Sunday, December 28, 2008

हिंदी पट्टी में पटना का 7वां स्थान, लेकिन माजरा कुछ और है...

इंडिया टुडे ने हिंदी पट्टी के 20 शहरों का सर्वे किया है। सर्वे में पटना को सातवां स्थान मिला है जो काफी उत्साहजनक लगता है। गौरतलब है कि अगर कंम्प्यूटर को विकास का पैमाना माना जाए तो सिर्फ 4 शहर ही पटना को पछाड़ पाए हैं। पटना में प्रति परिवार कंम्प्यूटर की मौजूदगी तकरीबन 9.5 फीसदी है जो दिल्ली के मुकाबले (10.5 फीसदी) थोड़ा ही कम हैं। हां, चंडीगढ़, जयपुर नोएडा इससे आगे हैं। प्रतिव्यक्ति आय के हिसाब से भी पटना सातवें जगह पर है और 13 शहर इससे पीछे हैं। इससे इस मिथक को तोड़ने में थोड़ी सी मदद मिलेगी कि बिहार, हिंदी पट्टी में सबसे पिछड़ा सूबा है। लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है जो ज्यादा चिंताजनक है।

यहां सवाल ये है कि जो राज्य विकास के सारे मापदंड पर नीचे से अब्बल आता हो उसकी राजधानी कैसे सातवें जगह पर है। माना की ये सर्वे सिर्फ हिंदी पट्टी के शहरों का है लेकिन फिर भी हिंदी पट्टी में भी तो बिहार का स्थान सबसे नीचे है। तो आंकड़ों में घालमेल कैसे हो गया।

इसका साफ मतलब है कि पूरा बिहार तो बहुत ही पीछे है, लेकिन सूबे की सारी मलाई पटना में जमा हो गई है। दूसरी बात ये कि इन 20 शहरों में तो दूसरे सूबों के कई शहर शामिल हैं लेकिन बिहार में ये सौभाग्य सिर्फ पटना को ही मिल पाया है। ये साबित करता है कि बिहार में कितना कम शहरीकरण हुआ है और जो हुआ भी है तो उसमें पटना का हिस्सा कितना ज्यादा है। हमने सर्वे में ये पाया है कि पटना में कंम्प्यूटर की मौजूदगी लखनऊ, लुधियाना, गुड़गांव, भोपाल और देहरादून से भी ज्यादा है। इसका मतलब ये है कि दूसरे शहरों में इतनी संपन्नता के बावजूद आबादी की संरचना कितनी सही और संतुलित है, और सारे तबके वहां मौजूद हैं लेकिन पटना में पूरे बिहार का मलाईदार तबका जमा हो गया है।

ऐसा भी नहीं कि पटना में गरीब नहीं है, लेकिन इसका एक मतलब ये भी है कि जो अमीर हैं उन्होने बेतहाशा दौलत जमा कर ली है। तभी तो ऐसे एक-एक घर कई-कई कंम्प्यूटर होंगे-तभी तो इतनी ज्यादा मौजूदगी दिख रही है और वो पटना के आर्थिक रुप से सातवें पोजीशन पर ले आये हैं। एक बात ये भी है कि भले ही यूपी, बिहार से आबादी में दो गुना बड़ा हो लेकिन उसके 7 शहर इस सर्वे में मौजूद है-ये बात अपने आप में इस बात की गवाह है कि यूपी में बिहार से कई गुना ज्यादा शहरीकरण हुआ है। दूसरी बात ये भी कि यूपी के सारे शहर सरकारी शहर नहीं है-लखनऊ और इलाहाबाद को छोड़ दें- तो यूपी के सारे शहर कारोबारी शहर हैं जो काफी पोजिटिव बात है। जबकि पटना अभी तक सिर्फ बाबूओं-नेताओं का ही शहर है-जिनके भ्रष्टाचार ने पटना को पैसे के मामले में इतना ऊंचा खड़ा कर दिया है।

कुल मिलाकर सर्वे ने साफ इशारा किया है कि भले ही हम पटना की पोजिशनिंग पर कुछ पल के लिए इतरा लें, लेकिन एक भयावह और स्याह तस्वीर जो सामने आई है वो ये कि बिहार में अभी भी शहरीकरण कितना कम है, पटना में कितनी बड़ी तादाद में भ्रष्ट पैसा जमा हो गया है और सूबे में उद्योग और कारोबार की हालत कितनी खस्ता है। अभी तक द्वितीय श्रेणी के शहर-भागलपुर, गया, मुजफ्फरपुर, दरभंगा और पूर्णिया कोई जगह नहीं पाये हैं। हां, एक ही बात सुकून की है कि पटना में अपराध कम हुआ है और लोग देर रात तक आइसक्रीम खाने निकलने लगे हैं। नीतिश कुमार के सड़को का सुफल शायद पांच-दस साल बाद मिले, लेकिन उनके लिए ये सर्वे एकमात्र यहीं उपलब्धि सामने लाई है।

Saturday, December 27, 2008

पूनम की पुकार...

प्रवीण आज अमेरिका चला गया, एल एंड टी ने उसे अपने प्रोजेक्ट पर शिकागो भेज दिया। लेकिन उसी के साथ पढ़नेवाली पूनम की नसीब ऐसी नहीं थी। वो आज दो बच्चों की मां बन चुकी है और अपने पति की सेवा करते हुए अपनी जिंदगी बिता रही है। पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि पूनम के साथ इस व्यवस्था ने घनघोर अन्याय किया है। बात साल 95 की होगी। मेरा बोर्ड का रिजल्ट आ चुका था, और उस समय प्रवीण और पूनम 6 ठी क्लास में पढ़ते थे। मधुबनी के सुदूर गांव का एक स्कूल जहां टीचर के नाम पर चार लोग थे जिनका ज्यादा वक्त खेती करने में ही बीतता था-दोनों उसी में पढ़ते थे। पूनम अपने क्लास में फर्स्ट आती थी, और प्रवीण सेकेंड। लेकिन व्यवस्था ने पूनम को जिंदगी में सदा के लिए सेंकेंड बना के रख दिया।

प्रवीण के पिता कटक में एक दुकान में काम करते थे, वे 7वीं में प्रवीण को लेकर चले गए।जबकि पूनम के पिता की सरकारी नौकरी थी, उसकी माली हालत भी ठीक थी-फिर भी पूनम अपनी आभा नहीं बिखेर पाई। प्रवीण ने ग्यारवीं के बाद राउरकेला के इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला लिया, चार साल बाद एल एंड टी मे सलेक्शन हुआ और आज वो शिकागो में है। दूसरी तरफ तीन बहनों में बड़ी पूनम ने दसवीं में अच्छा रिजल्ट आने के बाद मधुबनी के कालेज में दाखिला भी लिया था। लेकिन वो आगे नहीं पढ़ पाई। एक दिन मेरी दीदी ने पूनम से उसके पढ़ाई के बारे में पूछा भी था। पूनम ने कहा था-दीदी..मां-पापा में रोज लड़ाई होती है कि पूनम की ज्यादा पढाई उसकी शादी में दिक्तत पैदा कर सकती है। बस पूनम ने धीरे-धीरे पढ़ाई से किनारा कर लिया और अगले दो साल के बाद उसकी शादी कर दी गई। पूनम का तमाम टैलेंट सिलाई-कढ़ाई और स्वेटर के नए डिजायन तैयार करने में जाया खर्च हो गया।

आज मैं प्रवीण के बारे में सोचता हूं जिसके टैलेंट का डंका मेरे गांव में बजता है। मिथिला के तमाम दहेजदाता उसके दरवाजे के चक्कर काट चुके हैं । सवाल ये है कि पूनम को ये मौका क्यों नही मिला। क्या सिर्फ दहेज ही एक फैक्टर था या ये भी पूनम को घर के नजदीक अच्छा कालेज नसीब नही हुआ। अगर पूनम कर्नाटक या केरल में पैदा हुई होती तो क्या वो इंजीनियर नहीं बन सकती थी...ये ऐसे सवाल हैं जो अभी भी नीतीश कुमार और अर्जुन सिंह के एजेंडे से गायब हैं, और लाखों पूनम ये सवाल इस मुल्क की व्यवस्था से पूछ रही है।

Sunday, December 21, 2008

मुम्बई हमले और पाकिस्तान-7

लेकिन एक बात जो यहां गौर करनेवाली है वो ये कि भारत के लिए इस्लामी आतंकवाद का सबसे बड़ा खतरा उस दौर में था जब अफगानिस्तान में तालिबान लड़ाके सत्ता में थे और अलकायदा के साथ उनका खुलेआम गठजोड़ था। लेकिन उस वक्त तक भारत में इस्लामिक आतंकवाद का मतलब कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को खाद-पानी देना था न कि पूरे हिंदूस्तान में धमाके करते रहना। ये बात अलग है कि धमाकों का ब्लूप्रिंट जनरल जिया ने अस्सी के दशक में ही तैयार कर दिया था जिसका नाम उन्होने ब्लीड इंडिया इन्टू हंड्रेड कट्स रखा था। लेकिन 90 के दशक में जो भी आतंकी हमले भारत में हुए उसका मुख्य केंद्र कश्मीर ही था या उससे पहले पंजाब था। जब 2000 के दशक में अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद तालिबान की सत्ता खत्म हो गई और अलकायदा भी अमेरिका के निशाने पर आ गया तो भारत में वजाय हमले घटने के ये हमले और भी बढ़ते गये। ये कहानी कुछ दूसरे ही बात की तरफ इशारा करती है।

दरअसल,भारत में भी इस बीच कई परिवर्तन हुए। सत्ता में बीजेपी-नीत सरकार आ गई जिसने पहले से जारी कांग्रेसी पालीसी को बहुत तेजी से अमेरिका के नजदीक पहुंचा दिया। पाकिस्तान की चीन से बढ़ती नजदीकी और सोवियत संघ के पतन के बाद ये भारत की भी मजबूरी हो गई कि वो अमेरिकी के नजदीक आए। इन तमाम चीजों ने इस्लामिक आतंकवाद के सीधे निशाने पर भारत को ला खड़ा किया जो पहले सिर्फ कश्मीर की आजादी तक सिमटा हुआ था। भारत की लड़ाई अब सिर्फ पाक परस्त इस्लामिक गुटों से नहीं रह गई, अब वो अंतरार्ष्ट्रीय इस्लामिक चरमपंथ के निशाने पर आ गया जो पहले सिर्फ इजरायल और अमेरिका को ही अपना दुश्मन मानता था।

पाकिस्तान के प्रभावी वर्ग को भी ये एहसास हो गया कि भारत से अब अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर दबाव डालकर कश्मीर को वापस नहीं लिया जा सकता। बीते दशको में भारत की सामरिक और आर्थिक स्थिति भी मजबूत होती गई। इन तमाम चीजों ने इस्लामिक चरमपंथ को फ्रस्टेट कर दिया। इसके अलावा उन्हे आतंकियों का क्षेत्रीय नेटवर्क तैयार करने में कोई दिक्तत नहीं हुई क्योंकि भारत में मुसलमानों का एक तबका अयोध्या और गोधरा कांड के बाद इस मुल्क की व्यवस्था से असंतुष्ट बैठा था।

लेकिन दुनियां के इतिहास में हाल के दिनों में जिन दो चीजों ने बहुत ही ज्यादा असर डाला है वो है अमेरिका मे 9/11 की घटना और इराक युद्ध। इन दोनों लड़ाईयों ने अमेरिकी की उपस्थिति एशिया में और मजबूत कर दी। अमेरिकी की बढ़ती दखलअंदाजी और किसी दूसरी ताकत की अनुपस्थिति में इस्लामिक गुटों का अमेरिकी विरोध-ये ऐसी वजहें है जो लंबे समय तक इस इलाके में इस्लामिक आतंकवाद की वजह बनी रहेंगी। तो क्या हम फिर घूम फिरकर वहीं नहीं आ गए जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में दखलअंदाजी की थी?

आतंकी घटनाओं में बढ़ोत्तरी की एक दूसरी वजह ये भी है कि पाकिस्तान के कर्ताधर्ताओं को लगता है कि भारत आतंकी घटनाओं से तंग आकर कश्मीर पर समझौते को तैयार हो जाएगा। खासकर उस हालत में जब पाकिस्तान के पास एटम बम है। परमाणु बम आने के बाद पाकिस्तान के मनोबल में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है,अब उसे भारत के भस्मासुरी हमले से निजात का आश्वासन मिल गया है। लेकिन जो बात पाकिस्तान के लिए ज्यादा खतरनाक है वो ये कि अब अमेरिका की चिंताएं पाकिस्तान को लेकर बढ़ गई है। अमेरिका को लगातार इस भय में जीना है कि अगर एटम बम की पहुंच आतंकी हाथों तक हो गई तो इसका पहला शिकार नई दिल्ली न होकर इजरायल और अमेरिका होगा।

यहीं वो बिंदु है जो भारत के लिए आश्वासन देनेवाला है कि अब अमेरिका ज्यादा गंभीरता से पाक की नकेल कसने के लिए मजबूर है। पाकिस्तान में कट्टरपंथी या अराजक शासन का ज्यादा खतरनाक मतलब अमेरिका को दिन में तारे की तरह दिख रहा है। कोंडिलिजा राइस या गार्डन ब्राउस के दौरे की हड़बड़ी इस बात को लेकर नहीं थी कि ताज होटल में कुछ हिंदुस्तानी मर गए। उन्हे लगता है कि अगर भारत ने लड़ाई छेड़ दी तो फिर दाढ़ीवालों के हाथ में पाकिस्तानी बम चला जाएगा....और फिर अगला ताज.. लंदन या न्यूयार्क भी बन सकता है। एक अशांत,गरीब,कट्टरपंथी और अराजक पाकिस्तान सिर्फ भारत के लिए ही खतरनाक नहीं है बल्कि वो पश्चिमी देशों के लिए ज्यादा खतरनाक है।(जारी)

Saturday, December 20, 2008

मुम्बई हमले और पाकिस्तान-6

लेकिन जनरल जिया ने ऐसा क्यों किया..इसकी सटीक जानकारी किसी के पास नहीं। क्या वो एक धर्मांध व्यक्ति थे जिन्होने पाकिस्तानी सेना में मौलवियों और कट्टरपंथियं की बहाली करनी शुरु कर दी? इतिहास की किताबों में इसका संकेत नहीं मिलता। कायदे से देखा जाए तो जिन्ना, जुल्फिकार अली भुट्टो और जनरल जिया तीनों ही सेक्यूलर किस्म के आदमी माने जाते हैं जिनका लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान की बेहतरी था। जिन्ना को एक शासक के रुप में अपना बेहतरीन दिखाने का मौका नहीं मिला, लेकिन जहां तक बात जुल्फिकार अली भुट्टो और जनरल जिया की है तो वो भी पाकिस्तान को एक विजनरी लक्ष्य नही दे पाए।

जुल्फिकार अली भुट्टो तो अपने मिजाज से इतने सामंती और गैर-लोकतांत्रिक थे कि उन्हे पूर्वी पाकिस्तान(बांग्लादेश) के नेता शेख मुजीब को सत्ता सौंपना भी गवारा नहीं था जिसके बाद पाकिस्तान का बंटवारा तक हो गया। यहां पाकिस्तान के शासन में सामंती-कट्टरपंथी और उच्चवर्गीय लोगों के लगातार वर्चस्व का एक अलग विमर्श है जिसकी वजह से पाकिस्तान में कभी लोकतंत्र पनप नहीं पाया। लेकिन बात फिर घूम फिरकर वहीं आती है कि आखिर जनरल जिया ने पाकिस्तान की सेना और आईएसआई और प्रकारांतर से पूरे समाज को कट्टरपंथ की आग में क्यों झोंक दिया। वो कौन से हालात थे जिसने जिया को ऐसा करने को मजबूर कर दिया।

कुछ जानकारों का कहना है कि इसके पीछ शीतयुद्ध के काल की परिस्थितियां जिम्मेवार हैं। दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप को किसी भी चीज ने इतना नुक्सान नहीं पहुंचाया जितना अफगानिस्तान में सोवियत रुस की दखलअंदाजी ने। काबुल में सोवियत हस्तक्षेप के बाद पाकिस्तान अपने दोनों सीमाओं पर बड़ी ताकतों से घिर गया। पूर्वी इलाके में भारत और उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में रुस की बड़ी फौजी ताकत से निपटना उसके बूते की बात नहीं थी।

ऐसे में जनरल जिया के पास सिवाय अमेरिका की हर बात मानने के कोई चारा नहीं था। जिया ने ऐसे में सौदेवाजी की नीति अख्तियार की। अमेरिका से उन्हे जमकर पैसे और हथियार मिले। इस पैसे का इस्तेमाल रुस के खिलाफ मुजाहिदीन और तालिबान को खड़ा करने में किया गया। कश्मीर में भी तबतक भारतीय नेताओं की कुछ गलतियों से हालात खराब होने लगे थे। जिया ने पाकिस्तान में कट्टरपंथी इस्लामी गुटों को मदद देनी शुरु की।यहीं से पाकिस्तानी सेना के इस्लामीकरण की शुरुआत हुई जिसने बाद में पूरे मुल्क को अपनी गिरफ्त में ले लिया(जारी)

Thursday, December 18, 2008

मुम्बई हमले और पाकिस्तान-5

मुसलमानों को जंग लगा हुआ पाकिस्तान मिला है-जिन्ना
पाकिस्तान में रहनेवाले हरेक नागरिक आज से सिर्फ पाकिस्तानी है, उसे अपना धर्म और अपने विश्वास मानने की पूरी आजादी है-जिन्ना
हम ब्रेकफास्ट जैसलमेर में, लंच जयपुर में और डिनर दिल्ली में करेंगे-याह्या खान
हम 1000 साल तक घास की रोटी खाएंगे, लेकिन इस्लामिक बम जरुर बनाएंगे-जुल्फिकार अली भुट्टो
अल्लाह ने अरबों के लिए तेल भेजा, पाकिस्तानियों के लिए रुसी-जनरल जिया उल हक
इसके बाद के दौर में पाक नेताओं ने ऐसे लच्छेदार और दुस्साहसी बयान देने बंद कर दिए क्योंकि तबतक 'अल्लाह के सिपाहियों' ने अफगानिस्तान से रुस को वापस कर दिया था और अमेरिका के लिए पाकिस्तान की अहमियत सिर्फ नकली मुस्कुराहट तक सिमट गई थी।लेकिन साल 1947 से अबतक पाकिस्तान के नेताओं के बयान उनकी मानसिकता को अच्छी तरह दिखाता है। जिन्ना जैसे नेता, जिनके व्यक्तित्व के बारे में बोलना सिर्फ विवाद पैदा करता हो, उन्होने भी माना था कि पाकिस्तान में रहनेवाले लोगों के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। लेकिन जिन्ना के मरते ही ये बात हवा हो गई, और आज पाकिस्तान एक इस्लामिक राज्य है। पाकिस्तान के नेता शुरु से ही कितने लफ्फाज और जनता को गुमराह करनेवाले थे इसका उदाहरण पाकिस्तान के नेताओं का वो बयान था जो उन्होने सन 65 की लड़ाई के वक्त दिया था। चीन के हाथों 1962 में भारत की शिकस्त के बाद पाक नेताओं ने सोचा कि भारत के ठिगने से दिखनेवाले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को चुटकियों में पटखनी दी जा सकती है और उनमें अपने लोगों के प्रति श्रेष्ठता की भावना इतनी ज्यादा थी कि बिना कुछ सोचे उन्होने 1965 में भारत पर हमला कर दिया। शायद जनरल याह्या खान ने ही कहा था कि हम लंच जयपुर में और डिनर दिल्ली में करेंगे। लेकिन 65 में भारत के ठिगने से प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को वो मात दी कि हिंदुस्तानी फौज लाहौर तक पहुंच गई।
मजे की बात देखिए, पाकिस्तानी नेताओं को फिर भी दाद देनी होगी। अब भारत को पटखनी देने का एकमात्र उपाय बचा था और वो था एटम बम। ये कोई सेनानायक नहीं, बल्कि जनता के दुलारे जुल्फिकार अली भुट्टो थे जिन्होने घास की रोटी खाकर इस्लामिक बम बनाने की बात की थी। उसके बाद आए जनरल जिया-पाकिस्तान के समकालीन इतिहास में सबसे काबिल,कूटनीतिज्ञ और विवादस्पद शासक जिनके योगदान का आकलन करना जानकारों के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही है। जनरल जिया ने पाकिस्तान के ज्योग्राफिकल सिचुएशन का इतना बेहतरीन फायदा उठाया जितना कोई नहीं उठा पाया था। उन्होने सोवियत रुस का भय दिखा कर अमेरिका से मोटी रकम और हथियार बसूले। लेकिन जिया ने अपने नीतियों से इस उप-महाद्वीप को इतना नुक्सान पहुंचाया जिसकी शायद जिया ने भी कल्पना नहीं की होगी। जिया ने अमेरिका की सहायता करने के लिए और रुस को अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए उस तालिबान को मदद देना शुरु किया जो आनेवाले वक्त में पूरे पाकिस्तान के इस्लामीकरण के लिए जमीन तैयार कर गई। सोवियत विघटन और उसके अफगानिस्तान से वापसी के बाद वहीं इस्लामी भस्मासुर अब पूरे उपमहाद्वीप के लिए नासूर बन गया है जिसे संभालना अब पाकिस्तान के हुक्मरानों के लिए, यहां तक की सेना के लिए भी वश की बात नहीं रह गई है। (जारी)

