के समय भारत ने इसका लोहा मनवाया है। हालांकि यह पिछले कई दशकों की मेहनत का नतीजा है लेकिन सेहरा तो दूल्हे के ही सिर बंधता है!
5. पिछले साल भर में घोटाले नहीं दिखे हैं।(!) आज के जमाने में यह कामयाबी वैसी ही है जैसे कोई बदमाश लड़का अपने कॉलेज में सबसे सुंदर कन्या को पटा ले!
6. जैसे कि उम्मीद थी, मोदी सरकार ने उस स्तर पर शिक्षा का भगवाकरण नहीं किया है-जैसा किसी संघी सरकार को करना चाहिए था। अभी भी बहुत सारे वामपंथी शिक्षा जगत में जमे हुए हैं या कई कमेटियों में फिर से बनाए गए हैं। उस हिसाब से यह इस सरकार का संतुलित कृत्य माना जाएगा।


7. देश में आंतरिक कानून व्यवस्था बहुत खराब नहीं है। आतंकियों द्वारा किए गए बम धमाके या नक्सली हमले काबू में हैं। लगता है उनके पैसों पर भी लगाम लगा है।
8. सरकार हार्ड बुनियादी ढ़ांचे पर आक्रामक दिखती है। सड़क और रेलवे सही हाथों में है। हालांकि हवाईजहाज वैसे ही बीमार है। लेकिन सॉफ्ट बुनियादी ढ़ाचे(शिक्षा, स्वास्थ्य आदि) पर सवाल बने हुए हैं। इसीलिए मैंने सरकार के चार नंबर काट लिए हैं।
9. सरकार की विधायी गतिविधियां भी तेज है। संसद में इतने कानून शायद ही कभी पारित हुए हों। उस हिसाब से राज्यसभा में अल्पमत में भी रहकर सरकार का फ्लोर मनेजमेंट बेहतर माना जाएगा।
10. सबसे बड़ी बात ये कि सरकार लोकलुभावनकारी कामों से बच रही है जो कांग्रेसियों की सबसे बड़ी आदत थी।