Wednesday, December 17, 2008

मुम्बई हमले और पाकिस्तान-4

बहुत दिनों पहले जनसत्ता के साहित्य विशेषांक मे चाणक्य सेन का लिखा पाकिस्तान डायरी पढ़ने का मौका मिला। चाणक्य सेन ने बेहतरीन अंदाज में समझाया था कि पाकिस्तान की मानसिकता क्या है और वहां के लोग क्या सोचते हैं। सेन ने इस किताब में अपने कई पाकिस्तान दौरों के यादों को साझा किया है कि कैसे जनरल जिया ने पाकिस्तानी सेना और समाज का सांस्थानिक इस्लामीकरण करना शुरु किया था जो 90के दशक के बाद एक विशाल बटबृक्ष बन गया।

पाकिस्तान की बीमारी ये है कि वहां जनता में सेना को बहुत ही सम्मान प्राप्त है और लोकतंत्र की जड़े कभी मजबूत नहीं हो पाई। शुरु से ही नेताओं ने भी इसमें खास दिलचस्पी नहीं दिखाई, वो सेना का दुरुपयोग करते रहे ये सोचे बिना की ये सेना आनेवाले दिनों में उन्ही के लिए भस्मासुर साबित होगी। पाकिस्तान की जनता सोचती है कि सेना ही एक ऐसी संस्था है जो उसे भारत के 'कोप' से छुटकारा दिला सकती है। चाणक्य सेन ने लिखा है कि किस तरह पाकिस्तान का मध्यमवर्ग भी उसी अंदाज में सोचता है, मौज-मस्ती उड़ाता है और अपने बच्चों को अमेरिका के यूनिवर्सिटियों में पढ़ाने की फिक्र में दिनरात लगा रहता है। लेकिन उसका आकार इतना छोटा है कि उस पर कट्टरपंथी जमात हावी हो गई है।

पाकिस्तान के एक बड़े पत्रकार ने चाणक्यसेन को कहा कि सेन साब... पाकिस्तान के जन्म के तुरंत बाद नियति ने उसे छल लिया। हिंदुस्तान में गांधी की हत्या के बाद भी दूसरी पंक्ति के नेताओं की एक कतार थी, और नेहरु ने बखूबी मुल्क को लंबे समय तक एक ठोस नेतृत्व दे दिया लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं हो पाया। पाकिस्तान में जिन्ना के मरने के बाद वो मुल्क लोकतांत्रिक अस्थिरता का शिकार हो गया और सेना ने सत्ता में दखलअंदाजी कर दी। पाकिस्तान के नेता भी बांग्लादेश को दबाने के लिए सेना को हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे, साथ ही देश में कभी भी हिंदुस्तान की तर्ज पर समाजिक और आर्थिक समानता लाने की बात नहीं सोची गई। भारत की तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं को विकसित नहीं किया गया और सेना ही एकमात्र संस्था बच गई जो मुल्क को आपतकाल में संभाल सके। इसमें कोई ताज्जुब भी नहीं है, वैसे भी जब राजनीतिक संस्थाएं फेल हो जाती हैं तो ऐसा ही होता है।

इसके आलावा भारत से हुई कई लड़ाईयों में हार ने भी पाकिस्तान के जनता के मन ये भावना भर दी कि अगर कोई तारणहार है तो फौज ही है, नेताओं के भरोसे मुल्क को छोड़ा नहीं जा सकता। और आज कोई नेता अगर इमानदारी से मुल्क में लोकतंत्र लाना भी चाहता है तो जनता में वो भरोसा नहीं है,अलबत्ता अब धीरे-धीरे माहौल बन रहा है। लेकिन सवाल ये है कि क्या पाकिस्तान की सेना,आईएसआई और कट्टरपंथी इतनी आसानी से लोकतंत्र को जड़ जमाने देंगे और खुद को परदे के पीछे कर लेंगे... हाल दिनों में जिस नेता ने भी पाकिस्तान में सेना को काबू में करने की कोशिश की सेना ने तिकड़म करके उसका तख्ता पलट दिया और इसके ताजा उदाहरण नवाज शरीफ हैं जिन्हे मुशर्रफ ने बेदखल कर दिया था। अब जरदारी भी वहीं काम करना चाहते हैं,और सेना उन्हे कब तक काम करने देगी कहना मुश्किल है।(जारी)

Sunday, December 14, 2008

मुम्बई हमले और पाकिस्तान-3

इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ब्राउन साहब पाकिस्तान को हड़काकर भारत के घाव पर मरहम लगाने की कोशिश कर रहे है। दरअसल ये पाकिस्तान को अमेरिका की ही झिड़की है जिसे बुश साहब अलग-अलग नेताओं से पाकिस्तान को दिलवा रहे हैं। पहले राइस, फिर अमेरिकी सेना के कमांडर-इन-चीफ और अब इग्लैंड के प्रधानमंत्री। हो सकता है अगला दौरा सरकोजी और जापान के प्रधानमंत्री का हो,जो इसी स्टाइल में पाक को हड़काएं और भारत को पुचकारें। ऐसा नहीं लगता कि इसबार अमेरिका को भारत पर कुछ ज्यादा ही प्यार उमड़ आया है? तो आखिर ये माजरा क्या है कि मुम्बई में मजह 'कुछेक सौ हिन्दुस्तानियों' की मौत ने अमेरिका को विचलित कर दिया है। मामले में कुछ गड़वड़ जरुर है।

अमेरिका की चिंता ये नहीं है कि कुछ हिन्दुस्तानी होटल ताज में मर गए। उसकी अभी की चिंता ये है कि भारत कहीं सीमा पर फौज न तैनात कर दे। दूसरी बात जो भारत ने संकेत दिया है वो ये कि पाकिस्तान की वांह कुछ ज्यादा मरोड़ों नहीं तो बात नहीं बनेगी। ब्राउन साब जब इस्लामाबाद में थे उसी वक्त पाक ने आरोप लगाया कि भारत के लड़ाकू विमान पाक में घुस गए है जिसका भारत ने खंडन कर दिया। ये पुरानी युद्ध रणनीति है जो दबाव बनाने के लिए की जाती है। हो सकता है भारत के विमान पाक के क्षेत्र में जानबूझकर घुसे हों ताकि ब्राउन साब और भी ज्यादा तल्खी से जरदारी से बात करे।... और इसका असर ब्राउन के बयान पर दिखा भी।

लेकिन अमेरिका की चिंता इससे भी बढ़कर है। दरअसल,अमेरिका ये जानता है कि इराक और अफगानिस्तान हमलों के बाद दुनियां की लगभग पूरी इस्लामी आबादी उसके खिलाफ है,और इस्लामी आतंकवाद की जो सबसे पुख्ता और उपजाऊ जमीन है वो पाकिस्तान में ही बच गई है। लेकिन पाकिस्तान की ज्यादातर आबादी तालिबान और कट्टरपंथियों की हिमायती हो गई है। बदकिस्मती से उसने तालिबान को अमरीकी साम्राज्यवाद से लड़ने का एकमात्र तारणहार मान लिया है। अमेरिका की मुश्किलें दोहरी हैं। अतीत में भी, और अभी भी आतंकवाद से लड़ने में पाकिस्तान उसका हिमायती रहा है,लेकिन दिक्तत अब ये है कि सारे आतंकवादी, तालिबानी, उनके थिंक टैंक और उनको ठोस मदद पहुंचा पा सकने वाले पाकिस्तान में पनाह पा गए हैं। अब पाक की जमीन पर उसी की जनता को मारना अमेरिका के लिए मुश्किल हो रहा है। वो जितना मिसाइल दागता है ,पाकिस्तान की जनता उतनी ही नाराज होती है । अमेरिका के भरोसेमंद जरदारी के लिए उतनी ही मुश्किलें पैदा होती जा रही है। तो रास्ता एक ही है कि अमेरिका खुद सीधे पाकिस्तान में कार्रवाई न करके पाकिस्तान की सरकार से करवाए। लेकिन जरदारी ऐसा करके खुद की कब्र कैसे खोदेंगे । जनता उन्हे नहीं पीटेगी? तो एक बीच वाला रास्ता बचा है। वो ये कि जरदारी जनता को ये बताएंगे कि अमेरिकी प्रेसर झेलना मुश्किल है इसलिए वो कार्रवाई कर रहे हैं । जनता इस बात से एक हद तक कंविन्स भी हो जाएगी ।

...और यहीं काम अमेरिका कर रहा है। वो जानता है कि भारत कोई मांग मांगेगा तो पाकिस्तान की पुरानी कुंठा जाग जाएगी, वो सिरे से मुकर जाएगा। लेकिन अमेरिका दबाव देगा, तो सब ठीक है। दरअसल,अमेरिका को भी मुम्बई हमलों ने एक नायाब मौका दिया है कि पाकिस्तान पर नकेल कसे । इसके लिए इस बार ठोस बहाना मौजूद है और पाकिस्तान से उसकी पुरानी दोस्ती भी आड़े नहीं आएगी। वो ये दिखाता रहेगा कि वो पाकिस्तान के खिलाफ नहीं,बल्कि आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करवा रहा है । अमेरिका जानता है कि जब तक पाकिस्तान में आतंकी मौजूद हैं वो अफगानिस्तान को काबू नही कर सकता जहां उसके डेढ़ लाख फौजियों की जान सांसत में है । इसके अलावा अमेरिका को भारत से कोई मुहब्बत नहीं है कि वो इतनी मेहनत कर रहा है। (जारी)

Tuesday, December 9, 2008

मुम्बई हमले और पाकिस्तान-2

पाकिस्तान ने कुछ आतंकी संगठनों पर कार्रवाई का नाटक किया है, और मसूद अजहर को सीमित रुप से नजरबंद कर दिया गया है। दूसरी तरफ जरदारी ने एक बयान में कहा कि भारत में आतंकी हमला पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ कमजोर करेगा। जरदारी का ये बयां एक मजबूर और कमजोर लोकतांत्रिक नेता की दिखती है जो बहुत अर्थो में सच्चाई के करीब है।

पाकिस्तान चौतरफ दबाव में है, और असली दबाव है अमेरिका का दबाव। एक तरफ अमेरिका को ये डर सता रहा है कि कहीं भारत सीमा पर सेना न लगा दे-ऐसी सूरत में पाकिस्तान अपनी सीमा अफगान सीमा से हटा लेगा और अमेरिका की सेना वहां फंस जाएगी। और यहीं वजह है कि अमेरिका जी जान से दबाव डाल कर पाकिस्तान को कुछ कार्रवाई करते हुए देखना चाहता है। जरदारी की तो हालत और भी खराब है। अगर वो ज्यादा कार्रवाई करते हैं तो जनता और सेना बिगड़ जाएगी और वो खुद पैदल कर दिए जाएगें। दरअसल पाकिस्तान की दिक्कत बड़ी अजीब है। वो भारत के दबाव में कुछ नहीं करना चाहता, अमेरिका के दबाव को आराम से झेल लेगा। उसमें उसकी कोई बेइज्जती नहीं है, और दबाव को इंकार करने की कूब्बत भी नहीं है।

भारत में इधर चुनाव की वजह से पाकिस्तान पर दबाव वाली बात कुछ समय के लिए धीमी पड़ गई थी। लेकिन यूपीए सरकार जनता के जबर्दस्त दबाव में है और उसे पाकिस्तान पर लगातार दबाव देते हुए दिखना होगा। और मनमोहन सरकार इस मोर्चे पर किसी कीमत पर बीजेपी से पिछड़ना नहीं चाहती, और वो भरसक कोशिश करेगी की पाकिस्तान की तरफ कठोर दिखे ताकि इसका फायदा वो आनेवाले लोकसभा चुनाव में उटा सके। अगर भारत सरकार पाकिस्तान से एक भी आतंकवादी को वापस लाने में कामयाब हो गई तो ये सरकार के लिए बड़ा तुरुप का इक्का साबित होगा।

Wednesday, December 3, 2008

मुम्बई हमला और पाकिस्तान-1

मुम्बई में हुए आतंकी हमलों के तुरंत बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने कहा था कि वे आईएसआई के चीफ को भारत भेजेंगे, लेकिन कुछ ही देर बाद वो इससे मुकर गए। पाकिस्तान के अंदुरुनी हलकों में इसका इतना विरोध हुआ कि जरदारी, आईएसआई के मुखिया के बदले एक डेलिगेशन भेजने की बात करने लगे। भारत ने जब इधर कड़े संकेत देने की तैयारी की तो आनन फानन में पाकिस्तान ने इसे भुनाने की कोशिश शुरु की, और पश्चिमी सीमावर्ती कबीलाई इलाके से फौज को हटाकर पूर्वी सीमा पर भेजने की बात करने लगा। ये मूलत: अमेरिका को ब्लैकमेल करने की कोशिश थी कि वो भारत पर दबाव डाले और भारत को सीमा पर सेना का जमावड़ा करने से रोके। इसका फायदा भी मिला,अमेरिका अफगानिस्तान में फंसे होने की वजह से पाकिस्तान फौज का संभावित असहयोग नहीं झेल पाया और अगले ही दिन कोंडलिजा राइस दिल्ली में दिखी। वो नपेतुले और सधे लहजे में पाकिस्तान को हड़काकर वापस जाएंगी लेकिन उनका मूल मकसद भारत को सेना का जमावड़ा करने से रोकना होगा।

दूसरी तरफ पाकिस्तान पहले की तरह ही आतंकियों को सौंपने से साफ मुकर गया। उसने कहा पहले सबूत दो,फिर मुकदमा हमारे यहां ही चलाया जाएगा। दरअसल ये पाकिस्तान लोकतांत्रिक नेताओं की बेबशी से ज्यादा कुछ नहीं है कि वो चाहकर भी कट्टरपंथी तत्व और सेना-आईएसआई के गठजोड़ के सामने लाचार हैं। याद कीजिए, कुछ ही महीने पहले जब पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार ने सत्ता संभाला ही था, आईएसआई को रक्षामंत्रालय से हटाकर गृहमंत्रालय के अधीन करने का फैसला लिया गया था, लेकिन महज 24 घंटे में उसे बदलना पड़ा।

मुझे लगता है कि दोष जरदारी का नहीं है। जरदारी तो भारत से शांति चाहते हैं, जरदारी उसी कड़ी के नेता हैं जिस कड़ी में धीरे-धीरे मुशर्रफ बाद में अमेरिकी दबाव में ढ़ल गए थे। जरदारी अभी भी पाकिस्तान की विषाक्त हो चुकी मुख्यधारा से अलग थलग हैं और उस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। देश के कट्टरपंथी,सेना- आईएसआई और विशाल अतंर्राष्ट्रीय इस्लामी अराजकतावादी गठजोड़(कह सकते हैं अलकायदा) के सामने वो एक अंतहीन लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें उनकी जान भी जा सकती है। ये कोशिश बाद में मुशरर्फ ने भी की थी, उन पर कई जानलेवा हमला भी हुआ और अंतत:उन्हे गद्दी छोड़नी पड़ी। अमेरिका के सामने जरदारी से ज्यादा लचीला,कामचलाऊ,भरोसेमंद और मौजूदा हालात में आधुनिक नेता कोई नहीं था-इसलिए एक जमाने के मिस्टर 10% को कुर्सी सौंप दी गई।

जरदारी के बयानों पर अगर गौर किया जाए तो वो एक भविष्य की सोच रखने वाले जिम्मेदार नेता दिखते रहे हैं जिसने भारत के साथ शांति के कई संकेत अतीत में दिए। लेकिन जब पिछले दिनों मुम्बई हमलों के बाद पाकिस्तान में सर्वदलीय बैठक हुई तो जरदारी अकेले पड़ गए। सभी ने भारत के सामने घुटने न टेकने की बात की और वो बैठक दरअसल कट्टरपंथी तत्वो के समर्थन का बैठक बन गया। जरदारी ने जब आईएसआई के चीफ को भारत भेजने की बात की तो उसकी अगली कड़ी दाऊद और अजहर मसूद को भारत सौंप देने की होनेवाली थी। लेकिन पाकिस्तान में आईएसआई का कद इतना सम्मानीय और राष्ट्रीय प्रतीक का है कि ये बात वहां के जनमानस को हजम नहीं हुई और जरदारी झख मार कर पलट गए। लोगों का मूड भांफकर जरदारी के हाथ पैर फूल गए,और वो पुराने जमाने के बोल बोलने लगे।

तो फिर भारत के सामने उपाय क्या हैं? फिलहाल हम ज्यादा चौकसी और सतकर्ता बढ़ाने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। हमें उन छेदों को पाटना होगा जिससे आतंकवाद रिस-रिसकर हमारी व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। बीमारी, हमारी अंदुरुनी सियासत में हैं। हम कोई भी नियम कायदा नहीं बनाते, न ही आतंकवाद को रोकने के लिए साहसिक पहल करते हैं। अगर सारे राजनीतिक दल मिल बैठकर तय कर लें तो आतंकवाद को बहुत ही कम किया जा सकता है। ये कोई बड़ी चुनौती नहीं जिसका इलाज न हो।(जारी)

Tuesday, November 18, 2008

...यह एक उठता हुआ शहर है

पिछले महीने झांसी जाना हुआ। ऋषि की छुट्टी थी, वो गाड़ी से जा रहा था, उसी के साथ हो लिया। दिल्ली से तकरीबन साढें चार सौ किलोमीटर की दूरी हमने 8 घंटे में पूरी कर ली। रास्ते भर खाते पीते गए। सिकंदरा में अकबर का मकबरा, दूर से ही ताज देखा, आगरे का पेठा खाया फिर चंबल में चाय पी। डर भी लग रहा था कि डाकू न घेर ले। मगर कुछ नहीं हुआ। पता नहीं डाकू कहां गए। चार लेन वाली स्वर्णिम चतुर्भुज पर इतनी लंबी यात्रा पहली बार कर रहा था। मैं इसलिए भी झांसी जा रहा था कि कुछ नया देखने का मौका मिले-ऑफिस के बंद माहौल में मन उकता गया था। मैं देश के अदरुनी हिस्सों में हो रहे बदलावों को अपने आंख से देखना चाहता था। एनसीआर से बाहर निकलते ही मैने देखा कि हाईवे इलाके को कैसे बदल रही है। सड़क के दोनों ओर फैक्ट्रियां और प्रोफेशनल कॉलेज बड़ी तादाद में खुल गए थे।

ऋषि के घरवाले अब नए घर में शिफ्ट हो गए थे। ऋषि भी पहली बार इस घर में आया था। उसके मम्मी-पापा झांसी मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर थे, हाल ही में रिटायर हुए हैं। वे लोग तकरीबन 35 साल तक उस सरकारी क्वार्टर में रहे थे। ऋषि और उसके भैया का जन्म वहीं हुआ था..उसकी दादी का स्वर्गवास वहीं हुआ था। न जाने कितनी यादें जुड़ी थी। लेकिन एक न एक दिन सरकारी मकान छोड़ना ही था, और वो छोड़ना ही पड़ा।
हमलोग रात को लगभग 11 बजे हमलोग झांसी शहर में दाखिल हो गए थे। ऋषि ने सबसे पहले गाड़ी अपने पुराने मकान की तरफ मोड़ी। वो गमगीन सा हो गया। बचपन की एक-एक यादें उसके आंखों के सामने नाच उठी। हमलोग लगभग 15 मिनट वहां रहकर वापस उसके नए मकान की तरफ चले, जो कि उसके नर्सिंग होम के ऊपर बना हुआ था। अगले दिन ऋषि ने अपना फार्म हाउस दिखाया जो कि हाईवे पर ही था। ऋषि के फार्म के बगल में एक फार्मेसी कॉलेज खुला था, ऋषि ने भी फार्मेसी कॉलेज खोलने की जिद पाल ली है।

हमने देखा कि कैसे झांसी के चारो तरफ इंजिनीयरिंग और दूसरे प्रोफेशनल कॉलेज खुल रहे हैं। दरअसल, यूपी में होने की वजह से जो इमेज मैं मन ही मन झांसी की बना रहा था, झांसी उससे कहीं ज्यादा विकास कर गया था। हाईवे और रेलवे के मुख्य रुट पर होने की वजह से भी ज्यादा तरक्की दिखाई दे रही थी। सड़के ठीक ठाक थीं, और उन पर चलने वाली गाड़ियों में कारों की तादाद भी ठीकठाक थी। मैं सोच रहा था कि झांसी के विकास को क्या नाम दूं। तभी किसी ने रेलवे स्टेशन पर कहा कि भाईसाब...ये एक उठता हुआ शहर है।

मैंने वहां से पीताम्वरा पीठ जाने का भी प्लान बनाया जो कि नजदीक ही दतिया में है। कहीं पढ़ा था कि नेहरु जी भी सन '62 की लड़ाई के वक्त वहां गए थे। इसबार मेरे लिए मातारानी का बुलावा नहीं आया था। एक ही दिन की छुट्टी थी, दिन आलस में ही बीत गया। बस शहर के बीच पहाड़ी के चोटी पर एक प्राचीन काली माई के मंदिर जाने का मौका मिल गया। जगह का नाम भूल रहा हूं, लेकिन मंदिर किसी चंदेल राजा ने 10 वीं सदी में बनाई थी। उस पहाड़ी से झांसी की रानी का महल दिखता था, हम वहां जा नहीं पाए। वहां बगल में ही आर्मी का शूटिंग रेंज था..और पहाड़ी की चोटी से दूर-दूर तक बुंदेलखंड के जंगल और उसके बीच-बीच में गांव दिखाई पड़ रहे थे। बचपन से मैदानी इलाकों में रहा हूं, इसलिए पहाड़ और जंगल देखकर मन करता है देखता ही रहूं...। हां..एक बात जो मैनें नोट की वो ये कि झांसी और आसपास के इलाकों में संतों के काफी आश्रम हैं और इलाके में इनकी बड़ी श्रद्धा है।

हमलोग ग्वालियर होकर झांसी गए थे। ग्वालियर शहर में 4-5 किलोमीटर का नजारा देखने को मिला। मैं ग्लालियर को देखकर दंग रह गया। सुना था कि सिंधिया परिवार ने इसका काफी विकास किया है, वो साफ दिखाई दे रहा था। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि उत्तर भारत में भी ऐसे साफ सुथरे शहर हो सकते हैं-अमूमन मैं बिहार-यूपी के शहरों में कचरों और गंदगी के ढ़ेर ही देखने का आदी था।

Saturday, November 15, 2008

मेरी कुछ पसंदीदा किताबें...

गणदेवता-तारा शंकर वद्योपाध्याय
गोदान-प्रेमचंद
बलचनमा-बाबा नागार्जुन
रतिनाथ की चाची-नागार्जुन
वरुण के बेटे-नागार्जुन
मैला आंचल-फणीश्वरनाथ रेणु
राग दरवारी-श्रीलाल शुक्ल
शेखर एक जीवनी-अज्ञेय
श्रीकांत-शरत चंद
कर्मभूमि-प्रेमचंद
चरित्रहीन-शरतचंद
बिराजबहू-शरतचंद
प्रथम प्रतिश्रुति-आशापूर्णा देवी
सुवर्णलता- आशापूर्णा देवी
वकुलकथा- आशापूर्णा देवी
वोल्गा से गंगा- राहुल सांकृत्यायन
रंगभूमि-प्रेमचंद
सेवासदन-प्रेमचंद
आधागांव-राही मासूम रजा
कटरा बी आर्जू-राही मासूम रजा
संस्कृति के चार अध्याय-दिनकर
कितने पाकिस्तान-कमलेश्वर
आग का दरिया-कुरतुल-एन-हैदर
झूठा सच- यशपाल
पिंजर-अमृता प्रीतम
तमस-भीष्म साहनी
हजार चौरासी की मां-महाश्वेता देवी
जंगल के दावेदार-महाश्वेता देवी
चिक्क वीर राजेंद्र- मस्ति व्यंक्टेंश अयंगर
वैशाली की नगरवधू- आचार्य चतुरसेन
सोमनाथ- चतुरसेन
लव, ट्रुथ एंड लिटिल मेलाईस-खुशवंत सिंह
द लास्ट मुगल- डोमनिक लेपियर
इंडिया आफ्टर गांधी- आर सी गुहा
द मैक्सिमम सिटी- सुकेतु मेहता
द अदर साइड ऑफ मी- सिडनी सेल्डन
द इनसाइडर- पी वी नरसिंहाराव
1984- जार्ज आरवेल
मां- गोर्की
ब्लासफेमी- तहमीना दुर्रानी

Wednesday, November 5, 2008

ओबामा...ओबामा...ओबा(मा)या......?.

शायद लोग जल्दवाजी में भूल जाते हैं कि अमेरिका और भारत दोनों ही लोकतंत्र के आकार में बड़े जरुर हैं या बहुत हद तक सफल भी दिखते हैं फिर भी ओबामा और मायावती की तुलना करना उचित नहीं। दोनों देशों में कई समानताएं भले हों...लेकिन असमानताओं का अंबार भी है।

अमेरिका एक जवान मुल्क है,अप्रवासियों से हाल ही में बसा हुआ...जहां कि बहुसंख्यक आबादी ने उसे पिछले 400 सालो में अपना आशियाना बनाया है। एक ऐसा मुल्क जो अपार संसाधनो से लैश है और जिसकी बसावट यूरोपीय पुनर्जागरण के बाद हुई है, जिसने अपने तमाम मूल्य और अपने तमाम विकास,यूरोप में सदियों तक चलने वाले आंदोलनों और विकास यात्राओं से हासिल की है और एकवारगी ही किसी शहरीकरण की प्रक्रिया जैसे उसे एक मुल्क के रुप में ढ़ाल लिया है। दूसरी तरफ भारत में एक प्राचीन सभ्यता के प्रवाह के फलस्वरुप इतने उटा-पटक हुए हैं कि शायद भारत..अमेरिका से बेहतर 'सभ्यताओं की हांडी' है-जिसमें अनेक समुदाय अपना मुकाम हासिल करने के लिए अभी तक संघर्षरत हैं। ऐसे में मायावती को भारतीय ओबामा घोषित करना प्रतीकात्मक रुप से तो सही हो सकता है, वास्तविक रुप में नहीं।

भुवन भास्कर जी ने अपने ब्लॉग पर सही लिखा-जिस तरह अमेरिकन अश्वेतों ने ओबामा की जीत का स्वागत सहज रुप से किया है क्या हमारे यहां संभव है? हमारे यहां अभी इसे दूसरों को 'पददलित' और 'उखाड़ फेंकने'के रुप में ही देखा जाएगा।

दूसरी बात ये कि जिस तरह की कामचलाऊ समरुपता अमेरिका के आर्थिक जीवन और समाज में आ चुकी है क्या हिंदुस्तान में आ पाई है? इन तमाम बातों के बावजूद की अमेरिका में लोकतांत्रिक प्रयोग हिंदुस्तान से तकरीबन पौने दो सौ साल पुराना है, अमेरिका के लोगों में अभी भी एक तरह की नस्लीय और धार्मिक भावना वद्य़मान है भले ही वह ऊपरी तौर पर न दिखाई दे। इसलिए किसी ओबामा या किसी बॉबी जिंदल को बार बार अपने इसाईयत की सबूत देनी पड़ती है।

इसकी तुलना अगर हम भारत के जातिवाद से करें तो मानसिक और व्यवहारिक धरातल पर यह अभी भी मजबूत है,भले ही उसमें गिरावट के लक्षण दिख रहे हों। मायावती का उदय एक स्वभाविक प्रक्रिया न होकर अभी भी शातिर और खतरनाक जातिवादी समझौता ही दिखता है। ओबामा जिस समुदाय में पैदा हुए है उसे नस्लीय उपेक्षा जरुर झेलनी पड़ी है लेकिन अमेरिकी समाज ने धीरे-धीरे सबको समाहित करने की कोशिश की है..और इसमें उस देश की आर्थिक समृद्धि का बड़ा योगदान है। अब अमेरिका में समाजिक बदलाव का सवाल अहम नहीं रह गया है,आर्थिक वर्चस्व को बरकरार रखने की चुनौती जरुर है और ओबामा समजिक बदलाव से कम आर्थिक तारणहार के रुप में ज्यादा चुनाव जीते हैं।

तो क्या दुनिया को पीटकर भी, सभ्यताओं का संघर्ष दिखाकर भी और एटम बम पटक कर भी अमेरिका ने बराक 'हुसैन' ओबामा को चुनकर अपनी पीठ ठोकी है और दुनिया को अपने तरीके से अंगूठा दिखाया है? क्या ओबामा की जीत का मतलब सिर्फ इसलिए खुश रहकर किया जाना चाहिए की एक काली चमड़ी वाले आदमी ने व्हाइट हाउस पर कब्जा कर लिया? या ओबामा का आगमन विराट मानवता के लिए कुछ नया लेकर के लाएगा? क्या दुनिया युद्धों, असमान आर्थिक हालात और पश्चिमी देशों के साम्राज्यवाद से ओबामा की अगुआई में मुक्ति पा सकेगी? ये ऐसे सवाल है जो ओबामा की शख्सियत पर दोबारा से सोचने को मजबूर करते हैं। ये याद रखने की जरुरत है कि ओबामा का इतिहास एक धुर राष्ट्रवादी(कुछ हद तक रिपब्लिकन से भी ज्यादा) का रहा है जिसने अतीत में दसियों बार पिछड़े और गरीब देशों के खिलाफ कट्टरता से अपना पक्ष रखा है।

तो फिर ओबामा की जीत के मायने क्या हैं। इसका जवाब एक बड़े ही मनोरंजक लेकिन कठोर उक्ति में छिपी है। किसी अज्ञात आदमी का कथन है कि-अमेरिका में स्लम क्यों नहीं है...इसका जवाब है कि अमेरिका ने पूरी दुनिया को स्लम बना दिया है, इसलिए अमेरिका में स्लम नहीं है। और शायद इसलिए...अमेरिका ने नस्लीय विभेद मिटाकर ओबामा को तो चुन लिया, लेकिन दुनिया भर में उसकी विभेदकारी नीतियों के हटने का कोई संकेत नहीं है।

हां..इतना जरुर है कि ओबामा की जीत.. एक बड़ी प्रतीकात्मक जीत है, उस अमेरिका के लिए भी जिसने कभी किसी अश्वेत को राष्ट्रपति स्वीकार नहीं किया। रही बात मायावती के एक स्वभाविक प्रक्रिया के तहत ओबामा बनने की...तो शायद हिंदुस्तान में वो वक्त अभी नहीं आया है। इसके लिए हिंदू समाज को उन तमाम व्यापक फेरबदल और जकड़बंदियों की मुक्ति से गुजरना होगा जो आधुनिक भारत के संस्थानों में आकार ले रही है।

Thursday, October 30, 2008

बिहार की बीमारी सामान्य नहीं है...

सवाल ये है कि क्या बिहार में 50 इंजिनियरिंग कॉलेज, 20 मेडिकल कॉलेज, 50 एमबीए, 10 होटल मेनेजमेंट और 200 आईटीआई खोले जा सकते हैं ? क्या बिहार में सिर्फ 1000 किलोमीटर भी चार लेन की सड़कें बनाई जा सकती है? क्या बिहार में तीस-तीस, चालीस-चालीस लाख के शहर बसाए जा सकते हैं? शहरों को बसाने की बात छोड़ दी जाए तो बाकी सारे काम 5 साल में निबटाए जा सकते हैं। और यहीं सार है आज मुहल्ला में छपे हरिवंश जी के लेख का। अगर ये काम हो जाए तो बिहार बहुत तेजी से अपने पुरान गौरव को फिर से प्राप्त कर ले। हरिवंश जी लिखते हैं कि हरेक जिले में एक विश्वस्तरीय युनिवर्सिटी होनी चाहिए। लेकिन सवाल है कि ये काम करेगा कौन। इन काम को करने के जरुरी ताकत नेताओं के पास हैं और नीतियां भी वहीं बनाते हैं। लेकिन बिहार के मौजूदा नेताओं पर भरोसा किया जा सकता है?

हलांकि नीतीश ने कुछ शुरुआत की है, और रामविलास भी जुझारु किस्म के हैं। लालू भी दिल्ली आकर थोड़ा बदले हैं। अगर इनपर सकारात्मक जनदबाव बनाया जाए, तो इस दिशा में काम हो सकता है। हलांकि ये काम सुनने में जितना आसान लगता है, करना उतना आसान नहीं है।

इतने बड़े पैमाने पर आधारभूत ढ़ाचा बनाने के लिए बड़े पैमाने पर जमीन की जरुरत पड़ेगी। बिहार की गिनती देश के गिनेचुने सघन आबादी वाले सूबों में होती है। हमने सिंगूर का उदाहरण देखा है। उत्तराखंड सरकार भी जमीन की वजह से टाटा को अपने यहां नहीं बुला पाई। तो फिर बिहार जैसे सूबों में ये इतना आसानी से कैसे हो सकता है जहां जमीन का जोत एक-एक,दो-दो बीघे का रह गया है। ये बड़े सौभाग्य की बात हुई है कि नालंदा में बनने बाले नए युनिवर्सिटी के लिए जमीन आसानी से मिल गई। लेकिन आगे भी ऐसा होगा, कहना मुश्किल है। हलांकि बिहार सरकार के पास काफी-कुछ जमीने ऐसी हैं जो 50-60 के दशक में विभिन्न कार्यों के लिए ली गई थी। लेकिन वो जस की तस पड़ी हुई है। उस जमीन का उपयोग किया जा सकता है।

दूसरी बात है वर्क कल्चर की। जिन राज्यों ने उत्तम शिक्षण और स्वास्थ्य संस्थान बनाए हैं, वो एक दिन में नहीं बने। वो दशकों की मेहनत का नतीजा है और वहां एक परिपक्वता आ गई है। इस गैप को पाटना आसान नहीं। सबसे बड़ी बात ये है कि बिहार का एक बड़ा हिस्सा कुदरत की कहर का शिकार है। बाढ़, तकरीबन एक तिहाई बिहार को हर साल तबाह करती है। बिहार के सियासतदानों को निरंतर इसके लिए केंद्र पर दबाव डालकर इसका कोई पुख्ता समाधान निकालना होगा। लेकिन हमारे सूबे के नेताओं की जमात जरा ढ़ीली किस्म की है। जनता को, छात्रों को युवा और बौद्धिक तबके को निरंतर इस पर चौकस निगाह रखनी होगी। मुझे लगता है कि राहुल राज की हत्या और मुम्बई में बिहारियों को प्रताड़ित किया जाना इस दिशा में एक सकारात्मक बदलाव ला सकता है। और हरिवंश जी ने सही समय पर, सारगर्भित, संयमित और दूरदृष्टिपूर्ण बहस का आगाज किया है।


पुनश्च:- बिहार और कुछ दूसरे राज्यों की आर्थिक तुलना आंखे खोलने वाली हैं-

1.प्रतिव्यक्ति आमदनी के मामले में गोवा बिहार से 7 गुना और पंजाब-हरियाणा 5 गुणा आगे हैं। यानी एक औसत गोवन और पंजाबी...एक बिहारी को आराम से रसोइया की नौकरी दे सकता है।
2. 9 करोड़ की आबादी वाले बिहार में बिजली की जरुरत महज 1000 मेगावाट हैं (वो भी पूरा नहीं पड़ता) तो हरियाणा, जो कि आबादी में हमारा पांचवा हिस्सा है तकरीबन 5000 मेगावाट बिजली उपभोग करता है।
3. बिहार में महज 8 युनिवर्सिटी हैं और आबादी 9 करोड़ है।
4.बिहार की युनिवर्सिटियों में जितनी सामान्य स्नातको के लिए सीटें नहीं है उससे ज्यादा कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इंजिनियरींग की सीटें हैं।
5.अभी तक बिहार में एक भी सेंट्रल युनिवर्सिटी नहीं है (अब एक का ऐलान हुआ है) जबकि पड़ोस के यूपी तक में तकरीबन दर्जन भर (आईआईटी सरीखे संस्थान समेत) है।
6.एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 50 फीसदी बिहारी दिल्ली, पंजाब, मुम्बई और न जाने कहां- कहां रोजी रोटी की तलाश में चले गए हैं। क्योंकि सूबे में 2000 रुपये की भी नौकरी नहीं है।
7.बिहार के तकरीबन 90 फीसदी गांवों में बिजली नहीं है जबकि हरियाणा के आखिरी गांव का विद्युतीकरण बंसीलाल ने 1973 में ही कर दिया था।
8.मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य जो 90 के दशक के शुरुआत तक बिहार जैसे ही गिने जाते थे, लेकिन अपने अच्छे शासन के बल पर हमसे मीलों आगे निकल गए हैं।
9.दिल्ली में तकरीबन 25 फीसदी बिहारी हो गए हैं, जिनमें ज्यादातर कम आमदनी वाली नौकरी करते हैं। इसकी वजह ये है कि उनके पास अच्छी शिक्षा नहीं है, न ही अंग्रेजी का ज्ञान।
10. हर सूबे में बिहारियों की बड़ी तादाद ने दूसरे सूबों के लोगों के मन में एक असुरक्षा का भाव भर दिया है- जो बहुत हद तक स्वभाविक है। बिहार में ढ़ंग के शिक्षण संस्थान न होने और उद्योग धंधों की कमी होने से बड़ी तादाद में बिहारी हाईप्रोफाईल जॉब में भी भर गए हैं जिस वजह से दूसरे सूबों के लोगों की निगाह में खटकने लगे हैं। दिल्ली की तमाम युनिवर्सिटियां और देश के दूसरे केंद्रीय शिक्षण संस्थान बिहारियों से खदबदा रहे हैं- और इसकी कतई वजह उनकी जहानियत नहीं है। इसकी वजह बिहार के पिछड़ेपन में छुपी हुई है।

Tuesday, October 28, 2008

राज ठाकरे नहीं....बिहारी नेताओं के घर में आग लगा दो...

मुम्बई में पुलिस एनकाउंटर में राहुल मारा गया।बिहार के तीनों नेता प्रधानमंत्री तक जा धमके-गुहार लगाई कि कुछ कीजिए। वोट की भी ताकत है-वरना बिहार तो हाथ से निकला समझो। लेकिन अब क्या होगा। उधर बिहारी भड़के हुए हैं। दरभंगा से लेकर न्यूज चैनल के दफ्तरों तक और सॉफ्टवेयर कंपनियों के ऑफिसों तक में। मेरे दोस्त ने कहा कि दरभंगा-पटना में उपद्रव करके क्या उखाड़ लोगे राज ठाकरे का?पूरे बिहार-यूपी में एक भी मराठी नहीं मिलेगा जिसे पकड़ के पीट सको। मैंने सोचा बात तो सही है। राज ठाकरे को उसके तरीके से तो जवाब भी नहीं दिया जा सकता। बिहार के नेताओं की तो बात और भी निराली है। टीवी पर चिल्ला रहे हैं कि राज-बाल पर पाबंदी लगाओ। लेकिन सवाल उससे आगे का है।

हाल ही में एक ब्लॉगर ने लिखा कि बोल तो सिर्फ राज ठाकरे रहा है-अलवत्ता बिहारियों के गदर से कई दूसरे सूबों के लोग भी उबल रहे हैं। बात गौर करने लायक है। कानूनन किसी को भी देश में कहीं रोजी-रोटी कमाने से रोका नहीं जा सकता। मुम्बई में संविधान की कोई खास धारा आयद नहीं है कि सिर्फ मराठी मानूष ही वहां रह सके। राज-बाल ठाकरे भूल गए हैं कि मुम्बई मुल्क से बाहर का कोई सिटी स्टेट नहीं कि अपना माल उन्नत तकनीक के बल पर बेच कर दुनिया भर से दौलत खींच रहा है। मुम्बई की चकाचौंध में पूरे मुल्क के लोगों का पसीना बहा है-लेकिन राज ठाकरे को उसमें सिर्फ मराठी गंध ही आती है। लेकिन जो बात यहां सोंचने लायक है वो ये कि राहुल की मौत के बाद अब आगे क्या?

मेरे एक परिचित का कहना था कि मुम्बई की कंपनियों के माल और वहां बनने वाली फिल्मों का विरोध किया जाए, धरना दिया जाए और कुछ एजेंसियों में आग लगा दी जाए। पचास-सौ नौजवानों को पैसा देकर तैयार किया जाए और उस संगठन का नेता बनकर टेलिविजन पर बाइट दिया जाए। नेता बना जा सकता है। मैं परेशान हो गया हूं। आखिर ऐसा करके हम क्या कर लेगें। राज ठाकरे की मानसिकता का क्या बिगाड़ लेगें? बल्कि हम तो उसकी मदद ही कर रहे होंगे। वो लोगों को और पोलराईज कर लेगा। दूसरी बात ये इससे सूबे की बदनामी होगी अलग। अगर रेलवे या सड़कों की तोड़फोड़ हुई तो एक गरीब सूबा अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा होगा।

तो क्या राहुल नामके लड़के की मौत कुछ लहर पैदा कर पाएगी? मुझे लगता है बिहारियों को वजाए राज ठाकरे पर गुस्सा करने के इस गुस्से को सकारात्मक दिशा में मोड़ना चाहिए। हमें अपने नेताओं से जवाब मांगनी चाहिए जिन्होने पिछले साठ साल में बिहार को कंगाल बना दिया है। इन नेताओं ने बिहार की कई पीढ़ियों को मुम्बई और पंजाब की गलियों में अपमानित होने को छोड़ दिया है। मुझे लगता है कि मेरे पिताजी की पीढ़ी के बिहार के नेता जितने बेईमान हुए हैं..दुनिया में शायद ही इसकी मिसाल मिले।अगर बिहार में किसी को नई सियासी शुरुआत करनी ही है तो बिहार के तमाम पूर्व मुख्यमंत्रियों के घर पर धरना, तोड़फोड़ और गिरफ्तारी देकर इस काम की शुरुआत की जा सकती है।

बिहार आज खौलता हुआ सूबा बन गया है जहां आबादी तो बांग्लादेश को मात दे रही है लेकिन संसाधनों का विकास कुछ भी नहीं किया गया। आखिर 9 करोड़ के सूबे में महज 8 स्तरहीन युनिवर्सिटी, मुट्ठीभर इंजिनियरिंग-मेडिकल कॉलेज और ऊबर-खाबर सड़के क्यों है? आखिर बिहार के 90 फीसदी गांवो में आजतक बिजली न पहुंचाने के लिए कौन जिम्मेदार है? पिछले पचास सालों में नेताओं ने ऐसी हालत कर दी है कि एक बिहारी के पास सिवाय गाली खाने के कोई चारा ही नहीं बचा है।

लेकिन सियासत का खेल देखिये-हमारे नेता पीएम से मिलकर राज-बाल को गरिया रहे हैं। अपनी खाल को छुपाने के लिए कह रहे हैं कि सोए शेर को जगाओं नहीं-मानो बिहारी ट्रेन में भरकर जाएगें और मुम्बई शहर को महमूद गजनवी की सेना की तरह लूट लेंगे। दरअसल इन नेताओं को मालूम है कि राज ठाकरे को गरियाकर ही वो जनता का ध्यान बंटा सकते हैं क्योंकि धीरे- धीरे जनता का गुस्सा सियासतदानों की ही तरफ मुड़ने वाला है। और सही मायने में राहुल की मौत का असली योगदान यहीं होगा।

Thursday, September 18, 2008

औसत हिंदू-मुसलमान तो ठीक है...मगर..

बम धमाके हो गए। गृहमंत्री का बयान उम्मीदों के मुताबिक ही आया। विपक्ष का भी ऐसा ही था। कैबिनेट की मीटिंग हुई। कुछ संगठनों ने पोटा मांगा, कुछ ने अपने समुदाय को बेकसूर ठहराने के लिए रैली की।लेकिन सियासत अपना हित साध गई। जिसको जो फायदा हो था हो गया। आतंकियों ने समुदायों के बीच थोड़ी और दरार पैदा करने में सफलता पाई। बीजेपी के समर्थन में कुछेक और वोट जुड़ गए। मोदी की दिल्ली रैली में कुछेक हजार लोग और आ जाएंगे। कांग्रेस फिर से अमरनाथ टाईप गलतियां करेगी। जैसे वहां आखिरकार जमीन दे दिया...वैसा ही कुछ कठोर कानून की बात करती नजर आएगी, और पोटा का नाम बदल कर उसे लागू कर देगी। लेकिन घाटा किसका होगा? घाटा अंतत:मुसलमानों का ही होगा।बम धमाके हुए तो भी और न हुए तो भी।

हाल ही में मेरे एक दोस्त ने बड़ी दर्दनाक कहानी सुनाई। उसका एक दोस्त कश्मीरी है। एक हार्डवेयर कंपनी में साढ़े चार लाख के पैकेज पर काम कर रहा है । दिल्ली में 8 महीने से रहता है लेकिन कोई घर किराये पर देने पर तैयार नहीं है। वो दस दिन किसी के घर दस दिन किसी के घर रहकर अपना दिन काट रहा है। एक दूसरा लड़का कोसिकंधा का है। बाढ़ आने से बहुत पहले दिल्ली आया था, लेकिन जहां भी जाता नौकरी से मना कर दिया जाता। बड़ी डिग्री नहीं थी पास में, छोटी-2 नौकरी के लिए ही इंटरव्यू देने जाता। कई जगह ये कहा गया कि भई तुम तो काम के वक्त नमाज पर बैठ जाओगे-तुम्हे काम देकर क्या फायदा।

तीसरी कहानी मेरे एक परिचित के हैं। द्वारका में फ्लैट लेने गए लेकिन प्रॉपर्टी डीलर ने उनसे कहा कि भाईसाब..ओखला की तरफ क्यों नहीं ट्राई करते। डीलर पक्का कांग्रेसी है, लेकिन उसे डर है कि मुसलमान को फ्लैट दिलाने के चक्कर में उस अपार्टमेंट का भाव गिर जाएगा। आखिर कहां रह रहे हैं हम...और इन घटनाओं में कितनी सच्चाई है..? अगर है भी तो क्या ये शर्मनाक बात नहीं है...और क्या ये सारे समाज की सही तस्वीर देती है ?


मेरे एक मुसलमान दोस्त का कहना है कि मुसलमान अगर सांम्प्रदायिक होते तो 1947 में ही पाकिस्तान चले जाते। दूसरे हिंदूवादी दोस्त का जवाब है कि भाग ही नहीं पाए, अलवत्ता मन तो पूरा था जाने का। मुसलमान कहता है कि आबादी 15 फीसदी के बराबर है लेकिन मात्र 4 फीसदी ग्रेजुएट हैं। इसका हिंदूवादी जवाब है कि रोका किसने है पढ़ने के लिए। देश की सेकुलर व्यवस्था ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी उपर उठाने में..फिर भी गलती किसकी है। मुझे लगता है कि इस तरह के सवाल-जवाब हमें किसी नतीजे पर नहीं ले जाएंगे। तो इसका समाधान क्या है? दोनों धर्मों के लोगों को अपनी गलती तहे दिल से स्वीकारनी होगी। दोनों धर्मों के लोग एक असुरक्षा और हीन भावना में जीते हैं। हिंदू को लगता है कि इतनी आबादी के बावजूद मुसलमानों ने एक हजार साल हुकूमत किया और बहुत मंदिर तोड़े। दूसरी तरफ मुसलमानों को लगता है कि हमारे पुरखों ने हिंदूस्तान पर सदियों राज किया है...और अब इसका भड़ास हिंदू निकाल रहे हैं। दोनों ही गलत हैं।

न तो मुसलमानों ने मुसलमानों ने हजार साल राज किया, न ही हिंदू भड़ास निकालेंगे। भैया मुसलमानी राज तो मोहम्मद गोरी के हमले के बाद 1192 से शुरु ही हुआ और कुलजमा ठीक-ठाक तरीके से औरंगजेब के बेटे बहादुर शाह प्रथम यानी 1707 तक ही चला। बाद के तो तमाम मुगल बादशाह निकम्मे थे जिनका राज आलम से पालम तक ही था। दूसरी बात की मुसलमानी राज कभी मुकम्मल तौर पर पूरे देश में नहीं रहा।...दिल्ली के ठीक नाक के नीचे राजस्थान ही कभी काबू नहीं हो पाया और एक दफा औरंगजेब के वक्त जाटों ने अकबर का मकबरा ही लूट लिया। काहे का राज और कैसा अत्याचार।

हां, धन लूटने के लिए जरुर धर्म को हथियार बनाया जाता रहा और सियासत में ऐसा होना ताज्जुब की बात नहीं-लालू-मुलायम और आडवाणी भी कर रहे हैं। दूसरी बात ये इस्लाम फैलाने का जोश उतना ज्यादा नहीं था जितना उन बेवकूफ और अदूरदर्शी सुल्तानों का धन लूटना था। लेकिन काम उन्होनें ऐसा किया कि आज तक मुसलमान इसको लेकर डिफेंसिव हैं-कुछ कुछ इस पीढ़ी क ब्राह्मणों की तरह- जिनके पुरखों के कामों जवाब अक्सर उनसे मांगा जाता है।


हां अंग्रेजी राज मे जरुरु हमने अपने नफरत को ढ़ंग से फलने फूलने दिया। मुझे लगता है कि आज का हिंदू अतीत तोड़े गए मंदिर से कम,भारत के विभाजन को लेकर मुसलमानों से ज्यादा नाराज है। उसे आज तक पाकिस्तान बनने का तर्क समझ नहीं आता। जरुरत इन सब बातों पर खुल कर विचार करने की है। साथ ही हिंदूओं की इतनी गलती जरुर है कि उन्होने मुस्लिम समुदाय के घटिया किस्म के नेताओं को आम मुसलमानो का नुमाइंदा मान लिया। प्रगतिशील किस्म के नेताओं को आगे लाने में कोताही की गई और उसी का परिणाम है कि मुसलमानों का औसत नेतृत्व सिमी की वकालत करता नजर आता है। मजे की बात ये है कि ऐसे नेताओं ने लालू-मुलायम को भी भरोसा दिला दिया है कि भैया सिमी का गुण गाने से वोट मिल जाएंगे। लेकिन फायदा किसको हो रहा है? ये बताने की जरुरत नहीं है कि इसका फायदा बीजेपी को हो रहा है।

Thursday, August 28, 2008

बिहार में प्रलय...लेकिन क्या है उपाय?

बिहार में बाढ़ इस बार कयामत बनकर आयी है। ये वो बाढ़ नहीं है जो साल-दर साल आती थी और दस-पांच दिन रहकर चली जाती थी। इस बार नेपाल में कोसी नदी का पूर्वी तटबंध टूट गया और बिहार के आधा दर्जन से ज्यादा जिले पानी में डूब गए। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस बाढ़ से उबरने का कोई उपाय है या फिर बिहार के ये जिले काल के थपेड़ों से घायल होकर धीरे-धीरे बीरान बनते जाएंगे। इतिहासकारों का अनुमान है कि सिंधु घाटी सभ्यता के खत्म होने की एक वजह इसी तरह की कुछ बाढ़ थी जिससे एक उन्नत सभ्यता तबाह हो गई। बहुत पहले जनसत्ता में जल संरक्षण और नदियों के प्रख्याद जानकार अनुपम मिश्र का एक लेख पढ़ा था। प्रो मिश्र का कहना था कि हम नदियों पर बांध बनाकर जबर्दस्ती बाढ़ का समाधान नहीं निकाल सकते। हमें नदियों के साथ जीना सीखना होगा। हमें नदियों के पानी को बिना किसी छेड़छाड़ के पहाड़ से समंदर तक जाने देना होगा। अगर हमने इसमें बाधा डाली तो प्रकृति का कोप हमें झेलना ही होगा। और अगर गौर से देखें तो पिछले सौ सालों में यहीं हुआ है।

बाढ़ की सबसे बड़ी वजह है नदियों की सिल्टींग। जब तक नदियों की सिल्टींग नहीं हटाई जाएगी, बाढ़ पर प्रभावकारी ढ़ंग से रोक लगाना नामुमकिन है। इसकी वजह ये है कि जब-जब पानी को समंदर तक जाने में अवरोध पैदा हुआ है, उसका पानी किनारे में फैल जाता है। अगर देखा जाए सिल्टींग हटाना मुश्किल नहीं है और ये बिहार जैसे प्रान्त में बड़े पैमाने पर रोजगार भी पैदा कर सकता है।खासकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को इस तरफ मोड़ा जा सकता है। दूसरी बात ये कि नदियों के किनारे सिल्ट का ऊंचा तटबंध सड़क बनाने, पर्यटन को बढ़ावा देने और तमाम दूसरे तरह के उपयोगी कामों को करने के लिए किया जा सकता है।

बिहार से बहनेवाली नदियों का स्रोत नेपाल में है। और उस पानी पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है और उस पानी को नेपाल में रोका भी नहीं जा सकता। सबसे बड़ी बात ये कि अतीत में कभी नेपाल की तराई में और पहाड़ी ढ़लानों पर घने जंगल हुआ करते थे जिस वजह से पानी धीरे-धीरे बह कर मैदानों में आती थी। लेकिन पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों के दौरान नेपाल में बड़े पैमाने पर जंगल की लूट हुई है, साथ ही हमारे यहां भी आवादी बेतहाशा बढ़ी है। बिहार की सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर सकती सिवाय केन्द्र पर दबाव देने के। हां, भारत सरकार नेपाल सरकार के साथ मिलकर छोटे-2 बांध बनाने के और वनीकरण की एक दीर्घकालीन नीति बना सकती है। इसके लिए हमें नेपाल में हजारों करोड़ रुपये निवेश करने पड़ सकते हैं और दोनों देशों के हित के लिए आपसी विश्वास का माहौल बनाकर इसकाम को वाकई अंजाम दिया जा सकता है।

अहम बात ये भी है कि हमने छोटी-छोटी धाराओं को भरकर खेत और मकान बना लिए है। वो जमीन जो रिकॉर्ड में सरकारी जमीन के नाम से दर्ज हैं, उसकी बड़े पैमाने पर लूट हुई है। हमें कड़े कानून बना कर उसे रोकना होगा। हमें पानी की छेड़छाड़ को जघन्य अपराध घोषित करना होगा। इधर, विकास की ऐसी योजनाएं बनी हैं जो पानी की धारा के बिपरीत है। उत्तर बिहार में जमीन का ढ़लान उत्तर से दक्षिण की तरफ है और दक्षिण बिहार में दक्षिण से उत्तर की तरफ, लेकिन कई ऐसी सड़के है जो पूरब से पश्चिम बनाई गई है और पानी के बहाव को रोकती है। मोकामा में टाल का इलाका शायद इन्ही कुछ वजहों से बना है जब पटना-कलकत्ता रेलवे लाईन ने पानी को गंगा की तरफ जाने में अवरोध पैदा किया।पानी कि निकासी के उपयुक्त रास्ते नहीं छोड़े गए। दरभंगा-मुजफ्फरपुर हाईवे, दरभंगा-निर्मली रेलवे लाईन इसके कुछेक उदाहरण हैं-यहां ये बात कहने का मतलब विकास का विरोध नहीं है। हां, विकास ऐसा हो ताकि उसका प्रकृति के साथ तारतम्य हो।

दूसरी तरफ पिछले पचास साल में नदी परियोजनाओं में जो सरकारी लूट हुई है उसकी जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक आयोग बनना चाहिए। अतिरिक्त पानी को रोकने के लिए और सिंचाई के लिए कई नदी परियोजनाएं बनी है। लेकिन बिहार में उनमें से बहुत कम सफल हुई है। कोसी परियोजना की बात करें तो पश्चिमी कोसी नहर जो मेरे गांव के बीच से होकर गुजरती है-उसे 1983 में ही पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन वो आज तक पूरी नहीं हुई। शायद ये दुनिया के सबसे बड़े घोटालों में से एक है। मुझे लगता है कि अगर नदी परियोजनाओं को ही ठीक से लागू किया जाता तो बाढ़ की पूरी नहीं तो आधी समस्या का समाधान तो जरुर हो जाता। शायद अभी भी पूरी बर्बादी नहीं हुई है। इसबार के जलप्रलय ने हमें सोते से जगाया है। कुलमिलाकर जब तक बाढ़, राजनेताओं और जनता के एजेंडे में नहीं आएगा,तब तक इससे निजात पाना मुश्किल है।

Tuesday, August 26, 2008

भारत के लिए खतरनाक हो सकते हैं शरीफ़

नवाज शरीफ और जरदारी के गठबंधन टूटने की उम्मीद पहले से थी। मुशर्रफ के जाते ही दोनों की एकता ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। लेकिन अहम बात ये है कि गिलानी सरकार के गिरने से सबसे तगड़ा झटका अमेरिका को लगेगा। अमेरिका ने बड़ी होशियारी से मुशर्रफ के अलोकप्रिय होते जाने की सूरत में भुट्टो परिवार को पाकिस्तान की कमान सौंपने के लिए जमीन तैयार की थी जिसे पाकिस्तान का कट्टरपंथी तबका भांफ गया था। नतीजा बेनजीर की हत्या में सामने आया। हत्या के बाद अमेरिका ने जरदारी पर दांव लगाया, लेकिन शरीफ, जरदारी को तभीतक बर्दाश्त करते रहे जबतक की उनके राह से मुशर्रफ का कांटा दूर न हो गया। अब, जबकि शरीफ, जजों की बहाली के मामले पर अड़ गए और दूसरी तरफ जरदारी ने राष्ट्रपति पद के लिए अपने नाम की उम्मीदवारी घोषित कर दी तो मामला खतरनाक हो गया।
नवाज शरीफ जजों की बहाली इसलिए चाहते थे कि इससे उनके कई हित सधते थे। पहला तो ये कि चौधरी इफ्तिकार हुसैन आते ही मुशर्रफ पर मुकदमा चलाते कि उन्होने 1973 के संविधान के साथ छेड़खानी की, जिसके लिए मौत की सजा तक का प्रावधान है।दूसरी बात ये थी कि जरदारी पर जो भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे उसे मुशर्रफ ने एक विशेष आदेश के जरिए हटा दिया था। अगर चौधरी इफ्तिकार हुसैन बहाल हो जाते हैं और मुशर्ऱफ पर गैरकानूनी ढंग से सत्ता हथियाकर संविधान के उल्लंघन का आरोप लगता है तो फिर जरदारी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी जिंदा हो जाएंगे और उन के खिलाफ मुकदमे फिर खुल जाएंगे। तीसरी बात ये कि चौधरी इफ्तिकार हुसैन ने उस मकदमें की भी सुनवाई की थी जिसके तहत मुशर्रफ सरकार ने 300 कट्टपंथियों को पकड़कर अमेरिकी खुफिया एजेंसी को सौंप दिया था।अगर चौधरी की फिर से बहाली हो जाती है तो उन 300 आदमियों की लिस्ट फिर सरकार से मांगी जाएगी। अमेरिका की पाकिस्तान में बची खुची छवि तार-तार हो जाएगी, लोग अमेरिकी दूतावास पर पथराव करेंगे और अमेरिका का पाकिस्तान में जमे रहना मुहाल हो जाएगा। जाहिर है अमेरिका अंतिम वक्त तक कोशिश करेगा कि जजों की बहाली न हो-भले ही इसके लिए सीआईए को बड़े पैमाने पर खून-खरावा ही क्यो न करवाना पड़े।

दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है-जरदारी भले ही पाकिस्तान की सबसे बड़ी पार्टी के नेता हों, वो जमीन के नेता नहीं है। अव्वल तो बनजीर की हत्या के बाद उनकी पार्टी को इतनी सीटें मिल गई है, दूसरी बात ये कि पाकिस्तानी समाज का क्षेत्रीय अतर्विरोध ऐसा है जिसमे पंजाबी समुदाय इतना उदार नहीं है कि किसी सिंधी को ज्यादा दिन तक सत्ता में बर्दाश्त कर सके। ये अलग बात है कि समय-समय पर गैर-पंजाबी हुक्मरान भी पाकिस्तान में सत्ता पर काबिज रहें है लेकिन प्रभावी सत्ता पंजाबियों के पास ही रही है। और यहीं वो बिन्दु है जहां नवाज शरीफ, जरदारी पर भारी पर जाते हैं। देखा जाए तो पिछले दिनो जितने भी सियासी नाटक पाकिस्तान में हुए हैं उसमें मुद्दे की लड़ाई नवाज ने ही लड़ी है-चाहे वो लोकतंत्र की बात हो, मुशर्रफ को हटाना हो या जजों की बहाली हो। जरदारी तो मुशर्रफ के पिछलग्गू ही दिखे हैं और उन्होने यथास्थिति ही कायम रखने का प्रयास किया है। और इसीलिए तो मुशर्रफ ने बेनजीर को पाकिस्तान आने भी दिया था ताकि सत्ता का हस्तांतरण बिना विवाद के हो जाए। लेकिन अब के हालात में नवाज नहीं चाहेंगे कि गिलानी सरकार एक दिन भी कायम रहे-क्योंकि नए चुनाव में उनकी पार्टी को जाहिरन ज्यादा सीटें मिलने की संभावना है।

यहां एक बात और जो गौर करने लायक है वो ये कि पाकिस्तानी सेना..वहां की राजनीति में एक बड़ी ताकत है। जब मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष पद छोड़ने के मजबूर किया गया तो बड़ी चालाकी से ऐसे आदमी को कमान सौंपी गई जो अमेरिका के साथ-साथ बेनजीर भुट्टो का भी करीबी था। जनरल कयानी वहीं आदमी है जो बेनजीर के प्रधानमंत्री रहते उनके सैन्य सलाहकार थे, साथ ही कयानी अमेरिका में सेनाधिकारियों के उस बैच में ट्रनिंग ले चुके हैं जिसमें कॉलिन पॉवेल हुआ करते थे। कयानी की तार अमेरिका और भुट्टो परिवार में गहरे जुडी है। अगर नवाज के राह में कोई बड़ा कांटा हो सकता है तो वो जनरल कयानी हो सकते हैं-ये बात ध्यान में रखनी होगी। अभी तक नवाज का जो क्रियाकलाप रहा है वो यहीं इशारा करता है कि वो जरदारी और मुशर्रफ को अपने रास्ते से हटाने के लिए कट्टरपंथियों से भी हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करेंगे। इसके लिए वो जनता में अमेरिका विरोधी भावना का भी फायदा उठाने से नहीं चूकेंगे।

यहीं वो बात है जो भारत के लिए चिंता का सबब हो सकता है। भारत के हित की जहां तक बात है, जरदारी और अमेरिका समर्थक एक जनरल से 'डील' करना आसान है। कम से कम ऐसे लोग पाकिस्तान की कट्टरपंथियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, न ही जरदारी जैसे लोगों को पाकिस्तान के 'हितों' से बहुत सरोकार है। ये राजनीतिक बनिए हैं-लेकिन नवाज शरीफ जैसे नेता अपने आपको जनता की मुख्यधारा का प्रतिनिधि मानते हैं। गिलानी सरकार से समर्थन वापसी के बाद ऐसे हालात में अगर नवाज शरीफ किसी तरह से सत्ता मे आ जाते हैं तो ये कहना मुश्किल है कि क्या वो वहीं नवाज शरीफ होगें जिन्होने वाजपेयी के वक्त भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ाया था...या वो पाकिस्तान की सनातन भारत विरोधी विचारों की अगुआई करने लगेंगे...?

Tuesday, August 12, 2008

आईएसआई, मुशर्रफ और भारत

हाल ही में काबुल में भारतीय दूतावास पर हमले के बाद बुश साहब ने कहा कि अगर आगे से आईएसआई की हरकत को काबू में नहीं किया गया तो पाकिस्तान को इसके गंभीर नतीजे भुगतने पड़ेगें। उधर पाक की नई सरकार अपना जड़ जमाने की भरपूर कोशिश कर ही रही थी, उसने इसे एक मौके के रुप में लपका और आनन फानन में आईएसआई को रक्षा मंत्रालय से हटाकर गृहमंत्रालय में लाने की घोषणा कर दी। लेकिन आईएसआई की ताकत को भांफने में गिलानी साहब से थोड़ी चूक हो गई। वो उधर अमेरिका उड़े-खबर आई कि 'गड़बड़' हो गई हैं। तुरंत फैसले को रोलबैक कर दिया।

उधर, जान बचाने का मौका खोज रहे मुशर्रफ साहब ने मानो इसे आईएसआई की निगाहों में आने का एक और मौका समझा। तुरंत गोला दागा- आईएसआई तो पाकिस्तान की फर्स्ट लाईन ऑफ डिफेन्स है और इसे कमजोर करने की साजिश दुश्मनों ने रची है।लेकिन सेना है कि मुशर्रफ के पक्ष में खुल कर कुछ बोल नहीं रही है। वैसे भी सेना के मुखिया जनरल कयानी एक जमाने में भुट्टो परिवार के नजदीकी रहे हैं। ये बनजीर ही थी जिसने कयानी को अपना सैन्य सलाहकार बनाया था। उससे पहले कयानी साहब ने कॉलिन पावेल के साथ अमरीका में ट्रेनिंग भी ली थी । जाहिर है उनके तार अमरीका में भी गहरे जुडे़ हैं। ऐसे में अगर पीपीपी और पीएमएल उनके खिलाफ महाभियोग ला रही है तो सेना उनका कितना साथ देगी, कहना मुश्किल है।

इधर, अपने यहां नए सीबीआई डाईरेक्टर ने पद संभालते ही घोषणा कर दी कि दाऊद को दबोचना उनका मुख्य एजेंडा है। ये वहीं अश्वनी कुमार हैं जो अबू सलेम को पकड़ कर लाए थे। तो क्या कुमार को इस बात का पहले से एहसास था कि पाकिस्तान में कुछ खिचड़ी पकने वाली है। लोग कहते हैं कि अगर मुशर्रफ की बिदाई हुई तो फिर पहला काम आईएसआई का पर कतरना होगा-और ऐसी हालत में पाकिस्तान की सरकार अमरीकी दबाव में दाऊद को पकड़ कर भारत को सौंप देगी। वैसे भी ये गुडविल गेस्चर के लिए जरुरी है क्योंकि पाकिस्तान का ये भस्मासुर संस्थान काबुल और हिंदुस्तान में बम धमाके करवा कर काफी किरकिरी कर चुका है।

तो क्या ये माना जाए कि इन्ही बातों से ध्यान हटाने के लिए आईएसआई और सेना के कुछ कट्टरपंथियों ने हाल में पहले सीमा पर गड़बड़ी और बाद में घाटी में अमरनाथ मुद्दे को गरमाया है। जानकारों का कहना है कि आनेवाले दिनों में कुछ भी हो सकता है। सत्ता के सौदागर अपनी गद्दी बचाने के लिए दोनों देशों बीच जंग भी छेड़ सकते हैं।

Friday, August 8, 2008

शर्म तो करो मुफ्ती...

जम्मू-कश्मीर में मौजूदा आग मुफ्ती मोहम्मद सईद ने लगाई है। गौरतलब है कि ये वहीं मुफ्ती है जिसने पिछले दिनों पीडीपी-कांग्रेस की सरकार इस बात पर गिरा दी थी कि सरकार ने अमरनाथ यात्रियों के सुविधाओं के लिए 40 हेक्टेयर यानी तकरीबन100 एकड़ जमीन अमरनाथ श्राईन बोर्ड को क्यों बेच दी। मजे की बात ये कि उस सरकार में मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी यानी पीडीपी भी शामिल थी और पीडीपी के मंत्री ने भी उस फैसले पर दस्तखत कये थे। लेकिन जब मुफ्ती ने देखा कि घाटी के कट्टरपंथी मुसलमान इस बात का विरोध कर रहे हैं तो आनन-फानन में अपना सुर बदल लिया। उसके बाद तो मुफ्ती और उनकी बेटी ने सारी सीमा ही पार कर दी। आप उनके बयानों को आतंकवादियों के बयानों से मिलाकर देखिये...थोड़ा नरम आंतकवादी ही दिखेंगे।

मुफ्ती को ये गवारा नहीं कि 100 एकड़ जमीन हिंदुओं के नाम की जाए। और इसे कश्मीरियत की हिफाजत का नाम दिया जा रहा है।एक दफा 90 के दशक के शुरुआत में भी कश्मीरियत की नई परिभाषा पंडितो को भगाकर लिखी गई थी। अब ये कश्मीरियत-2 है, जिसे दुनिया भर में बेचने की कोशिश की जा रही है। मजे की बात ये है कि खुद को अपेक्षाकृत सेकुलर कहनेवाली नेशनल कांफ्रेस भी इस बहती गंगा में हाथ धोना चाहती है। संसद में विश्वासमत के वक्त भाषण देते हुए यूं तो नेशनल कांफ्रेन्स के सदर उमर अब्दुल्ला के भावप्रणव भाषण की काफी तारीफ हुई, लेकिन उमर भी बोल रहे थे कि हम 'अपनी' जमीन के लिए लड़े।पता नहीं उनके 'अपनी' का क्या मतलब है।

दूसरी तरफ बात करें बात करें मुफ्ती की, तो मुफ्ती का इतिहास ही ऐसे कामों से भरा पड़ा है। मुफ्ती को कश्मीरियत का नाम लेते हुए तनिक भी शर्म नहीं आई-विशेषकर तब जब वो खुद बिहार के कटिहार से जीत कर संसद पहुंचे थे। मुफ्ती तो शक्ल से उदारपंथी दिखते हैं लेकिन उस चोले के पीछे एक कट्टर मौलाना छुपा हुआ है। याद कीजिए-मुफ्ती जब जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे तब उन्होने पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की मांग की थी। उस समय लगा कि यह आदमी दोनों देशों के बीच दोस्ती बढ़ाना चाहता है। बाद में उन्होने अातंकवादियों को छोड़ने में कुछ ज्यादा ही उदारता दिखा दी। अब तो ये भी शक होता है कि बीपी सिंह सरकार के समय उनकी बेटी का अपहरण कहीं नाटक तो नहीं था..?

बुधवार को जब प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाई तो महबूबा ने क्या कहा जानते हैं आप ? महबूबा ने कहा कि अगर जम्मू हाईवे नहीं खोला गया तो हमें पाकिस्तान से सहायता लेने में कोई गुरेज नहीं। सब जानते हैं कि भारत सरकार प्राणपण से इस समस्या को सुलझाने में लगी हुई है और एक ऑल पार्टी डेलिगेशन भी शनिवार को जम्मू जानेवाला है। लेकिन मुफ्ती और उनकी बेटी को लगता है कि इसबार की जंग मानो कश्मीर की आजादी की ही जंग है।

उधर फारुख साहब भी कम नहीं। उनका कहना है कि अगर जम्मू में हिंदुओं ने आन्दोलन बंद नहीं किया तो वे अपने अब्बा जान की कब्र पर जा कर पूछेंगे कि क्या 1948 में उनका भारत के साथ रहने का फैसला सही था...??

लेकिन इस तमाम खेल में जो पार्टी सबसे फायदे में दिखती है वो बीजेपी है। बीजेपी को उम्मीद है कि इसका चुनावी लाभ उसे जरुर मिलेगा। और शायद संघ परिवार ये मान रहा है कि पिछले दो दशक में ऐसा पहली बार हुआ है कि अयोध्या आन्दोलन के बाद हिंदुओं ने किसी मुद्दे पर इतने आक्रामक ढ़ंग से एकजुटता दिखाई है। लेकिन इससे मुफ्ती को क्या फर्क पड़ता है?

Monday, July 28, 2008

कैसे कमजोर होगी अंग्रेजी-2

अंग्रेजी के बारे में मेरे पिछले पोस्ट में मैंने अपनी तरफ से सिर्फ अनुनाद जी के लिखे बिन्दुओं की व्याख्या करने की कोशिश की थी। पिछला पोस्ट आनेवाले वक्त में दुनिया के सियासी और कारोबारी हालात में बदलाव पर आधारित था लेकिन इसके अलावा भी कई ऐसे हालात होंगे जो अंग्रेजी के दबदबे को चुनौती देंगे। इसमें से एक है आबादी का बदलता स्वरुप। पश्चिमी देशों और अमरीका को अपने मौजूदा माली हालत को बरकरार रखने के लिए बड़े पैमाने पर भारतीय और चीनी कर्मचारियों की जरुरुत पड़ रही है।

एक जापानी चिंतक ने कहा है कि आज से तकरीबन 400 साल बाद दुनिया से जापानी नस्ल खत्म हो जाएगी। अमरीका तो नौजवान और सतरंगा मुल्क होने के नाते दुनिया के दूसरे हिस्सों से भी लोगों का स्वागत करता है लेकिन उन देशों का क्या होगा जो अपनी नस्लीय और जातीय चेतना को लेकर चौकन्ने और गर्वान्वित रहते हैं...? जाहिर है दुनिया के दूसरे हिस्सों में एक तो भारतीय और चीनी लोगों की आबादी बढ़ेगी और साथ ही हमारी भाषा भी फैलेगी लेकिन फिर सवाल ये उठता है कि एक भारतीय के अमरीका चले जाने से हिंदी कैसे फैलेगी..या वहां के लोग हिंदी क्यों बोलेेंगे..जबकि अंग्रेजी में उनका काम मजे में चल रहा है।

इसका जवाब भी बाजार में ही निहित है। आज बाजार अपेक्षाकृत बड़ी आबादी में बोली जाने वाली भाषाओं को जिंदा कर रहा है। आनेवाले सौ-दो सौ सालों में अगर भारतीयों की तादाद अमरीका में मौजूदा 25 लाख से बढ़कर 2-3 करोड़ हो जाती है तो वहां का बाजार इसे हाथों-हाथ लेगा...और माल बेचने के लिए हिंदी में विज्ञापन दिए जाएंगे...और सीमित स्तर पर ऐसा हो भी रहा है। मेरी दीदी जो कि कैलिफोर्निया में रहती हैं बताती है कि वहां केबल पर दिखने वाले एशियन चैनल हैं जहां अक्सर हिंदी के रिपोर्टरों का पद खाली रहता है।

हिंदी की व्यापकता इतनी है कि वो भारत के कई हिस्सों में भले ही न बोली जाए (समझते तो सब हैं भले ही वो ऐसा दिखावा न करें) लेकिन भारत के बाहर पाकिस्तान, ईरान और पूरे अरब जगत में समझी जाती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उन देशों में अमिताभ बच्चन,शाहरुख खान और सास-बहू की लोकप्रियता है। दुबई में पता ही नहीं चलता कि भाषाई रुप से आप मुम्बई से बाहर हैं। कुल मिलाकर हिंदी में माल बेचने का बाजार भारत से बाहर भी 60-70 करोड़ का है और भारत को जोड़ देने से से यह डेढ़ अरब की आबादी तक जा पहुंचता है और अगर माल बिकेगा, तो रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और भाषा का फैलाव तो होना ही है।

दूसरी बात ये कि भारत और चीन अभी ही दुनिया में सर्विस और मेनुफैक्चरिंग सेक्टर का अड्डा बन गए हैं और सस्ते श्रम और बड़े बाजार होने के नाते दुनिया में बड़े रोजगार के अड्डे भी बन जाएंगे-ऐसी संभावना है। भारत और चीन में गोरे कर्मचारी दिखने लगे हैं, और आनेवाले वक्त में और बढ़ेंगे।(जबकि अब से पहले ऐसा सोचना भी पाप था)..जाहिर है उन्हें हमारी भाषा अपनानी होगी और एक बार ये चीज शुरु हुई तो इसकी भी पूरी संभावना है कि वो सिर्फ नौकरी तक नहीं रहेगी...जीवन के हर क्षेत्र में फैल जाएगी जैसा कि अपने यहां हम अंग्रेजी का देखते हैं। लेकिन क्या यह एक हसीन सपना नहीं है ? अभी यह एक सकारात्मक तर्कों के आधार पर की गई परिकल्पना है लेकिन हो सकता है सौ-दो सौ सालों में ऐसा हो भी जाए।

Saturday, July 26, 2008

धमाकों से क्या होगा...हमने काफी कुछ झेला है..

अहमदावाद में दर्जन भर से ज्यादा धमाके की खबर आई है। मेरे ऑफिस में हंगामा मचा है, ऑउटपुट में हंगामा है। विजुअल का टोटा है, ओवी काम नहीं कर रहा। दूसरे चैनल से जुगाड़ हो रहा है और मैं एक गाना गुनगुना रहा रहा हूं। मेरी सहकर्मी निशा मुझे कहती है कि गाना अच्छा है लेकिन फिर वो चौंकती है कि यार हम गाना गा रहें है और देश में धमाके हो रहे हैं। हमारी संवेदना टीवी में काम करते-करते शून्य हो चली है। एक धमाके का मतलब है बड़ी खबर और हम मुद्दों का अभाव झेल रहे मीडियावालों के लिए कुछ देर मुफ्तखोरी का बहाना।

पिछले दो दिनों में बंगलोर और अब अहमदावाद में धमाकों का कुछ मतलब है? क्या ये उन्ही धमाकों की अंतहीन सिलसिला है जिससे हम पिछले दो दशकों से परेशान हं? मेरा एक दोस्त कहता है कि ये साले आतंकवादी धमाके करते-करते मर जाएंगे, मगर हिंदुस्तान का कुछ नहीं बिगड़ने वाला। एक दूसरा दोस्त है वो इसका पोलिटिकल एंगल निकालता है। वो कहता है ये धमाके बीजेपी शासित सूबों में हुए हैं और कांग्रेस की बदनामी को बचाने का प्रयास है। उसका इशारा है कि चुंकि कांग्रेस बैकफुट पर है इसलिए वो संसद में की गई घूसखोरी से मिली बदनामी से ध्यान बंटाने के लिए ये काम कर सकती है...और इसकी वजह ये है कि ये लो इन्टेंसिटी ब्लास्ट है। कांग्रेसी सिर्फ लोगों का ध्यान बंटाना चाहते हैं लोगों को मारना नहीं। ये राजनीतिक सोंच का तीखा ध्रुवीकरण है।

सवाल ये भी है कि क्या हम कभी इन धमाकों से निजात पा सकेंगे? मुल्क विरोधी ताकतों को इतने विशाल मुल्क में ऐसे मौके मिल ही जाते हैं और हम इंच-इंच पर पुलिस नहीं बिठा सकते। मेरी बात प्रो कलीम बहादुर से हुई। उनका कहना था हम अपने आप को सतर्क और चाक-चौबंद रखने के आलावा कुछ नहीं कर सकते। दुनिया की सबसे ताकतवर और सुविधासंपन्न अमरीकन पुलिस भी आंतकवाद से परेशान है। हां, हमें हर घड़ी उन विचारों की निंदा करनी होगी जिससे समाज में थोड़ा भी असंतोष फैलता है और किसी भी तुष्टीकरणा की इमानदारी से आलोचना करनी होगी। मौजूदा हालात में हम सिवाय अपनी सुरक्षा व्यावस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के कुछ भी नहीं कर सकते।

Saturday, July 19, 2008

हाथ होगा साफ- एक खेमा कमल का, दूसरा हाथी का

सियासी हालात जिस तरफ बढ़ रहे हैं, आनेवाले वक्त में सबसे ज्यादा चिंता कांग्रेस को करनी होगी। जिस तरह मायावती विपक्षी एकता का एक केंद्रबिन्दु बन के उभर रही है, ऐसा लगता है कि आने वाले वक्त में हिंदुस्तान दो-ध्रुवीय गठबंधन की तरफ तो बढ़ रहा है लेकिन कहीं ऐसा न हो कि इसमें कांग्रेस ही गायब हो जाए। ये बात बहुतों को बेतुकी और ताज्जुब भरी लग सकती है, लेकिन अगर मायावती ने थोड़ा संयम दिखाया और बसपा संगठन को फैलाने में ध्यान दिया तो वह इतिहास में एक बड़ा नाम दर्ज करवाएंगी।

गौरतलब है कि हिंदुस्तान जैसे देश में कोई भी पार्टी तभी राष्ट्रीय बन पाई है जब उसे कुछ खास समूहों का समर्थन प्राप्त हो। कांग्रेस या बीजेपी के राष्ट्रीय बनने के पीछे ये बहुत बड़ा कारण था कि दोनों को ब्राह्मणों का समर्थन मिला जो कि अखिल भारतीय जाति है। साथ ही कांग्रेस को दलितों और मुसलमानों का भी समर्थन प्राप्त था और कांग्रेस का पतन तभी शुरु हुआ जब इन समूहों ने उसका साथ देना छोड़ दिया।

कायदे से देश में पिछड़ी जातियों की तादाद सबसे ज्यादा है, लेकिन इनमें इतना बिखराव है और एकरुपता का इतना अभाव है कि ये एक-साथ किसी मंच पर अा नहीं पाते हैं और मुकम्मल तौर पर अभी तक पिछड़ों की कोई एक पार्टी सफल नहीं हो पाई है। जनता दल का प्रयोग और उसका बिखराव इसका उदाहरण है।

मौजूदा हालात की बात करें तो कांग्रेस के पास विचारधारा के नाम पर सिवाय भाजपा-विरोध के कुछ सकारात्मक है नहीं, जिसे ये ठोस तौर पर अपनी विचारधारा कह सके। उसे अखिल भारतीय दल होने के चलते और बीजेपी विरोध के चलते मुसलमानों का वोट मिल जाता है साथ ही एक पुरानी पार्टी होने के नाते इसके पतन में पर्याप्त समय लगा है। लेकिन शायद अब इतिहास का वो फेज आ चुका है कि कांग्रेस को ज्यादा मौका न मिले। और इसकी वजहें है।

बात करें मुसलमानों के वोट की, तो इसके कई दावेदार हैं। आज के वक्त में मुसलमानों का वोट उस गठबंधन को जा रहा है जो बीजेपी को हराने की सबसे ठोस गारंटी दे। कांग्रेस कई सूबों में ये दर्जा खो चुकी है। दूसरी बात अगड़ों का पारंपरिक वोट कमोवेश बीजेपी के साथ है। पिछड़ों की हरेक सूबे में अपनी पार्टियां है। ले दे कर दलित वोट बचता है जो अभी तक कांग्रेस को मिलता रहा है लेकिन जहां-जहां दलित पार्टियां हैं वहां वो कांग्रेस को नहीं मिल रही। इतना तय है कि आनेवाले वक्त में बीएसपी का फैलाव देश के दूसरे हिस्सों में होगा और इसकी वजह ये है कि दलित वोट का भी अपना एक नेशनल कैरेक्टर है।

दूसरी बात ये कि इस के साथ वामपंथी पार्टियां भी असहज महसूस नहीं करेंगी और यह गठबंधन मुसलमानों को बड़े पैमाने पर अपने साथ खींच सकता है।अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस का क्या होगा...? क्या हिंदुस्तान की आनेवाली पीढ़ी, कंम्प्यूटर और पिज्जा पीढ़ी के लोग खानदानों की हुकूमत को झेलने के लिए ज्यादा दिन तक तैयार हैं ? अभी भले ही सियासत में नेताओं के बच्चे ही दिखाई दे रहे हों लेकिन क्या वे ज्यादा दिन तक ऐसा कर पाएंगे..? रही बात बीजेपी की तो एक विचारधारा पर आधारित पार्टी होने की वजह से इसका खात्मा मुश्किल है...लेकिन एकवार मायावती...ने त्याग और संयम से काम लिया तो फिर कांग्रेस को इतिहास बनते देर नहीं लगेगी...हां हो सकता है इस प्रक्रिया में 15-20 साल लग जाए...लेकिन मायावती भी तो अभी सियासत के हिसाब से कम उम्र की ही हैं।

Thursday, July 17, 2008

सरकार बच भी जाएगी तो कया कर लेगी?

अब सवाल ये नहीं बचा कि 22 जुलाई को सरकार बचेगी या नहीं...मान लीfजए बच भी जाएगी...तो क्या कर लेगी...कुछ लोकलुभावन घोषणाएं और भावनात्मक रुप से लोगों को उत्तेजित करने वाले नारे। बाद बाकी तो...इन 7-8 महीनों में यूपीए सिर्फ इसी बात का इंतजार करेगी की महंगाई कम हो जाए तो थोड़ी जान बचे। लेकिन सरकार की साख को जो बड़ी क्षति हुई है उसकी भरपाई करना बहुत ही मुश्किल है। पहली बात ये कि आम जनता में ये गलत मेसेज गया है कि सरकार अल्पमत में है और किसी भी कीमत पर कुर्सी का मोह नहीं छोड़ना चाहती। ये बात अपने आप में पिछले चार साल से बड़ी मेहनत से अर्जित मनमोहन की सादगी और सोनिया के त्याग को धूमिल करने के लिए काफी है। दूसरी बात ये कि सरकार ने जिन लोगों का साथ लिया है उनकी जनता में छवि अच्छी नहीं है। बीजेपी भले ही अतीत में भ्रष्टाचार के आरोपों से नहीं बच पाई हो...लेकिन इस वक्त आडवाणी का लाल सलाम और दलाल सलाम का जुमला लोगों के दिलों दिमाग पर छा गया है।
तीसरी बात ये कि सरकार के बच जाने के सूरत में भी लोग ये नहीं मान पाएंगे कि पैसे का लेन देन नहीं हुआ। सरकार विरोधियों के इल्जाम और अंबानी भाइयों के दिल्ली दौरों को जनता के सामने सही नहीं ठहरा पाएगी। और ऐसे में अगर चुनाव 7-8 महीने दूर भी हों तो कांग्रेस विपक्षी हमलों को नहीं झेल पाएगी। विपक्ष का आरोप समय के साथ एक-एक इंच बढ़ता जाएगा...और चुनाव के वक्त ये चरम पर होगा।

वाम दलों के साथ सरकार के चार साल तक होने का एक बड़ा फायदा कांग्रेस को मिला था। बाबरी ढ़ांचा के गिरने के बाद कांग्रेस, मुसलमानों में बदनाम हो गई थी और इसकी सेक्यूलर छवि तार तार हो गई थी। ऐसा बहुत दिनों के बाद हुआ था कि कांग्रेस को वाम नजदीकी होने की वजह से फिर से सेक्यूलर होने का तमगा मिल रहा था। आज भी हिंदुस्तान में सेक्यूलरिज्म का सबसे भरोसेमंद, टिकाऊ और ठोस सिपहसलार वामपंथी पार्टियों को ही माना जाता है। जाहिर है पिछले चार साल से मीडिया से लेकर समाज के हर बौद्धिक हलकों में धमक रखने वाली वाम मशीनरी ने सोनिया और कांग्रेस के खिलाफ अपना अभियान तकरीबन बंद कर रखा था। साथ ही यहीं वो मशीनरी थी और लिख्खाड़ो का एक कुनबा था जिसने साम्प्रदायिकता से लड़ने के नाम पर सोनिया गांधी की महिमामयी इमेज गढ़ी थी। लेकिन कांग्रेस को अब ये प्रिविलेज नहीं मिल पाएगा। अब उसे एक तरफ तुलनात्मक रुप से मजबूत दिखने वाले बीजेपी के भावनात्मक नारों से लड़ना होगा दूसरी तरफ दिनरात काम करने वाले वाम प्रचारतंत्र को भी झेलना होगा।
सबसे बड़ी बात ये कि वामपंथी और मायावती का गठोजोड़ इस बात का प्रचार करने में नहीं चूकेगा कि परमाणु करार सिर्फ देश के विरोध में ही नहीं है...बल्कि ये मुसलमानों की विरोधी भी है। हाल के दिनों में पूरी दुनिया के मुसलमानों में जिस तरह अमरीका विरोधी भावनाएं घर कर रही है उससे कांग्रेस को अल्पसंख्यकों का कोप भी झेलना पड़ सकता है। जाहिर है, कांग्रेस डिफेंसिव विकेट पर खड़ी है। ऐसे में 22 जुलाई को वह अगर विश्वासमत जीत भी जाती है तो वो क्या कर लेगी?

Friday, July 11, 2008

अंग्रेजी कैसे मरेगी...-1

अनुनाद जी ने बड़ा ही दिलचस्प सवाल उठाया है कि क्या अंग्रेजी नहीं मरेगी ?...हलांकि पहली नजर में ये सवाल किसी को भी बेतुका और अविश्वसनीय लग सकता है, लेकिन अगर गौर से देखें तो इसके कुछ लक्षण उभरने लगे हैं। आज अंग्रेजी सीखने की जो होड़ दुनिया में देखने को मिल रही है उसकी अहम वजह ये है कि दुनिया का सारा ज्ञान-विज्ञान और कारोबार अंग्रेजी में ही धड़कता है। तकरीबन दो सदियों से दुनिया में अंग्रेजी का इंस्फ्रास्ट्रक्चर इतना मजबूत हो गया है कि उसे हिलाना किसी के लिए भी नामुमकिन दिखता है। दुनिय़ा के बेहतरीन रिसर्च वर्क अंग्रेजी में हो रहे हैं.. और एक आकलन के मुताबिक मैजूदा दौर में तकरीबन 60 फीसदी छपे हुए शब्द अंग्रेजी भाषा के हैं। जाहिर है इसके पीछे अंग्रेजी बोलने बाले देशों की आर्थिक-राजनीतिक वर्चस्व है। पहले इंग्लैन्ड और अब अमरीका का दबदबा, अंग्रेजी को पूरी दुनिया में अपना रुतबा दिखाने का मौका दे रहा ह।

लेकिन फर्ज कीजीए..अगर ये हालात बदल जाएं तो क्या होगा। सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया एक ध्रुवीय हो गई, लेकिन ये चरण भी अब पूरा होने वाला है। जाहिर है, अमरीका भी इससे अनजान नहीं। आनेवाली दुनिया में जो आर्थिक और सत्ता संरचना उभरने वाली है वो बहुध्रुवीयता की तरफ साफ इशारा कर रही है, जिसमें चीन, भारत, रुस, ब्राजील, बियतनाम, जापान और ईयू(जर्मनी-फ्रांस) की बड़ी भूमिका रहनेवाली है। कहीं न कहीं अमरीका भी इस व्यवस्था का हिमायती है क्योंकि वो कभी नहीं चाहेगा कि दुनिया फिर से द्विध्रुवीय बन जाए( और जिसका स्वभाविक नेता चीन बन जाए)-इससे ज्यादा मुफीद उसे दुनिया का वहुध्रुवीय बन जाना लगता है। और इसकी वजह ये है कि उस नयी व्यवस्था में भी अमरीका के समर्थकों का खासा दबदबा रहेगा। गौरतलब है कि इन तमाम उभरती हुई ताकतों में भारत को छोड़कर किसी भी देश में अंग्रेजी का बोलबाला नहीं है। सारे देशों ने अपनी भाषा के बल पर तरक्की की है। इसलिए, ये कहना कि अंग्रेजी में ही ज्ञान की गंगोत्री छुपी हुई है- मानसिक दीवालिएपन से कम नहीं। हां, हिंदुस्तान जैसे मुल्क में अंग्रेजी का अपना अलग तरह का योगदान है और इसने अतीत में (या एक हद तक अभी भी) हमारी विभिन्नताओं से अंटे परे समाज को जोड़ने में एक पुल का काम जरुर किय़ा। इसने आजादी की लड़ाई में पूरे देश के युवाओं को एक मंच पर लाया,साथ ही पश्चिम में हुए सदियों के विकास को एक झटके में हमारे दहलीज पर ला पटका। लेकिन इसकी इतनी गहरी जड़े सिर्फ इस कारण से नहीं जमी है...इसकी वजह तो हमारा आपसी झगड़ा है कि आजादी के बाद किसी एक भाषा को हम आम सहमति से पूरे देश में मनवा नहीं पाए। विशाल क्षेत्र में बोली-समझी जानेवाली हिंदी अपने मुल्क में मान्य नहीं हो पाई..और अंग्रेजी को वो दर्जा आराम से मिल गया।

लेकिन जो सबाल यहां मुंह बाए खड़ा है वो ये कि क्या दुनिया में अंग्रेजी का ये जलबा बहुत दिन तक कायम रह पाएगा ? भूमंडलीकण के इस दौर में बाजार राजनीति को प्रभावित कर रहा है..साथ ही लोगों के जीवनशैली और संस्कृति को भी। साफ है इन सारे बदलावों से भाषा अपने आप को बहुत दिन तक नहीं बचा पाएगी। तमाम आकलन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि दुनिया की छोटी-छोटी भाषाओं और जीवनशैलियों का वजूद खतरे में है, और बढ़ते शहरीकरण के दौर में सिर्फ बड़ी भाषाएं/संस्कृतियां ही अपना वजूद बचा पाएंगी। दुनिया के स्तर पर अगर बात करें..तो चीन और भारत अपने मानव संसाधन और भू-सामरिक स्थिति की वजह से दुनिया में अपना खास मुकाम बनाने वाले हैं...और चाईनीज आज के दौर में अंग्रेजी के बाद किसी भी देश में सबसे ज्यादा सीखी जाने वाली भाषा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो अपने ही देश में जेएनयू के भाषा संकाय में एडमिशन लेने वालों की होड़ है जहां चाईनीज के लिए सबसे कठिन परीक्षा देनी पड़ती है। दूसरी तरफ,अपने देश के एलीटों में या राजनैतिक-आर्थिक सत्ता संस्थानों में हिंदी की हालत भले ही बहुत सुखदायक न हो, लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में हिंदी सीखने की ललक, मंथर गति से ही सही, बढ़ रही है। आज दुनिया की तकरीबन 45 फीसदी आवादी वाले ये दोनों देश बड़ी तेजी से सियासी और कारोबारी नजदीकी बढ़ा रहे हैं। अगर ये दोनों मुल्क अपने सियासी मुद्दो को तेजी से सुलझा लें...तो आपसी कारोबार करने के लिए अंग्रेजी की कोई जरुरत नही् रह जाएगी।

अगर आनेवाले पचास- सौ सालों में ऐसा होता है तो दुनिया की सियासत का केंद्र अमरीका-यूरोप से खिसक कर एशिया के इन देशों में आ जाएगा। और इतिहास गवाह है कि भाषाएं वहीं लोकप्रिय होती है जिनका सियासत और कारोबार में दखल होता है। इसका बेहतरीन उदाहरण प्राचीन भारत के संदर्भ में संस्कृत, मध्यकाल में फारसी और आधुनिक काल में अग्रेजी जलबा नहीं है...? क्या इन्ही हालातों का फायदा अंग्रेजी को नहीं मिलता रहा है..? रही बात रिसर्च और ज्ञान विज्ञान की तो ये तमाम चीजें आर्थिक व्यवस्था से जुडी है। कल को अगर चीन और भारत की माली हातल सुधरती है, तो कोई ताज्जुब नहीं कि बेहतरीन रिसर्च हमारे यहां भी होंगे। और आज जो पूरे दुनिया के ज्ञान-विज्ञान, भय और उम्मीदों,सियासी कलावाजियों-दांवपेंचों-धमकियों का केंद्रेबिन्दु, वाशिंगटन-लंदन बना हुआ है...वो कल को बीजींग-नई दिल्ली भी बन सकता है। लेकिन ऐसा होने में वक्त लगेगा। तारीख में सौ-पचास साल बहुत ज्यादा नहीं होते...और बहुत सारी बातें उन हालातों पर निर्भर करेगा जो दुनिया की सियासत पर असर डालेंगे। (जारी)

Monday, July 7, 2008

तीन लड़कियां- एक कहानी.....

रागिनी के मां-बाप उसके जन्म के कुछ ही दिन बाद ऊपर चले गए। रागिनी को उसके चाचा-चाची ने पाला। वह उन्हे ही 'मम्मी-पापा' कहती है। शुरु में चाचा-चाची का व्यवहार ठीक था। लेकिन बाद में बात-बात पर उसे ताना मिलने लगा। रागिनी को घर का सारा काम करना पड़ता। रागिनी की हालत उस घर में एक बिना बेतन के नौकरानी से ज्यादा नहीं थी। लेकिन उस घर में कोई ऐसा भी था जो उसे लेकर सहानुभुति रखता था। और वो था रागिनी का चचेरा भाई दिनेश। दिनेश जब बड़ा हुआ तो उसने अपने घर में इस जुल्म के खिलाफ आवाज उठाई। काफी जोर-जबर्दस्ती के बाद दिनेश ने रागिनी का एडमिशन गाजियाबाद के एक एमबीए कॉलेज में करा दिया। आज रागिनी एक मल्टीनेशनल में काम करती है और 20 हजार कमाती है। लेकिन उसके दुख का अंत अभी नहीं हुआ है... उसके 'मम्मी-पापा' आज भी महिना के शुरु में आ धमकते हैं और उससे सारा पैसा छीन ले जाते हैं। रागिनी का भाई उसे अपनी मर्जी के किसी लड़के से शादी करने के लिए कह रहा है...लेकिन रागिनी ऐसे दहशत के साये में जीती आई है कि उसे लगता है कि उसके मम्मी पापा उसे गोली मार देंगे।

माधवी की कहानी इससे थोड़ी अलग है। माधवी के मां-बाप भी बहुत कम उम्र में उसे छोड़कर इश्वर के प्यारे हो गए। उसे भी उसके चाचा-चाची ने पाला। माधवी पढ़ने में जहीन थी। उसने वेस्ट बंगाल इन्जिनियरिंग क्लीयर किया और उसका दाखिला जादवपुर युनिवर्सिटी में हो गय़ा। कहानी तब उलझ गयी जब माधवी की चचेरी बहन की शादी ठीक हुई। माधवी देखने में सुन्दर थी,जहीन थी और इंजिनयरिंग कर ही रही थी। लगे हाथों घर वालों ने माधवी की शादी की बात उसके चचेरी बहन के देवर से चलाई। उसकी बहन का देवर माधवी को मन ही मन चाहने भी लगा।इधर माधवी अपने साथ पढ़ने वाले एक लड़के को पसंद करती थी।वक्त का फेर देखिये...शायद माधवी की तकदीर ही ठीक नहीं थी। माधवी के बहन के देवर ने माधवी की शादी उसके साथ न होते देख खुदकुशी कर ली...और माधवी का सहपाठी लड़का जिसे वो पसंद करती थी...वह भी उससे शादी से मुकर गया। माधवी डिप्रेसन में चली गई। माधवी को काफी मशक्कत के बाद सत्यम कम्प्यूटर में काम मिल गया है..और कंपनी उसे कैलिफोर्निया भेज रही है। माधवी अभी 2-3 साल वहां रह कर अपना सारा गम भुलाना चाहती है। लेकिन रिश्तेदार हैं कि उसकी बहन के देवर की खुदकुशी का सारा दोष माधवी के सर मंढ़ रहे हैं...लेकिन इसमें माधवी का क्या कसूर है ?

एक तीसरी कहानी भी है...और वो बिल्कुल अलग है। हिंदी के एक बड़े और मशहूर न्य़ूज चैनल की उभरती हुई न्यूज एंकर...लेकिन उसका दर्द ये है कि वो अपनी मर्जी से टेलिविजन के पर्दे पर नहीं आ रही। भगवान ने पूनम को हरेक नेमत बख्शी है। वो बला की खूबसूरत है, जहीन है, कन्फिडेन्ट है, और स्पष्ट उच्चारण के साथ खनकती हुई आवाज की मलिका है। कुल मिलाकर उसमें वो सब है जो एक न्यूज एंकर में होना चाहिए। लेकिन पूनम क्या चाहती है...किसी ने उससे आज तक नहीं पूछा। पूनम शुरु के कुछ दिन न्यूज चैनल में गुजारने के बाद एक सुकून की जिंदगी जीना चाहती थी...जिसमें उसका एक पति हो...उसके बच्चे हों...और वो अपने परिवार के लिए अपने आप को न्यौंछावर कर देने का ख्वाब देखती थी। लेकिन, शायद वक्त को ये मंजूर न था। पूनम के पिता हाई कोर्ट में वकील थे...और मां एक स्कूल में शिक्षिका। पूनम के पिता पिछले तीन सालों से हॉस्पिटल में है...और घर की माली हालत चरमरा गई है। आज पूनम को अपनी छोटी बहन के पढ़ाई का खर्च भी देखना है और पिता का इलाज भी। पूनम के लिए न्यूज चैनल में काम करना आज मजबूरी है। शायद अगले पांच साल तक जब तक पूनम की बहन अपने पैर पर न खड़ी हो जाए। इसी वजह से पूनम अभी शादी भी नहीं करना चाहती। लेकिन दुनिया समझती है कि पूनम...न्यूज चैनल की सतरंगी दुनिया में कामयाबी का पैमाना है।

इन तीनों कहानियों में क्या समानता है..? .इन कहानियों में गरीबी का तत्व तकरीबन नदारद है। ये शहरी मध्यम वर्ग के संघर्षरत लड़कियों की दुखभरी दास्तान है जहां हालात, एक अदृश्य विलेन के रुप में आज भी मौजूद है।जहां रागिनी के मां-बाप के उससे पैसा छीन कर ले जाने के बावजूद भी वो किसी मनपसंद युवक से शादी करने में हिचकती है...वहीं हमारा जड़ समाज माधवी की बहन के देवर के आत्महत्या करने पर माधवी को ही कसूरवार ठहरा रहा है।पूनम इसलिए शादी नहीं कर रही कि फिर उसके पिता और बहन का क्या होगा..?.सवाल यह भी है कि क्या ऐसे दिलेर लड़के हैं जो इन लड़कियों का हाथ थाम सकें..?.उन्हे उनके मंजिल तक पहुंचाने के वादे के साथ उनका हम कदम बन सकें..? जातीय जकड़न और तंग दायरों में कैद समाज की व्यवस्था आसानी से ऐसा नहीं होने देगी..। .लेकिन नहीं...शायद कहीं विद्रोह की चिंगारी धधक रही है।शायद... लाखों-करोड़ों नौजबान, परंपरा के नाम पर उस मैले-कुचैले कपड़े को उतार फेंकने को बैचेन हो रहे हैं...और आनेवाला वक्त रागिनी, माधवी और पूनम जैसी लड़कियों के इस्तकबाल को मचल रहा है।

Friday, July 4, 2008

नासाज तबीयत और दार्शनिक भाव....

इधर कुछ दिनों से तबीयत खराब चल रही है। डॉ ने आराम करने को कहा है। ऑफिस नहीं जा रहा हूं। मन वहीं सब खाने को करता है जो मना किया गया है। हमेशा कोल्ड ड्रिंक और फ्रिज का पानी ही पीने को मन करता है। पिछले 7 महिने में ऑफिस से एक भी छुट्टी नहीं लेने का शायद इकट्ठे ही खामि याजा भुगत रहा हूं।हाल में एक लड़की से बात होने लगी है। लेकिन मुई तबीयत ने उधर भी रुचि कम कर दी है। मैं कभी-कभी सोंचता हूं कि क्या आपके स्वास्थ्य़ का असर आपके दिल पर भी पड़ता है...ऑफिस में क्या चल रहा है..कुछ पता ही नहीं चलता। दोस्तों के स्वास्थ्य शुभकामना संदेश फोन पर अक्सर आते हैं। दुनिया से कनेक्टेड इसलिए हूं कि सामने इंटरनेट है। आजकल राजीव के घर स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूं। वैसे भी, तंदुरुस्ती के दिनों में भी ज्यादातर वक्त वहीं बिताता हूं।मन कभी-कभी अजीव दार्शनिक हो जाता है। सोचा करता हूं...कि मैं एक-एक पल अपने लिए बचाया करता था। सिर्फ अपने लिए...कि उसका उपयोग पढ़ने में या किसी से मिलने में करुंगा...लेकिन वक्त की एक करवट ने पिछले एक सप्ताह से मुझे हिलने से भी मना कर दिया है। इंसान की कुछ भी औकात नहीं है। बिल्कुल ही औकात नहीं है।
पता नहीं कैसे घर पर लोगों को पता चल गया है। मां-पापा का रोज ही दो तीन बार फोन आने लगा है। उनसे झूठ बोल-बोल कर परेशान हूं। मां को तो दिलाशा देना ही पड़ता है। आज तो राजीव के मां-पापा का भी फोन आ गया। मैं ऐसे फोनों से बेतरह चिढ़ जाता हूं। लेकिन शायद ये बड़े लोगों की बाते हैं। हम अभी बहुत बच्चे हैं इन चीजों को समझने के लिए। कई चीजें आपके हाथ में नहीं होती...बिल्कुल ही नहीं होती।

Tuesday, June 24, 2008

प्राची पाठक के बहाने अपनी कहानी...

बात 2007 की है..मैंने एक न्यूज वेबसाईट ज्वाईन किया था। मेरा काम डेस्क का था और मुझे आउटस्टेशन रिपोर्टर की रिपोर्ट एडीट करनी होती थी। कलकत्ता से कुछ अच्छी स्टोरीज आ रही थी और उसके रिपोर्टर का नाम सबके जुबां पर था। ज्वाईन करने के चार दिन बाद ही मुझे उससे बात करना पड़ा। कान में एक संयमित, परिपक्व और मन को तरंगित करनेवाली आवाज सुनाई दी। हेलो...मैं प्राची बोल रही हूं...प्राची पाठक फ्रॉम कोलकाता ब्यूरो...मेरी उससे थोड़ी देर बात होती रही..फिर रुक रुक के अक्सर बात होती थी। लेकिन बातों का दायरा बिल्कुल प्रोफेशनल था।िनजी बातें करने का मौका ही नहीं था। पांच महिना बीत चुका था। ऑफिस में मेरा वक्त खराव चल रहा था। टेक्निकल डाइरेक्टर से मेरा पंगा हो गया था। वो नं-एक का शरावी था और उसने मेरे साथ बदतमीजी की थी। मैनें उसकी शिकायत की,लेकिन मेनेजमेंट ने उसकी सुनी..और मुझे बड़ी मुलायम आवाज में रिजाइन देने को कहा गया। मैनें रिजाइन कर दिया।अब फिर से मै सड़क पर था। लेकिन प्राची से मेरी बात होती रहती थी।
मैं नौकरी खोजने के लिए उस वक्त परेशान था। मेरे पास देश के सबसे बड़े मीडिया स्कूल का डिप्लोमा था लेकिन नौकरी नही थी। और वो इसलिए कि मैं नेटवर्क बनाने की कला नहीं जानता था और शायद थोड़े अंतर्मुखी स्वभाव का था। बहरहाल, काफी मशक्कत के बाद मैने इंडिया न्यूज ज्वाईन किया। बेरोजगारी के दौर में मैने अपने घर वालों को कभी नहीं बताया कि मैने नौकरी छोड़ दी है। दोस्तों और अपने भैया की मदद से मै किसी तरह अपनी गाड़ी खींच रहा था। मेरे मानसिक तनाव के उन दिनों में दोस्तों ने अगर मदद न की होती तो मै आज बिखर गया होता। उनमें मेरे दो-तीन नजदीकी दोस्त और प्राची का नाम सबसे उपर है..जिनसे बात करके लगता था कि अपने उपर का विश्वास जिंदा है।प्राची का फोटो मैने ऑरकुट पर देखा था। एक बला की खूबसूरत लड़की..जिसका सपना जर्नलिज्म के इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाना था..वो कोलकाता के माहौल में शायद घुटन महसूस कर रही थी। उसके पापा पूर्वी यूपी से ताल्लुक रखते हैं और कोलकाता में चार्टर एकांउन्टेट हैं। प्राची ने कोलकाता युनिवर्सिटी से हिंदी में एम ए और मास कॉम किया है। उसकी अंग्रेजी पर बेहतरीन पकड़ है। उससे मेरी बात, शुरु में चैट पर होती थी..और उसका कॉमन टापिक होता था-लिटरेचर। प्राची ने लिटरेचर में एमए किया था और मेरी लिटरेचर में दिलचस्पी थी। लेकिन धीरे-2 मैं प्राची से खुलता गया। शायद मैं सोचता था कि मैं प्राची जैसी लड़की से बहुत देर से मिला हूं...प्राची ने मुझे बताया था कि वो एक पंजाबी लड़के को पसंद करती थी जिसका प्राची के घर वाले काफी विरोध कर रहे थे। एक वजह ये भी थी कि मुझे लगता था कि प्राची ब्राह्मण परिवार से है...इसलिए उससे दोस्ती करने में कोई बुराई नहीं है। ये एक जेएनयू कैम्पस में पढ़े और दुनिया भर की बड़ी-2 बातें करने वाले लड़के की कायरता भरी स्वीकारोक्ति है कि वो अपनी जाति के लड़की को देखकर उत्साहित हो जाता है।..क्या इसमें मेरी गलती है कि मैं अंतर्जातीय विवाह की बात करता हूं तो मेरे मां की तबीयत खराव हो जाती है...या ये अभी तक परंपराओं और कस्वाई मानसिकता में चिपके रहने का नतीजा है। और सबसे बड़ी बात ये कि क्या ये एक बहाना नहीं है??...
बहरहाल..बात प्राची की हो रही थी। इधर प्राची से कुछ ज्यदा बात होने लगी है।कई बातें..जो अपने बॉस की आलोचना से शुरु होकर...अपने मम्मी-पापा और करियर के नए एवेन्यू खोजने तक होते हैं। मेरी दीदी ने कैलिफोर्निया से मेरी भांजी की तस्वीर भेजी है जो प्राची को काफी पसंद है..उसकी भी भतीजी मेरी भांजी के उम्र की ही है...उसके भैया-भाभी दुबई में है..प्राची अपने लाडली भतीजी की ढ़ेरों कहांनिया सुनाती है। शायद लड़कियां ऐसी ही होती है। मुझे भी बच्चों से प्यार है...लेकिन अपनी प्रज्ञा की चर्चा से ज्यादा मुझे ओबामा और मनमोहन सिंह के भविष्य की चिंता होती है। प्राची ने अपने फोटो ऑरकुट से हटा दिए हैं..जिसमें वो  खूबसूरत पंजाबी लड़का भी था। शायद..आजकल दोनों में कुछ मतभेद हो गया है और वह लड़का उस पर अपनी मर्जी थोपने लगा है। प्राची को उड़ने के लिए अनंत आसमान चाहिए.. उसे पिंजड़े में नहीं बांधा जा सकता..और प्राची का आसमान दिल्ली की मीडिया में है। मैं अपनी भरसक उसकी मदद करना चाहता हूं। लेकिन क्या यह मेरा स्वार्थ नहीं है?...क्या मैं चाहने लगा हूं कि प्राची दिल्ली आए..और मैं ज्यादा से ज्यादा वक्त उसके साथ गुजार सकूं..मैं उससे मिला नहीं हूं..सिर्फ फोटो देखा है..ओर फोन पर बात की है...लेकिन क्या मैं शुरु में उसकी खूबसूरती पर रीझ नहीं गया था ?...क्या मैं भी उन्ही आम लोगों जैसा हूं जो किसी सुन्दर लड़की को देखकर हर हथकंडा अपनाने लगते हैं... क्य़ा प्राची एक औसत लड़की होती तो मैं उससे बात करता...दिल्ली के संघर्षों ने मुझे इतना मतलबी बना दिया है कि मैं मुस्कुराता भी तभी हूं जब कोई काम की बात होती है...क्या मैं विशुद्ध कारोबारी मानसिकता का नहीं हो गया हूं ?... क्या मैं इतना गिरा हुआ आदमी हूं ? ..मेरा दिमाग चकरा रहा है...लेकिन इसके जवाब में तर्क ये है कि क्या किसी खूबसूरत और जहीन लड़की से दोस्ती की कोशिश एक अपराध है...?
दिमाग कई दिशाओं में सोचता है। लड़कियां कभी-कभी करियर में बाधा लगती है। मुझे हजारों किताब पढ़ना है। मुझे पांच सौ पन्नो से कम की किताब अच्छी नहीं लगती। मैं..रामचंद्र गुहा और डोमनिक लेपियर से लेकर मार्क्स और चेखव की सारी किताबें चाट जाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मैं भी आगे चलकर किताबे लिखूं...और सेमिनार में आमंत्रित किया जाउं...मेरे लेख भी अखवारों के संपादकीय पन्नों पर छपे। शायद अभी तक लड़कियों की बहुत कम संगत ने पढ़ने के लिए मुझे पर्याप्त वक्त दिया है। लेकिन फिर मैं सोचता हूं कि मैं ऐसी एकांगी सोच का शिकार क्यो हो गया हूं...क्या लड़कियों को करियर में बाधा कहना उनका अपमान नहीं है..?क्या ऐसा नहीं हुआ है कि लोग प्रेम में पड़कर या शादी के बाद कई बार ज्यादा सफल हो गए हैं..?
बहरहाल, इतना तय है कि आज न कल प्राची दिल्ली आएगी...और ये भी तय है कि वो दिन कम से कम मेरे लिए इंतजार करने लायक होगा...लेकिन मैं उसका इंतजार क्यों कर रहा हूं...?

Thursday, June 5, 2008

चावला सर...और जनसंचार संस्थान

जिंदगी में कुछ हसीन लम्हे होते हैं..जिसे शायद कोई भी भूलना नहीं चाहता। इसी तरह जिंदगी में कुछ लोग भी होते हैं जिन्हे आप कभी नहीं भूलते। उनकी याद, तनाव भरे लम्हों में भी राहत देती है। शायद चावला सर ऐसी ही शख्सियत हैं जो हमारे संस्थान की पीढ़ियों को ताउम्र याद रहेंगे।मैने कहंीं एसआरसीसी के किसी प्रोफेसर के बारे में(अभी नाम भूल गया हूं) ऐसा ही पढ़ा था कि खाली वक्त में वो अपने लैपटॉप पर किसी पार्क में कॉलेज के बच्चों का सीवी टाईप करते हुए परम आनंद का अनुभव करते हैं। चावला सर भारतीय जनसंचार संस्थान के उन कर्मचारियों की नुमांइदगी करते हैं जिनके लिए संस्थान ही सब कुछ है..और छात्र बिल्कुल अपने बच्चे सरीखे।जब मैंने आईआईएमसी में दाखिला लिया था तो पहली बार चावला सर से डाक्यूमेंट जमा करबाते वक्त मुलाकात हुई। अंदर एक हिचक थी जो चावला सर के पहले ही संवोधन से छू मंतर हो गई। धीरे-धीरे चावला सर का मतलब एक आश्वासन हो गया। इस महानगर में हजारों किलोमीटर दूर से आए हुए बच्चों के लिए वो पहले ही दिन अपने हो गए।बैंक में एकांउट खुलबाना हो या कोई डाक्यूमेंट एटेस्ट करबाना..चावला सर हर मर्ज की दबा थे। उन्हे ये भी चिंता रहती थी कि उत्तर बिहार में बाढ़ की वजह से डाक वक्त पर नहीं पहुंच पाएगी और बच्चे दाखिला लेने से वंचित रह जाएंगे। बस चावला सर दिनरात फोन पर चिपके रहते..और एक-एक कर सारे बच्चों को फोन पर बता कर ही दम लेते।चावला सर के शख्सियत का बखान करने के लिए शव्द कम पड़ जाते हैं। आज संस्थान से निकलने के तीन साल बाद जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो ये कहना मुश्किल है कि खुशी के उन लम्हों में किसका योगदान ज्यादा था। संस्थान के शिक्षकों से कतई कम चावला सर नहीं थे। चावला सर तो हमें ये भी बताते थे कि नौकरी की संभावना कहां ज्यादा है और हमें किससे संपर्क करना चाहिए।चावला सर के पास अक्सर पास आउट हुए लड़कों के शादी का कार्ड पड़ा रहता। वो मास कॉम के कई जोड़ो की शादी के गवाह थे।मुझे वो लम्हा याद है जब पिछले साल एल्यूमिनाई मीट में दीपक चौरसिया ने चावला सर को शॉल पहना कर सम्मानित किया था। और मजे की बात ये थी कि दीपक अपने व्यस्त प्रोग्राम में से सिर्फ चावला सर के कहने पर ही संस्थान में बरसों बाद आए थे। राजीव ने पिछले दिनों फोन पर बताया कि चावला सर का फोन आया था और वो उसका हालचाल पूछ रहे थे । बाद में चावला सर ने मिलने के लिए भी बुलाया था। सच कहूं तो मैं जलभुन गया था कि चावला सर ने सिर्फ उसे ही क्यों फोन किया...ये बात कुछ ऐसी ही है जैसे दो बच्चे अपने मां-बाप का प्यार पाने के लिए लड़ते हैं। राजीव के पिताजी उस दिन आईआईएमसी गए थे तो चावला सर के साथ बड़े अपनेपन के माहौल में चाय-ठंडा का दौर चला था।चावला सर ने कहा था कि मेरी नौकरी अभी 18 साल बाकी है..तुम लोग अपने कागजात के लिए 18 साल तक मुझ पर भरोसा कर सकते हो।दरअसल चावला सर वन मेन आर्मी थे। आईआईएमसी के प्रशासनिक विभाग का मतलब ही हमारे लिए चावला सर थे।आईआईएमसी के दिनों में मुझे गुटखा खाने की आदत पड़ गई थी और हमारे सेमेस्टर का इम्तिहान चल रहा था। मिनी ऑडिटोरियम में हमें बैठाया गया था। आईआईआईएमसी का ऑडिटोरियम जिसे मंच कहा जाता है, वो तो भव्य है ही, मिनी ऑडिटोरियम भी काफी भव्य है। मैंने गुटखा चुपके से उसकी कालीन पर फेंक दिया। मैं पीछे वाली कतार में था। मास कॉम का एक और वफादार स्टाफ था गोपाल..(पता नहीं वो अभी है भी कि नहीं...गोपाल नेपाल का रहने वाला था और संस्थान का केयर टेकर था... संस्थान की सारी खूबसूरती, साफ सफाई और सैकड़ो तरह के फूल उसी आदमी के बदौलत थे) किसी तरह गोपाल को इस बात की भनक लग गई और वह वहां पहुंच गया।मैंने आनन फानन में अपने रोल नंबर की पर्ची उस जगह से हटाई और दूसरे जगह पर बैठ गया। गोपाल ने चावला सर को बुला लिया। चावला सर ने बड़े प्यार से हमें समझाया कि बेटे ये संस्थान आपका ही है...और आपके ही टैक्स से इसका खर्च चलता है। यहां िवदेशी भी आते हैं..वे क्या कहेंगे। इस घटना से मुझे इतनी ग्लानि हुई कि मैंने गुटका खाना छोड़ दिया(ये अलग बात है कि मुई आदत फिर से दबे पांव वापस आ गई और बहुत हाल में एक लड़की के कहने पर छूटी है)..इस तरह चावला सर की न जाने कितनी ही यादें हैं..जिनका तफसील में जिक्र शायद ब्लाग जैसे मीडियम को रास नहीं आएगा।
चावला सर का पूरा नाम मैं आज भी नहीं जानता...और शायद उनका व्यक्तित्व किसी नाम का मोहताज भी नहीं... चावला सर जैसे लोग उन घड़ियों में और भी याद आते हैं...जब हम मेंटल अलूफनेस से संघर्ष कर रहे होते हैं....यहां भी हमें ये किसी तकलीफ से बच निकलने में मदद करते हैं....क्योकि चावला सर हमारी यादों में पूरे आवेग से ...आते हैं ...हल्का अहसास कराते हैं.....परिस्थतियों में अकेले फंसे पा हमारे दिमाग का अचेतन हिस्सा उन्हे खोजते हुए आईआईएमसी पहुंच ही जाता है.....और फिर सामने चावला सर खड़े होते हैं...
(इस लेख को संपादन में मुझे मेरे इंडिया न्यूज के सहकर्मी महेंद्र सिंह यादव का कीमती सहयोग मिला...शायद ऐसे लोग आपको हर जगह मिल ही जाते हैं।)

Thursday, May 22, 2008

रो रही है वो अहिल्या, राम आएंगे कहां से...?

ये कविता मैने तकरीबन १२ बरस पहले लिखी थी। मैं उम्र के दूसरे दशक में पैर रख चुका था। ये कविता उस समय लिखी गई थी जब लालू यादव नामका एक आदमी बिहार का मुख्यमंत्री बन चुका था। यह कविता एक सामंती संस्कार से ओतप्रोत लड़के का अपने इलाके के पिछड़ेपन को लेकर किया गया आत्मोद्गार है जिसमें अतीत के स्वर्णयुग को ही बेहतरीन समझने की नासमझी भी है..और एक खास किस्म के नायक की परिकल्पना भी। व्याकरण संबंधी त्रुटियां तो हैं ही खैर...आज मैं पीछे मुड़कर जब इस कविता को देखता हूं तो मुझे खुद पर हंसी आती है। लेकिन फिर भी न जाने क्यों ये कविता मुझे अभी भी प्रिय है..शायद पहले प्यार की तरह..या पहली बार रेलगाड़ी के सफर के यादों की तरह...

भारतीयता की अमरगाथा सुनाता पूण्यभूमि,
मैथिली का जन्मस्थल है उपेक्षित आज भी।
हाय! किससे करुं विनती नहीं है कोई कन्हैया,
लुट रही बाजार में है द्रौपदी की लाज भी।
इस धरा ने ही जना है भारती सी विदुषियों को,
फिर भी क्यों वाचस्पति की माता आज तक असहाय है?
नहीं है कोई खेवैया इस अगम मंझधार में,
मैथिलों की मौन क्रंदन आज तक असहाय है।
आज भी अमराईयां मिथिलांचल की गूंजती हैं,
भक्त विद्यापति रचित उन अमर गीतों के स्वरों सेI
धूल में लेटे हुए हैं सैकड़ों मंडन अभी भी
हाय कोई है जो नहलाए उन्हे अपने करों से?
याद आती है वो नगरी जो विदेहों से अंटी थी,
स्वर्ण मणिमाणिक्य की क्या यहां कोई भी कमी थी?
शस्य श्यामला थी धरती और थी जनता प्रफुल्लित,
भय नहीं था दस्युओं का और न कोई रहजनी थी।
इस धरा ने खींच लाया था अवध से राम को भी,
दास बन कर खुद मृत्युंजय जा चुके है इस जहां से।
आज भी पाषाण बन कर रो रही है वो अहिल्या,
कर रही फिर भी प्रतीक्षा राम आएंगे कहां से?
आज सड़के भी नहीं है, नहरों में पानी भी नहीं है,
आज भी मिथिला की रातें बीतती हैं जागकर।
कौन अब ये दुख सुनेगा? ललित बाबू भी नहीं है,
धूर्त है नेतृत्व, हम भी चुप हैं नियति मानकर।
खेलने की उम्र में वे भागते पंजाब को हैं,
क्या करें ?ये पेट की ज्वाला भी कब तक मानेगी?
रहने को झोपड़ें मयस्सर और तन पर मात्र चिथड़े,
मैथिलों की इस दशा को कब ये दुनिया जानेगी?
मधुबनी की चित्रकारी, नानियों की वे कथाएं,
लुप्त होती जा रही है गांव की सब लोकगीते।
छा गया पाश्चात्य जीवन, हो गया अपनत्व अब कम,
हाय! मृग कैसे बचेगा आ गए खूंखार चीते।
मातृभाषा है उपेक्षित शत्रु सत्ता की कृपा से,
विश्व की प्राचीन भाषा मिट रही है इस जहां से।
कोई क्यूं चिंता करेगा ,वक्त क्यों जाया करेगा,
फंस गया है फंद में गज विष्णु आंएगें कहां से।
काल के पंजों से घायल, हेय दुनिया की नजर में,
दौड़ में पीछे हुए क्यों मैथिलों में क्या कमी थी?
विष बुझे से प्रश्न हैं ये, ये हमें जीने न देंगे,
आज भी हम हैं अहिंसक, सिर्फ क्या इतनी कमी थी?
 

Saturday, May 17, 2008

जीवन मृत्यु

शिखर हमारे साथ काम करती है...और एक बेहतरीन कवियत्री भी है..उसने एक कविता भेजी है...

आज मै चुपचाप बैठी सोच रही थी

अपने ही भावो मे कितनी उलझ रही थी

कि जिन्दगी और मौत कितनी करीब है

एक संसार मे लाती है तो दुसरी ले जाती है

लेकिन शमशान घाट पर ही

जाकर वैराग्य क्यो जागते .है

और मृत्यु पर ही सारे सगे सम्बन्धी ,

बिलख बिलख कर रोते क्यो है

शायद यहाँ हम एक पूरी जिन्दगी

का अन्त पाते है.

मरने वाले तो मर जाते है

पर कुछ लोग उनकी मृत्यु मे

अपना सारा जीवन तलाशते है(मेरी माँ)

Thursday, May 8, 2008

कया बलिराज गढ़ मिथिला की प्राचीन राजधानी है..?

मेरे गांव खोजपुर से 1 किलोमीटर दिक्षिण बलिराजपुर नामका गांव है। इसकी दूरी मधुबनी जिला मुख्यालय से करीब 34 किलोमीटर है। यहां एक प्राचीन किला है जो तकरीबन 365 बीघे में फैला हुआ है। यह किला पुरातत्व विभाग के अधीन है । किले के बाहर लगी साइनबोर्ड के मुताबिक यह किला मौर्य कालीन है और यहां उस समय के मिट्टी के बर्तन और सोने के सिक्के मिले हैं। आसपास के गांवो में यह किंवदन्ती फैली हुई है कि ये किला राक्षस राज बलि की राजधानी थी और आज भी कभी-कभी वो किले में देखे जाते है। लोगबाग शाम के बाद किले की तरफ जाने से डरते हैं। शायद ये अफवाहें सरकारी कर्मचारियों की फैलाई हुई है ताकि लोग किले का अतिक्रमण न करे और उन्हे ढ़ंग से ड्यूटी न करनी पड़े।

किला वाकई अद्भुत है। किले की दीवार अपने भग्नावस्था में भी अपने यौवन की याद दिलाती है।किले की दीवार इतनी चौड़ी है कि इसपर आसानी से एक रथ तो गुजर ही जाता होगा। दीवार की ईंटे दो फीट लंबी, और तकरीबन एक फीट चौड़ी है। किले की के बीच में एक तालाब है..कहा जाता है कि इसके बीच में एक कूंआ है जिसमें एक सुरंग है। और इस सुरंग का रास्ता कहीं और निकलता है। पुराने जमाने में राज परिवार के लोगों के लिए आपातकाल के लिए इस तरह का सुरंग बनाया जाता था।

इस किले के अगल-बगल के गांवो का नाम भी काफी रोचक है और थोड़ा-थोड़ा एतिहासिक भी..। किले के पूरब में है -फुलबरिया गांव और उससे सटा हुआ है गढ़ी जो अब अपभ्रंश होकर गरही बन गया है। किले के पश्चिम में है रमणीपट्टी और उससे सटा हुआ है भूप्पटी। किले के दक्षिण के गांव है बिक्रमशेर जहां प्राचीन सूर्य मंदिर के अवशेष मिले हैं। गौरतलब है कि सूर्य का मंदिर पूरे देश में बहुत कम जगह है।

बलिराज गढ़ की खुदाई पहली बार 1976 के आसपास हुई थी जब केंद्र में कर्ण सिंह इस बिभाग के मंत्री थे। इसके उद्धार के लिए मधुबनी के सांसद भोगेन्द्र झा और कुदाल सेना के सीताराम झा ने काफी काम किया है। ।

कुछ इतिहासकार कहते हैं कि बलिराज गढ़ बंगाल के पाल राजाओं का किला हो सकता है । जबकि कुछ का कहना है कि यह मौर्यों का उत्तरी सुरक्षा किला भी हो सकता है। हालांकि कुछ इतिहासकार इसे मिथिला की प्राचीन राजधानी मानने से भी इंकार नहीं करते। इसकी वजह वो ये बताते हैं कि आज का जनकपुर(जो
नेपाल में स्थित है) काफी नयी जगह है और वहां के मंदिर बहुत हाल में, तकरीबन 18वीं सदीं में इंदौर की रानी दुर्गावती के समय बनाए गए थे और उसकी एतिहासिकता भी संदिग्ध है। बहरहाल, मुझे दस साल पहले की कहानी याद है जब वैशाली के एक सज्जन ने इस बावत मुझ से कहा था कि वाकई बलिराजगढ़, मिथिला की प्राचीन राजधानी है।

उन्होने ह्वेनसांग के पुस्तक का जिक्र करते हुए कहा जिसके मुताबिक पाटलिपुत्र से एक खास दूरी पर वैशाली है..और उससे एक खास दूरी पर काठमांडू है उसके बिल्कुल दक्षिण-पूर्वी दिशा में मिथिला की प्राचीन राजधानी है। आज का जनकपुर उस खास दूरी व दिशा में सही नहीं बैठता। पता नही ये बात कितनी सच है। इसके आलावा, रामायण में भी मिथिला की प्राचीन राजधानी के संदर्भ कुछ संकेत हैं। और वो भी इसी जगह को संकेत कर मिथिला की राजधानी बताते हैं।

सांसद भोगेन्द्र झा के मुताबिक, राजा बलि की राजधानी महाबलीपुरम हो सकती है जो  दक्षिण भारत में स्थित है। सबसे बड़ी बात है कि पूरे मिथिलांचल में इतना पुराना कोई किला नहीं है जो यहां कि प्राचीन राजधानी होने का दावेदार हो सके। किले के भीतर उबड़-खाबड़ जमीन है जो प्राचीन राजमहलों के जमीन के अंदर धंस जाने का प्रमाण है। यहां एक-आध जगह ही खुदाई की गई है और यहां कीमती धातु और सोनेचांदी की वस्तुएं मिली हैं।अगर कुछ और खुदाई की जाए तो कई रहस्यों से आवरण उठ जाएगा। सरकार की तरफ से कोई ठोस प्रयास ऐसा नहीं हो पाया है कि बलिराज गढ़ की प्राचीनता को दुनिया के सामने रखने की कोशिश की जाए।

एक सामान्य सी सड़क से इसे नजदीक के गांव खोजपुर से जोड़ दिया गया है और इतिश्री कर दी गई है। अगर, बलिराज गढ़ की खुदाई कायदे से की जाए और एक संग्रहालय बना दिया जाए तो काफी कुछ हो सकता है। मिथिलांचल के हृदय मे स्थित होने की वजह से यहां मिथिला पेंटिंग का भी कोई संस्थान और आर्ट गैलरी वगैरह बनाया जा सकता है। एक अच्छी सड़क के साथ आधुनिक विज्ञापन, बलिराज गढ़ को पर्यटकों की निगाह में ला सकता है और इस इलाके के पिछड़ेपन को दूर कर सकता है।

Saturday, April 19, 2008

क्या आप डॉ मुख्तार अंसारी को जानते हैं?

चौंक गए न...हम उस आदमी की बात नहीं कर रहे जिसके बारे में आप सोंच रहे हैं। जी हां, डॉ मुख्तार अंसारी भी उसी गाजीपुर में पैदा हुए थे जिस इलाके से 'मुख्तार अंसारी' ताल्लुक रखते हैं। आज गाजीपुर से उनके जुड़ाव के नाम पर जिला चिकित्सालय का नामकरण ही बचा है जो उन्हे और लोगों को गाजीपुरी होने पर गर्व की अनुभूति कराता है। डॉ मुख्तार अंसारी आजादी के लड़ाई में अगली कतार के नेता थे। उनका जन्म 25 दिसम्वर 1880 को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले में युसुफपुर-मोहमदावाद नामके गांव में हुआ था। अंसारी, जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे।उन्होने मद्रास मेडिकल कालेज से डिग्री लेने के बाद इंग्लैन्ड से एमएस और एमडी की डिग्री हासिल की। अपनी काबिलियत के बल पर उन्होने इग्लैंड के कई बड़े अस्पतालों में काम किया और वहां के स्वास्थ्य विभाग में ऊंचे अोहदे तक पहुंचे। एक भारतीय का ऊंचे पद पर जा पहुंचना वहां के तत्कालीन नस्लवादी समाज को रास नहीं आया और उनके खिलाफ हाउस अॉफ कामंस में मामला उठाया गया। ऐसा कहा जाता है कि वहां के तत्कालीन हेल्थ सेक्रेटरी ने संसद को बताया कि डॉ अंसारी की नियुक्ति इसलिए की गई कि उस समय उस पद के लिए उनसे काबिल कोई नहीं था। आज भी लंदन के केयरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में डॉ अंसारी के सम्मान में एक अंसारी वार्ड है । लेकिन हिंदुस्तान की गुलामी ने अंसारी के मन को विचलित कर दिया और अपनी एशो-आराम की जिंदगी छोड़कर वे वतन की राह में कुर्वान होने के लिए वापस चले आए।उन्होने कांग्रेस ज्वाइन किया और 1916 में हुए लखनऊ पैक्ट में अहम किरदार निभाया।वे कई दफा कांग्रेस महासचिव बने और और 1927 में तो वे कांग्रेस के अध्यक्ष बना दिए गए। जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना में डॉ अंसारी का अहम योगदान था और जामिया के स्थापना में मुख्य योगदान देने बाले डॉ अजमल खान की मौत के बाद डॉ अंसारी जामिया के वाइस चांसलर भी बने।
दिल्ली में डॉ अंसारी का दरियागंज के इलाके में अपना भव्य मकान था और महात्मा गांधी अक्सर उनके मेहमान होते थे। जाहिर है उनकी हवेली उस समय राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करती थी। आजादी के बाद सरकार ने उनके सम्मान में एक सड़क का नाम अंसारी रोड रखा है। डॉ अंसारी नई पीढ़ी के प्रगतिशील मुसलमानों में से थे जो इस्लाम की एक उदार तस्वीर दुनिया के सामने रख रहे थे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। वे बहुत ही कम उम्र में इस दुनिया से चले गए। सन् 1936 में मसूरी से दिल्ली आते समय हार्ट एटेक की वजह से ट्रेन में ही डॉ अंसारी की मौत हो गई। कितने संयोग की बात है कि डॉ अंसारी के ही उम्र के मुंशी प्रेमचंद भी थे( मुंशी जी का जन्म भी 1880 में ही हुआ था) और उनकी भी मौत भी 1936 में ही हुई। पुनर्जागरण का एक बड़ा सितारा समय से पहले बुझ गया-जिसकी शायद उस समय सबसे ज्यादा जरुरत थी।

डॉ अंसारी से कुछ और भी बातें जुड़ी है। वर्तमान उपराष्ट्रपति डॉ हामिद अंसारी भी उसी परिवार से ताल्लुक रखते हैं और बाहुवली सांसद मुख्तार अंसारी भी...जिसमें डॉ अंसारी पैदा हुए थे। दरअसल, गाजीपुर-आजमगढ़ में मुगलों के जमाने से ही(जानकारों का कहना है कि मुगलसराय का नाम मुगल सेना की छावनी बनने की वजह से ही रखा गया जो उस रास्ते अक्सर बंगाल जाया करती थी) या उससे पहले सल्तनत काल में ही मुसलमान सिपहसलारों की कुछ जागीरें थी। और उन्ही परिवारों में से कई प्रगतिशील मुस्लिम चेहरे बाद में उभरकर सामने आए..जिसमें डॉ अंसारी भी एक थे।
आज की पीढ़ी डॉ मुख्तार अंसारी को नहीं जानती। वो तो उस मुख्तार अंसारी को जानती है जो बाहुवली सांसद है और टेलिविजन पर्दे पर किसी रॉविनहुड सा चमकता है। अगर आप नामके पीछे डॉ भी लगाएंगे तो भी यह पीढ़ी नहीं समझ पाएगी क्योंकि पीएचडी करना अब बहुत 'आसान' हो गया है।

Friday, April 18, 2008

छोटा शहर..बड़ा शहर..

मुहल्ले पर नीलेश जी ने छोटे शहर से खत लिखकर सिर्फ हमारे भावनात्मक तंतु को ही नहीं छेड़ा है...बल्कि यह तो एक पूरा विमर्श है जो अभी तक सही ढंग से मीडीया में पल्लवित नहीं हो पाया है। हिंदी मीडीया में तो खैर इस विषय पर बहुत ही कम लिखा गया है, अंग्रेजी में भी जब कुछ आता है तो वह बस तुलनात्मक अध्ययन होता है .या फिर छोटे शहरों के बच्चों की उपलव्धियों पर आश्चर्य जताया जाता है मानो वे उस एलीट कल्व में कैसे आ गए..जो बरसों से महानगरीय नौनिहालों की बपौती था। अक्सर छोटे शहरों से आनेबालों को जाहिल या संकीर्ण मानसिकता का समझ लिया जाता है..जिन्हे बोलने, चलने, पहनने और खाने के मैनर्स भी सीखने होते हैं..। बड़े शहरों में आनेबाले पहली पीढ़ी के लोगों के लिए ये इंटर्नशिप जिंदगी भर चलती रहती है। और ऐसे में रह-रह कर अपने शहर की याद आ ही जाती है..। लेकिन सवाल कहीं ज्यादा बड़ा है-आधुनिक सभ्यता और तेज रफ्तार विकास के नाम पर महानगरों का होना और उसमें रहना गौरव की बात मानी जाने लगी है...और एक ही तरह के सोंच, व्यवहार, और जीवनशैली यहां की अनिवार्यता है...और सतरंगी संस्कृति,वहुभाषी-वहुनस्लीय समाज की बात पीछे छूट जाती है..जो कुछ भी है वह 'मुख्यधारा' के लिए है..और उसे मुख्यधारा में विलुप्त हो जाना है। यह मुख्यधारा पूरी दुनियां के संदर्भ में अमरीकन सभ्यता हो सकती है..और भारत के संदर्भ में इसकी मुकम्मल तस्वीर अभी तक सामने नहीं आई है. हलांकि कुछ जानकार लोग इसे हिंदीभाषियों के लिए पंजाबी कल्चर का सांस्कृतिक फैलाव कहने लगे हैं-जो धारावाहिकों, मुम्वैया सिनेमा और अनेकानेक सांस्कृतिक दूतों के बदौलत सुदूर गांवों तक में अपना प्रभाव दिखा रहा है..जहां करबा चौथ तो दरभंगा तक पहुंच गया है--लेकिन कई पुराने रश्मो-रिवाज ऑउटडेटेड होते जा रहे हैं। ऐसे में बड़े शहर की अवधारणा निश्चय ही, उसकी विशालता और आर्थिक विकास से आगे तक का है-यह तो एक विचार है जो दुनियां में जो कुछ भी छोटा है उसे निगल कर एकरुप बना डालना चाहता है। एक तरफ तो इस 'मेल्टिंग पॉट' में सब कुछ अच्छा लगता है जहां सामाजिक समानता है, आपके विचारों का(माफ कीजिए-सिर्फ नए विचारों का,जिसका व्यवसायिक उपयोग हो सके) स्वागत है और तरक्की करने की आजादी है..लेकिन साथ ही आपके निजी मूल्यों और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों पर निरंतर मुख्यधारा में शामिल होने का दवाव होता है और हमले होते हैं। तो फिर चारा क्या है...महानगरों के उलट विकास की धारा बहाई जा सकती है..?.छोटे शहरों को सुबिधासंपन्न नहीं बनाया जा सकता? दो-दो करोड़ के दस महानगर के उलट 1-1 लाख के एक हजार शहर क्यों नहीं हैं.. जहां एक साथ कई आकांक्षाएं जी सके?लेकिन क्या मुख्यधारा ऐसा होने देगी जिसका सत्ता से लेकर आवारा पूंजी और संचार के साधनों से लेकर कला और वैचारिक संस्थानों तक पर कब्जा है? ऐसा लगता है कि सदियों के अपने अनुभव से सोशल और पोलिटिकल एलीट ने यह सीख लिया है कि बिखरे हुए आवादी पर शासन करना और उन्हें अपना बाजार बनाना बहुत मुश्किल भरा काम है-इसलिए पूरी दुनियां में ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं कि आवादी को एक ही जगह बसा दिया जाए। (इसका एक छोटा सा उदाहरण है छत्तीसगढ़ का सलबा जुडूम जहां आदिवासियों को एक जगह बसाने की कवाय़द जारी है)..ऐसे में लगता है कि छोटा शहर ही लोकतंत्र है..और बनारस के घाट व पटना का रेलवे स्टेशन..अंसल प्लाजा से ज्यादा चमकदार है। लेकिन मैं ऐसा क्यों सोंचता हूं..? सिर्फ इसलिए की मैं छोटे शहर से आया हूं?